मंदर पर्वत के दक्षिण भाग में स्थित भद्रसाल वन वेदी से दक्षिण में, निषध से उत्तर, विद्युत्प्रभ के पूर्व और सौमनस के पश्चिम भाग में सीतोदा के पूर्व-पश्चिम किनारों पर ‘देवकुरु’ स्थित है। निषध पर्वत की वन वेदी के पास में उसकी पूर्व-पश्चिम लंबाई ५३००० योजन प्रमाण कही गई है। मेरु की दक्षिण दिशा में श्री भद्रसाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लंबाई ८४३४ योजन प्रमाण है। इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर-दक्षिण में ११५९२-२/१९ योजन प्रमाण है। दोनों गजदंतों के समीप में इसका विस्तार वक्ररूप से २५९८१ योजन है।
इस देवकुरु में शाश्वत रूप में उत्तम भोग भूमि की व्यवस्था पाई जाती है। यहाँ की भूमि धूलि, कण्टक, हिम आदि से रहित है। यहाँ पर विकलत्रय जीव नहीं रहते हैं। यहाँ पर युुगल रूप से उत्पन्न हुये स्त्री पुरुष चौथे दिन बेर के प्रमाण आहार ग्रहण करते हैं। स्त्री-पुरुषों के शरीर की ऊँचाई तीन कोस तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है उत्तम संहनन से युक्त इन मनुष्यों के मल, मूत्र नहीं होता है।
वहाँ पर दस प्रकार के उत्तम कल्पवृक्ष होते हैं जो इच्छित फल को दिया करते हैं। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग ऐसे कल्प वृक्षों के दस भेद हैं। ये कल्पवृक्ष यथा नाम वाले फलों को प्रदान करते हैं। पानांग वृक्ष बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को प्रदान करते हैं। तूर्यांग वीणा आदि वाद्यों को देते हैं। भूषणांग, कंकण, हार आदि, वस्त्रांग उत्तम वस्त्रों को, भोजनांग अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों को, आलयांग दिव्य भवनों को, दीपांग जलते हुए दीपकों को, भाजनांग झारी, कलश आदि को देते हैं। मालांग वृक्ष पुष्पों की मालाओं को देते हैं और ज्योतिरंग वृक्ष करोड़ों सूर्यों से अधिक कांतिशाली चंद्र-सूर्य की कांति का संहरण करते हैं। ये कल्पवृक्ष पृथ्वीकायिक होते हुए भी जीवों के पुण्य कर्म के फल को देते हैं। वहाँ के भोगभूमिया मनुष्य अकालमरण से रहित होते हुए आयु पर्यन्त उत्तम सुखों का उपभोग करते हैं। ये चक्रवर्ती की अपेक्षा अनंत गुणे सुखों का अनुभव करते हैं।