(णमोकार मंत्र, चत्तारि मंगल, अड्ढाइज्जदीव’ आदि सामायिक दण्डक पृ. १४ से पढ़कर ९ बार महामंत्र जपकर ‘थोस्सामि’ स्तव पढ़कर पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें) पुन:-
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ बार महामंत्र जाप्य व थोस्सामि स्तव पढ़कर पृ. ३२ से योगिभक्ति पढ़ें।)
अनंतर आचार्यदेव आगे का तीन बार मंत्र पढ़कर दीक्षार्थी के मस्तक पर भगवान का गंधोदक तीन बार छिड़वें, पुन: गुरु दीक्षार्थी के मस्तक पर अपना बायां हाथ रखें।
इसके बाद आगे का वर्धमानमंत्र पढ़ते हुए दीक्षार्थी के मस्तक पर दही, अक्षत, गोमय और दूब का क्षेपण करें। वर्धमान मंत्र –
ॐ णमो भयवदो वड्ढमाणस्स रिसिस्स जं चक्कं जलंतं गच्छइ आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जये वा विवादे वा थंभणे वा रणंगणे वा रायंगणे वा मोहणे वा सव्वजीवसत्ताणं अपराजिदो भवदु रक्ख रक्ख स्वाहा।
पुन: पवित्र भस्म में कपूर मिलाकर-ॐ णमो अरहंताणं रत्नत्रयपवित्रीकृतोत्तमांगाय ज्योतिर्मयाय मतिश्रुता -वधिमन:पर्ययकेवलज्ञानाय असि आ उसा स्वाहा।
यह मंत्र पढ़कर दीक्षार्थी के मस्तक पर कर्पूरमिश्रित भस्म क्षेपण करें-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं असि आ उसा स्वाहा।
यह मंत्र पढ़कर मस्तक में बीच के केशों का प्रथम बार लोंच करे। पुन: आगे के पाँच मंत्रों को क्रम से पढ़ते हुए मस्तक के बीच में, पूर्व में आदि क्रम से केश उखाड़े। अर्थात्-ॐ ह्राँ अर्हद्भ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के बीच के केश उखाड़े-केशलोंच करे। ‘ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नम:’मंत्र पढ़कर मस्तक के पूर्व का केशलोंच करे। ‘ॐ ह्रूँ सूरिभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के दायीं तरफ केशलोंच करे। ‘ॐ ह्रौँ पाठकेभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर बायीं तरफ का केशलोंच करे। ‘ॐ ह्र: सर्वसाधुभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के पीछे का केशलोंच करे। इस प्रकार गुरु अपने हाथों से इन मंत्रों से पाँच बार केशलोंच कर देवें। अनंतर यदि पहले केशलोंच करके नहीं आये हैं ऐसे क्षुल्लक या ऐलक हैं तो उनके पूरे केशलोंच कोई भी कर सकते हैं। केशलोंच हो जाने के बाद लोचनिष्ठापन की भक्ति करना है। यथा-अथ वृहद्दीक्षायां लोचनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्। (पूर्व के समान सामायिक दण्डक, ९ बार महामंत्र का जाप्य व थोस्सामि स्तव पढ़कर ‘सिद्धानुद्धूत’ आदि पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें।) पुन: दीक्षार्थी के मस्तक में जो भस्म-राख लग गई है उसे गरम जल से धो देवें। तब दीक्षार्थी लघु आचार्यभक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करे। अनंतर दीक्षा के चौक पर ही खड़े होकर दीक्षार्थी ब्रह्मचारी या श्रावक वस्त्र, आभूषण, यज्ञोपवीत आदि को उतार देवे। यदि क्षुल्लक या ऐलक हैं तो अपने वस्त्र उतार देवें और मंगल चौक से न हटकर वहीं पर बैठकर गुरु से दीक्षा की याचना करें। अर्थात् दीक्षार्थी एक बार दीक्षा के चौक पर बैठ जावें तो पुन: दीक्षा विधि पूर्ण होने तक दीक्षा के चौक से नहीं उठते हैं। तब आचार्यदेव दीक्षार्थी के मस्तक पर केशर से ‘श्रीकार’ लिखें। ५ २४ श्री: २ ३ ऐसा लिखकर-ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उसा ह्रीं स्वाहा।
इस मंत्र से १०८ बार जाप्य करें अर्थात् एक-एक बार मंत्र बोलते हुए मस्तक पर पीले पुष्प क्षेपण करें। अनंतर दीक्षार्थी की अंजलि में केशर, कर्पूर मिश्रित श्रीखंड से ‘श्रीकार’ लिखकर उसके चारों दिशाओं में- रयणत्तयं च वंदे, चउवीसजिणं तहा वंदे। पंचगुरूणं वंदे, चारणजुगलं तहा वंदे।।यह गाथा पढ़ते हुए क्रम से ‘श्री:’ के पूर्व में अर्थात् सामने ३ का अंक लिखें, दक्षिण में २४ लिखें, पश्चिम में ५ लिखें व उत्तर-बायीं तरफ २ का अंक लिखें, पुन:-‘‘सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यक्चारित्राय नम:।’’मंत्र पढ़ते हुए दीक्षार्थी की अंजुलि में तंदुल-धुले हुए चावल भरकर ऊपर में नारियल और सुपाड़ी रख देवें और-
सिद्ध, चारित्र, योगिभक्ति ये तीन भक्तियाँ पढ़कर व्रतादि प्रदान करें। प्रयोग विधि -अथ वृहद्दीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।(पूर्ववत् पृ. १४ से सामायिकदण्डक, ९ बार महामंत्र का जाप्य व थोस्सामि पढ़कर नीचे लिखी सिद्धभक्ति पढ़ें।) पुन:-
अंचलिका-इच्छामि भंते! योगिभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अढ्ढाइज्ज-दीव-दो-समुद्देसु पण्णारस-कम्म-भूमिसु आदावण-रुक्ख-मूल-अब्भोवास-ठाण-मोण-वीरासणेक्क-पास-कुक्कुडासण-चउत्थ-पक्ख-खवणादियोग-जुत्ताणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। पहले गाथा पढ़ें पुन: समयानुसार उसका अर्थ दीक्षार्थी को व सभा में बतलावें। अनंतर अट्ठाईस मूलगुण व्रत देवें। जिसकी विधि इस प्रकार है-
(तीन बार बोलें) इस पाठ को तीन बार बोलकर शिष्य को व्रतों को प्रदान करें। यहाँ पर अट्ठाईस मूलगुणों का स्पष्टीकरण कर सकते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, केशलोंच, छह आवश्यक क्रियाएँ, आचेलक्य-सर्ववस्त्रत्याग, अस्नान, भूमि पर शयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन-खड़े होकर भोजन व एकभक्त-एक बार भोजन। मूलाचार ग्रंथ या ‘दिगम्बर मुनि’ पुस्तक के आधार से इन व्रतों का स्पष्टीकरण करके प्रदान करें। यदि समयाभाव है तो अट्ठाईस मूलगुणों के नाम बतलाकर व्रत दे देवें। अनंतर दीक्षा विधि के बाद अपने स्थान पर शिष्य को समझा देवें। पुन: शांतिभक्ति का पाठ करें-
(यहाँ पर दाता शब्द से जिन्होंने गणधरवलय विधान आदि कराकर मंगल स्नान आदि कराया है, उन्हें लिया है और उन्हीं को यह नारियल आदि शिष्य के अंजलि के चावल आदि दिलाते हैं। वर्तमान में माता-पिता बनाकर यह सब विधि उनसे कराते हैं, जिनके माता-पिता या परिवार के दंपत्ति कोई भी हैं उन्हें आगे करते हैं या नये किसी योग्य दंपत्ति को ऐसा सौभाग्य मिलता है।) इसके बाद आचार्यदेव-गुरु सोलह संस्कार मंत्रों से शिष्य के मस्तक पर लवंग व पीले पुष्प क्षेपण करते हुए १६ संस्कारों का आरोपण करें-
‘‘ॐ परमहंसाय परमेष्ठिने हं स हं स हं हां ह्रं ह्रौं ह्रीं ह्रें ह्र: जिनाय नम: जिनं स्थापयामि संवौषट्’’ यह मंत्र पढ़कर मस्तक पर लवंग आदि क्षेपण करें। अनंतर अपनी गुर्वावली पढ़कर अमुक के तुम अमुक नाम के शिष्य हो, ऐसा घोषित करके आगे कहे-मंत्र बोलकर गुरू अपने हाथ से ही पिच्छी, कमण्डलु देवें। यदि बोली होकर या पहले से दातार निर्धारित हों जो पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देने वाले हों, वे गुरु के हाथ में ही देवें। दीक्षादाता गुरू ही सर्वप्रथम शिष्य को पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देते हैं अनन्तर श्रावक कभी भी पिच्छी परिवर्तन आदि के समय पिच्छी देकर उनके हाथ की पुरानी पिच्छी ले लेते हैं। यह बात विशेष ध्यान देने की है कि प्रथम पिच्छी, शास्त्र व कमण्डलु गुरू ही देते हैं। गुर्वावली-‘‘अथाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे………..प्रदेशे……… नगरे……………ग्रामे……………..तीर्थक्षेत्रे श्रीवीरनिर्वाणसंवत्सरे २५३९ तमे………..मासोत्तममासे……………..पक्षे………..तिथौ………..वासरे श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदचार्यपरंपरायां प्रथमाचार्यश्रीशांति-सागरस्तस्य पट्टाचार्य: श्रीवीरसागर:……..तस्य शिष्योऽहं मम अमुक नामधेयस्त्वं शिष्योऽसिइत्यादि रूप से अपनी-अपनी परम्परा की गुर्वावली पढ़कर शिष्य का नया नाम घोषित कर देवें।
पुन: पिच्छिका प्रदान का मंत्र बोलते हुए शिष्य को दोनों हाथों में पिच्छिका देवें। (पिच्छिका प्रदान)
(ततो नवदीक्षितो मुनिर्गुरुभक्त्या गुरुं प्रणम्य अन्यान् मुनीन् प्रणम्योपविशति यावद्व्रतारोपणं न भवति तावदन्ये मुनय: प्रतिवन्दनां न ददति, ततो दातृप्रमुखा जना उत्तमफलानि अग्रे निधाय तस्मै नमोऽस्त्विति प्रणामं कुर्वन्ति।)
अनंतर नवदीक्षित मुनि गुरुभक्तिपूर्वक गुरु को नमस्कार करके अन्य मुनियों को भी नमस्कार करके बैठे। दाता आदि प्रमुखजन फलों को सन्मुख रखकर नमोऽस्तु कहकर नमस्कार करें।