सदियाँ बीत गई लेकिन समाज को हर समय संतों-महापुरुषों की आवश्यकता रही है। संतों का समागम समाज में रहने वाले प्राणीमात्र को संतुलित जीवन जीने के लिए आवश्यक होता है। व्यक्तिगत जीवन में ही नही अपितु सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी विकृतियों का नाश करने में, सच्चा मार्ग बताने में, अपने अस्तित्व एवं चेतनत्व के प्रति जागरूक करने में संतों की अहं भूमिका रही है। व्यक्तिगत संरक्षण के साथ सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण करने में भी सिर्पक और सिर्पक संत समुदाय ही एकमात्र सशक्त माध्यम है, जिनकी प्रेरणा से सुप्त समाज में जागृति आती है। वर्तमान दौर में धर्म संरक्षण की शृंखला में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का योगदान विशेष सराहनीय रहा है। कुण्डलपुर भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि है। इस बात में कोई विवाद या संशय की स्थिति बनना ही अपने आप में लज्जा की बात है और यदि ऐसी स्थिति बन भी जाती है तो इस सोते हुए समाज द्वारा गलत के प्रति खंडन का आह्वान नहीं छेड़ना उससे भी अधिक लज्जा का विषय बन जाता है। पूज्य ज्ञानमती माताजी की एक पुकार ने समाज के अधिकांश हिस्से को सच के प्रति मोड़ा और एक तरह से जन समर्थन और सामाजिक एकजुटता ने माताजी की प्रेरणा पर भगवान महावीर की जन्मभूमि को विकसित कर कुण्डलपुर की भूमि को नया स्वरूप प्रदान किया, जो आने वाले सैकड़ों बरसों तक संस्कृति के संरक्षण की याद दिलाता रहेगा। इससे आने वाली पीढ़ी को भी यह प्रेरणा मिलती रहेगी कि कभी किसी समय में ज्ञानमती माताजी के दृढ़ निश्चयमयी आह्वान पर हिन्दुस्तान की दिगम्बर जैन समाज ने संस्कृति के संरक्षण में एकजुट होकर योगदान दिया था और सैकड़ों वर्षों के लिए धर्म की पताका को और संस्कृति के संरक्षण को अमर बनाया था। हमें भी इसी तरह देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। यह वही कुण्डलपुर की धरती है जहाँ पर प्रभु महावीर ने जन्म लिया, उसकी धूलि में खेल कर अपना बचपन बिताया और स्वयं भगवान बनकर उस धूलि को भी गौरवशाली बना दिया। ऐसी गौरवशाली धूलि में माताजी के चरण पड़े और ये धूलि स्वयमेव बोल उठी और देखते ही देखते मात्र डेढ़ वर्ष की अल्पावधि में अनसोचे भव्य निर्माण ने यहाँ अपना साकाररूप लिया, जिसे देखकर आसपास के ग्रामवासियों एवं भारतवर्ष से आने वाले तीर्थयात्रियों की आँखें खुली की खुली रह जाती हैं और शब्द यही निकलते हैं कि ज्ञानमती माताजी सचमुच इस सृष्टि का ऐसा अवतार हैं जो सतत धर्मसाधना के साथ, आत्मकल्याण के साथ समाज के लिए भी ऐसी अमिट कृतियों और धरोहर को उपहार स्वरूप दे रही हैं, जिन्हें शायद न कोई दे पाता और न भविष्य में दे पाए। यहाँ आकर भक्तों की भक्ति मानो भगवान महावीर के प्रति उनके हृदय से फूट पड़ती हो और जिसकी जैसी भावना और परिस्थिति हो भरसक कोशिश करता है कि इस तीर्थ के विकास के साथ मेरा भी कहीं नाम जुड़ जाये। और इन्हीं भावनाओं के साथ श्रद्धालु अपना तन-मन-धन से पूर्ण सहयोग एवं समर्थन प्रदान करते हैं। ऐसा लगता है कि इस भूमि के आकाशमंडल की तरंगों में छिपी कोई अद्भुत शक्ति ने भक्तों पर कोई ऐसा सम्यक् जादू कर दिया हो कि सम्पूर्ण समाज का आर्थिक और सामाजिक सहयोग एक बंद मुट्ठी की तरह संगठित एवं आकर्षित हो गया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर की माटी का पुण्य और उसकी पवित्रता ने दुनिया के सामने सिर चढ़कर बोला हो कि भगवान महावीर का जन्म इस कुण्डलपुर (नालंदा) की धरा पर ही हुआ था। स्वयं इस धूलि द्वारा शक्तिरूप से सच को उजागर करने का प्रयास दैविक ही लगता है। ऐसी पवित्र रज को मैं श्रद्धा के साथ अपने माथे पर लगाता हूँ। सौभाग्य से माताजी के चरण सानिध्य में मुझे रहने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उनके नजदीक रहा या उनसे दूर रहा, लेकिन जब-जब भी उनके मुखमंडल से विकरित होती रोशन किरणों की तरफ मेरा ध्यान एकाग्र होता, तो यही महसूस होता कि मानो मेरी अन्तर्रात्मा ने किसी पवित्र और धवल स्वरूपी सुगंधित जल से न्हवन किया हो। माताजी का व्यक्तित्व इस क्षितिज पर अपने आप में एक विशेष अवगाहना रखता है। किसी भी विषय में सही विचार-विमर्श के बाद त्वरित निर्णय लेने की क्षमता, पल-पल के समय की महत्ता के साथ कार्य में व्यस्तता, दूरदर्शिता और भगवान के प्रति रोम-रोम में बसी सच्ची श्रद्धा-भक्ति और समर्पण ही उनके सफल जीवन की पहचानरूप में स्थापित नजर आते हैं। तीर्थ निर्माण हो या कोई और निर्माण हो भूमि की सबसे पहली आवश्यकता होती है और भूमि खरीदने के पहले ही किसी तीर्थ के निर्माण की घोषणा कर देना, उसके कार्यक्रम की शुभ मुहुर्त और तिथियों की घोषणा कर देना और घोषणानुसार ही जमीन खरीदकर तीर्थ का निर्माण और प्रतिष्ठा आदि सम्पन्न होकर तीर्थ को एक जीवन्त स्वरूप मिल जाना किसी साधारण व्यक्तित्व के बूते की बात तो नहीं लगती है। ये सिर्पक ज्ञानमती माताजी के दिव्य व्यक्तित्व का प्रतीक है। ऐसी पूज्य माताजी के चरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन अर्पित है। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी जो कि पूज्य माताजी के साथ में बाल्यकाल से आज पर्यंत एक छाया के रूप में सम्पूर्ण समर्पण भाव के साथ दिव्य दृष्टि को रखते हुए अपने आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हैं और जो पूज्य माताजी की आज्ञानुसार, उनकी भावनानुसार एवं उनकी अनुकूलतानुसार उनके चरणों में हमेशा सेवा करती रहती हैं। ऐसी आर्यिका माता को भी मेरा शत-शत नमन। इसी तरह कर्मठ और समर्पित पीठाधीश क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी महाराज को भी मेरा नमन। आज की महती आवश्यकता ऐसे तीर्थों का विकास करने की ही है जो या तो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में चरमरा रहे हैं या भ्रान्तियों के वशीभूत होकर जिन तीर्थों की सत्ता के ही खोने का डर है। जैन समुदाय हमेशा से आत्मनिर्भर रहा है, हमारे धर्म का विकास करना, जैन ऐतिहासिक धरोहर का संरक्षण करना हमारा परम कत्र्तव्य है, हमारी धरोहर का संरक्षण हमें ही करना है। आज तक हमने अपने तीर्थों का विकास अथवा कोई भी धार्मिक गतिविधि जैनों के अतिरिक्त अन्य सरकारी आदि किसी मदद से पूर्ण नहीं की है। अतएव आज हमारी स्थिति को समझने में स्वयं ही कठिन परिश्रम के साथ अपना अस्तित्व संभालना होगा। इस महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर विकास के समापन अवसर पर भगवान महावीर एवं पूज्य माताजी के चरणों में मेरा शत-शत नमन।