अथ प्रथम: परिच्छेद:
देवागम – नभोयान – चामरादि – विभूतय:।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान्।।१।।
भगवन्! पंचकल्याणक में तव, देवोें का आगमन महान।
केवलज्ञान प्रगट होने पर, नभ में अधर गमन सुखदान।।
छत्र, चमर आदिक वैभव सब, मायावी में भी दिखते।
अत: आप हम जैसों द्वारा, पूज्य-वंद्य नहिं हो सकते।।१।।
अन्वयार्थ-(देवागम नभोयान चामरादिविभूतय:) हे भगवन्! आपके जन्मोत्सव आदि में देवों का आना, केवलज्ञान होने के बाद आकाश में गमन और चमर, छत्र आदि समवसरण की विभूतियाँ ये सब (मायाविष्वपि दृश्यन्ते) मायावी इंद्रजालिया आदि जनों में भी देखी जाती हैं (अत: त्वं न: महान् न असि) अतएव भगवन्! आप मेरे लिए महान-वंद्य नहीं है।।१।।
कारिकार्थ-आपके जन्मकल्याणक आदिकों में देवों का आगमन, आप का आकाश मार्ग में गमन एवं समवसरण में चामर, छत्र आदि अनेक विभूतियों का होना आदि यह सब बाह्य वैभव मायावी विद्याधर मस्करी आदिकों में भी पाया जा सकता है अत: हे भगवन्! हम लोगों के लिए आप महान नहीं हैं-स्तुति करने योग्य नहीं हैं।।१।।
अध्यात्मं बहिरप्येष, विग्रहादि-महोदय:।
दिव्य: सत्यो दिवौकस्स्व-प्यस्ति रागादिमत्सु स:।।२।।
विग्रह आदि महोदय भगवन्! तव अध्यात्म क्षुधादि रहित।
बाह्य महोदय कुसुमवृष्टि, गंधोदक आदिक देव रचित।।
दिव्य, सत्य ये वैभव फिर भी, रागादिक युत सुरगण में।
पाये जाते हैं, हे जिनवर! अत: आप नहिं पूज्य हमें।।२।।
अन्वयार्थ-(एष अध्यात्मं बहिरपि विग्रहादि महोदय:) यह अंतरंग और बहिरंग शरीर आदि का जो महोदय है (दिव्य: सत्य:) जो कि अमानुषिक और सत्य है (स: रागादि मत्सु दिवौकस्सु अपि अस्ति) वह महोदय राग-द्वेष आदि सहित देवों में भी पाया जाता है। इसलिए भी आप हमारे लिए महान नहीं हो सकते हैं।।२।।
कारिकार्थ-अंतरंग विग्रह आदि महोदय-निरन्तर पसीनारहितपना आदि एवं बहिरंग-गन्धोदक वृष्टि आदि महोदय जो कि दिव्य हैं, सत्य अर्थात् वास्तविक हैं। इस प्रकार अन्तरंग, बहिरंग शरीर आदि महोदय भी मस्करीपूरण आदि में न होते हुए भी रागद्वेषयुक्त देवों में पाये जाते हैं, इसलिए भी हे भगवन्! आप महान नहीं हैं।।२।।
तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधत:।
सर्वेषामाप्तता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरु:।।३।।
सभी मतो में सभी तीर्थकर, के आगम में दिखे विरोध।
सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते अत: जिनेश!।।
इन सबमें से कोई एक ही, आप्त-सत्यगुरु हो सकता।
चित्-सर्वज्ञ देव परमात्मा, सत्त्वहितंकर जगभर्ता।।३।।
अन्वयार्थ-(तीर्थकत्समयानां च) सभी तीर्थंकरों के आगमों में (परस्पर विरोधत:) परस्पर में विरोध पाया जाता है अत: (सर्वेषां आप्तता नास्ति) सभी आप्त नहीं हो सकते हैं (कश्चिदेव भवेत् गुरु:) इन सबमें से कोई एक ही महान गुरु हो सकता है।।३।।
कारिकार्थ-परमागम लक्षण तीर्थ को करने वाले तीर्थकृत् कहलाते हैं। उनके समय अर्थात् आगमों में परस्पर में भिन्न-भिन्न अभिप्राय होने से विरोध पाया जाता है, अत: सभी को आप्तपना (सर्वज्ञपना) नहीं है, अर्थात् मीमांसक, सांख्य, सौगत, नैयायिक, चार्वाक, तत्वोपप्लववादी, यौग, ब्रह्माद्वैतवादी, ज्ञानाद्वैतवादी आदि अनेक एकान्तमतावलम्बी वादियों में सभी के ही सर्वज्ञता नहीं हो सकती है, इसलिए कोई एक गुरु-परमात्मा अवश्य है।।३।।
भावार्थ-श्री समंतभद्र स्वामी ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’ आदि मंगलाचरण का आधार लेकर सर्वज्ञ भगवान की परीक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं। तब वे भगवान से मानों प्रश्नोत्तर ही कर रहे हैं अत: पहली कारिका में तो स्वामी ने देवागम आदि वैभव से भगवान को पूज्य नहीं माना, दूसरी कारिका में शरीर आदि के विशेष महोदय से भी पूज्य नहीं माना है। पुन: तीसरी कारिका में तीर्थंकरत्व हेतु से भी पूज्य नहीं माना है। इसी कारिका में परस्पर विरोध शब्द से श्री विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री ग्रंथ में मीमांसक आदि के वेदों में नियोगवाद, विधिवाद आदि के निमित्त से विशेषरूप से परस्पर के विरोध को स्पष्ट किया है एवं जो सर्वज्ञ को ही नहीं मानते हैं और वेदों को अपौरुषेय मानते हैं तथा चार्वाक और शून्यमतवादी भी आत्मा एवं परलोक का अस्तित्व न मानने से सर्वज्ञ का अभाव कहते हैं। इन सभी को समझाते हुए इनके मतों का खण्डन करके ठीक से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया है।
दोषावरणयोर्हानि-र्नि:शेषास्त्यतिशायनात्।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षय:।।४।।
किसी जीव में सर्व दोष अरु, आवरणों की हानि नि:शेष।
हो सकती है क्योंकि जगत में, तरतमता से दिखे विशेष।।
रागादिक की हानि किन्हीं में, दिखती है कुछ अंशों से।
जैसे हेतू से बाह्यांतर, मल क्षय होता स्वर्णों से।।४।।
अन्वयार्थ-(क्वचित्) किसी जीव विशेष में (दोषावरणयोर्हानि: नि:शेषा अस्ति) दोष और आवरणों की हानि पूर्णतया पायी जाती है (अतिशायनात्) क्योंकि अन्य जीवो में दोष और आवरण की तरतमता देखी जाती है (यथा स्वहेतुभ्यो बहिरंत: मलक्षय:) जैसे अपने हेतु आदि से सुवर्ण के किट्ट, कालिमा आदि अंतरंग एवं बहिरंग मल का नाश देखा जाता है।।४।।
कारिकार्थ-किसी जीव में दोष और आवरण की हानि परिपूर्ण रूप से हो सकताr है क्योंकि अन्यत्र उसका अतिशयपना पाया जाता है। जिस प्रकार से अपने हेतुओं के द्वारा कनकपाषाणादि में बाह्य एवं अंतरंग मल का पूर्णतया अभाव पाया जाता है।।४।।
सूक्ष्मांतरितदूरार्था:, प्रत्यक्षा: कस्यचिद्यथा।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति:।।५।।
सूक्ष्म वस्तु परमाणु आदि, अंतरित राम-रावण आदिक।
दूरवर्ति हिमवन सुमेरु ये, हैं प्रत्यक्ष किसी के नित।।
क्योंकि ये अनुमेय कहे हैं, जैसे अग्न्यादिक अनुमेय।
इस अनुमान प्रमाण कथित, सर्वज्ञ व्यवस्था है स्वयमेव।।५।।
अन्वयार्थ-(सूक्ष्मांतरित दूरार्था: कस्यचित् प्रत्यक्षा:) सूक्ष्म, अंतरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं (अनुमेयत्वत:) क्योंकि ये अनुमान ज्ञान के विषय हैं (यथा अग्न्यादि:) जैसे अग्नि आदि पदार्थ अनुमान ज्ञान के विषय हैं अत: किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं (इति सर्वज्ञसंस्थिति:) इस प्रकार से सर्वज्ञ की सम्यक् प्रकार से स्थिति सुघटित है।।५।।
कारिकार्थ-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि वे अनुमान ज्ञान के विषय हैं जैसे अग्नि आदि, इस प्रकार से सर्वज्ञ सिद्धि होती है।
सूक्ष्म-स्वभाव से परोक्ष परमाणु आदिक, अन्तरित-काल से परोक्ष राम, रावण आदिक, दूरवर्ती-देश से परोक्ष हिमवान पर्वत, सुमेरु आदिक; ये किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदिक। इस अनुमान वाक्य से सर्वज्ञ की सम्यक् प्रकार से सिद्धि होती है।
स त्वमेवासि निर्दोषो, युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्।
अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते।।६।।
वह रागादिक दोष रहित, सर्वार्थविज्ञ प्रभु तुम्हीं कहे।
क्योंकि तुम्हारे वचन युक्ति, आगम से अविरोधी नित हैं।।
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से तव, तत्त्व अबाधित हैं जग में।
अत: प्रभो! यह शासन तेरा, नित अविरोधी जन जन में।।६।।
अन्वयार्थ-(स: निर्दोष: त्वमेव असि) हे भगवन्! वह निर्दोष सर्वज्ञ आप ही हैं (युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्) क्योंकि आपके वचन तर्क और आगम से विरोध रहित हैं। (ते यत् इष्टं अविरोध:) और जो यह आपका इष्ट मत है वह अविरोधी है (प्रसिद्धेन न बाध्यते) क्योंकि वह प्रसिद्ध प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होता है।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! दोष और आवरण से रहित निर्दोष सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले एवं युक्ति-शास्त्र (तर्क व आगम) से अविरोधी वचन को बोलने वाले अर्हंत परमात्मा आप ही हैं क्योंकि आपका इष्ट (मत) विरोध रहित है उसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है।।६।।
त्वन्मतामृतबाह्यानां, सर्वथैकांतवादिनाम्।
आप्ताभिमानदग्धानां, स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।।७।।
प्रभु तव मत अमृत से बाहर, दुराग्रही-एकांतमती।
‘मैं हूँ आप्त’ सदा इस मद से, दग्ध हुए अज्ञानमती।।
उनका वह ऐकांतिक शासन, इष्ट उन्हें फिर भी बाधित।
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से वह, तत्त्व सदा निन्दित दूषित।।७।।
अन्वयार्थ-(सर्वथैकांतवादिनां) वस्तु के एक-एक धर्म को सर्वथारूप से स्वीकार करने वाले एकांतवादी जन (त्वन्मतामृतबाह्यानां) जो कि आपके मतरूपी अमृत से बहिर्भूत हैं (आप्ताभिमानदग्धानां) और जो ‘मैं आप्त हूँ’ इस प्रकार के अभिमान से दग्ध हैं (स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते) उनका जो अपना इष्ट-मत है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है।।७।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके मत रूप अमृत से जो बहिर्भूत हैं सर्वथा एकांतरूप मत को कहने वाले हैं और ‘‘मैं ही आप्त हूँ’’ इस प्रकार के अभिमान से जो दग्ध हैं उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है।।७।।
कुशलाऽकुशलं कर्म, परलोकश्च न क्वचित्।
एकांत-ग्रह-रक्तेषु, नाथ! स्व-पर-वैरिषु।।८।।
नाथ! स्वपर वैरी एकांत-ग्रह पीड़ित जन के मत में।
शुभ अरु अशुभ क्रिया परलोका-दिक फल भी नहिं बनते हैं।।
पुण्य-पाप फल बंध-मोक्ष की, नहीं व्यवस्था भी बनती।
क्योंकि सर्वथा नित्य-क्षणिक में, अर्थ क्रिया ही नहिं घटती।।८।।
अन्वयार्थ-(नाथ एकांतग्रहरक्तेषु) हे नाथ! जो लोग एकांत को ग्रहण में तत्पर हैं। (स्वपरवैरिषु) वे स्व और पर के शत्रु हैं। (क्वचित् कुशलाकुशलं कर्म च परलोक: न) उनके यहाँ पुण्य-पाप कर्म एवं परलोक भी नहीं सिद्ध होगा।।
कारिकार्थ-हे नाथ! नित्य अथवा अनित्य आदि एकान्त मान्यता का दुराग्रह करने वाले ऐसे स्व एवं पर के बैरी-शत्रु मिथ्यादृष्टि जनों में से किसी के यहाँ भी कुशल-पुण्य, अकुशल-पाप क्रियाएँ तथा परलोकादि की व्यवस्था भी नहीं बन सकती है।।८।।
भावैकांते पदार्थाना-मभावानामपन्हवात्।
सर्वात्मकमनाद्यन्त-मस्वरूपमतावकम्।।९।।
सब पदार्थ एकांतरूप से, अस्तिरूप ही यदि जग में।
तो अभाव का लोप हुआ फिर, चार दोष है प्रमुख बने।।
सब पदार्थ सबरूप, अनादि, अनिधन नि:स्वरूप होंगे।
हे भगवन्! तव मत के द्वेषी, जन के यहाँ न कुछ होंगे।।९।।
अन्वयार्थ-हे भगवन्! (पदार्थानां भावैकांते अभावानां अपह्नवात्) यदि पदार्थों के अस्तित्व का ही एकांत माना जाये, तब तो अभावों का लोप हो जाता है (अतावकं सर्वात्मकं अनाद्यनंतं अस्वरूपं) पुन: आपसे भिन्न अन्य सभी के यहाँ सभी वस्तु सर्वात्मक, अनादि, अनंत और स्वरूप शून्य हो जावेंगी।
कारिकार्थ-हे भगवन्! यदि आप से भिन्न अन्य मतावलम्बियों के यहाँ सभी पदार्थ सर्वथा भावैकान्त-नित्यरूप ही माने जावेंगे, तब तो अभाव-प्रागभ्ााव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभावरूप अभावों का नाश हो जाने से सभी पदार्थ सर्वात्मक, अनादि, अनन्त और अस्वरूप-स्वरूप रहित-शून्यरूप हो जावेंगे।
भावार्र्थ-प्रत्येक वस्तु में जैसे भाव धर्म है, वैसे ही अभाव धर्म भी है वह अभाव मुख्यतया चार भेद रूप है। यथा-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यंताभाव। यहाँ कारिका के उत्तरार्ध में उन्हीं चार अभावों के न मानने से होने वाले दोषों के नाम बताये गये हैं। आगे ग्रंथकार स्वयं इस बात को प्रकट करेंगे।
कार्यद्रव्यमनादि स्यात्, प्रागभावस्य निन्हवे।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य, प्रच्यवेऽनतन्तां व्रजेत्।।१०।।
प्रागभाव को यदि नहिं मानों, सभी कार्य हो अनादि सिद्ध।
मिट्टी में घट सदा बना है, फिर क्या करता चक्र निमित्त।।
यदि प्रध्वंस धर्म नहिं मानों, किसी वस्तु का अन्त न हो।
पिता, पितामह आदि कभी भी, अंत-मरण को प्राप्त न हों।।१०।।
अन्वयार्थ-(प्रागभावस्य निह्नवे कार्यद्रव्यमनादिस्यात्) यदि प्रागभाव को न माना जावे, तब तो सभी कार्य अनादि हो जावेंगे (प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवे अनंततां व्रजेत्) और प्रध्वंस धर्म को नहीं मानने पर सभी वस्तुएं अनंतकाल तक बनी रहेंगी।।१०।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! यदि प्रागभाव का लोप करेंगे, तब तो सम्पूर्ण कार्य अनादि सिद्ध हो जावेंगे और यदि प्रध्वंसाभाव का अभाव करेंगे, तब तो सभी वस्तु की पर्यायें अनन्तपने को प्राप्त हो जावेंगी।।१०।।
भावार्र्थ-इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंदस्वामी ने अष्टसहस्री में अभाव के नहीं मानने वालों का विस्तृत खंडन किया है।
चार्वाक प्रागभाव को स्वीकार नहीं करता है, नैयायिक प्रागभाव को तुच्छाभाव रूप मानते हैं। चार्वाक प्रध्वंसाभाव को भी नहीं मानता है अत: शब्द को नित्य एक अखण्ड सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। नैयायिक शब्द को नित्यभूत आकाश का गुण मान रहे हैं।
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह-व्यतिक्रमे।
अन्यत्र समवाये न, व्यपदिश्येत सर्वथा।।११।।
यदि अन्योन्याभाव नहीं हो, एक वस्तु सब रूप बने।
एक समय में मनुज बने, सुर-पशु-नारक पर्याय घने।।
यदि अत्यन्ताभाव न होवे, एक द्रव्य का अन्यों में।
हो जावे संमिश्रण फिर यह, जीव-अजीव न भेद बने।।११।।
अन्वयार्थ-(अन्यापोहव्यतिक्रमे तदेकं सर्वात्मकं स्यात्) यदि अन्यापोह का लोप कर दिया जाये, तो वह अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व सब रूप बन जावेगा (अन्यत्र समवाये सर्वथा न व्यपदिश्येत) और यदि अत्यंताभाव का लोप किया जावे, तब तो एक इष्ट तत्त्व का अन्य के तत्त्व में संमिश्रण हो जाने पर सर्वथा अपना इष्ट तत्त्व कहा ही नहीं जा सकेगा।११।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! यदि अन्यापोह-इतरेतराभाव का लोप किया जावे, तो सभी वस्तु सर्वात्मक एकरूप हो जावेंगी। यदि अत्यन्ताभाव का लोप किया जावेगा, तब तो अन्यत्र समवाय स्वसमवायी आत्मा का भिन्न समवायी प्रधान आदि में समवाय हो जाने पर सभी का इष्ट तत्त्व सर्वथा कहा ही नहीं जा सकेगा।
भावार्थ-इस कारिका के अर्थ में श्री विद्यानंद महोदय ने उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य में प्रत्येक के ८१-८१ भेद बड़े ही रोचक ढंग से किये हैं एवं सत्ता का लक्षण भी विशेष वर्णन से सहित है। विशेष जिज्ञासुओं को अष्टसहस्री में ही देखना चाहिए।
अभावैकांत-पक्षेऽपि, भावापन्हव-वादिनाम्।
बोधवाक्यं प्रमाणं न, केन साधनदूषणम्।।१२।।
यदि सब वस्तु अभावरूप हैं, शून्यवाद जन के मत में।
तब तो भाव-पदारथ किंचित्, नहिं प्रतिभासित हों जग में।।
ज्ञान और आगम भी किंचित्, नहिं प्रमाण होंगे तब तो।
वैâसे अपने मत का साधन, परमत दूषण किससे हो।।१२।।
अन्वयार्थ-(अभावैकांत पक्षेऽपि भावापन्हववादिनां) यदि एकांत से सभी वस्तु को अभाव रूप ही स्वीकार किया जावे, तब तो भावों का सर्वथा अभाव करने वाले इन वादियों के यहाँ (बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम्) ज्ञान और आगम दोनों का भी अभाव होने से दोनों प्रमाण नहीं रहेंगे। पुन: किसके द्वारा अपने पक्ष का साधन और पर के पक्ष में दूषण दिया जावेगा।।१२।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! पदार्थ का सर्वथा अपलाप करने वाले अभावैकांतवादी माध्यमिकबौद्धों के यहाँ भी ज्ञान एवं वाक्य भी नहीं रहेंगे और पुन: बोधवाक्यों की प्रमाणता न होने से वे लोग स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का दूषण भी वैâसे कर सकेंगे ?।।१२।।
भावार्थ-जब किसी वस्तु का सद्भाव ही नहीं है, सभी वस्तुओं का अभाव ही अभाव है, तब तो स्वार्थानुमान रूप ज्ञान एवं आगम आदि भी कहाँ रहेंगे ? और जब किसी वस्तु का ज्ञान, वचनों से उनका प्रतिपादन ही नहीं रहेगा, तब अपने शून्यवाद का वर्णन भी वैâसे किया जावेगा और अस्तित्ववादियों के तत्त्वों में दूषण भी वैâसे दिया जावेगा ?
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।१३।।
अस्ति-नास्ति से उभयरूप ये, द्रव्य कदापि नहीं होंगे।
क्योंकि विरोध परस्पर इनका, स्याद्वाद विद्वेषी के।।
यदि एकांत अवाच्य तत्त्व है, कहो कथन वैâसे होगा?
‘‘तत्त्व अवाच्य’’ यही कहना तो, वाच्य हुआ स्ववचन बाधा।।१३।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वाद न्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ भाव और अभाव इन दोनों की एकता रूप मान्यता भी नहीं बनती है, क्योंकि इन भाव और अभाव का आपस में विरोध देखा जाता है। (अवाच्यतैकांतेऽपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) यदि एकांत से वस्तु को ‘अवक्तव्य’ ही माना जाये, तो ‘तत्व अवाच्य है’, यह कथन भी नहीं बन सकेगा।
कारिकार्थ-हे भगवन्! स्याद्वाद न्याय के विद्वेषी अन्य मतावलम्बियों के यहाँ निरपेक्ष भावाभावात्मक रूप उभयैकांतपक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि उसमें भी विरोध आता है। यदि कोई एकांत से तत्त्व को अवाच्य-अवक्तव्य ही कहें, तब तो ‘‘तत्त्व अवाच्य है’’ यह कथन भी नहीं बन सकेगा।।१३।।
भावार्थ-हम स्याद्वादियों के यहाँ तो भाव और अभाव इन दोनों की मान्यता का सप्तभंगी में तृतीय भंग माना गया है एवं अवक्तव्य को चतुर्थ भंग कहा गया है, क्योंकि हमारे यहाँ कथंचित् पद से सब सुघटित हो जाते हैं किन्तु एकांतवादियों के यहाँ सर्वथा एकांत होने से ये दोनों बातें अघटित हैं।
कथंचित्ते सदेवेष्टं, कथंचिदसदेव तत्।
तथोभयमवाच्यं च, नय-योगान्न सर्वथा।।१४।।
हे भगवन्! तव मत में वस्तू, तत्त्व कथंचित् सत् ही है।
वही कथंचित् असत् रूप ही, उभय कथंचित् वो ही है।।
वह अवाच्य भी है नयशैली, से ही सप्तभंगयुत है।
वस्तु सर्वथा अस्तिरूप या, नास्ति आदि से अघटित है।।१४।।
अन्वयार्थ-(ते कथंचित् सत् एव इष्टं तत् कथंचित् असदेव) हे भगवन्! आपके मत में कथंचित् वस्तु ‘सत्’ रूप ही है एवं वही वस्तु कथंचित् ‘असत्’ रूप ही है। (तथा उभयं अवाच्यं च नय योगात् न सर्वथा) तथा वही वस्तु कथंचित् उभयरूप है कथंचित् वस्तु अवाच्य है और कथंचित् ‘सत् अवक्तव्य’ कथंचित् ‘असत् अवक्तव्य’ एवं कथंचित् ‘सत् असत् अवक्तव्य’ भी है, यह सभी व्यवस्था नयों की अपेक्षा से ही मानी गई है, किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है।।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके मत में कथंचित् वस्तु सत्रूप ही है, कथचिंत् असत् रूप ही इष्ट है एवं वही कथंचित् उभयरूप है और वही कथंचित् अवाच्यरूप भी है परन्तु यह सब व्यवस्था नयों की अपेक्षा से ही है सर्वथा नहीं है।
सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात्।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।।१५।।
अपने द्रव्य सुक्षेत्र काल अरु, भाव चतुष्टय से नित ही।
सभी वस्तुएँ अस्तिरूप ही, नास्तिरूप ही हैं वे भी।।
परद्रव्यादि चतुष्टय से यह, कौन नहीं स्वीकार करे।
यदि नहिं माने तव मत हे जिन! वस्तु व्यवस्था नहीं बने।।१५।।
अन्वयार्थ-(स्वरूपादि चतुष्टयात् सर्वं सत् एव विपर्यासात् असत् एव को न इच्छेत्) स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव रूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ ‘सत्’ रूप ही हैं एवं परद्रव्य, परक्षेत्र परकाल की अपेक्षा से सभी वस्तुएँ ‘असत्’ रूप ही हैं इस प्रकार कौन स्वीकार नहीं करेगा ? (न चेत् न व्यवतिष्ठते) यदि कोई नहीं माने, तो किसी भी वस्तु की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है।
कारिकार्थ-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु सत्रूप ही हैं, ऐसा कौन स्वीकार नहीं करेगा ? एवं परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सभी वस्तु असत्रूप ही हैं। यदि ऐसा नहीं स्वीकार करें तो किसी के यहाँ भी अपने-अपने इष्टतत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी।
क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तित:।
अवक्तव्योत्तरा: शेषास्त्रयो भंगा: स्वहेतुत:।।१६।।
क्रम से स्वपर चतुष्टय से ही, वस्तु उभय धर्मात्मक हैं।
युगपत् द्वय को नहिं कह सकते, अत: ‘‘अवाच्य’’ वस्तु वह है।।
बचे शेष त्रय भंगों में यह, अवक्तव्य उत्तर पद हैं।
सत् असत् उभय पदों के आगे, अवक्तव्य निज हेतुक है।।१६।।
अन्वयार्थ-(क्रमार्पितद्वयात् द्वैतं, सह अशक्तित: अवाच्यं) अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों का क्रम से कथन करने से ‘अस्तिनास्ति’ रूप तृतीय भेद बनता है एवं स्व-परचतुष्टय के द्वारा कहे गये अस्ति, नास्ति दोनों धर्मों को एक साथ कह नहीं सकते हैं अत: ‘अवक्तव्य’ नाम का चौथा भंग होता है। (अवक्तव्योत्तरा: शेषा: त्रयो भंगा स्वहेतुत:) उपर्युक्त आदि के तीन भंगों के उत्तर में अवक्तव्य पद जोड़ देने से बचे हुए तीन भंग अपने-अपने हेतु से कथंचित् रूप से बन जाते हैं।कारिकार्थ-क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा करने से ‘‘स्यादस्तिनास्ति’’ द्वैतरूप तीसरा भंग बन जाता है एवं एक साथ दोनों ही धर्मों को कहने की शक्ति किसी भी शब्द में नहीं है, अतएव सहावाच्य होने से चौथा ‘अवक्तव्यरूप’ भंग हो जाता है, इसी प्रकार से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भंग के उत्तर में ‘अवक्तव्य’ पद के जोड़ देने से शेष तीन भंग भी अपने-अपने हेतु से सिद्ध हो जाते हैं।।
भावार्थ-प्रारंभ के अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति इन तीनों के साथ अवक्तव्य पद जोड़ देने से आगे पाँचवें, छठे और सातवें भंग बन जाते हैं यथा-सत् अवक्तव्य स्वचतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों के न कह सकने से ‘सत् अवक्तव्य’ भंग होता है। परचतुष्टय की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से ‘असत् अवक्तव्य’ भंग होता है तथा क्रम से स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् दोनों को न कह सकने से ‘सत् असत् अवक्तव्य’ भंग होता है।उपर्युक्त १४, १५, १६वीं कारिकाओं के अर्थ में अष्टसहस्री ग्रंथ में आचार्यदेव ने सप्तभंगी का बड़ा सुंदर विवेचन किया है। कोई विशेष चतुर अवक्तव्य नाम से एक आठवें भंग को मानने लगे थे, तब आचार्यश्री ने करुणा बुद्धि से उन्हें समझाकर सात ही भंग मानने का विधान किया है। प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी को भी बहुत ही स्पष्ट किया है।
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येक-धर्मिणि।
विशेषणत्वात्साधर्म्यं, यथा भेद-विवक्षया।।१७।।
एक वस्तु में अस्ति धर्म, अपने प्रतिषेधी नास्ति के।
बिना नहिं रह सकता अविनाभावी कहलाता इससे।।
क्योंकि विशेषण है जैसे, अन्वय हेतू व्यतिरेक बिना।
नहीं रहे अविनाभावी है, ऐसा यह दृष्टांत बना।।१७।।
अन्वयार्थ-(एक धर्मिणि अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽबिनाभावी) एक धर्मीरूप वस्तु में अस्तित्व धर्म अपने विरोधी नास्तित्व के साथ ही रहता है (विशेषणत्वात् यथा भेद-विवक्षया साधर्म्यं) क्योंकि वह विशेषण है जैसे अन्वय हेतु व्यतिरेक हेतु के साथ अविनाभाव संबंध को लिए हुए रहता है।
कारिकार्थ-एक जीवादि धर्मी में अस्तित्व जो वस्तु का धर्म है, वह प्रतिषेध्य नास्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि विशेषण है, जैसे कि हेतु में भेद विवक्षा से साधर्म्य, वैधर्म्य के साथ अविनाभावी है।।
भावार्थ-जो जिसके बिना नहीं रहता है, उसका उसके साथ अविनाभाव कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु में अस्ति धर्म नास्ति के साथ अविनाभावी है। जैसे पुस्तक स्वरूप से है पररूप चौकी आदि से नहीं है।
नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभाव्येक धर्मिणि।
विशेषणत्वाद्वैधर्म्यं यथाऽभेद-विवक्षया।।१८।।
एक वस्तु में नास्ति धर्म भी, स्वविरोधी अस्ति के साथ।
अविनाभावी ही रहता है, क्योंकि विशेषण भी वह खास।।
जैसे हेतू के प्रयोग में, है व्यतिरेक हेतु नित ही।
अन्वय हेतू के सह रहता, अविनाभावी सुघटित ही।।१८।।
अन्वयार्थ-(एक धर्मिणि नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाऽविनाभावि) एक वस्तु में नास्तित्व धर्म अपने विरोधी अस्तित्व के साथ अविनाभावी है (विशेषणत्वात् यथा अभेद विवक्षया वैधर्म्यं) क्योंकि वह विशेषण है जैसे व्यतिरेक हेतु अन्वय के साथ अविनाभावी है।।१८।।
कारिकार्थ-एक धर्मी में नास्तित्व भी अपने प्रतिषेध्य-अस्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि वह विशेषण है, जैसे कि अभेद विवक्षा (अन्वय की अपेक्षा) से किसी अनुमान में वैधर्म्य साधर्म्य के साथ अविनाभावी हैं।।
विधेयप्रतिषेध्यात्मा, विशेष्य: शब्दगोचर:।
साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया।।१९।।
वस्तु सदा विधिप्रतिषेधात्मक, है विशेष्य धर्मी विख्यात।
क्योंकि शब्द के गोचर है वह, सत् असत् रूप जग ख्यात।।
यथा-साध्य-अग्नी का साधन, धूम अग्नि का हेतू है।
वही अपेक्षा से हेतू भी, जल के लिए अहेतू है।।१९।।
अन्वयार्थ-(विशेष्य: विधेयप्रतिषेध्यात्मा शब्दगोचर:) जो विशेषण के द्वारा जानने योग्य है वह विशेष्य है, वह विधि और प्रतिषेध करने योग्य ही होता है क्योंकि वह शब्द का विषय है (यथा साध्यधर्म: हेतु अपेक्षया च अहेतु अपि) जैसे साध्य का जो धर्म एक विवेक्षा से अहेतु रूप भी हो जाता है।।१९।।
कारिकार्थ-शब्द के विषयभूत विशेष्य-जीवादि समस्त पदार्थ विधि एवं प्रतिषेध इन दोनों धर्मस्वरूप हैं, जैसे कि साध्य का धर्म अपेक्षा से हेतु एवं अहेतु भी होता है।।
शेषभंगाश्च नेतव्या यथोक्त नय-योगत:।
न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र! तव शासने।।२०।।
अस्ति, नास्ति उभयात्मक क्रम से, तीन भंग ये कहे गये।
यथायोग्य नय विधि से आगे, भंग चार हैं शेष कहे।।
अवाच्य, अस्ति-अवाच्य, नास्ति-अवाच्य, अस्तिनास्ति- अवाच्य।
हे मुनीन्द्र! तव शासन में, कुछ भी विरोध नहिं दिखे कदापि।।२०।।
अन्वयार्थ-(शेष भंगा: च यथोक्तनययोगत: नेतव्या:) आगे के जो शेष भंग हैं उनको भी यथायोग्य नयों की अपेक्षा से समझ लेना चाहिए (मुनीन्द्र! तव शासने कश्चित् विरोधो न चास्ति) हे मुनीन्द्र! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं आता है।।२०।।
कारिकार्थ-यथोक्त नयों की अपेक्षा से शेष भंग भी लगा लेना चाहिए। अतएव हे मुनीन्द्र! आपके शासन में कुछ भी विरोध नहीं है।।
विशेषार्थ-यहाँ शेष शब्द से तीन भंग के बाद आगे के चार शेष कहे गये हैं। श्रीमद् भट्टाकलंक देव ने तो अष्टशती में दो के बाद तृतीय से आगे तक को भी शेष शब्द से सूचित किया है एवं ‘अथवा’ कहकर तीन के बाद से चार को भी शेष कहा है। आप्तमीमांसा की वृत्ति को करने वाले श्री वसुनंदी सैद्धांतिकाचार्य ने इस कारिका के विरोध शब्द को उपलक्षण मात्र कहा है और इससे आठ दोषों को ग्रहण किया है। उनके नाम-विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और अभाव।
यहाँ कहना यह है कि हे भगवन्! आपके मत में विरोध, वैयधिकरण्य आदि ८ दोष या इनके भेद-प्रभेद से और भी अनेकों दोष नहीं आते हैं। कोई इन दोषों को स्याद्वाद में घटित करता है। यथा-
विरोध-भाव अभाव एक-दूसरे के विरोधी होने से एक वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते हैं अत: जैनों के यहाँ विरोध दोष आता है।
वैयधिकरण्य-दो धर्मों का आधार भिन्न होना वैयधिकरण है। जैसे अस्ति का अधिकरण भिन्न है और नास्ति का अधिकरण भिन्न है। दोनों का अधिकरण भिन्न होने पर भी एकाधिकरण मानना वैयधिकरण्य दोष कहलाता है।
अनवस्था-जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में अस्तित्व नास्तित्व धर्म हैं उसी प्रकार अस्तित्व-नास्तित्व धर्म में भी अन्य और धर्म स्वपर की अपेक्षा अस्तित्व-नास्तित्वरूप कल्पित करते चलिये। आगे-आगे भी ऐसी ही कल्पना होने से अप्रमाणीक अनंत अस्तित्व-नास्तित्व कल्पना का विराम न होने से अनवस्था दोष आ जाता है।
संकर-स्याद्वाद में अस्तित्व-नास्तित्व एक जगह रहते हैं अत: अस्तित्व के आधार में अस्तित्व-नास्तित्व और नास्तित्व के आधार में अस्तित्व-नास्तित्व के रहने से संकर दोष आता है।
व्यतिकर-अस्तित्व-नास्तित्व के एक साथ रहने से अस्तित्व रूप से नास्तित्व भी एवं नास्तित्व रूप से अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। अत: स्याद्वाद में व्यतिकर दोष भी आता है।
संशय-जब वस्तु को भाव-अभाव धर्मों से उभयात्मक माना है तब यह निश्चय नहीं हो सकता है कि यह वस्तु अस्तिरूप है या नास्तिरूप ऐसा संशय बना रहने से संशय दोष आता है।
अप्रतिपत्ति-संशय होने से वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो सकता है अत: स्याद्वाद मत में अप्रतिपत्ति-अज्ञान नामक दोष आता है।
अभाव-यथार्थ ज्ञान के अभाव में वस्तु की व्यवस्था न होने से वस्तु का अभाव ही सिद्ध होता है अत: अभाव दोष आता है। इस प्रकार से अन्य जनों ने अर्हंत के शासन में ये विरोध आदि दोष दिखाये हैं किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि स्याद्वाद में एक भी दोष नहीं आता है।एक ही वस्तु में अविरोध रूप विरोधी दो धर्मों का रहना बन जाता है। विरोध के तीन भेद हैं-बध्यघातक, सहानवस्था और प्रतिबध्यप्रतिबंधक। सर्प में नकुल का बध्यघातक भाव है क्योंकि सर्प को नेवला मार डालता है। दोनों एक साथ नहीं रहते। शीत उष्ण का सहानवस्था विरोध है क्योंकि ये दोनों एक साथ नहीं रहते हैं।ये तीनों हमारे यहाँ असंभव हैं क्योंकि एक ही वस्तु में अस्तिधर्म और उसी समय उसमें नास्तिधर्म रह जाता है। जैसे एक ही राम में पिता, पुत्र ये दोनों विरोधी धर्म विद्यमान हैं। रामचन्द्र जी लवण और अंकुश के पिता हैं और दशरथ के पुत्र हैं।
ये अस्ति-नास्ति धर्म परस्पर में विरोधी नहीं हैं एवं उनकी आधारभूत वस्तु भिन्न-भिन्न न होकर एक है। अतएव दोनों धर्मों का जीव में एकाधिकरण होने से वैयधिकरण दोष नहीं आता है। हमारे यहाँ एक धर्मी वस्तु में अनंतों धर्म रहते हैं किन्तु एक धर्म में अन्य कोई धर्म नहीं रहता है। अत: अनवस्था भी नहीं है। अस्ति-नास्ति दोनों धर्म अपने-अपने स्वभाव से सहित हैं अस्ति कभी भी नास्ति रूप और नास्ति कभी अस्तिरूप से मिश्रित नहीं होता है। अत: संकर दोष भी नहीं आता है। अस्तित्वरूप से नास्तित्व या नास्तित्व रूप से अस्तित्व नहीं बन सकते अत: व्यतिकर दोष नहीं आता है।विरुद्ध अनेक धर्मों के अवलंबन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं किन्तु यहाँ वस्तु स्व की अपेक्षाकृत अस्ति है और पर की अपेक्षा से नास्ति ही है अत: संशय का प्रश्न ही नहीं है।संशय के न होने से वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाता है अत: अप्रतिपत्ति दोष नहीं आता है।वस्तु की व्यवस्था सुघटित सिद्ध होने से अभाव नाम का दोष भी नहीं है।अत: यह निष्कर्ष निकला कि भगवान् जिनेन्द्र के शासन में विरोध आदि कोई भी दोष नहीं आते हैं।
एवं विधि निषेधाभ्या-मनवस्थितमर्थकृत्।
नेति चेन्न यथा कार्यं, बहिरन्तरुपाधिभि:।।२१।।
ऐसे विधि निषेध द्वारा जो, एकरूप से नहीं कही।
वह अनवस्थित वस्तु जगत में, अर्थ क्रियाकारी नित ही।।
यदि ऐसा नहिं मानों तो, बाह्याभ्यंतर द्वय कारण से।
कार्य कहा है, वह नहिं होगा, अर्थक्रिया नहिं होने से।।२१।।
अन्वयार्थ-(एवं विधिनिषेधाभ्यां अनवस्थितं अर्थकृत्) इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा जो वस्तु अवस्थित रूप से एक रूप नहीं है वही वस्तु अर्थक्रियाकारी है (न इति चेत् न यथा बहिरंत: उपाधिभि: कार्यं) यदि ऐसा नहीं माना जाये, तो जैसे बाह्य और अंतरंग इन दोनों कारणों से कार्य माना गया है, वह उस प्रकार से नहीं बन सकेगा।
कारिकार्थ-इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा अनवस्थित जीवादिवस्तु अर्थक्रियाकारी हैं। यदि ऐसा नहीं मानों, तो जिस प्रकार से बहिरंग-अंतरंग उपाधि-सहकारी और उपादान कारणों से अनवस्थितरहित कार्य अर्थक्रियाकारी नहीं है तथैव सभी जीवादिवस्तु विधि-निषेध से रहित अर्थक्रियाकृत् नहीं हो सकेंगी।।
भावार्थ-वस्तु में अस्ति या नास्ति दो में से कोई एक ही धर्म रहे तो वस्तु अवस्थित हो जावेगी, किन्तु दोनों धर्मों के रहने से वह वस्तु अनवस्थित कहलाती है। घटकार्य अंतरंग कारण मिट्टी और बहिरंग कारण चक्र, कुंभकार आदि से होता है। इसलिए अनवस्थित है। यदि अंतरंग या बहिरंग में से किसी भी एक कारण से ही उत्पत्ति मान लो, तो घट के कारण अवस्थित हो जाने से घट बन ही नहीं सकेगा।
धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मण:।
अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य, शेषान्तानां तदङ्गता।।२२।।
अनंतधर्मा वस्तू के, प्रत्येक धर्म के पृथक्-पृथक्।
अर्थ कहे हैं अत: वस्तु है, अनंत धर्मात्मक शाश्वत।।
अनंत धर्मों में जब इक ही, धर्म प्रधान कहा जाता।
तब वे शेष धर्म हो जाते, गौण यही जिन ने भाषा।।२२।।
अन्वयार्थ-(अनंतधर्मण: धर्मिणो धर्मे धर्मे अन्य एव अर्थ:) अनंत धर्म वाली वस्तु के एक-एक धर्म में भिन्न ही अर्थ पाया जाता है (अन्यतमान्तस्य अंगित्वे शेषान्तानां तदङ्गता) उन बहुत धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष धर्मों की गौणता हो जाती है।
कारिकार्थ-अनंतधर्मों से विशिष्ट जीवादि एक धर्मी के प्रत्येक धर्म में भिन्न-भिन्न प्रयोजन आदिरूप अर्थ विद्यमान हैं एवं धर्मों के द्वारा ही धर्मी का कथन होता है अतएव उन धर्मों में से किसी एक धर्म को प्रधान करने पर शेष सभी धर्म गौण हो ज्ााते हैं।।
भावार्थ-जब जीव का अस्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब नास्ति धर्म गौण हो जाता है और जब नास्ति धर्म प्रधान किया जाता है, तब अस्ति धर्म गौण हो जाता है।
एकाऽनेक-विकल्पादा-वुत्तरत्रापि योजयेत्।
प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयैर्नय-विशारद:।।२३।।
नय में निपुण जनों को नित ही, एक अनेक विकल्पों में।
नित्य क्षणिक आदिक में भी ये, सप्तभंग कर लेने हैं।।
सुनय विवक्षा के द्वारा, प्रत्येक धर्म में सुघटित है।
सप्तभंग प्रक्रिया विधी यह, जिनमत में ही वर्णित है।।२३।।
अन्वयार्थ-(नय विशारद: उत्तरत्र एकाऽनेक-विकल्पादौ अपि) जो नयों में कुशल हैं वे आगे-आगे एक-अनेक आदि भेदों में भी (नयै: एनां भंगिनीं प्रक्रियां योजयेत्) नयों के द्वारा इस सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित कर लेवें।
कारिकार्थ-नयों की योजना करने में कुशल स्याद्वादी को आगे इसी प्रकार से एक और अनेक आदि धर्मों में भी इस सप्तभंगी प्रक्रिया को द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों के अनुसार योजित कर लेना चाहिए।।
।।इति प्रथम: परिच्छेद:।।