जैनधर्म के अनुसार संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मानव के २८ मूलगुण अथवा ११ प्रतिमारूप सकलसंयम या देशसंयम ग्रहण करने का नाम ‘दीक्षा’ है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी है-
मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
अर्थ-मोहरूपी अंधकार के नष्ट हो जाने पर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करके साधुजन राग-द्वेष की निवृत्ति से सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् अनंत संसार को वृद्धिंगत करने वाली मोह मदिरा को पीकर यह जीव अनादिकाल से संसार की चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है।
आत्मकल्याण के इच्छुक वही जीव जब मिथ्यात्वयुक्त मोह को घटाकर सम्यक्त्व क्रियाओं सहित चारित्र को गुरु के समीप धारण करते हैं, तब दीक्षा की प्रक्रिया आरंभ होती है। व्यवहारिक दृष्टि से जिस प्रकार विवाहोपरान्त कन्या और वर का जीवन पूर्णरूपेण गृहस्थ धर्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के करकमलों से मुनि-आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका रूप व्रतों को धारण करने पर यतिधर्म के रूप में मानव जीव का आमूल चूल परिवर्तन होता है। एक वैराग्य अष्टक में मैंने लिखा है-
दीक्षा का अर्थ न केवल वेष परावर्तन कहलाता है।
इस परिवर्तन के साथ भाव परिवर्तन भी हो जाता है।।
आतमज्योति का दीप जले पशुता का भाव क्षपण होता।
वह दानक्षपण से सहित भाव ही दीक्षा का मतलब होता।।१।।
अपने दीक्षित परिणामों को मैं सदा-सदा स्मरण करूँ।
यदि किंचित विकृति हो मन में उस ही क्षण का संस्मरण करूँ।।
कलिकाल का यह अभ्यास मेरा परभव में मुक्ति दिलाएगा।
भव भव का यह पुरुषार्थ मेरा फिर व्यर्थ कभी ना जाएगा।।२।।
अर्थात् वेष परिवर्तन के साथ-साथ मन का परिवर्तन होकर भावों में परम शुद्धता आती है और सिरमुण्डन-केशलोंच के साथ मन का मुण्डन भी होता है, इन्द्रियों को वश में किया जाता है एवं वस्त्र त्याग के साथ-साथ विकारों को पूर्णरूपेण हटाया जाता है।
दिगम्बर जैन परम्परा की दीक्षा में दीक्षार्थी स्त्री-पुरुष के वैराग्य परिणामों की परीक्षा करके गुरू सर्वप्रथम उनका केशलोंच करते हैं पुन: मस्तक पर मूलगुणों के संस्कार आरोपित कर उन्हें पूज्य बनाते हैं। मुनि-आर्यिकाओं के वे २८ मूलगुण श्री गौतम स्वामी के शब्दों में-
वदसमिदिंदिय रोधो, लोचो आवासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदन्तवणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च।।
५ महाव्रत, ५ समिति, पंचेन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक (समता-स्तव-वंदना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान-कायोत्सर्ग), केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त (एक बार भोजन) ये अट्ठाईस मूलगुण मुख्यरूप से मुनियों के होते हैं।
इनमें से आर्यिकाओं के आचेलक्य-निर्वस्त्र के स्थान पर एक साड़ी पहनने का विधान है तथा स्थितिभोजन-खड़े होकर करपात्र में भोजन करने की जगह बैठकर करपात्र में भोजन ग्रहण करना ही उनका मूलगुण है
इसीलिए चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी की गुरु परम्परानुसार आर्यिकाओं के भी मुनियों के समान ही २८ मूलगुण माने जाते हैं तथा उन्हें मुनियों के समान ही दीक्षाविधि से दीक्षित करके प्रायश्चित्तादि एक समान प्रदान किया जाता है, जबकि क्षुल्लक-क्षुल्लिका की दीक्षाविधि बिल्कुल भिन्न होती है। दीक्षा की परिभाषा बताते हुए एक नीतिकार ने कहा है-
दीयते ज्ञानसद्भावं, क्षीयते पशुभावना।
दानक्षपणभावेन, दीक्षा तेनैव उच्यते।।
अर्थात् दी और क्षा इन दो शब्दों के द्वारा ज्ञान के सद्भाव का आदान-प्रदान एवं पशुत्व भावना का क्षपण होकर ‘‘दीक्षा’’ का अर्थ स्पष्ट और सार्थक हो जाता है। इसमें सिर मुंडन-केशलोंच के साथ-साथ मन और इन्द्रियों का भी मुण्डन-निग्रह होता है। ऐसी सम्यक् दीक्षा से दीक्षित साधुओं के लिए सागारधर्मामृत में वर्णन आया है-
अर्थात् इस कलिकालरूपी वर्षाऋतु में जब दिशाएं मिथ्यादृष्टियों रूपी काली घटाओं से आच्छन्न (व्याप्त) हैं, ऐसी स्थिति में खेद है कि जिनमुद्रा के धारक साधु जुगनू के समान कहीं-कहीं प्रकाशित होते हैं। किन्तु यह कलिकाल भी किसी अपेक्षा से पुण्यशाली है कि आज लगभग ग्यारह सौ साधु-साध्वियों का विचरण पूरे देश में हो रहा है।
इसी शृँखला में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा को सुवासित एवं वृद्धिंगत करने वाली पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान साधु जगत् की प्रकाशस्तंभ हैं-
किनके हुए इसी दीक्षा के, पूरे वर्ष पचास
जब सारा संसार भौतिकता की चकाचौंध में निमग्न था। भारत देश भी परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति पाने के लौह प्रयास में रत था। न जाने कितने वीर सैनिक-वीरांगना बालाएं तथा उनके परिवार अपने देश की स्वतंत्रता हेतु बलिदानी शक्ति का परिचय दे रहे थे।
ऐसे संक्रमण काल में सन् १९३४ में २२ अक्टूबर (शरदपूर्णिमा) का दिन जैन समाज और भारतीय संस्कृति के लिए एक ऐतिहासिक दिवस के रूप में सिद्ध हुआ, जब टिकैतनगर (जि.-बाराबंकी, उ.प्र.) में दिगम्बर जैन अग्रवाल जातीय गोयल गोत्रीय परिवार में एक देवीस्वरूपा कन्यारत्न ने जन्म लेकर देश के स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ नारी स्वतंत्रता का अभियान चलाया।
पिता छोटेलाल एवं माता मोहिनी की मातृत्व को धन्य करने वाली उस ‘‘मैना’’ नाम की कन्या ने पूर्व जन्म के धार्मिक संस्कार एवं माँ को दहेज में प्राप्त ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ के स्वाध्याय से उत्पन्न वैराग्य के कारण १८ वर्ष की अल्प आयु में सन् १९५२ की शरदपूर्णिमा को भारतगौरव आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज से सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर घर का त्याग कर दिया,
पुन: सन् १९५३ में चैत्र कृ. एकम को श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर क्षुल्लिका दीक्षा लेकर सन् १९५३-५४ व ५५ के तीन चातुर्मास क्रमश: टिकैतनगर, जयपुर और म्हसवड़ (महाराष्ट्र) में सम्पन्न किए। पुन: चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के आदेशानुसार उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर महाराज से माधोराजपुरा (राज.) में वैशाख कृष्णा २ को आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।
यही दीक्षा बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के लिए वरदान बन गई क्योंकि शताब्दी की प्रथम क्वाँरी कन्या के रूप में आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने दीक्षा का सूत्रपात कर दिया, फिर तो सैकड़ों-हजारों कन्याओं के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। उनके इस त्यागमयी उपकार को साधु समूह कभी भी विस्मृत नहीं कर सकता।
उस आर्यिका दीक्षा के भी ५० वर्ष पूर्ण करने वाली वे वर्तमान की एक मात्र गणिनीप्रमुख मातुश्री हैं इसीलिए उनका ‘‘दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव’’ हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। ब्रह्मचर्य की अखण्ड साधना से प्राप्त हुआ है चमत्कारिक प्रभाव-जब एक सद्गृहस्थ के शीलव्रत मात्र के पालन से अग्नि जल में और शूली सिंहासन में परिवर्तित हो जाती है तो पूर्ण ब्रह्मचर्य के धारी साधु-साध्वियों में यदि अतिशय प्रगट हो जाता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
उस ब्रह्मचर्य महाव्रत की अखण्ड साधना करके जिन्होंने ७९ वर्षीय जीवन को स्वर्णिम आभा से परिपूर्ण कर लिया है इसीलिए उनके आशीर्वाद एवं कार्यकलापों में अतिशय चमत्कार प्रकट हो गया है। इस चमत्कार के समक्ष प्रत्येक प्राणी निष्पक्ष भाव से नतमस्तक होता है।
यह सत्य है कि १०० करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले भारत देश में जैन समाज की संख्या वर्तमान में अति अल्प है किन्तु उसकी आध्यात्मिक देन के रूप में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत एवं ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त आज भी पूरे विश्व के लिए प्रेरणास्रोत हैं। जैन रामायण के अनुसार तो साधु-संतों की तपस्या का छठा भाग पुण्य देश के राजा को भी प्राप्त होता है, जिससे राजा को न्यायपूर्वक राज्यव्यवस्था संचालित करने का बल प्राप्त होता है।
जैसे कोई व्यापारी दीर्घकाल तक व्यापार करके अपनी पूंजी बनाकर बड़ा सेठ बन जाता है, उद्योगपति अनेक पुरुषार्थों के द्वारा वृद्धि करके उद्योगजगत में अपना नाम रोशन करता है, वैज्ञानिक अपने नये-नये प्रयोगों के द्वारा देश को नई-नई उपलब्धियाँ प्रदान करता है,
उसी प्रकार पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपनी दीर्घकालीन तपस्या से देश को साहित्य एवं तीर्थ की चिरस्मरणीय उपलब्धियाँ प्रदान करके सबको अपने वात्सल्य और आशीर्वाद से अभिसिंचित किया है। उनके पावन श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन करते हुए उनके प्रति बारम्बार नमन है।