वास्तु शास्त्र में दिशाओं को भी सुदृढ़ तर्कों के आधार पर धर्म से जोड़ा गया है। इन सभी दिशाओं की अपनी विशेषता और महत्त्व है।
उदाहरणार्थ—पूर्व दिशा से सूर्य उदित होता है अत: सूर्योपासना में पूर्व का महत्त्व है। वास्तु शास्त्र में सूर्य की जीवनदायिनी ऊर्जा के कारण ही पूर्व दिशा को प्रधानता दी गई है। लाखों वर्ष पहले ही ऋषि-मुनियों ने पूर्व दिशा में उपासना करना श्रेष्ठ बताया था, जिस पर वास्तु शास्त्र ने अपने नियम बनाए। वास्तु शास्त्र पंच तत्वों एवं दिशाओं पर आधारित है, कहते हैं कि दिशाएँ दशा बदल देती हैं। सो वह काफी हद तक ठीक है और इसी सूत्र पर पूरा वास्तु शास्त्र आधारित है। बहुत से लोगों ने जब वास्तु अनुसार अपने घर में परिवर्तन किया तो उनको अपार सफलता मिली, पूर्व में आ रही समस्याओं से मुक्ति भी मिली। अरुणोदय या सूर्योदय होने वाली दिशा को पूर्व कहा जाता है। विभिन्न वास्तु ग्रंथों में इसके लिए प्राक्, प्राची आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
पूर्व –पूर्व दिशा पितृ स्थान की सूचक है। ऐसा माना गया है कि पितरों की उपासना इसी दिशा की ओर मुंह करके की जानी चाहिए। अग्नि तत्व भी पूर्व दिशा द्वारा प्रभावित होता है। इस दिशा के स्वामी इंद्र हैं। पूर्व दिशा सूर्य की ओजस्वी किरणों का प्रवेश द्वार है अत: वास्तु निर्माण में इस दिशा को सदैव खाली छोड़कर किरणों को स्वतन्त्र रूप से प्रविष्ट होने का मार्ग दिया जाना चाहिए।
पश्चिम-पश्चिम वह दिशा है, जहाँ सायंकाल सूर्यास्त होता है। वरूण या वायु को इस दिशा का अधिष्ठाता माना गया है अत: यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है। पश्चिम दिशा को सुख एवं समृद्धिदायी कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि वायु चंचल और चलायमान है अत: जिस घर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में होता है, उस घर के निवासी प्रसन्नचित्त तथा विनोदप्रिय होते हैं। यह दिशा प्राय: अपना सामान्य प्रभाव ही दिखाती है।
उत्तर- प्रात:काल सूर्य की ओर मुख करके खड़े होने पर ठीक बाएं हाथ की ओर जो दिशा होती है, वह उत्तर है। इसी दिशा में रात्रिकाल ध्रुव तारा दिखाई देता है। यह मातृ-भाव को व्यक्त करने वाली आँखे हैं। जल तत्त्व को इसी दिशा में स्थान मिलना चाहिए। उत्तरमुखी भवन में सदा लक्ष्मी की कृपादृष्टि बनी रहती है, जो जीवन को धन-धान्य एवं सुख-सम्पत्ति से भर देती है। उत्तर दिशा में लक्ष्मी का स्थिर होना इसलिए माना गया है क्योंकि ध्रुव तारा भी इसी दिशा में स्थिर है। भवन में सदैव उत्तर दिशा से प्रकाश के आगमन का स्थान रखना चाहिए।
दक्षिण- दक्षिण वह दिशा है, जो सूर्योदय के समय सूर्य की ओर मुख करने पर दाएं हाथ की ओर हो। यह उत्तर दिशा के ठीक विपरीत होती है। दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्व को व्याप्त माना गया है। यम की स्वामित्व वाली इस दिशा को मुक्तिकारक कहा गया है। दक्षिण मुखी प्रवेश द्वार वाले भवनस्वामी की प्रकृति में धैर्य तथा स्थिरता का विशेष स्थान रहता है। इस दिशा के बारे में अनेक ग्रंथों में कुछ शुभ और अशुभ लक्षणों की बात कही गई है।
ईशान- ईशान एक विदिशा है अर्थात् दो दिशाओं (उत्तर पूर्व) से निर्मित कोण है। यह चारों कोणों में सर्वाधिक पवित्र है अतएव इसे आराधना, साधना, विद्यार्जन, लेखन एवं साहित्यिक गतिविधियों हेतु शुभ माना गया है। यह कोण मनुष्य को बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य तथा साहस प्रदान करके सभी कष्टों से मुक्ति दिलाता है। इतने पूजनीय कोण को सदा पावन एवं स्वच्छ अवस्था में रखा जाना चाहिए।
आग्नेय- दक्षिण-पूर्व दिशाओं का मिलाने वाला कोण आग्नेय कहलाता है। यह स्वास्थ्यप्रदाता है। इस विदिशा में अग्नि तत्व को स्थिर माना गया है। इसका कारण है कि यह कोण पूर्व एवं दक्षिण के ठीक मध्य में स्थित है। यदि भवन के आग्नेय कोण में गंदगी या दूषित पदार्थों का अस्तित्व हो तो वहाँ के लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस कोण में बिजली के उपकरणों तथा लोहे के सामानों को स्थान दिया जाना चाहिए। यदि इन सावधानियों को दृष्टिगत न रखा जाए तो अग्नि द्वारा भीषण हानि होने की संभावना बनी रहती है।
नैऋत्य- नैॠत्य दक्षिण एवं पश्चिम दिशा को मिलाने वाला कोण है। यह विदिशा शत्रुओं का नाश करती है। इसका स्वामी राक्षस है। कई बार इस दिशा के कारण मनुष्य असमय काल का ग्रास बन जाता है। यदि आवासीय भवन में नैऋत्य कोण को दूषित रखा जाए तो उसमें रहने वाले मनुष्यों का चरित्र दूषित होता है तथा शत्रु पक्ष प्रबल रहता है। इस विदिशा के प्रभाव से ही भवन पर भूत-प्रेत आदि की छाया बनी रहती है। इन सभी दुष्प्रभावों के कारण मनुष्य आकस्मिक संकटों के जाल में फंसा रहता है।
वायव्य- वायव्य का तात्पर्य उस कोण से है, जो उत्तर और पश्चिम दिशा को मिलता है। वायव्य कोण के प्रभाव अत्यन्त शुभ फलदायी होते हैं। यह मनुष्य को दीर्घायु, स्वास्थ्य तथा शक्ति प्रदान करता है। इस विदिशा में हमेशा शुद्धता रहनी चाहिए। यदि यह किसी कारणवश दूषित हो जाए तो अपने विपरीत प्रभावों से भवन के निवासियों को पीड़ा पहुँचाती है। ऐसे में मित्र भी शत्रुवत् व्यवहार करने लगते हैं। शक्ति-सामर्थ्य का असयम ह्रास होता है। यह सब इस कारण होता है क्योंकि घर का मुखिया अहंकारी हो जाता है। उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है।
किस दिशा में क्या होना चाहिये
पूर्व एवं उत्तर की दिशा हल्की होती है एवं दक्षिण-पश्चिम की दिशा भारी होती है, जमीन का ढाल एवं निर्माण उत्तर-पूर्व की तरफ नीचा होना चाहिए एवं दक्षिण व पश्चिम की तरफ ऊँचा होना चाहिए। किसी भी घर में, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, एक देवस्थान का होना नितांत अनिवार्य है और यह देव स्थान सदैव उत्तर-पूर्वी कोण पर होना चाहिए। इस कोण को ईशान कोण भी कहते हैं, यह क्षेत्र जल के लिए भी है अत: इस क्षेत्र में जलाशय, जल संचय इत्यादि इकाइयाँ बनाई जा सकती हैं। ड्राइंग रूम में इसी कोण पर फिश-एक्वेरियम रखे जाने चाहिए। घर का दक्षिण-पूर्व क्षेत्र आग्नेय कोण कहलाता है। इस क्षेत्र में रसोईघर का निर्माण शुभ है। यदि एक या दो कमरे की ही इकाई हो तो भी रसोई सम्बन्धी कार्य इसी कोण पर होना चाहिए। किसी कारण से यदि इस क्षेत्र में रसोई न रखी जा सके, तब उत्तर-पश्चिम कोण पर उसे रखना चाहिए। इसी प्रकार ईशान कोण पर अग्नि सम्बन्धित क्षेत्र नहीं होना चाहिए। कमरों में आग्नेय अथवा उत्तर-पश्चिम कोणों में बिजली के स्विच बोर्ड, टीवी आदि का रखा जाना श्रेष्ठ है। घर का उत्तर-पश्चिम क्षेत्र वायव्य कोण कहलाता है। इसका खुला होना श्रेष्ठ है अत: खिड़कियों एवं बॉलकनियों के लिए शुभ है। ड्राइंग रूम अथवा अन्य कमरों में इसी क्षेत्र पर पंखे, कूलर आदि लगाना श्रेष्ठ है। घर का दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र नैऋत्य कोण कहलाता है। यह खुला हुआ न रहे अथवा इस तरफ बहुत ही जरूरी हो तो कम खुला रखें, इस क्षेत्र में जितना अधिक वजन होगा, उतना ही शुभ है। पुन: ईशान कोण पर वजन का न होना शुभ है। बहुत जरूरी होने पर मूल ईशान्य कोण को छोड़ते हुए बहुत ही हल्के सामान/पवित्र पदार्थ ही इस क्षेत्र में रखने चाहिए। घर का केन्द्र और इसी प्रकार प्रत्येक कमरे का केन्द्र सदैव खाली रहना चाहिए। यह ब्रह्म स्थान कहलाता है, पुन: सम्पूर्ण इकाई का मूल ब्रह्म स्थान दबा हुआ न हो तथा वह सदैव स्वच्छ रहे। मुख्य कक्ष (गृह के मुखिया का शयन कक्ष) नैऋत्य क्षेत्र में होना चाहिए। चाहे फिर वह इकाई एक कमरे की ही क्यों न हो। बच्चों का शयनकक्ष पूर्व क्षेत्र में और उनका अध्ययन कक्ष ईशान क्षेत्र में होना शुभ है। कुंआरी लड़कियों का शयन वायव्य क्षेत्र में होना शुभ है। इस प्रकार इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर एक छोटा सा मकान भी बंगला बने न्यारा की तर्ज पर ही श्री और कीर्ति को प्रदान करने वाला साबित हो सकता है।