देवगढ़ के मूर्तिशिल्प में जिनेतर जैन देवकुल का विकास
आठवीं से बारहवीं शती के मध्य उत्तर भारत के राजनीतिक मंच पर विभिन्न राजवंशों का उदय हुआ, जिनके सीमित राज्यों में विभिन्न आर्थिक, धार्मिक संदर्भों में जैन धर्म, कला—स्थापत्य एवं मूर्तियों के विकास की क्षेत्रीय धारायें उद्भूत एवं विकसित हुईं। इनसे कला केन्द्रों का मानचित्र पर्याप्त परिर्वितत हुआ।१ मध्यकाल में उत्तर भारत में स्थापित मुख्य कला केन्द्रों में से एक देवगढ़ था। देवगढ़ ललितपुर के समीप एक ग्राम है, जहाँ पर मध्यकालीन जैन देवकुल के अंकन का विशाल भण्डार है। देवगढ़ में कुल मिलाकर १००० से ११०० तक मूर्तियाँ स्थापित हैं।२ यहाँ नवीं शती से बारहवीं शती के मध्य की विविधतापूर्ण एवं प्रभूत जैन कला सम्पदा संरक्षित है। यहाँ की कला सम्पदा दिगम्बर मत से संबंधित है। देवगढ़ में जैन धर्म की प्राचीनता मध्ययुगीन प्रमाणित है। क्लाज ब्रून यहाँ से प्राप्त कुछ लेखों के आधार पर यहाँ गुप्तयुगीन कलाकृतियों का उल्लेख करते हैं। परन्तु निश्चित प्रमाणों के अभाव में वर्तमान में देवगढ़ की जैन कला को मध्ययुगीन माना जाता है। देवगढ़ में जैन कला के विकास में या देवगढ़ को महत्वपूर्ण कला केन्द्र बनाने में तत्कालीन जैन श्रावकों के साथ—साथ कुछ शासकों के नामों का उल्लेख अभिलेखों३ से प्राप्त होता है, जैसे मं. सं. १२ (शांतिनाथ मंदिर) के अर्धमण्डप का स्तंभ लेख (८६२ ई. सन्), जो प्रतीहार शासक भोजदेव के शासन काल का है, देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि ज्ञात होता है। इस लेख में महासामन्त विष्णुराम का उल्लेख है। एक और लेख (९९४ ई.) में ‘श्री उरजवटे राज्ये’ का उल्लेख है। एक और लेख में (११५३ ई.) महासामन्त श्री उदयपाल का वर्णन किया गया है। इन दोनों शासकों के बारे में अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। देवगढ़ में प्रभूत मात्रा में जैन शिल्प का निर्माण और अनवरत ४०० वर्षों तक शिल्प निर्माण की धारा का निर्बाध गति से बहना, देवगढ़ को एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में महत्व प्रदान करता है।४ देवगढ़ में जो विकास हुआ वह जैन श्रावकों और अनुयायियों की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा को व्यक्त करता है। देवगढ़ में इतने विशाल निर्माण के पीछे क्या कारण था, इस जानकारी का अभाव है। देवगढ़ में सर्वाधिक तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। जैन धर्म में २४ तीर्थंकर होते हैं। तीर्थंकर जैन धर्म की धुरी है जिसके चारों ओर जैन धर्म घूमता है। मूर्तिशिल्प के प्रारंभिक अंकन से लेकर वर्तमान तक जैन शिल्प में जिन के साथ जिन मानवेतर विशिष्ट व्यक्तियों का अंकन होता आया है। इसे जैन देवकुल कहा गया है। जैन देवकुल का वर्णन प्राचीन जैन साहित्य में प्राप्त होता है। प्रारम्भिक ग्रंथों में जैन देवकुल में ६३ शलाकापुरुषों, जिन माता—पिता, कृष्ण, बलराम, लक्ष्मी, इन्द्र, यक्ष—यक्षिणी, विद्यादेवियाँ, लोकपाल आदि का वर्णन है।६ परवर्ती ग्रंथों में जैन देवकुल का विकास होता रहा एवं उनका महत्व और अंकन बढ़ता गया। मध्यकाल तक जैन देवकुल का बहुत अधिक विकास हो चुका था, जिसका अंकन देवगढ़ के शिल्प में दृष्टिगत होता है।७ इस लेख में देवगढ़ में जैन देवकुल के प्रमुख देवों, तीर्थंकरों को छोड़कर, का वर्णन किया गया है। यक्ष—देवगढ़ में साहित्य में वर्णित यक्षों का बहुलता से अंकन हुआ है। इन्हें तीर्थंकर के उपासक एवं रक्षक देव माना गया है८, जिनकी नियुक्ति इन्द्र के द्वारा जिन समवसरण में की जाती है। जैन साहित्य में सर्वप्रथम सर्वानुभूति यक्ष का उल्लेख मिलता है, जिसे अंबिका के साथ सर्वप्रथम मूर्तित किया गया।९ देवगढ़ में ऋषभदेव के गोमुख यक्ष की मंदिर संख्या १२ के अर्धमण्डप के उत्तरंग में (१०वीं शती) चतुर्भुज मूर्ति मूर्तित है। यह यक्ष ललितासन मुद्रा में है। यक्ष वृषभानन है। इसके करों में पुस्तक, धन का थैला, पद्म व गदा अंकित है (चित्र १)। अजितनाथ के साथ महायक्ष का अंकन देवगढ़ मैं है। यह गजारूढ़, द्विभुजी, चतुर्भुजी या अष्टभुजी है। त्रिमुख नाम का यक्ष संभवनाथ का है। इसका सामान्य लक्षणों से युक्त अंकन देवगढ़ में हुआ है। छ: जिन संयुक्त र्मूितयों में त्रिमुख का अंकन है। अभिनंदन के साथ ईश्वर यक्ष मूर्तित है। यह यक्ष द्विभुजी है, जिसके हाथों में फल एवं अभयमुद्रा दर्शित है। सुपाश्र्वनाथ के साथ मातंग तीन सर्पफणों से युक्त है, जिसके हाथों में कलश एवं पुष्प है। श्याम यक्ष चंद्रप्रभ के साथ उत्कीर्ण हैं यह कपोत वाहन व चतुर्भुज यक्ष है। शांतिनाथ के यक्ष के रूप में गरूड़ यक्ष देवगढ़ दुर्ग के पश्चिमी द्वार स्तंभ पर चतुर्भुज शूकर वाहन सहित निरूपित है। सर्वानुभूति को जैन साहित्य में गोमेध यक्ष नाम से भी जाना जाता है। इसे नेमिनाथ का रक्षक एवं शासन देवता माना गया है। देवगढ़ में इस यक्ष की दो स्वतंत्र मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं।१० एक मूर्ति में यक्ष द्विभुजी है जिसके एक हाथ में धन का थैला दूसरे हाथ में फल प्रर्दिशत है एवं दूसरी र्मूित में चतुर्भुज यक्ष त्रिभंग मुद्रा में खड़ा है। नेमिनाथ की १९ प्रतिमाओं में यक्ष का निरूपण मिलता है। सर्वानुभूति का देवगढ़ की जैन शिल्पकला में बहुत महत्व है। सर्वानुभूति का अंकन अन्य तीर्थंकरों के साथ भी प्राप्त होता है। धरण पाश्र्वनाथ का यक्ष है जिसका परम्परा के अनुसार पाश्र्वनाथ के साथ अंकन अल्प संख्या में मिलता है। पाश्र्वनाथ की ३० मूर्तियों में से ७ में यक्ष का अंकन परम्परागत है, शेष में गैर परम्परागत यक्ष का अंकन है। महावीर का यक्ष मातंग है, जिसका अंकन सामान्य लक्षणों के साथ देवगढ़ में किया गया है। १०४४ ई. की एक यक्ष प्रतिमा मंदिर क्रमांक १ में आमूर्तित है। जैन साहित्य में वर्णित यक्षों की विशेषताओं के साथ उनका अंकन देवगढ़ में प्राप्त नहीं होता। यक्षों के मूर्तन में सामान्य परम्पराओं का निर्वहन किया गया है। यक्षों के निरूपण पर हिन्दू देवताओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। यक्षी—लगभग छठी शती ई. में जिनों के साथ यक्ष—यक्षी के अंकन की धारणा विकसित होने लगी थी।११ लगभग आठवीं शती ई. तक २४ जिनों के स्वतंत्र यक्ष—यक्षी युगलों की सूची निर्धारित हो गई थी। तिलोयपण्णत्ति में २४ यक्षियों की सूची प्राप्त होती है। देवगढ़ में जैन देवकुल में शामिल इन यक्षियों का सामूहिक दुर्लभ अंकन प्राप्त होता है।१२ मंदिर क्रमांक १२ की भित्ति पर २५ यक्षियों का अंकन है। उनके शीर्ष भाग पर ध्यानस्थ जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनके नीचे नाम उत्कीर्ण हैं। इन अंकनों में नियमों का पालन नहीं किया गया है। यक्षियों में केवल चक्रेश्वरी, अनंतवीर्या, ज्वालामालिनी, बहुरूपिणी, अपराजिता, तारा, अम्बिका, पद्मावती एवं सिद्धायिका के नाम ही दिगम्बर मत के अनुसार उत्कीर्ण हैं। केवल चक्रेश्वरी, अंबिका, पद्मावती ही संबंधित जिनों के साथ उत्कीर्ण हैं। देवगढ़ में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्षी की कल्पना की गई, परन्तु लाक्षणिक विशेषताएँ निश्चित नहीं हुर्इं। देवगढ़ में लगभग ५० मूर्तियाँ अंबिका यक्षी की प्राप्त हुई हैं (चित्र २)। इसके बाद चक्रेश्वरी (चित्र ३), पद्मावती (चित्र ४), सिद्धायिका की स्वतंत्र र्मूितयाँ देवगढ़ के मंदिरों में प्राप्त होती हैं। चक्रेश्वरी एवं पद्मावती के अंकन में सर्वाधिक विकास परिलक्षित होता है। अंबिका का चित्रण स्थिर रहा। कृष्ण बलराम—देवगढ़ के मंदिर क्रमांक २ में कृष्ण और बलराम का मूर्तन है। कृष्ण—बलराम को तीर्थंकर नेमिनाथ के भाई के रूप में जैन साहित्य र्विणत करता है। इस मुर्ति में कृष्ण किरीटमुकुट से सुसज्जित चतुर्भुजी हैं जिनकी भुजाओं में शंख, चक्र, गदा है। बलराम की पाँच सर्पफणों के छत्र से युक्त द्विभुज र्मूित में एक हाथ में हल तथा दूसरे हाथ में फल है। यह लगभग १० वीं शती ई. की हैं हरिवंशपुराण में कृष्ण को वासुदेव तथा बलराम को बलभद्र माना गया है। बाहुबली भरत—भरत की स्वतंत्र मूर्तियाँ केवल देवगढ़ से ही प्राप्त होती है। ये ऋषभदेव के पुत्र थे जो स्वयं चक्रवर्ती थे। इनकी चार मूर्तियाँ हैं। इनमें भरत कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं, उनके आसन पर गज, अश्व, पाश्र्व में कुबेर, नवनिधि के सूचक नवघट, चक्र व खड्ग अंकित हैं। बाहुबली की छ: मूर्तियाँ देवगढ़ से प्राप्त होती हैं। इन मूर्तियों में माधवी लिपटी है और अनेक जीव—जन्तुओं का चित्रण भी है (चित्र ६)। बाहुबली को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है।
पंचपरमेष्ठि—जैन देवकुल में पंचपरमेष्ठियों में अर्हंत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु सम्मिलित हैं।१३ पंचपरमेष्ठि की पूजा प्राचीन काल से चली आ रही है। देवगढ़ में पाँचों परमेष्ठियों का अंकन मिलता है। तीर्थंकर के रूप में अष्टप्रातिहार्य से युक्त अर्हंत् और अष्टप्रातिहार्य से रहित सिद्ध अंकित हैं। देवगढ़ में छत्रधारी आचार्य परमेष्ठि का कुलपति के रूप में अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अंकन है। आचार्यों के अंकन में दाहिनी भुजा व्याख्यान मुद्रा में है एवं बायीं भुजा में पुस्तक है। उपाध्याय परमेष्ठि की मूर्तियों का अंकन तोरण पर अध्यापनरत है। देवगढ़ में अनेक साधु परमेष्ठियों का अंकन है, जैसे आहार ग्रहण करते हुये, संबोधन देते हुये व तपस्या में लीन (चित्र ७ व ८)।
जिन माता—पिता—देवगढ़ के मंदिरों में जिन माता (चित्र ९) और माता—पिता का मूर्तन है (चित्र १०)।
नवग्रह—जैन साहित्य में पूर्वमध्ययुग में नवग्रहों के रूप विकसित हुये। देवगढ़ के शांतिनाथ मंदिर में लगभग दसवीं शती में नवग्रह का अंकन मिलता है। जिन परिकर में भी नवग्रह का अंकन है। मंदिर के प्रवेश द्वारों पर एवं स्वतंत्र उत्तरंगों में नवग्रह की आकृतियाँ बनी हैं। इनमें सूर्य, चंद्र, मंगल,बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु, केतु का अंकन है (चित्र ११)।
क्षेत्रपाल—लगभग ग्यारहवीं शती में क्षेत्रपाल को जैन देवकुल में शामिल किया गया। देवगढ़ में क्षेत्रपाल को रक्षक देवता के रूप में अंकित किया गया है। यहाँ क्षेत्रपाल की छ: मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं।
ब्रह्मशांति यक्ष—मंदिर संख्या १२ के अर्धमण्डप के स्तंभ पर लगभग ९वीं शती की ब्रह्मशांति यक्ष की एक र्मूित है, जिसमें यक्ष चतुर्भुजी है, जिसकी भुजाओं में अभय मुद्रा, चक्र, पुस्तक एवं कलश प्रर्दिशत है। यह यक्ष मुख्यत: श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोकप्रिय था। सरस्वती—जैन ग्रंथों में सरस्वती को मेधा, बुद्धि या श्रुत देवी के रूप में उल्लिखित किया गया है। भगवतीसूत्र और ब्रह्मचरित में इनका वर्णन मिलता है। जैन देवकुल में सरस्वती प्रमुख देवी है जिसके विभिन्न रूपों से प्रभावित होकर अनेक यक्षियों की कल्पना की गई है। देवगढ़ में देवी की कई मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं जो पुस्तक धारण किये हुए हैं (चित्र १२)।
लक्ष्मी—जैन देवकुल में लक्ष्मी का वर्णन कल्पसूत्र में आया है एवं भगवतीसूत्र में लक्ष्मी की मूर्ति का वर्णन है, जिसमें पद्मासीन लक्ष्मी के शीर्ष भाग में दो गज अभिषेक कर रहे हैं, जिसके हाथों में कमल है। देवगढ़ में ऐसी ही लक्ष्मी की र्मूित उत्कीर्ण है।
गंगा—यमुना—देवगढ़ में द्वार शाखाओं पर मकरवाहिनी गंगा एवं कूर्मवाहिनी यमुना की मूर्तियाँ हैं। राम—देवगढ़ में उत्तरी भित्ति पर राम का अंकन है। राम को जैन ग्रंथकारों ने विशिष्ट महत्व प्रदान किया है। इसलिए इनके लिए स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की गई। पद्मपुराण में राम की कथा मिलती है। देवगढ़ में अंकित मूर्ति शिल्प से ज्ञात होता है कि मध्यकाल में अन्य धर्मो की भाँति जैन धर्म में भी तंत्रवाद का विकास हुआ। जैन धर्म में आत्मिक सुख के साथ भौतिक सुख को प्राप्त करने के लिए जैन अनुयायियों ने जो मुख्य रूप से व्यापारी एवं व्यावसायी थे, सुख—समृद्धि प्राप्त करने के लिए जैन देवी—देवताओं को महत्व प्रदान किया। उन्होंने चक्रेश्वरी, पद्मावती, अंबिका आदि देवियों की उनके पूज्य देवों के साथ आराधना करने के लिए अनेक मंदिरों का निर्माण कराया एवं जिन के साथ देवी—देवताओं की र्मूितयों की स्थापना करवाई। इससे मध्यकालीन जैन कला में नवीन प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। जैन देवकुल के सदस्यों की संख्या और उनके कृत्यों में वृद्धि और परिवर्तन हुआ। विभिन्न लाक्षणिक ग्रंथों की रचना हुई, जिसके निर्वहन की बाध्यता के कारण एक यांत्रिकता—सी र्मूितशिल्प में दृष्टव्य हैं परवर्ती समय में ६३ शलाकापुरुष, जिनका वर्णन प्रारंभिक ग्रंथों में मिलता है, की संख्या में वृद्धि हुई जिनका अंकन मूर्तिशिल्प में मिलता है। जैन देवकुल पर हिन्दु देवकुल का प्रभाव पड़ा और हिन्दु देवकुल से मिलते जुलते कुछ देवताओं का अंकन देवगढ़ में र्दिशत है। देवगढ़ में स्थापित जैन मंदिरों के समूह से जैन धर्म के विकास केन्द्रों पर प्रकाश पड़ता है एवं उस पूरे क्षेत्र में बड़े नगरों के पास कई जैन केन्द्र स्थपित हुये, जैसे ललितपुर के पास देवगढ़ सिरोन खुर्द तथा बानपुर, छतरपुर के पास द्रोणगिर, टीकमगढ़ के पास अहार और पपौरा, दतिया के पास सोनागिर आदि। तत्कालीन समय में वर्तमान क्षेत्र विभाजन नहीं था तथा ये सब एक ही क्षेत्र के अंतर्गत थे, जहाँ एक साथ जैन कलाकेन्द्रों की स्थापना एवं विकास हुआ।
संदर्भ
१.मारूति नंदन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमाविज्ञान, वाराणसी, १९८१, पृ. १४.
२.क्लाज ब्रुन, दि जिन अमेजिन ऑव देवगढ़, लिडेन, १९६९, पृ. १
३.एपिग्राफिया इण्डिका खण्ड ४, पृ. ३०९-१०.
४.भागचंद जैन, देवगढ़ की जैन कला का सांस्कृतिक अध्ययन, नई दिल्ली, १९७४, पृ. १४.
५.यू. पी. शाह, ‘बिगिंनग्स ऑव जैन आइकॉनोग्राफी’, सं. पु. पं. अंक ९ पृ. ३
६.मारूति नंदन तिवारी, वही, पृ. ३,
७.वही, पृ. ६८
८.बी. सी. भट्टाचार्य, जैन आइकॉनोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ. ९५.