देववन्दना के लिये श्रीजिनमंदिर को जावें, वहाँ उचित स्थान में बैठकर दोनों हाथों और दोनों पैरों को धोवें । अनन्तर-‘‘नि:सही नि:सही नि:सही’’ऐसा तीन बार उच्चारण कर चैत्यालय में प्रवेश करें वहां जिनेन्द्रदेव के मुख का अवलोकन कर तीन बार प्रणाम करें । अनन्तर ‘‘दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’ इत्यादि दर्शन-स्तोत्र को वन्दना मुद्रा जोड़कर पढ़ते हुए चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देवें। प्रत्येक दिशा मे तीन तीन आवर्त और एक एक शिरोनति करते जावें । अनन्तर २खड़े रह कर, दोनों पैरों को समान कर, चार अँगुल का अन्तर रख कर और दोनों हाथों को मुकुलित कर नीचे लिखा ‘‘ऐर्यापथिक दोषविशुद्धिपाठ’’पढ़े । -ईर्यापथविशुद्धि :-पडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए विराहणाए अणागुत्ते, अइगमणे, णिग्गमणे, ठाणे, गमणे, चंकमणे, पाणुग्गमणे, बीजुग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चार-पस्सवण-खेल-सिंहाण-वियडिपइट्ठावणियाए, जे जीवा एइंदिया वा, वेइंदिया वा, ते-इंदिया वा, चउरिंदिया वा, पंचिंदिया वा, णोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्टिदा वा, संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परिदाविदा वा, कििरच्छिदा वा, लेस्सिदा वा, छिंदिदा वा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाणचंकमणदो वा, तस्स उत्तरगुणं, तस्स पायच्छित्तकरणं, तस्स विसोहिकरणं जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोकारं पज्जुवासं करेमि ताव कायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि ।हे भगवन्! ईर्यापथसंबंधी प्राणियों की विराधना होने पर किये हुये दोषों का निराकरण करता हूँ । मेरे मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से रहित होते हुए, शीघ्र चलने में, प्रथम ही स्वस्थान से निकलने में, ठहरने में, गमन करने में, सिकोड़ने – पसारने रूप पैरों के हिलाने चलाने में, श्वासोच्छ्वास लेने में अथवा दो इन्द्रिय आदि प्राणों के ऊपर प्रमाद पूर्वक चलने में, बीजों के ऊपर होकर चलने में, हरितकाय पर होकर चलने में, मल-मूत्र के प्रक्षेपण करने , थूकने, श्लेष्म-कफ डालने, कमण्डलु आदि उपकरण के रखने में जो मैंने एकेन्द्रिय जीवों को, दो इन्द्रिय जीवों को, तीन इन्द्रिय जीवों को, चार इन्द्रिय जीवों को, तथा पंचेन्द्रिय जीवों को, अपने-अपने स्थान पर जाते हुए को रोका हो, अपने इष्ट स्थान से उठाकर अन्य स्थान में क्षेपण किया हो, परस्पर में संघट्टन पीड़ा पहुँचाई हो, उनका एक जगह पुञ्ज किया हो, मारा हो, सन्ताप पहुंचाया हो, खण्ड खण्ड किया हो, मूर्छित (बेहोश) किया हो, कतरा हो, विदारा हो, ये जीव अपने स्थान में ही स्थित हों अथवा अपने स्थान से दूसरे स्थान को जाते हों उस समय इनकी उक्त प्रकार से उक्त स्थानों में विराधना की हो तो जब तक मैं भगवत् अर्हंतो को-प्रतिक्रमण का उत्तर गुण स्वरूप अर्थात् किये हुये दोषों को निराकरण करने का कारण होने से उत्कृष्ट, जीवों की विराधना से उत्पन्न हुए दोषों को दूर करने वाला और जीवों की विराधना से उपार्जन किये हुये दुष्कृत्यों से शुद्ध करने वाला ऐसा नमस्कार करूँ तब तक जिससे पाप का उपार्जन होता है, जिससे दुराचार सेवन किये जाते हैं ऐसे काय का त्याग करता हूँ अर्थात् तब तक इससे ममत्वभाव छोड़ता हूँ । इस तरह प्रतिक्रमण पढ़ कर ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि गाथा का सत्ताईस उच्छवासों में नौ बार खड़े खड़े जाप्य देवें । अनन्तर पर्यंकासन से बैठकर नीचे लिखा ‘‘आलोचना पाठ’’ पढ़ें ।
निर्वर्तिता यदि भवेदयुगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ।।१।।
इच्छामि भंते ! आलोचेउं इरियावहियस्स पुव्वुत्तरदक्खिण-पच्छिमचउदिस-विदिसासु विरहमाणेण जुगंतरदिट्ठिणा भव्वेण दट्ठव्वा । पमाददोषेण डवडव-चरियाए पाणभूदजीवसत्ताणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।
ईर्यामार्ग में चलते हुए मैंने यदि प्रमाद से आज युग-चार हाथ प्रमाण भूमि न देखकर एकेन्द्रिय आदि जीव निकाय को पीड़ा पहुँचाई हो तो मेरा यह दुरित-पापाचरण गुरुभक्ति द्वारा मिथ्या हो हे भगवन्! ईर्र्यापथ संबंधी प्रमाद-दोष की निन्दा और गर्हारूप आलोचना करने की इच्छा करता हूँ । पूर्व, उत्तर, दक्षिण, और पश्चिम इन चार दिशाओं में वायव्य, ईशान, नैर्ऋत और आग्नेय इन चार ही विदिशाओं में विहार करते हुए भव्य को चार हाथ प्रमाण भूमि देख कर चलना चाहिये किन्तु प्रमादवश अत्यन्त जल्दी-जल्दी ऊँचे को मुख किये हुये इधर उधर गमन करने के कारण विकलेन्द्रिय प्राणों का, वनस्पतिकायिक भूतों का, पंचेन्द्रिय जीवों का तथा पृथिवी जल आदि सत्वों का उपघात किया हो, औरों से कराया हो, करते हुए को अच्छा माना हो, तो उसे उपघात से जायमान मेरा दुष्कृत मिथ्या हो-निष्फल हो । अनन्तर उठकर गुरु को अथवा देव को पंचांग नमस्कार करें पुन: गुरु के समक्ष अथवा गुरु दूर हो तो देव के समक्ष बैठ कर कृत्य विज्ञापन करें कि-
नमोऽस्तु भगवन् ! देववन्दनां करिष्यामि ।
अनन्तर पर्यंकासन से बैठकर नीचे लिखा मुख्य मंगल पढ़े-
सिद्धं सम्पूर्णभव्यार्थं सिद्धे: कारणमुत्तमम्।
प्रशस्तदर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपादनम् ।।१।।
सुरेन्द्रमुकुटाश्लिष्टपादपद्मांशुकेशरम् ।
प्रणमामि महावीरं लोकत्रितयमंगलम्।।२।।
जिनको अनन्त चतुष्टयरूप आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो चुकी है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लक्षण सम्पूर्ण भव्यार्थ की निष्पत्ति के उत्तम कारण हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के प्रतिपादन करने वाले हैं, जिनके चरण-कमल की किरणरूप केशर देवेन्द्रों के मुकुट में आश्लिष्ट है-लगी हुई है, जो तीन लोक के भव्य प्राणियों के पाप का नाश करने वाले हैं उन चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर को प्रणाम करता हूँ । अनंतर बैठे बैठे ही नीचे लिखा पाठ पढ़ कर सामायिक स्वीकार करें ।
खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे ।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि ।।१।।
रायबंधं पदोसं च हरिसं दीणभावयं।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोस्सरे ।।२।।
हा दुट्ठकयं हा दुट्ठचिंतियं भासियं च हा दुट्ठं ।
अंतोअंतो डज्झमि पच्छुत्तावेण वेयंतो ।।३।।
दव्वे खेत्ते काले भावे य कदावराहसोहणयं ।
णिंदणगरहणजुत्तो मणवचकाएण पडिकमणं।।४।।
समता सर्वभूतेषु सयंम: शुभभावना ।
आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिवं मतं ।।५।।
मैं सम्पूर्ण जीवों को क्षमा करता हूँ , सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरा किसी के साथ वैर-भाव नहीं है इसलिए सब प्राणियों के साथ मेरा मैत्री-भाव है।।१।। राग, द्वेष, हर्ष, दीनता, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति इन सब का मैं त्याग करता हूँ ।।२।। हा! मैंने कोई दुष्ट कार्य किया हो, दुष्ट चिन्तवन किया हो, तथा दुष्ट वचन बोले हों, तो मैं भगवान् अर्हंत के समक्ष निवेदन करता हुआ पश्चात्ताप पूर्वक अपने मन ही मन में दग्ध होता हूँ अर्थात् अपनी निन्दा करता हूँ ।।३।। मैं निन्दा और गर्हा से युक्त हुआ मन, वचन और काय की क्रिया से द्रव्य, क्षेत्र , काल, और भाव के विषय में किये गये अपराध का शोधनरूप प्रतिक्रमण करता हूँ ।।४।। सभी प्राणियों में समता भाव रखना, संयम पालना, शुभ भावना भाना, आर्त और रौद्रध्यानों का परित्याग करना सो सब सामायिक है।।५।।
अब प्रात: काल सम्बन्धी पूर्वाचार्यों के अनुक्रम से सम्पूर्ण कर्मों के क्षय के लिये भाव पूजा, वन्दना और स्तव सहित चैत्यभक्ति और तत्संबंधी कायोत्सर्ग करता हूँ । (यह प्रथम बार बैठना है) इस तरह कृत्यविज्ञापना कर खड़े होकर भूमि-स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें पश्चात् जिनप्रतिमा के सन्मुख चार अंगुल प्रमाण दोनों पैरों का अन्तर कर खड़े होवें । तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। पश्चात् मुक्ता-शुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़ कर नीचे लिखा सामायिक दण्डक पढ़े । पहले उच्छ्वास में अर्हंत-सिद्ध मंत्र का, दूसरे में आचार्य-उपाध्याय मन्त्र का और तीसरे में सर्व-साधु मन्त्र का स्वश्रवणगोचर जिसे दूसरा न सुन सके इस तरह एक बार उच्चारण कर पश्चात् चत्तारि-दण्डक स्तोत्र को समीपस्थ मनुष्य के कानों को मनोहर मालूम पड़े ऐसी सुरीली आवाज से पढ़ें । तद्यथा-
चार घातिया कर्मों से रहित , अनन्तचतुष्टय सहित, आठ प्रातिहार्य युक्त , समवशरणादिविभूतिसमन्वित, परम औदारिक शरीर के धारक, हितोपदेशी, सर्वज्ञ, वीतराग अरहंतों को , आठ कर्मों से रहित , आठ गुणों सहित सिद्धों को, पंचाचार का स्वयं पालन करने वाले, औरों को पालन कराने वाले छत्तीस गुण समन्वित आचार्यों को, बारह अंग और चौदह पूर्व का अध्ययन और अध्यापन करने-कराने वाले,स्वयं शुद्ध व्रतों से युक्त उपाध्यायों को, अट्ठाईस मूल गुणों से युक्त, मोक्ष पथका साधन करने वाले लोकवर्ती सम्पूर्ण साधुओं को नमस्कार करता हूँ । अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म ये चार मंगल रूप हैं-पाप कर्मों को नाश करने वाले और सुख को देने वाले हैं। अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म ये चारों, लोक में उत्तम हैं अर्थात् उत्तम गुणों से युक्त हैं और भव्यों को उत्तम पद की प्राप्ति के कारण हैं। अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म इन चारों की शरण को पाप्त होता हूँ अर्थात् ये दुर्जय कर्मरूप शत्रुओं से जायमान दु:खरूप समुद्र से भव्य जीवों को तारने वाले हैं इसलिए इन चारों की शरण ग्रहण करता हूँ । अढ़ाई द्वीप, दो समुद्र और पन्द्रह कर्मभूमियों में जितने भगवान् , आदितीर्थ के प्रवर्तक, तीर्थंकर, जिन, जिनोत्तम केवलज्ञानी अर्हंत हैं उन सब का क्रिया कर्म करता हूँ। सम्पूर्ण अर्थों को जानते हैं इसलिए बुध, सुख स्वरूप हैं इसलिए परिनिर्वत, अशेष कर्म जनित संसार का अन्त करने वाले अथवा एक एक तीर्थंकर के काल में दुर्धर उपसर्ग को प्राप्त कर एक अन्तर्मूहूर्त में घातिया कर्मों को नाश केवलज्ञान उत्पन्न कर और सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर सिद्धपद प्राप्त करने वाले दश-दश अन्तकृत , संसार समुद्र को पार करने वाले इसलिए पारंगत ऐसे जितने सिद्ध हैं उन सब का क्रिया कर्म करता हूं । तथा धर्म का आचरण करने वाले आचार्यों का, धर्म के उपदेशक उपाध्यायों का और धर्म के नायक सब साधुओं का क्रिया कर्म करता हूूं । एवं धर्मरूप चतुरंग सेना के अधिपति चतुर्णिकाय देवों द्वारा वन्दनीय अतएव देवाधिदेव ऐसे अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का तथा ज्ञान, दर्शन, और चारित्र इन तीन मुख्य गुणों का क्रिया कर्म करता हूं। हे भगवन् ! सामायिक (देववन्दना) करूँगा, सम्पूर्ण सावद्य योग-पाप कर्मों का त्याग करता हूँ । जब तक जीऊँे (नियम है) तब तक तीन प्रकार-मन से, वचन से और काय से सावद्य योग न करूँगा , न कराऊँगा और न करते हुए को अच्छा मानूँगा । अर्हंत आदिक क्रिया कर्म-सबंधी अतीचारों का त्याग करता हूँ । आत्मसाक्षिपूर्वक निन्दा करता हूँ तथा गुरु आदि की साक्षिपूर्वक गर्हा करता हूँ । इतना ही नहीं किंतु जब तक भगवान् अर्हंत देवों का पर्युपासन करूँगा तब तक जिनसे पाप-कर्मों का उपार्जन होता है ऐसे दुराचारों का भी त्याग करता हूं । (इस प्रकार उक्त सामायिक दण्डक पढ़कर पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करें । पश्चात् जिनमुद्रा जोड़कर कायोत्सर्ग करें । जिसमें ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि मंत्र का सत्ताईस उच्छ्वासों में नौ बार पूर्वाेक्त विधि के अनुसार जाप देवें या चिंतवन करें। अनन्तर भूमिस्पर्शनात्मक२ पंचांग नमस्कार करें पश्चात् पूर्वोक्त विधि से खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर नीचे लिखा ‘चतुर्विंशतिस्तव’’ पढ़े । तद्यथा-
चतुर्विंशतिस्तव
थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे।
णरपवरलोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे ।।१।।
लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे ।
अरहंते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणो ।।२।।
उसहमजियं च वंदे संभवमाभणंदणं च सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वन्दे ।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं सीयल सेयं च वासुपुज्जं च ।
विमलमणंतं भयवं धम्मं संति च वंदामि ।।४।।
कुंथुं च जिणवरिंदं अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं ।
वंदामि रिट्ठणेमिं तह पासं वड्ढमाणं च ।।५।।
एवं मए अभित्थुआ विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्गणाणलाहं दितु समाहिं च मे बोहिं ।।७।।
चंदेहिं णिम्मलयरा आइच्चेहिं अहियपयासंता ।
सायरमिव गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।।८।।
जो देश जिन ऐसे गणधर आदि से श्रेष्ठ हैं, अनंत संसार को जिनने जीत लिया है अथवा जो केवलज्ञान युक्त अनन्तजिन हैं, मनुष्यों में उत्कृष्ट लोक जो चक्रवर्ती आदि उनके द्वारा जो पूज्य हैं, जिसने ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप मल को नष्ट कर दिया है, जो पूज्यता को प्राप्त हुए हैं अथवा महाप्राज्ञ हैं ऐसे तीर्थंकरों का स्तवन करता हूँ ।।१।। जो केवलज्ञान द्वारा लोक का प्रकाश करने वाले हैं, उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण धर्मरूप तीर्थ के कर्ता हैं, कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले हैं अथवा केवलज्ञान से समन्वित हैं ऐसे चतुर्विंशति अर्हंतों का वन्दनापूर्वक निज-निज नाम सहित कीर्तन करूँगा ।।२।। ऋषभ , अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाश्र्व, और चन्द्रप्रभ जिनको वन्दना करता हूँ ।।३।। सुविधि द्वितीय नाम पुष्पदंत, शीतल, श्रेयान्, वासुपुज्य, विमल, अनंत, धर्म और शन्ति भगवान् को वन्दना करता हूं ।।४।। कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पाश्र्व और वर्धमान जिनवरेन्द्र को वन्दना करता हूँ ।।५।। इस तरह मेरे द्वारा स्तवन किये गये, रजोमल से रहित , जरा और मरण से हीन तथा देशजिनों में श्रेष्ठ चौबीस तीर्थंकर मुझ स्तुतिकत्र्ता पर प्रसन्न होवें ।।६।। वचनों से कीर्तन किये गये, मन से वंदना किये गये और काय से पूजे गये ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान, समाधि और बोधि प्रदान करें।।७।। सम्पूर्ण आवरणों के नष्ट हो जाने से चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल, सम्पूर्ण लोक का उद्योत करने वाले केवलज्ञानरूप प्रभा से समन्वित होने से सूर्य से भी अधिक प्रभासमान, तथा अलक्षमाण गुणरूप रत्नों से परिपूर्ण होने से सागर के समान गंभीर ऐसे सिद्ध परमात्मा मुझ स्तवक को सर्व कर्म विप्रमोक्षरूप सिद्धि देवें।।८।। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह एक कायोत्सर्ग में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति हुए। सामायिक दण्डक के आदि में तीन आवर्त और एक शिरोनमन, अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनमन तथा चतुर्विंशतिस्तव के आदि में तीन आवर्त और एक शिरोनमन और अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनमन एवं बारह आवर्त और चार शिरोनमन तथा सामायिक दण्डक के आदि में तीन आवर्त और एक शिरोनमन के पहले ‘अथ पौर्वाण्हिक’ इत्यादि क्रिया विज्ञापन कर खड़े होने के पीछे एक पंचांग भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार तथा चतुर्विंशतिस्तव दण्डक के आदि में तीन आवर्त और एक शिरोनमन के पहले तथा कायोत्सर्ग के अनन्तर एक पंचांग नमस्कार एवं दो प्रणाम एक कायोत्सर्ग में हुए। अनन्तर तीन प्रदक्षिणा देते हुए और प्रति दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक- एक शिरोनति करते हुए नीचे लिखी हुई चैत्यवन्दना पढ़ें । तद्यथा-
चैत्यभक्ति
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता- वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ ।
अर्थ –जो सुवर्णमय कमलों पर सामान्य मनुष्यों में न पाये जाने वाले और चरण क्रम के संचार से रहित प्रचार-गमन से शोभायमान हैं, देवों के मुकुटों में लगी हुई छाया-मणियों से निकलती हुई प्रभा से आलिंगित-स्पर्शित हैं ऐसे जिनके चरणों में आकर कलुष हृदय वाले , अहंकार से युक्त, परस्पर वैरी ऐसे सर्प नौला आदि जीव अपने-अपने स्वाभाविक व्रूर स्वभाव को छोड़कर विश्वास को प्राप्त होते हैं वे भगवान् जिनेन्द्र जयवंत रहें ।।१।।
अर्थ –अनन्तर उत्तमक्षमादिलक्षण श्रेष्ठ धर्म जयवंत हो, जिससे प्राणियों के स्वर्गादि पदों की प्राप्ति वृद्धि को प्राप्त होती है। जो संसारी जीवों को नरकादि कुगतियों से, मिथ्यादर्शन आदि कुमार्गों से और उनसे जयमान क्लेशो से छुड़ाता है। तथा द्रव्यार्थिक नय को गौणकर पर्यार्यािथक नयकी प्रधानता लेकर अङ्ग पूर्व आदि रूप से रचा गया अथवा पूर्वापर दोषरहित रचा गया ऐसा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप से अथवा अङ्ग पूर्व और अंग बाह्मरूप से तीन प्रकार का जिनेन्द्र का वचनरूप अमृत संसार से रक्षा करे ।।२।।
अर्थ – अनन्तर जिनेन्द्र का केवलज्ञान जयवंत हो, जिसमें स्यादस्ति, स्यान्नास्ति आदि सात भंगरूप कल्लोलें हैं जो द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप स्वभावों को प्रकाशित करता है। ऐसा यह केवलज्ञान अनन्तसुख के मोहनीयरूप द्वार को अंतराय- रूप आगल से रहित उद्घाटन कर ज्ञानदर्शनावरणरूप रज से रहित व्याधि अथवा जरा- मरण से रहित अविनश्वर मोक्ष को देवे ।।३।।
अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:।
सर्वजगद्वन्द्येभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।।
अर्थ – सम्पूर्ण जगत् द्वारा वन्दनीय सब अर्हंतों को , सब आचार्यों को, सब उपाध्यायों को और सब साधुओं को नमस्कार हो ।।४।।
अर्थ – जो मोह, राग, द्वेष आदि सम्पूर्ण दोष रूप शत्रुओं के घातक हैं जिनने हमेशा के लिये ज्ञानावरणरूप रज को नष्ट कर दिया है, तथा अन्तराय कर्म का भी जिनने विनाश कर दिया है
ऐसे पूजा योग्य अर्हंतों को नमस्कार हो ।।५।।
क्षान्त्यार्जवादिगुणगणसुसाधनं सकललोकहितहेतुं।
शुभधामनि धातारं वन्दे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम्।।६।।
अर्थ – क्षमा, आर्जव, मादर्व, शौच, आदि गुणों का समुदाय जिसकी उत्पत्ति में साधन है। जो सम्पूर्ण लोक के हित का कारण है और शुभ धाम जो निर्वाण उसमें स्थापन करने वाला है ऐसे जिनेन्द्रोक्त धर्म को वन्दता हूँ ।।६।।
मिथ्याज्ञानतमोवृतलोवैकज्योतिरमितगमयोगि ।
सांगोपांगमजेयं जैनं वचनं सदा वन्दे।।७।।
अर्थ – जो मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार से आच्छादित लोक का प्रकाशक होने से अद्वितीय ज्योति है। अपरिमित श्रुतज्ञान का जनक होने से संबंधी है। आचारादि अङ्गों और पूर्व वस्तु आदि उपांगों से युक्त है। तथा एकान्तवादियों कर अजेय है ऐसे जैन वचन को सदा वन्दना करता हूँ ।।७।।
अर्थ –भवनवासी देवों, कल्पवासी देवों,ज्योतिष्क देवों और व्यन्तर देवों के विमानों में तथा मनुष्य लोक में तीन जगत् कर वन्दनीय जिनेन्द्रदेव की जितनी भर प्रतिमा हैं उन सबको मन, वचन और काय से वन्दना करता हूँ ।।८।।
भुवनत्रयेऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यच्र्यतीर्थकतर्¸णाम्।
वन्दे भवाग्निशान्त्यै विभावानामालयालीस्ता: ।।९।।
अर्थ –जिनका संसारपरिभ्रमण विनष्ट हो चुका है, तीन भुवन के स्वामी देवेन्द्र, नरेन्द्र और धरणेन्द्र द्वारा पूज्य ऐसे तीर्थंकरों के आलय-मन्दिर की पंक्तियों को भी संसाररूप अग्नि की शांति के लिये वन्दना हूं ।।९।।
अर्थ –इस तरह वंदना किये गये अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनवचन, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नवदेवता बुधजन जो गणधर देवादि उनको इष्ट ऐसी मुझे निर्मल बोधि देवें ।।१०।।
अर्थ –तीन जगत में विद्यमान प्रचुरप्रभा से समन्वित मन्दिरों में स्थित, और मनुष्यों और देवों द्वारा पूज्य, प्रचुरतर प्रभायुक्त कृत्रिम और अकृत्रिम जिनेन्द्र के प्रतिबिंबों को प्रणमन करता हूँ ।।११।।
अर्थ – जो तीन भुवन में विद्यमान हैं जिनका शरीर-यष्टि प्रभामंडल से दैदीप्यमान है ऐसी अर्हंतों की अनुपम प्रतिमाओं को वन्दना करने वाला मैं पुण्य की प्राप्ति के निमित्त शरीर से अंजलि बांधता हूँ अर्थात् ऐसी प्रतिमाओं को हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ ।।१२।।
अर्थ –जो आयुध, विकार, आभूषणों से रहित हैं। अपने ही स्वभाव में स्थित हैं तथा कान्ति कर अतुल्य हैं ऐसी कृती अर्थात् कृतकृत्य जिनेश्वरों की प्रतिमागृहों में विराजमान प्रतिमाओं को पाप की शान्ति के लिये वन्दता हॅूं ।।१३।।
अर्थ –उत्कृष्ट शान्तता युक्त होने से कषाय का अभावरूप लक्ष्मी को कहने वाली, जिनेश्वर का जैसा रूप है वैसी मूर्तिमती, ऐसी संसार का नाश कर देने वाले जिनेश्वरों की मूर्तियों को आत्मपरिणामों की निर्मलता होने के लिये नमस्कार करता हूँ।।१४।।
अर्थ –तीन जगत में प्रसिद्ध अर्हंतों के प्रतिबिंबों की भक्ति करने से जो यह पुण्य मुझे प्राप्त हुआ है जो कि पाप के मार्ग को रोकने वााला है उस समर्थ पुण्य से मेरी भक्ति जन्म-जन्म में जिनधर्म में ही स्थिर होवे ।।१५।।
अर्हतां सर्वभावानां दर्शनज्ञानसम्पदाम् ।
कीर्तयिष्यामि चैत्यानि यथाबुद्धि विशुद्धये ।।१६।।
अर्थ – सम्पूर्ण पदार्थ जिनके विषयभूत हैं अथवा परिपूर्ण यथाख्यातचारित्र जिनके विद्यमान है, क्षायिकदर्शन और क्षायिकज्ञानरूप संपदा जिनके मौजूद है ऐसे अर्हंतों के चैत्यों का अपनी बुद्धि के अनुसार परिणामों की निर्मलता के लिए अथवा कर्ममल के प्रक्षालन के लिये कीर्तन करूँगा ।।१६।।
श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय: ।
वंदिता नो विधेयासु: प्रतिमा: परमां गतिम् ।।१७।।
अर्थ –मेरे द्वारा जिनकी वन्दना की गई है जो भवनवासी देवों के दैदीप्यमान भवनों में स्थित हैं जिनका स्वरूप स्वयं भासुररूप है ऐसी प्रतिमाएँ मुझ वंदक को परम गति अर्थात् मुक्ति प्रदान करें ।।१७।।
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च ।
तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये ।।१८।।
अर्थ – इस तिर्यग्लोक में कृत्रिम और अकृत्रिम जितने प्रचुरतर प्रतिबिंब हैं उन सबको विभूति के लिए वंदता हूँ ।।१८।।
ये व्यन्तरविमानेषु स्थेयांस: प्रतिमागृहा: ।
ते च संख्यामतिक्रान्ता: सन्तु नो दोषविच्छिदे ।।१९।।
अर्थ – व्यंतरों के आवासों में सर्वदा अवस्थित जो असंख्यात प्रतिमागृह हैं वे मेरे दोषों की शान्ति के लिये होवें ।।१९।।
ज्योतिषामथ लोकस्य भूतयेऽद्भुतसम्पद: ।
गृहा: स्वयंभुव: सन्ति विमानेषु नमामि तान् ।।२०।।
अर्थ –अनन्तर ज्योतिषी देवों के विमानों में अद्भुत सम्पत्तिधारी अर्हंतों के जो शाश्वत गृह हैं उनकों मैं विभूति के निमित्त नमस्कार करता हूँ ।।२०।।
वन्दे सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम्।
या: क्रमेणैव सेवन्ते तदर्चा: सिद्धिलब्धये ।।२१।।
अर्थ – जो देवों के मुकुट के अग्र भाग में लगी हुई मणियों की कान्ति से अभिषेक को चरणों द्वारा सेवन करती हैं अर्थात् जिनके चरणों में वैमानिक देव सिर झुकाते हैं उन वैमानिक देवों के विमान संबंधी प्रतिमाओं को मुक्ति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
इति स्तुतिपथातीतश्रीभृतामर्हतां मम।
चैत्यानामस्तु संकीर्ति: सर्वास्रवनिरोधिनी।।२२।।
अर्थ – इस प्रकार स्तुति के मार्ग को अतिक्रमण करने वाली अर्थात् जिसकी स्तुति इन्द्रादिक देव भी नहीं कर सकते ऐसी अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी को धारण करने वाले अर्हतों के चैत्यों की स्तुति मेरे सम्पूर्ण आस्रवों को रोकने वाली होवे ।।२२।।
अर्थ –जो तीन भुवन में निवास करने वाले भव्यजनरूप तीर्थ यात्रियों के पाप कर्म के प्रक्षालन करने में अद्वितीय कारण है, जिसने लौकिक मिथ्या तीर्थों का अतिक्रमण-उल्लंघन कर दिया है, जिसमें लोक और अलोक का सच्चा स्वरूप समझाने में समर्थ ऐसे दिव्य केवलज्ञान या मतिश्रुतादि ज्ञान हो प्रतिदिन बहते हुये प्रवाह हैं, व्रत और शील ही जिसके स्वच्छ और विशाल दो तट हैं, जो शुक्ल ध्यानरूप स्थित ऐसे दीप्त राजहंसों कर शोभित है, जिसमें निरंतर स्वाध्याय पाठ ही मनोज्ञ नाद (शब्द) हैं, जो चौरासी लाख गुण, पंच समिति और तीन गुप्तिरूप सिकता (बालू) से सुशोभित है, जिसमें क्षमागुण ही हजारों आवर्त-लहरें हैं, सम्पूर्ण प्राणियों पर दयाभाव ही खिले हुए पुष्पों से शोभायमान बेल है, दु:सह क्षुधादि परीषह ही शीघ्र इधर-उधर फैलती हुई चंचल तरंगों का समुदाय है, कषायरूप पेन जिसमें नष्ट हो गया है, जो राग-द्वेषादि दोषरूप शैवाल (कांजी) से रहित है, जिसमें मोहरूप कीचड़ का अभाव है, मरणरूप मकरों का समूह नष्ट हो चुका है, ऋषिश्रेष्ठ गणधरदेवादिकों कर बोली गई स्तुतियों के मनमोहक उत्कट शब्द ही नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव हैं, नाना भांति के तपोनिधि-मुनि ही किनारा है, जो आते हुए कर्मरूप जल के संवरण और आए हुए कर्मरूप जल के नि:स्त्रवण से मुक्त है, जिसमें गणधर , चक्रधर, इन्द्र आदि भव्य-पुंडरीक पुरुषों ने पापरूप कलुष मल को दूर करने के लिये भक्तिपूर्वक स्नान किया है, जो बड़ा भारी है, परम पवित्र है, जिनके स्वरूप प्रतिवादियों करके न जीते जा सवें ऐसे जीवादि पदार्थों से जो अगाध है ऐसा अर्हंतरूप महानद का उत्तम तीर्थ पापमल का प्रक्षालनरूप स्नान करने के लिये प्रविष्ट हुए मेरे भी दुस्तर समस्त पापों का व्यवहरण-नाश करे ।।२३-३०।।
अर्थ – हे भगवन् जिनेन्द्र ! सम्पूर्ण कोपरूप अग्नियों के क्षय हो जाने से जिसमें नयनरूप उत्पलपत्र कुछ-कुछ लाल हैं या लालिमा रहित हैं, वीतरागता की परम प्रकर्षता के होने से जो कटाक्षरूप वाणों के छोड़ने से रहित है, विषाद और मद की हानि होने से सदा प्रफूल्लित है ऐसा आपके यथाजातरूप में आपका मुख आपके हृदय की आत्यंतिक शुद्धि को कह रहा है। हे भगवन् ! आपका रूप राग के आवेग के उदय के नष्ट हो जाने से आभरण रहित होने पर भी भासुररूप है, आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिये वस्त्र रहित नग्न होेने पर भी मनोहर है, आपका यह रूप न औरों के द्वारा हिंस्य है और न औरों का हिंसक है इसलिये आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है, तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओं के विनाश हो जाने से आहार न करते हुए भी तृप्तिमान् है। आपके नख और केश नहीं बढ़ते हैं वे उतने ही हर समय रहते हैं। जितने केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय होते हैं। रजोमल का स्पर्श भी आपके नहीं हैं, आपके रूप में विकसित कमल और चन्दन के सदृश दिव्यगंध का उदय है। आपका यह रूप सूर्य, चन्द्रमा, वङ्का आदि एक सौ आठ प्रशस्त- चिन्हों से अलंकृत है तथा हजारों सूय्र्र्योंं के समान भासुर होकर भी नेत्रों को अत्यन्त प्रिय है। आपके रूप को देखकर मोक्ष के परिपंथी शत्रु ऐसे प्रबल राग, मोह आदि दोषों से कलंकित मनवाला जन-समुदाय अतिशय शुद्ध हो जाता है, जो जगत् में देखने वालों को चारों दिशाओं में सदा सन्मुख ही शरत्कालीन उदयापन्न निर्मल चन्द्रमा के समान दीखता है , देवेन्द्रों के नमस्कार प्रवण मुकुटों की पंक्तियों में जटित मणियों की स्पुâरायमान किरणों से आपके दोनों चरण-कमल आलिंगित हैं ऐसा वह यह आपका रूप, जैनमत से भिन्न अन्य मिथ्या तीर्थों से भी गुरु रूप राग-द्वेष, मोहादि दोषों के प्रादुर्भाव से अन्धे हुए सारे जगत को पवित्र करे ।।३१-३५।। अनन्तर चैत्य के सन्मुख बैठकर नीचे लिखा आलोचना पाठ पढ़ें ।
अर्थ –हे भगवन्! चैत्यभक्ति और तत् संबंधी कायोत्सर्ग किया उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊध्र्वलोक में जो कृत्रिम और अकृत्रिम जितनी प्रतिमाएँ हैं उन सबको तीन लोक में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी ये चार प्रकार के देव अपने-अपने परिवार सहित दिव्य गंध से, दिव्य पुष्पों से, दिव्य धूप से, दिव्य चूर्ण से, दिव्य सुगंधि से और दिव्य अभिषेक से सदा अर्चते हैं पूजते हैं वन्दते हैं नमस्कार करते हैं मैं भी यहीं पर बैठा हुआ वहाँ स्थित प्रतिमाओं को सदा अर्चता हूँ पूजता हूँ वन्दता हूँ नमस्कार करता हूँ , मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधि-रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, जिनगुणसंपत्ति हो । अनन्तर२ बैठे बैठे ही नीचे लिखा कृत्य विज्ञापन करें।
अब प्रात:काल संबंधी पूर्वाचार्यों के अनुक्रम से सकल कर्मोंं के क्षय के लिये भावपूजावन्दनास्तव सहित पंचमहागुरुभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग करता हूँ। अनन्तर उठ कर पंचांग नमस्कार करें । पश्चात् भगवान् के सन्मुख पहिले की तरह खड़े होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़ कर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर पूर्वोक्त ‘‘सामायिक दंडक’’ पढ़ें । अंत में तीन आवर्त और एक शिरोनति कर सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करें । कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर पुन: पंचांग नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करें पश्चात् ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशति स्तव पढ़कर अंत में तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। अनन्तर भगवान् के सन्मुख पूर्वोक्तरीति से खड़े होकर नीचे लिखी पंचमहागुरुभक्ति पढ़ें।
अर्थ – जिनके सिर पर मनुष्य, धरणेन्द्र और सौधर्मादि देव तीन छत्र लगाये खड़े रहते हैं, जो गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पंचकल्याणक संबंधी सुखों को प्राप्त हुए हैं। जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तध्यान-सुख,और अनन्तवीर्य इन अनंत चतुष्टय समन्वित हैं वे अर्हंत प्रभु हमारे लिए उत्कृष्ट मङ्गल प्रदान करें ।।१।।
अर्थ – जिनने ध्यानरूप अग्निवाण से अत्यंत दृढ़ जन्म, जरा और मरणरूप तीन नगर निर्दग्ध किये हैं तथा जिनने शाश्वत स्थान-मोक्ष प्राप्त किया है वे सिद्ध परमात्मा मुझे उत्कृष्ट ज्ञान देवें ।।२।।
अर्थ – जो पंचाचाररूप पंचाग्नि के साधक हैं, द्वादशांग श्रुतरूप समुद्र में अवगाहन करते हैं, मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों से सगंत-युक्त हैं वे आचार्य परमेष्ठी हमें उत्कृष्ट मोक्षलक्ष्मी देवें ।।३।।
घोरसांरभीमाडवीकाणणे, तिक्खवियरालणहपावपंचाणणे।
णट्ठमग्गाण जीवाण पहदेसिया, वंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया।।४।।
अर्थ –तीक्ष्ण नखों वाले पापरूप विकराल सिंह जहां विचरण कर रहे हैं ऐसे घोर संसाररूप भयानक अटवियों में मार्ग भूले हुए जीवों को जो पथ प्रदर्शक हैं। उन उपाध्यायों को हम सदा नमस्कार करते हैं ।।४।।
णिब्भरं तवसिरियसमालिंगया, साहवो ते महामोक्खपथमग्गया।।५।।
अर्थ – जिनका उग्र तपश्चरण के करने से शरीर क्षीण हो गया है, जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान में तल्लीन रहते हैं तथा तपोलक्ष्मी से आलिंगित हैं वे साधु परमेष्ठी हमें मोक्ष का मार्ग दिखलाने में अग्रसर होवें ।।५।।
एण थोत्तेण जो पंचगुरु वंदए, गुरुयसंसारघनवल्ली सो छिंदए ।
लहइ सो सिद्धसोक्खाइं बहुमाणणं, कुणइ कम्मिधणं पुंजपज्जालणं ।।६।।
अर्थ –जो इस स्तोत्र द्वारा पंचमहागुरुओं की स्तुति करता है वह संसाररूप बड़ी भारी सघन बेल को छेद डालता है, मोक्ष सुख को आदर के साथ प्राप्त होता है तथा कर्मरूप ईधन के पुंज को जला देता है ।।६।।
अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी ।
एदे पंचणमोयारा भवे भवे मम सुहं दिंतु।।७।।
अर्थ – अर्हंत, सिद्ध ,आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंच परमेष्ठीरूप पंचनमस्कार मुझे भव भव में सुख देवें ।।७।। अनन्तर बैठ कर नीचे लिखा आलोचना-पाठ पढ़ें ।
अर्थ – हे भगवन्! पंचमहागुरुभक्ति और तत्संबन्धी कायोत्सर्ग किया उसकी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। अष्ट महाप्रातिहार्य संयुक्त अर्हंतों का, अष्ट गुणोंकर संपन्न ऊध्र्वलोक के मस्तक पर प्रतिष्ठित सिद्धों का, अष्ट प्रवचनमातृकाओं से संयुक्त आचार्यों का, आचारादि श्रुतज्ञान के उपदेशक उपाध्यायों का और रत्नत्रय के पालन में रत सर्व साधुओं का सदा अर्चन करता हूं पूजन करता हूँ वंदना करता हूँ नमस्कार करता हूँ । मेरे दु:खों का क्षय हो , कर्मों का क्षय हो, बोधि-रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो, जिनगुणसंपत्ति हो । पश्चात् पूर्वोक्त देववंदना के पाठ में न्यूनता हुई हो अथवा अधिकता हुई हो तो इसकी विशुद्धि के लिए समाधिभक्ति पढ़ने का आगम में नियम है।
तद्यथा – प्रथम बैठ कर क्रियाविज्ञापन करें। अथ पौर्वाण्हिकदेववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-वंदनास्तवसमेतं श्रीचैत्यपंचगुरुभक्ती विधाय तद्धीनाधिकत्वादिदोष-विशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोमि । अथ पौर्वाह्निक देववंदना में पूर्वाचार्यों के अनुक्रम से सकल कर्मों के क्षय के लिए भावपूजावंदनास्तव सहित श्रीचैत्यभक्ति और श्रीपंचगुरुभक्ति करके उनके हीनाधिकत्वादि दोषों की विशुद्धि के लिए आत्मा के पवित्र करने के लिए १समाधिभक्ति और तत्संबंधी कायोत्सर्ग करता हूँ ।
अनन्तर उठकर पंचांग नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति पूर्वक ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दंडक पढ़ें । दंडक के अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करें । अनन्तर भूमिस्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति पूर्वक ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि दंडक पढ़ें । अन्त में पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति कर नीचे लिखी ‘‘समाधिभक्ति पढ़ें’’। तद्यथा-
समाधि-भक्ति अथेष्ट-प्रार्थना-प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग को नमस्कार हो । शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुति: संगति: सर्वदार्यै: सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम्। सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्वे सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गा:।।१।।
अर्थ –मेरे शास्त्रों का अभ्यास हो, जिनपति को नमस्कार हो, आर्य पुरुषों की सदा संगति हो, सदाचार परायण पुरुषों के गुणों के समूह की कथा हो, पराये दोषोंं के कहने में मौन हो, सब के प्रिय और हितरूप वचन हो, अपने आत्मस्वरूप में भावना हो, मुझे जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हों तब तक ये सब जन्म-जन्म में प्राप्त हों ।
अर्थ – हे भगवन् ! समाधिभक्ति और तत्संबन्धी कायोत्सर्ग किया उसकी मैं आलोचना करता हूँ, पूजन करता हूँ , रत्नत्रय स्वरूप परमात्म ध्यान लक्षण समाधि का सर्वकाल अर्चन करता हूँ, पूजन करता हूँ, वंदना करता हूँ नमस्कार करता हूँ । मेरे दु:खों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधि का लाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधि मरण हो, जिनगुण-संपत्ति हो अनन्तर यथावकाश आत्मध्यान करें ।।।