इन देवों के भवनों के भीतर उत्तम, कोमल उपपाद शाला है। वहाँ ये देव देवगति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं, अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते हैं। इन देवों के शरीर में मल, मूत्र, चर्म, हड्डी, माँस आदि नहीं हैं, ऐसा दिव्य वैक्रियक शरीर होता है। इसीलिए इन देवों के रोग आदि उत्पन्न नहीं होते हैं।
देव भवनों में जन्म लेते ही अनुद्घाटित-बन्द दोनों ही किवाड़ खुल जाते हैं, आनंद भेरी का शब्द होने लगता है। इस भेरी के शब्द को सुनकर परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय-जयकार करते हुए आते हैं। जय, घंटा, पटह आदि वाद्य, संगीत, नाट्य आदि से चतुर मागधदेव मंगलगीत गाते हैं। इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्यचकित हो सोचता है कि तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रकट हो जाता है। इस अवधि का नाम विभंगावधि है। जब सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है तब ये अवधि सुअवधि कहलाती है।
ये देवगण पूर्व के पुण्य का चिंतवन करते हुए यह भी सोचते हैं कि मैंंने सम्यक्त्व शून्य धर्म धारण करके यह निम्न देव योनि पाई है इसके पश्चात् वे देव अभिषेक योग्य द्रव्यों को लेकर जिन भवनों में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।
यहाँ सम्यग्दृष्टी देव ‘‘समस्त कर्मों के क्षय में एक अद्वितीय कारण जिनपूजा है’’ ऐसा समझ कर बड़ी भाव-भक्ति से पूजा करते हैं एवं मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवों की प्रेरणा से इन्हें कुलदेवता मानकर पूजा करते हैं। पश्चात् अपने-अपने भवन में आकर ये देव सिंहासन पर विराजमान हो जाते हैं। ये देवगण दिव्य रूप लावण्य से युक्त, अनेक प्रकार की विक्रियाओं से सहित स्वभाव से ही प्रसन्न मुखवाली देवियोें के साथ क्रीड़ा करते हैं।
ये देव स्पर्श, रस, रूप और सुंदर शब्द से प्राप्त हुए सुखों का अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते हैं। द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नंदनवन आदि उत्तम-उत्तम स्थानों में क्रीड़ा किया करते हैं। यदि ये देव सम्यक्त्व से सहित मरण करते हैं तो उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर लेते हैं। यदि मिथ्यात्व के प्रभाव से जीवन भर विषय भोगों में आनंद मानते हुए मरण के ६ महिना पहले अपने मरण काल को जान लेते हैं तो विलाप करते हुए संक्लेश परिणाम से मरणकर एकेन्द्रिय पर्याय में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक जीव हो जाते हैं। उस एकेन्द्रिय पर्याय से निकल कर पुन: त्रस पर्याय पाना अत्यंत ही कठिन है। इस विषयासक्ति का यह दुष्परिणाम है कि इन देवों को भी एकेन्द्रिय पर्याय में गिरा देता है। ऐसा समझकर मिथ्यात्व को छोड़ देना चाहिए।