सेठ प्रियदत्त अपनी भार्या और कन्या सहित श्री महामुनि धर्मकीर्ति आचार्य के समीप बैठे हुए धर्मोपदेश सुन रहे हैं। उपदेश के अनन्तर सेठ जी हाथ जोड़कर गुरु से निवेदन करते हैं- ‘‘श्रीगुरुदेव! इस अष्टान्हिक महापर्व में आठ दिन के लिए मुझे ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कीजिए।’’ मुनिराज भी पिच्छिका उठाकर कुछ मंत्र बोलते हुए व्रत दे देते हैं। इसी बीच सेठानी भगवती जी भी बोल उठती हैं- ‘‘भगवन्! मुझे भी आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कीजिए।’’ मुनिराज सेठानी जी को भी व्रत दे देते हैं। इसी बीच सेठानी हँसकर पुत्री से बोलती हैं- ‘‘बेटी! तू भी कुछ व्रत लेगी क्या?’’ अनंतमती कन्या बोल उठती है- ‘‘हाँ गुरुदेव! मुझे भी ब्रह्मचर्य व्रत दे दीजिए।’’ कुछ क्षण वहाँ ठहकर ये तीनों लोग गुरु की स्तुति-वंदना करके अपने घर वापस आ जाते हैं। समय अपनी गति से चल रहा है। कुछ दिन बाद अनंतमती को युवती देख सेठ प्रियदत्त अपनी पत्नी से उसके विवाह करने की चिंता व्यक्त करते हैं। अनंतमती के सामने जब यह चर्चा आती है, तब वह अपनी सखियों द्वारा माता-पिता को विवाह न करने की अपनी बात पहुँचा देती है। चिंंतित सेठ-सेठानी पुत्री को पास में बुलाकर बोलते हैं- ‘‘बेटी अनन्तमती! अब तुम किशोरावस्था को पारकर युवावस्था में प्रवेश कर चुकी हो अत: अब तुम्हारा किसी योग्य वर के साथ विवाह करना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि यही अनादि परम्परा है, कन्या तो पराये घर का ही धन है अत: तुम्हें इस विषय में इंकार नहीं करना चाहिए।’’
अनन्तमती माथा नीचा कर लजाती हुई बोलती है- ‘‘पूज्य पिताजी! जब मैंने गुरु के समक्ष ब्रह्मचर्य व्रत लिया हुआ है तो पुन: आज विवाह की चर्चा कैसी?’’ प्रियदत्त सेठ आश्चर्यचकित होकर बोलते हैं-बेटी! ब्रह्मचर्य व्रत! ऐं, तूने यह व्रत कब और किससे लिया है?’’ कन्या बोलती है-पिताजी! क्या आप भूल गये! श्री धर्मकीर्ति आचार्य के सान्निध्य में जब आपने और माँ ने व्रत लिया था, तभी तो मैंने भी लिया था।’’ पिता कहते हैं-‘‘बेटी! उस समय तो मात्र अष्टान्हिक पर्व में आठ दिन के लिए ही हम लोगों ने व्रत लिया था और तुझे तो विनोद में ही दिलाया था।’ ‘‘पिताजी! व्रत ग्रहण में विनोद कैसा? और मैंने तो आठ दिन की बात भी नहीं कही थी अत: मैंने तो अपने जीवन भर के लिए ही यह व्रत लिया था और अब मैं इस व्रत का पूर्णतया पालन करूँगी, मैं विवाह नहीं करूँगी।’’ बहुत कुछ समझाने के पश्चात् भी जब अनन्तमती अपनी दृढ़ता से चलायमान नहीं होती है, तब सेठानी कहती है- ‘‘ठीक है, जब बेटी की इच्छा नहीं है तो आप इसे जबरदस्ती क्यों संसार बंधन में फसाना चाहते हैं। छोड़िए, अपने घर में क्या कमी है? वह जीवन भर धर्र्म साधना करते हुए अपने घर में पुत्रवत् रहेगी। मेरे लिए तो यही पुत्री है, यही पुत्र है, यही सब कुछ है अत: मेरे जीवन भर यह मेरी आँखोेंं के सामने रहेगी, अच्छा ही है।’’ ‘‘अनन्तमती बहुत ही प्रसन्न हो जाती है और माता-पिता को परमस्नेह से निहारती हुई, कृतार्थ हो जाती है। एक दिन वह अपने बगीचे में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करने पहुँचती है। वहाँ पर विनोदपूर्ण वातावरण में यत्र-तत्र विचरण कर अपने झूले पर बैठकर झूलने लगती है। इसी बीच कुण्डलमंडित नाम का विद्याधर अपनी पत्नी के साथ विमान में बैठा हुआ उधर निकलता है। कन्या को देखते ही वह कुछ सोचकर वापस जाकर पत्नी को महल में छोड़कर आप पुन: विमान में बैठकर उस बगीचे में आ जाता है और क्षणमात्र में अनन्तमती को उठाकर अपने विमान में बिठाकर आकाशमार्ग से चला जाता है। उधर उसकी प्रिया को कुछ आशंका हो जाने से वह पीछे से विमान में बैठकर विद्याधर के पीछे-पीछे आ जाती है। उस पत्नी का क्रोध से लाल मुख हुआ देख वह विद्याधरों का राजा होते हुए भी घबड़ा जाता है और उस समय वह कुछ भी नहीं सोच पाता है। तत्क्षण ही अनन्तमती को एक पर्णलघ्वी नाम की विद्या के आधीन कर उसे भयंकर वनों में छोड़ देता है और आप पत्नी के साथ घर वापस आ जाता है। इधर निर्जन वन में गिरकर अनन्तमती चारों ओर अपने को असहाय देखकर जोर-जोर से रोने लगती है परन्तु उसका वह ‘अरण्यरुदन’’ किसको करुणान्वित कर सकता है? कुछ समय बाद वहाँ पर शिकार खेलने का इच्छुक एक भीलों का सरदार उधर आ निकलता है। अनन्तमती के रूप को देखकर वह काम के वाणों से घायल होता हुआ उसे अपने कंधे पर बिठाकर अपने घर ले आता है। अनन्तमती सोचती है मेरे पुण्य का उदय शीघ्र ही आ गया है अत: यह बंधु अब मुझे मेरे घर पहुँचा देगा, किन्तु होनहार जो होती है, सो तो होकर ही रहती है।
वह भीलों का राजा उसे एकान्त में बिठाकर कहता है-देवि! आज तुम्हें अपना परम सौभाग्य समझना चाहिए जो कि मुझ जैसा राजा तुम पर मुग्ध है और वह तुम्हें अपनी पट्टरानी बनाना चाहता है अत: प्रसन्न होकर उसकी प्रार्थना स्वीकार करो और अपने मधुर प्रेम से उसे सुखी करो।’’ बेचारी अनन्तमती उस पापी की इस वासनापूर्ण बात को सुनकर थर-थर काँपने लगती है और मन ही मन महामंत्र का स्मरण करने लगती है। वह राजा उसे चुप देखकर बार-बार अनुनय-विनय करता है। अनन्तमती भयभीत हो रोने लगती है। तब वह राक्षसी प्रकृति का व्रूर भीलपति उसे अनेक प्रकार से डराने लगता है। उस समय अनन्तमती अपने में दृढ़ता लाकर उसे फटकारती है- ‘‘अरे दुष्ट! पापी! तू मेरे शरीर को स्पर्श भी नहीं कर सकता है। दूर हट, मेरे लिए इस विश्व में सारे ही पुरुष पिता के समान हैं। मैं कथमपि तेरी वासना को पूरी नहीं कर सकती हूँ।’’ उस समय भीलराज सोचता है कि यह नादान कन्या मेरे वश न होवे, क्या मैं ऐसा शक्तिहीन हूँ? अरे! मैं इससे तो जबरन भी कामसेवन कर सकता हूँ। ऐसा सोचकर वह पापी उसे पकड़ना चाहता है कि एकदम अनन्तमती जिनेन्द्रदेव का स्मरण करके प्रार्थना करती है- ‘‘भगवन्! मेरे शील की रक्षा कीजिए।’’ तत्क्षण ही उसकी जिनभक्ति के प्रसाद से और शील की अखण्ड भावना से वहाँ वनदेवी आ जाती है और अनन्तमती की रक्षा करके उस पापी को दंडित करके उसे ऐसी मार लगाती है कि वह उस देवी से और अनन्तमती से क्षमा- याचना ग्रहण कर लेता है। प्रात:काल शीघ्र ही वह अनन्तमती को ले जाकर एक साहूकार के सुपुर्द कर देता है और उससे कहता है कि-
‘‘बंधुवर! आप इस कन्या को इसके घर पहुँचा दीजिए।’’ वे सेठ उस समय तो ऐसा वायदा करके उस कन्या को अपने साथ ले आते हैं किन्तु उसके मनमोहक सौंदर्य को देखकर उसे अपनाने की सोचने लगते हैं। वे कहते हैं- ‘‘सुन्दरि! तुम बड़ी भाग्यवती हो, जो कि उस नरपिशाच के हाथ से छूटकर मुझ जैसे नररत्न को प्राप्त हुई हो। ओह! कहाँ तुम्हारा यह अनिंद्य सौन्दर्य और कहाँ वह भील राक्षस? अहो! आज मेरा भी परम सौभाग्य है कि जो तुम जैसी रमणीरत्न का लाभ हुआ है। अब तुम मुझ पर अपनी प्रसन्न दृष्टि करोद्ध माता-पिता के वियोग का शोक छोड़ो और स्नान-भोजन आदि करके मेरे साथ सुखों का अनुभव करते हुए मेरे इस अपार धन-वैभव की स्वामिनी बनो।’’ इतना कहकर वह अनन्तमती से कुछ उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए एकटक उसके मुख की तरफ देखता है। अनन्तमती सोचने लगती है- ‘‘अहो! मैं कुएँ से निकली तो खाई में आ पड़ी। हाय! यहाँ पर भी मेरे धर्म के सिवाय भला मेरा रक्षक कौन हो सकता है? हे जिनशासन देवते! आप ही इस समय मेरी रक्षिका हैं…..।’’ ऐसा सोचते-सोचते उसकी आँखों से अश्रुओं की झड़ी लग जाती है। तब सेठ उसे अनेकों प्रकार से समझाने का प्रयत्न करने लगता है। उस समय वह बोलती है- ‘‘नराधम! मैंने तो समझा था कि तू पिता के सदृश मेरी रक्षा करेगा और मुझे मेरे घर पहुँचा देगा, किन्तु हाय! तुझे भी पाप बुद्धि ही उपज रही है।’’ इतना कहकर अनन्तमती उसे भिल्ल के यहाँ की घटना सुना देती है। वह पुष्पक सेठ उसे कोई देवी समझकर घर से बाहर करने की सोचता है पुन: कुछ दुष्ट अभिप्राय को धारण करते हुए वह सेठ उसे शहर में ले जाकर एक कामसेना की वेश्या को सौेंप देता है। वह वेश्या भी सोचने लगती है- ‘‘अहो! ऐसा मनोहररूप क्या मनुष्यों की कन्याओं में संभव है? सचमुच में इसी के प्रसाद से मैं तो सोने का महल बनवा लूँगी।’’ घर में लाकर वेश्या भी उसे बड़े प्यार से समझाने लगती है- ‘‘बेटी! अपने इस मादक यौवन के मधुर रस का आस्वादन करके अपने इस नर जीवन को सफल करो। क्या बार-बार ऐसा रूप-सौन्दर्य, ऐसा मनुष्य जीवन मिलने वाला है?’’
अनन्तमती उसे समझाती है- ‘‘भद्रे! जो पाप करने में तत्पर हैं उन्हीं के लिए यह नरपर्याय पुन: दुर्लभ है। सचमुच में वे तो नरक-निगोदों में ही अनन्तकाल तक सड़ते रहते हैं किन्तु जो इस नर जन्म को पाकर विषय-सुखों को, पापोें को जलांजलि देकर पुण्य कार्य में, ब्रह्मचर्य में तत्पर होते हैं, उन्हें मनुष्य पर्याय तो क्या, इससे भी श्रेष्ठ देवपर्याय भी दुर्लभ नहीं है और तो क्या, वे ही पुण्यशाली परम्परा से अक्षय- अनन्त ऐसे मोक्षसुख को प्राप्त करने में समर्थ हो जाते हैं।’’ इतना सब कुछ समझाने पर भी उस वेश्या के काले हृदय पर रंचमात्र भी असर नहीं हो पाता है। सो सच ही है, कहीं कोयला भी जल से धोने से सफेद होता है क्या? वह वेश्या जब सरल तरीके से अनन्तमती को पाप कार्यों में नहीं लगा पाती है, तब वह उसे अनेकों प्रकार के कष्ट देने लगती है। कुछ दिन तक भी जब अपना उस पर कुछ भी चक्र नहीं चलता हुआ देखती है, तब उसे एक सिंहराज नाम के राजा को सौंप देती है। देवांगना के समान सुन्दर रूप देखकर वह राजा भी उसे अपनी पट्टरानी बनाने की सोचता है और उसके पास आकर अनुनय- विनय करने लगता है। अनन्तमती उसे भी फटकार कर तिरस्कृत करती है और अपने शील में सुमेरु के समान अचल रहती है। तब वह कामी उससे बलात्कार करने के लिए तैयार हो जाता है, जैसे ही वह पापी उस तेजोमयी मूर्तिस्वरूप अनन्तमती की तरफ हाथ बढ़ाता है, वैसे ही वनदेवी वहाँ उपस्थित होकर बोलती है- ‘‘खबरदार! यदि इस सती का तूने स्पर्श भी किया तो तेरा जीवन अभी समाप्त कर दिया जायेगा।’’ सिंहराज का कलेजा काँप उठता है। वह देवी के चरणों में गिरकर क्षमा- याचना करने लगता है। इस तरह वनदेवी के द्वारा रक्षित हुई अनंतमती महामंत्र का स्मरण करते हुए शान्त हो जाती है, तब राजा अपने कर्मचारी को बुलाकर उसे वन में छोड़ देने की आज्ञा दे देता है। वन में पहुँचकर अनन्तमती अपने पूर्वकृत कर्मों की निंदा करते हुए कुछ देर तक तो विलाप करती रहती है पुन: कुछ धैर्य धारणकर महामंत्र का जाप करते हुए वह भयंकर वन में भी किसी शहर के मार्ग को ढूँढने की दृष्टि से चल पड़ती है। वन के फलों को खाकर और झरने के पानी को पीकर अपनी क्षुधा-तृषा शान्त करते हुए वह आगे बढ़ती चली जाती है। जब अत्यधिक थक जाती है, तब किसी पत्थर की चट्टान पर विश्राम कर लेती है और पुन: उठकर चलने लगती है। चलते-चलते वह अयोध्या नगरी के बाहर एक बगीचे में पहुँच जाती है। वहाँ पर एक मंदिर मेें पद्मश्री नाम की आर्यिका जी ठहरी हुई थीं। भगवान के दर्शन करके उन आर्यिका के दर्शन करती है और अपने को संकट से मुक्त हुआ समझकर संतोष की साँस लेती है।
आर्यिका पूछती हैं- ‘‘बेटी! तुम किसकी कन्या हो? और इस दीन-हीन दशा में कैसे दिख रही हो?’’ अनंतमती का धैर्य स्खलित हो जाता है और उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है, तब पद्मश्री आर्यिका उसे धीरज बंधाकर अपनी गोद में बिठा लेती हैं और उसके मस्तक पर हाथ फैरते हुए उसे सांत्वना देती हैं। कुछ क्षण बाद शांतचित्त होकर अनन्तमती उन आर्यिका से अपनी सारी बीती सुना देती है। सारी घटनाओं को सुनकर तत्त्वज्ञान से भरपुर उन आर्यिकाश्री का चित्त द्रवित हो उठता है पुन: बोलती हैं- ‘‘बेटी! पूर्व जन्म में संचित किये गये अशुभ कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है अत: चिन्ता की कोई बात नहीं है। हाँ, तुम्हारे धैर्य के प्रभाव से और शील के माहात्म्य से जो देवी ने तुम्हारे व्रत की रक्षा की है, सो तुम कम पुण्यशालिनी नहीं हो, किन्तु महान् पुण्यशालिनी हो। अपने व्रत की दृढ़ता के प्रभाव से देवों का आसन कम्पित करा देना, उन्हें बुला लेना, यह साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं है।….. अहो! तुम एक महान सती शिरोमणि हो, स्त्रीरत्न हो, तुम्हारे जन्मदाता माता-पिता भी धन्य हैं।’’ इत्यादि प्रिय वचनों से उसे संतुष्ट करके वे उसे अपने पास ही ठहरा लेती हैं। अनन्तमती भी आर्यिका के आश्रय और मधुर वात्सल्य को पाकर अपने आपको धन्य समझने लगती है। सेठ प्रियदत्त को जब अनन्तमती के हरे जाने का समाचार मिलता है, तब वे प्रथम तो दु:ख से मूच्र्छित हो जाते हैं, सचेत होने पर कुछ धैर्य धारणकर खोज के लिए यत्र-तत्र बहुत से किंकरों को भेज देते हैं किन्तु अनन्तमती का भला किंकरगण कैसे पता चला सकते थे, जबकि विजयार्ध पर्वत के दक्षिण श्रेणी के किन्नरपुर नगर का स्वामी कुण्डलमण्डित नाम का विद्याधर उसे हर कर ले गया था और अपनी पत्नी के डर से उसे मध्य में ही जब छोड़ी थी, तब वह इसी आर्यखण्ड के किसी निर्जर वन में गिरी थी। जब अनन्तमती का कहीं पता नहीं लग सका, तब सेठ प्रियदत्त और सेठानी अंगवती उसके वियोग से बहुत ही दु:खी हो जाते हैं। अब सेठ जी का मन किसी कार्य में नहीं लगता है, तब वे सभी के समझाने के अनन्तर भी तीर्थयात्रा के बहाने घर से निकल पड़ते हैं। उस समय कुटुम्ब के बहुत से लोग भी उनके साथ चल पड़ते हैं। वे सम्मेदशिखर, पावापुरी आदि तीर्थों की वंदना करते हुए अयोध्या आ जाते हैं। वहाँ पर अपने ससुराल में जिनदत्त साले के यहाँ ठहर जाते हैं। प्रियदत्त के मुख से जब अनन्तमती के हरे जाने का समाचार विदित होता है, तब सभी लोग दु:खी हो जाते हैं, पर वे बेचारे कर भी क्या सकते हैं! प्रात: सेठ प्रियदत्त जिनमंदिर से पूजा करके घर जाते हैं और देखते हैं कि आँगन में बहुत ही सुन्दर चौक पूरा हुआ है, उस चौक को देखते-देखते उनके आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है। वे जिनदत्त की भार्या से पूछते हैं-
‘‘यह चौक किसने पूरा है?’’ ‘‘कहिए, क्या कुछ कमी है इसमें और आपको इस चौक को देखते ही आखिर रोना क्यों आया?’’ ‘‘बहन! ऐसा ही चौक मेरी पुत्री अनन्तमती बनाया करती थी। भला यह चौक किस कन्या ने बनाया है? मुझे बताओ तो सही!’’ ‘‘यहाँ मंदिर में आर्यिका पद्मश्री जी ठहरी हुई हैं, उनके पास एक कन्या रहती है। मैंने प्रात: उसी को बुलाकर यह चौक पुरवाया है।’’ सेठ प्रियदत्त शीघ्र ही आर्यिका जी के दर्शन हेतु चल पड़ते हैं, वहाँ पहुँचकर अपनी पुत्री अनन्तमती को देखकर अपनी छाती से लगाकर रोने लगते हैं। आर्यिका को समझते हुए देरी नहीं लगती है कि ये ही इस कन्या के पिता होंगे। कुछ क्षण बाद वे आर्यिका को अपना परिचय देकर और उनकी आज्ञा प्राप्तकर कन्या को अपने स्थान पर ले आते हैं। आहारदान, भोजनपान आदि के बाद सेठ प्रियदत्त पुत्री को अपने पास बिठाकर उससे सारा वृत्तान्त पूछते हैं। उस समय उस घर के सभी लोग अनन्तमती के मुख से उसके ऊपर आये हुए संकटों को सुनकर स्तब्ध रह जाते हैं। सभी के मुख से यही शब्द निकलते हैं- ‘‘बेटी अनंतमती! तू धन्य है, तेरी दृढ़ता भी धन्य है और धन्य है तेरा साहस, जो कि तूने शासन देवता के आसन को हिला दिया और उनके सहयोग से अपने निर्मल व्रत की रक्षा की।’’ इधर पिता-पुत्री के मिलाप से घर में ही क्या, सारी अयोध्या नगरी में प्रसन्नता का वातावरण बन जाता है। जिनदत्त इस हर्षोपलक्ष्य में श्री जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा निकालकर खूब धर्मप्रभावना करते हैं।
बाद में प्रियदत्त अपने घर चम्पापुर को जाने के लिए तैयार होते हैं, तब वे अनन्तमती पुत्री से भी घर चलने का आग्रह करते हैं किन्तु अनन्तमती कहती है- ‘‘पूज्य पिताजी! मैंने इस छोटे से जीवन में ही जो भी संसार के दु:ख देखे हैं, उनके स्मरणमात्र से ही मेरा हृदय काँपने लगता है अत: अब बार-बार संसार में भ्रमण न करना पड़े, मुझे ऐसा ही पुरुषार्थ करना है। अब आप मुझे आर्यिका दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कीजिए।’’ पिताजी मोह से विह्वल हो दीक्षा लेने की अनुमति नहीं देना चाहते हैं, वे कहते हैं- ‘‘बेटी! यह आर्यिका दीक्षा बहुत ही कठिन है, सदैव पैदल विहार करना, भूमि पर सोना, एक वस्त्रमात्र धारण करके गर्मी, सर्दी को सहन करना, डांस, मच्छर आदि के उपसर्ग झेलना और अनेक प्रकार के परीषह सहन करना, ये सब तेरे इस कोमल शरीर से कैसे हो सकता है? अत: बेटी! अभी कुछ दिन तुम मंदिर में रहकर अभ्यास करो, भले ही घर मत चलो किन्तु अभी दीक्षा की बात मत सोचो।’’ अनन्तमती कहती है- ‘‘पिताजी! जब मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और शरीर तथा आत्मा भिन्न-भिन्न है, शरीर जड़ है, आत्मा चेतन है, शुद्ध निश्चयनय से जो भी कष्ट होता है वह शरीर को होता है आत्मा को नहीं, आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानपुंज है, अशरीरी है और अनादिनिधन है, ऐसा भेद ज्ञान हो जाता है, तब इस जीव को दीक्षा के कष्ट, कष्ट नहीं प्रतीत होते हैं, प्रत्युत् उनमें वे परम समता का अनुभव करते हुए यह समझते हैं कि मेरा तो पूर्व संचित कर्मों का कर्जा चुक रहा है। अत: हे पिताजी! अब तो न मैं चम्पापुर ही चलूँगी और न मंदिर में रहकर अभ्यास ही करूँगी, मैं तो अब दीक्षा ही ग्रहण करूँगी, सो आप स्वयं दीक्षा दिलाकर ही जाइये।’’ बहुत कुछ समझाने के बावजूद जब अनंतमती अपने दीक्षा के विचार से चलायमान नहीं हुई, तब सेठ प्रियदत्त भी अपने भावों को स्थिर करके उसकी बात मंजूर कर लेते हैं। दीक्षा समारोह के अवसर पर अनन्तमती मोहजाल के समान ही अपने घुंघराले और भ्रमर के समान काले, ऐसे केशों का जब लोंच करती है, तब देखने वालों की आँखें बरबस ही बरसने लगती हैं। सभी लोग रोमांचित हो जाते हैं और अनन्तमती के वैराग्य की, साहस की प्रशंसा करते-करते नहीं अघाते हैं। सभी लोग एक स्वर से यही कहते हैं कि- ‘‘धन्य है साहस! और धन्य है जीवन! अनन्तमती तुम एक महान सती हो, इस आर्यखण्ड की ही नहीं, प्रत्युत् विश्व की एक अद्वितीय नारी हो, धर्म की भूषण हो, तुम्हारी जय हो, जय हो।’’
अनन्तमती आर्यिका बनकर पद्मश्री गणिनी के सानिध्य में रहती हुई घोराघोर तपश्चरण करती है। कभी महीने के उपवास के बाद पारणा करती है, तो कभी सिंहनिष्क्रीड़ित जैसे कठोर व्रतों का अनुष्ठान करती है, कभी स्वाध्याय में तत्पर हो ज्ञानामृत का पान करती है, तो कभी ध्यान में लीन हो आत्मा का चिन्तन करती है। कभी दिव्य धर्मोपदेश द्वारा जनता को सम्बोधन देती है, तो कभी तीर्थों की वंदना करके सातिशय पुण्योपार्जन करती है। जीवन भर वह आर्यिका व्रतों का पालन करते हुए अन्त में सल्लेखना व्रत ग्रहण कर लेती है। आयु के अंत में शरीर को छोड़कर बारहवें स्वर्ग मेें देव पर्याय को प्राप्त कर लेती है। चूँकि यह नियम है कि सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेने के बाद स्त्रियों को पुन: स्त्री पर्याय नहीं मिलती है। वहाँ स्वर्ग में उस देव के ऐश्वर्य का पार नहीं है। अनेक देव-देवांगनाएँ उसकी सेवा में रत हैं। यह अनंतमती का जीव देव पर्याय से च्युत होकर मनुष्य लोक में आकर पुरुष-पर्याय प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर निर्वाणधाम को प्राप्त करेगा। अहो! पिता के द्वारा विनोद से दिलाया गया व्रत भी जब मनुष्य को देव बना देता है, तब जो नारियाँ भावपूर्वक गुरु से ग्रहण किये हुए व्रतों का दृढ़ता से पालन करती हैं, वे अवश्य ही पराधीन स्त्री पर्याय से छुटकारा पाकर परम्परा से शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेती हैं।