श्री कुंदकुंदस्वामी दु:खों से छुटकारा चाहने वाले पुरुषों को मुनिपद ग्रहण करने की प्रेरणा करते हैं-
एवं पणमिय सिद्धे, जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे।
पडिवज्जद सामण्णं, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं।।१।।
हे भव्यजीवों! यदि आप लोग दु:खों से छुटकारा चाहते हैं तो इस प्रकार सिद्धों को, जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकर अर्हन्तों को और आचार्योपाध्याय सर्व साधुरूप मुनियों को बार-बार प्रणाम कर मुनिपद को प्राप्त करें।।१।। मुनि होने का इच्छुक पुरुष पहले क्या करे, यह उपदेश देते हैं-
आपिच्छ बंधुवग्गं, विमोइदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं।
आसिज्ज णाणदंसण, चरित्ततववीरियायारं।।२।।
समणं गणिं गुणड्ढं, कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं।
समणेहि तं पि पणदो, पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो।।३।।
जो मुनि होना चाहता है वह सर्वप्रथम अपने बंधुवर्ग से पूछकर गुरु, स्त्री तथा पुत्रों से छुटकारा प्राप्त करे फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों को प्राप्त हुए ऐसे आचार्य के पास पहुँचे जो कि अनेक गुणों से सहित हों, कुल, रूप तथा अवस्था से विशिष्ट हों और अन्य मुनि जिसे अत्यन्त चाहते हों। उनके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करता हुआ यह कहे कि हे प्रभो! मुझे अंगीकार कीजिए। अनंतर उनके द्वारा अनुगृहीत होकर निम्नांकित भावना प्रकट करें।।२-३।।
णाहं होमि परेसिं, ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि।
इदि णिच्छिदो जिदिंदो, जादो जधजादरूवधरो।।४।।
‘मैं दूसरों का नहीं हूँ, दूसरे मेरे नहीं हैं और न इस लोक में मेरा कुछ है।’ इस प्रकार निश्चित होकर जितेन्द्रिय होता हुआ सद्योजात बालक के समान दिगम्बर रूप को धारण करे।।४।। आगे सिद्धि के लिए कारणभूत बाह्य लिंग और अंतरंग लिंग इन दो लिंगों का वर्णन करते हैं-
जधजादरूवजादं, उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं।
रहितं हिंसादीदो,अपडिकम्मं हवदि लिंगं।।५।।
मुच्छारंभविजुत्तं, जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं।
लिंगं ण परावेक्खं, अपुणब्भवकारणं जोण्हं।।६।।जुगलं।।
जो सद्योजात बालक के समान निर्विकार निग्र्रंथ रूप के धारण करने से उत्पन्न होता है, जिसमें शिर तथा दाढ़ी-मूँछ के बाल उखाड़ दिये जाते हैं, जो शुद्ध है-निर्विकार है, हिंसादि पापों से रहित है और शरीर की संभाल तथा सजावट से रहित है वह बाह्य लिंग है तथा जो मूच्र्छा-परपदार्थ में ममता परिणाम और आरंभ से रहित है, उपयोग और योग की शुद्धि से सहित है, पर की अपेक्षा से दूर है एवं मोक्ष का कारण है वह श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ अंतरंग लिंग-भावलिंग है। जैनागम में बहिरंग लिंग और अंतरंग लिंग-दोनों ही लिंग परस्पर सापेक्ष रहकर ही कार्य के साधक बतलाये हैं। अंतरंग लिंग के बिना बहिरंग केवल नट के समान वेष मात्र है, उससे आत्मा का कुछ भी कल्याण साध्य नहीं है और बहिरंग लिंग के बिना अंतरंग लिंग का होना संभव नहीं है क्योंकि जब तक बाह्य परिग्रह का त्याग होकर यथार्थ निग्र्रंथ अवस्था प्रगट नहीं हो जाती, तब तक मूच्र्छा या आरंभ रूप आभ्यंतर परिग्रह का त्याग नहीं हो सकता और जब तक हिंसादि पापों का भाव तथा शरीरासक्ति का भाव दूर नहीं हो जाता, तब तक उपयोग और योग की शुद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार उक्त दोनों लिंग ही अपुनर्भव-फिर से जन्म धारण नहीं करना अर्थात् मोक्ष के कारण हैं।।५-६।। आगे श्रमण कौन होता है ? यह कहते हैं-
आदाय तं पि लिंगं, गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता।
सोच्चा सवयं किरियं, उवट्ठिदो होदि सो समणो१।।७।।
जो अर्हंत परमेश्वर अथवा दीक्षागुरु से पूर्वोक्त दोनों लिंगों को ग्रहण कर उन्हें नमस्कार करता है और व्रतरहित आचारविधि को सुनकर शुद्ध आत्मस्वरूप में उपस्थित रहता है, अपने उपयोग को अन्य पदार्थों से हटाकर शुद्ध आत्मस्वरूप के चिंतन में लीन रहता है, वह श्रमण होता है।।७।।