पुराणां च चतुर्दिक्षु त्यक्त्वा द्वे च सहस्रके।
योजनानां हि चत्वारि वनानि शाश्वतान्यपि।।६१।।
लक्ष्योजनदीर्घाणि लक्षार्धविस्तृतानि वै।
अशोकसप्तपर्णाम्र-चम्पकाढ्यानि सन्ति च।।६२।।
मध्येऽमीषां हि चत्वारो राजन्ते चैत्यपादपाः।
अशोक-सप्तपर्णाम्र-चम्पकाख्या जिनार्चनैः।।६३।।
विदिक्षु नगराणां स्युर्गणिकानां पुराणि च।
सहस्रचतुरशीतियोजर्नैिवस्तृतानि वै।।६४।।
वृत्ताकाराणि नित्यानि प्राकारादियुतान्यपि।
पुराणि शेष भौमानामनेकद्वीपवार्धिषु।।६५।।
अब नगरों की चारों दिशाओं में स्थित वनों एवं विदिशाओं में स्थित नगर का कथन करते हैं—
अर्थ — नगरों की चारों दिशाओं में दो-दो हजार योजन छोड़कर अशोक, सप्तपर्ण, आम्र, चम्पक नाम के चार-चार शाश्वत वन हैं, जो एक-एक लाख योजन लम्बे तथा पचास-पचास योजन चौड़े हैं। इन वनों के मध्य में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं से युक्त अशोक, सप्तपर्ण, आम्र और चम्पक नाम के चार-चार चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं।।६१-६३।।
नगरों की चारों विदिशाओं में प्रधान देवियों के वलयाकार, शाश्वत और प्राकार आदि से युक्त नगर हैं, जो ८४००० लम्बे और ८४००० योजन ही चौड़े हैं। शेष व्यन्तर देवों के नगर अनेक द्वीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं।।६४-६५।।