-शार्दूलविक्रीडित-
बाह्याभ्यन्तरसङ्गवर्जनतया ध्यानेन शुक्लेन य: कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षयमगात्सर्वज्ञतां निश्चिताम्।
तेनोक्तानि वचांसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तद्भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य य महापापी न भव्योऽथवा।।१।।
अर्थ —समस्त बाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रह को छोड़कर और शुक्लध्यान से चार घातिया कर्मों को नाशकर जिसने सर्वज्ञपना प्राप्त कर लिया है उसी सर्वज्ञदेव के वचन, धर्म के निरूपण करने में सत्य हैं, किंतु सर्वज्ञ से अन्य के वचन सत्य नहीं हैं ऐसा भलीभांति जानकर भी जिस मनुष्य को सर्वज्ञदेव के वचनों में सन्देह है तो समझना चाहिये कि वह मनुष्य महापापी तथा अभव्य है।।१।।
एकोप्यत्र करोति य: स्थितिमतिं प्रीत: शुचौ दर्शने स श्लाघ्य: खलु दु:खितोप्युदयतो दुष्कर्मण: प्राणिभृत्।
अन्यै: िंक प्रचुरैरपि प्रमुदितैरत्यन्तदूरीकृतस्फीतानन्दभरप्रदामृतमथैर्मिथ्यापथप्रस्थितै:।।२।।
अर्थ —खोटेकर्म के उदय से दु:खित भी जो मनुष्य संतुष्ट होकर इस अत्यन्त पवित्र सम्यग्दर्शन में निश्चल स्थिति को करता है अर्थात् सम्यग्दर्शन को धारण करता है वह अकेला ही अत्यंत प्रशंसा के योग्य समझा जाता है किन्तु जो अत्यंत आनन्द के देने वाले सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूपी मोक्ष मार्ग से बाह्य हैं तथा वर्तमान काल में शुभकर्म के उदय से प्रसन्न हैं ऐसे मिथ्यामार्ग में गमन करने वाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य यदि बहुत से भी होवें तो भी वे प्रशंसा के योग्य नहीं हैं।
भावार्थ — पाप के उदय से दु:खित भी मनुष्य यदि वह सम्यग्दर्शन का धारक है तो वह अकेला ही प्रशंसा के योग्य है किन्तु जो सम्यग्दर्शन से पराङ् मुख हैं तथा मिथ्यामार्ग में स्थित हैं और सुखी हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि चाहे अनेक भी होवें तो भी प्रशंसा के योग्य नहीं हैं इसलिये भव्यजीवों को सम्यक्दर्शन के धारण करने में निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये।।२।।
बीजं मोक्षतरोर्दृशं भवतरोर्मिथ्यात्वमाहुर्जिना: प्राप्तायां दृशि तन्मुमुक्षुभिरलं यत्नो विधेयो बुधै:।
संसारे बहुयोनिजालजटिले भ्राम्यन् कुकर्मावृत: क्व प्राणी लभते महत्यपि गते काले हि तां तामिह।।३।।
अर्थ —मोक्षरूपी वृक्ष का बीज तो सम्यग्दर्शन है तथा संसाररूपी वृक्ष का बीज मिथ्यात्व है ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है इसलिये मोक्षाभिलाषी उत्तम पुरुषों को सम्यग्दर्शन के पाने पर उसकी रक्षा करने में अत्यंत प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि नरक- तिर्यंच आदि नाना प्रकार की योनियों से व्याप्त इस संसार में अनादिकाल से भ्रमण करता हुवा और खोटे कर्मों से युक्त यह प्राणी बहुत काल के व्यतीत होने पर भी इस सम्यग्दर्शन को कहाँ पा सकता है? अर्थात् सम्यग्दर्शन का पाना अत्यंत दुर्लभ है।।३।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं-
सम्प्राप्तेऽत्र भवे कथं कथमपि द्राघीयसाऽनेहसा मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्यं तपो मोक्षदम्।
नो चेल्लोकनिषेधतोऽथ महतो मोहादशक्तेरथ सम्पद्येत न तत्तदा गृहवतां षट्कर्मयोग्यं व्रतम्।।४।।
अर्थ —अनंत काल के बीत जाने पर इस संसार में बड़ी कठिनता से मनुष्य जन्म के मिलने पर तथा सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर उत्तम पुरुषों को देने वाला तप अवश्य करना चाहिये। यदि लोकनिन्दा से अथवा प्रवलचारित्र मोहनीय कर्म के उदय से वा असमर्थपने से तप न हो सके, तो गृहस्थों के देव पूजा, गुरूसेवा, स्वाध्याय आदि षट्कर्मों के योग्य व्रत तो अवश्य ही करना चाहिये।
भावार्थ — इस संसार में प्रथम तो निगोदादि से निकलना ही अत्यंत कठिन है दैवयोग से यदि वहाँ से निकल भी आवे तो यहाँ आकर पृथ्वीकायिक तथा जलकायिक आदि एकेन्द्री स्थावरजीव होते हैं त्रसपर्याय नहीं मिलती, यदि वह भी मिल जावे तो उस त्रसपर्याय में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है, यदि वह भी मिल जावे तो जीवादि पदार्थों का श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन नहीं मिलता। यदि वह भी मिल जावे तो मनुष्य उसकी रक्षा करने में बड़ा भारी प्रमाद करता है इसलिये वह पाया हुवा भी न पाये हुवे के समान हो जाता है अत: आचार्य उपदेश देते हैं कि बड़े भाग्य से यदि मनुष्य जन्म तथा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जावे तो उत्तम पुरुषों को प्रमाद छोड़कर तप करना चाहिये। यदि लोकनिन्दा अथवा प्रबलचारित्र मोहनीयकर्म के उदय से वा असमर्थपने से तप न हो सके तो षट्कर्म के योग्य श्रावकों के व्रत तो अवश्य ही धारण करना चाहिये किन्तु पाये हुवे मनुष्य जन्म को तथा सम्यग्दर्शन को व्यर्थ नहीं खोना चाहिये।।४।।
अब आचार्य श्रावक के व्रतों को बतलाते हैं तथा वे व्रत गृहस्थों को पुण्य के करने वाले होते हैं इस बात को भी आचार्य बतलाते हैं-
दृङ्मूलव्रतमष्टधा तदनु च स्यात्पञ्चधाणुव्रतं शीलाख्यं च गुणव्रतं त्रयमत: शिक्षाश्चतस्त्र: परा:।
रात्रौ भोजनवर्जनं शुचिपटात्पेयं पय: शक्तित: मौनादिव्रतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम्।।५।।
अर्थ — सम्यग्दर्शनपूर्वक आठ मूलगुणों का पालना तथा अहिंसादि पाँच अणुव्रतों का धारण करना और दिग्व्रत आदि तीन गुणव्रत तथा देशावकाशिक आदि चार प्रकार के शिक्षाव्रत, इस प्रकार इन सात शीलव्रतों को पालना और रात में खाद्य- स्वाद्य आदि आहारों का त्याग करना और स्वच्छ कपड़े से छाने हुवे जल का पीना तथा शक्ति के अनुकूल मौन आदि व्रतों का धारण , इस प्रकार ये श्रावकों के व्रत हैं तथा भलीभांति आचरण किये हुवे ये श्रावकों के व्रत भव्यजीवों को पुण्य करने वाले होते हैं इसलिये धर्मात्मा श्रावकों को इन श्रावकों के व्रतों का अवश्य ही ध्यानपूर्वक पालन करना चाहिये।।५।।
देशव्रत का धारी श्रावक इस रीति से व्रतों को धारण करता है-
हन्ति स्थावरदेहिन: स्वविषये सर्वांस्त्रसान् रक्षति ब्रूते सत्यमचौर्यवृत्तिमवलां शुद्धां निजां सेवते।
दिग्देशव्र्रतदण्डवर्जनमत: सामायिकं प्रोषधं दानं भोगयुगं प्रमाणमुररीकुर्याद् गृहीति व्रती।।६।।
अर्थ — व्रती श्रावक अपने प्रयोजन के लिये स्थावर काय के जीवों को मारता है तथा दो इन्द्रियों को आदि लेकर सैनीपचेंद्रीपर्यंत समस्त त्रस जीवों की रक्षा करता है और सत्य बोलता है तथा अचौर्यव्रत का पालन करता है और स्वस्त्री का सेवन करता है तथा दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्ड व्रत का पालन करता है और सामायिक, प्रोषधोपवास तथा दान को करता है और भोगोपभोगपरिमाण नामक व्रत को स्वीकार करता है।।६।।
यद्यपि गृहस्थ के देवपूजा आदिगुण हैं तो भी उनमें दान सबसे उत्तमगुण है, इस बात को आचार्य बताते हैं-
देवाराधन पूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु स पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि।
संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत्तद्देशव्रतधारिणो घनवतो दानं प्रकृष्टो गुण:।।७।।
अर्थ — यद्यपि धनवान और धर्मात्मा श्रावकों के श्रेष्ठ पुण्य के संचय करने वाले जिनेन्द्रदेव की सेवा तथा पूजन प्रतिष्ठा आदि प्रतिदिन अनेक उत्तमकार्य होते रहते हैं तथापि उन सब उत्तमकार्यों में संसार-समुद्र से पार करने में जहाज के समान श्रेष्ठमुनि आदि पात्रों को जो दान देना है, वह उन धर्मात्मा श्रावकों का सबसे प्रधान गुण (कर्तव्य) है इसलिये भव्य श्रावकों को सदा उत्तम आदि पात्रों में दान देना चाहिये।।७।।
सर्वो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फुटं दृष्ट्यादित्रय एव सिध्यति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम्।
तद्वृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात्तद्दीयते श्राववैâ: काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततोवर्तते।।८।।
अर्थ — समस्तजीवों की अभिलाषा सदा यही रहा करती है कि हमको सुख मिले परन्तु यदि अनुभव किया जावे तो वास्तविक सुख मोक्ष में ही है और उस मोक्ष की प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय के धारण करने से ही होती है और उस रत्नत्रय की प्राप्ति निर्ग्रन्थ अवस्था में ही होती है और निर्ग्रन्थ अवस्था शरीर के होते संते ही होती है तथा शरीर की स्थिति अन्न से रहती है और वह अन्न धर्मात्मा श्रावकों के द्वारा दिया जाता है इसलिये इस दु:खमकाल में मोक्ष पदवी की प्रवृत्ति गृहस्थों के दिये हुवे दान से ही होती है, ऐसा जानकर धर्मात्मा श्रावकों को सदा सत्पात्रों के लिये दान देना चाहिये।।८।।
अब आचार्य औषधि दान की महिमा का वर्णन करते हैं-
स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण सम्भाव्यते।
कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिदं चारित्रभारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मोगृहस्थोत्तमात्।।९।।
अर्थ — इच्छानुसार भोजन, भ्रमण तथा भाषण से शरीर रोगरहित रहता है परन्तु मुनियों के लिये न तो इच्छानुसार भोजन करने की ही आज्ञा है और न इच्छानुसार भ्रमण तथा भाषाण की ही आज्ञा है इसलिये उनका शरीर सदा अशक्त ही बना रहता है किन्तु धर्मात्मा श्रावकगण उत्तम दवा तथा पथ्य और निर्मल जल देकर मुनियों के शरीर को चारित्र के पालन करने के लिये समर्थ बनाते हैं इसलिये मुनिधर्म की प्रवृत्ति भी उत्तम श्रावकों से ही होती है अत: आत्मा के हित की अभिलाषा करने वाले भव्यजीवों को अवश्य ही मुनिधर्म की प्रवृत्ति के प्रधान कारण इस गृहस्थ धर्म को धारण करना चाहिये।।९।।
ज्ञानदान की महिमा का वर्णन
व्याख्या पुस्तक दानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां भक्त्या यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधा:।
सिद्धेऽस्मिञ्जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सवश्रीकारिप्रकटीकृताखिलजगत्वैâवल्यभाजोजना:।।१०।।
अर्थ — सर्वज्ञदेव से कहे हुवे शास्त्र का भक्तिपूर्वक जो व्याख्यान किया जाता है तथा विशालबुद्धि वाले भव्यजीवों को पढ़ने के लिये जो पुस्तक दी जाती है उसको ज्ञानी पुरुष शास्त्र (ज्ञान) दान कहते हैं तथा भव्यों को इस ज्ञानदान की प्राप्ति के होने पर थोड़े ही भवों में, तीनों लोक के जीवों को उत्सव तथा लक्ष्मी के करने वाले और समस्त लोक के पदार्थों को हाथ की रेखा के समान देखने वाले केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है।
भावार्थ — जो धर्मात्मा श्रावक शास्त्र का व्याख्यान करते हैं तथा पुस्तक लिखवाकर देते हैं और पढ़ना-पढ़ाना इत्यादि ज्ञानदान में प्रवृत्त होते हैं उन श्रावकों को थोड़े ही काल में समस्त लोकालोक को प्रकाश करने वाले केवलज्ञान की प्राप्ति होती है इसलिये अपने हित के चाहने वाले भव्यजीवों को यह उत्तम ज्ञानदान अवश्य ही करना चाहिये।।१०।।
सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम्।
आहारौषधशास्त्रदानविधिभि: क्षुद्रोगजाड्याद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततोदानं तदेकं परम्।।११।।
अर्थ — विस्तीर्ण करुणा के धारी भव्य जीवों द्वारा जो समस्त प्राणियों के भय को छुटाकर उनकी रक्षा की जाती है उसको ज्ञानीजन अभयदान कहते हैं तथा उस अभयदान के बिना बाकी के तीनों दान सर्वथा निष्फल हैं अथवा आहार-औषध और शास्त्र इन तीनों दानों के देने से क्षुधा के भय का तथा रोग के भय का और मूर्खता के भय का ही नाश होता है इसलिये एक अभयदान ही समस्त
दानों में उत्कृष्टदान है।
भावार्थ — अभय का अर्थ भय का न होना होता है यदि आहार-औषध तथा शास्त्रदान के देने पर भी क्षुधा, रोग तथा मूर्खता से उत्पन्न होने वाले भयों का नाश होता है तो वे तीनों ही अभय दान के ही आधीन हैं इसलिये अभयदान ही समस्त दानों में उत्कृष्ट दान है।।११।।
आहारात्सुखितौषधादतितरां नीरोगता जायते शास्त्रात्पात्रनिवेदितात्परभवे पण्डित्यमत्यद्भुतम्।
एतत्सर्वगुणप्रभापरिकर: पुन्सोऽभयाद्दानत: पर्यन्ते पुनरुन्नतोन्नतपदप्राप्तिर्विमुक्तिस्तत:।।१२।।
अर्थ — उत्तम आदि पात्रों में आहारदान के देने से तो इन्द्र-धरणेन्द्र-चक्रवर्ती आदि के सुखों की प्राप्ति होती है तथा औषधदान के देने से परभव में अत्यन्त रूपवान तथा नीरोग शरीर मिलता है और शास्त्रदान के देने से अत्यन्त आश्चर्य की करने वाली विद्वत्ता की प्राप्ति होती है और अभयदान के देने से सुख तथा नीरोगपना आदि समस्त गुणों की प्राप्ति होती है अन्त में उत्तमोत्तम चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिये उत्तमोत्तम सुख, नीरोगता आदि गुणों के अभिलाषी मनुष्यों को अवश्य ही चारों प्रकार का दान देना चाहिये।।१२।।
कृत्वा कार्यशतानि पापबहुलान्याश्रित्य खेदं परं भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमतीं दु:खेन यच्चार्जितम्।
तत्पुत्रादपि जीवितादपि धनं प्रेयोऽस्य पन्था शुभो दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्सद्गति:।।१३।।
अर्थ — सैकड़ों पाप सहित कार्यों को करके तथा नाना प्रकार के दु:खों को उठा करके और समुद्र, पर्वत, पृथ्वी पर भ्रमण करके बड़े कष्ट से धन का संचय किया जाता है, वह धन पुत्र और अपने जीवन से भी प्यारा होता है उस धन के खर्च करने का यदि मार्ग है तो यही कि वह दान के काम में लाया जावे किन्तु इससे भिन्न उस धन के खर्च करने का कोई भी उत्तम मार्ग नहीं, इसलिये सज्जन पुरुषों को चाहिये कि वे दान मार्ग से ही धन का व्यय करें किन्तु दान से अतिरिक्त मार्ग में उस धन का उपयोग न करें।।१३।।
दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोद्योतिका नैव स्यान्ननु तद्विना धनवतो लोकद्वयध्वन्सकृत्।
दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिण: पापं यदुत्पद्यते तन्नाशाय शशाज्र्शुभ्रयशसे दानं नचान्यत्परम्।।१४।।
अर्थ —धनी मनुष्यों का गृहस्थपना दान से ही गुणों का करने वाला होता है और दान से ही दोनों लोकों का प्रकाश करने वाला होता है किन्तु बिना दान के वह गृहस्थपना दोनों लोकों का नाश करने वाला ही है क्योंकि गृहस्थों के सैकड़ों खोटे—खोटे व्यापारों के करने से सदा पाप की उत्पत्ति होती रहती है उस पाप के नाश के लिये तथा चन्द्रमा के समान यश की प्राप्ति के लिये यह एक पात्रदान न ही है दूसरी कोई वस्तु नहीं है इसलिये अपनी आत्मा के हित को चाहने वाले भव्यों को चाहिये कि वे पात्रदान से ही गृहस्थपने को तथा धन को सफल करें।।१४।।
पात्राणामुपयोगि यत्किल धनं तद्धीमतां मन्यते येनानन्तगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुन:।
यद्भोगाय यतं पुनर्धनवतस्तन्नष्टमेव ध्रुवं सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दानं प्रधानं फलम्।।१५।।
अर्थ —जो धन उत्तमादि पात्रों के उपयोग में आता है विद्वान् लोग उसी धन को अच्छा धन समझते हैं तथा वह पात्र में दिया हुवा धन परलोक में सुख का देने वाला होता है और अनन्तगुणा फलता है किन्तु जो धन नाना प्रकार के भोगविलासों में खर्च होता है वह धनवानों का धन सर्वथा नष्ट ही हो गया, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि गृहस्थों के सर्वसम्पदाओं का प्रधान फल एक दान ही है।
भावार्थ —यों तो धनी गृहस्थों के प्रतिदिन नाना कार्यों में धन का खर्च होता रहता है परन्तु जो धन उत्तमादिपात्रों के दानों में खर्च होता है वास्तव में वही धन उत्तमधन है और उत्तम आदि पात्रों के दान में खर्च किया हुवा वह धन परलोक में नाना प्रकार के सुखों का करने वाला होता है तथा अनन्तगुणा होकर फलता है किन्तु जो धन भोग-विलास आदि निकृष्ट कार्यों में खर्च किया जाता है वह धन सर्वथा नष्ट ही हो जाता है तथा परलोक में उससे किसी प्रकार का सुख नहीं मिलता और न वह अनन्तगुणा होकर फलता ही है क्योंकि समस्त सम्पदाओं के होने का प्रधान फल दान ही है इसलिये धर्मात्मा श्रावकों को निरन्तर उत्तम आदि पात्रों में दान करना चाहिये तथा पाये हुवे धन को सफल करना चाहिये।।१५।।
और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं-
पुत्रो राज्यमशेषमर्थिषु धनं दत्वाभयं प्राणिषु प्राप्ता नित्यसुखास्पदं सुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवा:।
मोक्षस्यापि भवेत्तत: प्रथमतो दानं निदानं बुधै: शक्त्या देयमिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते।।१६।।
अर्थ —भूतकाल में भी बड़े—बड़े राजा पुत्रों को राज्य देकर तथा याचकजनों को धन देकर और समस्त प्राणियों को अभयदान देकर अनशन आदि उत्तम तपों को आचरण कर अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त हुवे हैं इसलिये मोक्ष का सबसे प्रथम कारण यह एक दान ही है अर्थात् दान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है अत: विद्वानों को चाहिये कि धन तथा जीवन को जल के बबूले के समान अत्यन्त विनाशीक समझकर सर्वशक्ति के अनुसार उत्तम आदि पात्रों में दान दिया करें।।१६।।
ये मोक्षं प्रति नोद्यता: सुनृभवे लब्धेऽपि दुर्बुद्धयस्ते तिष्ठस्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढ़:।
मत्वेदं गृहिणा यथर्द्धि विविधं दानं सदा दीयतां तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम्।।१७।।
अर्थ —अत्यन्त दुर्लभ इस मनुष्य भव को पाकर भी जो मनुष्य्ा मोक्ष के लिये उद्यम नहीं करते हैं तथा घर में ही पड़े रहते हैं वे मनुष्य मूढ़बुद्धि हैं और जिस घर में दान नहीं दिया जाता, वह घर अत्यन्त कठिन मोह का जाल है ऐसा भलीभांति समझकर अपने धन के अनुसार भव्यजीवों को नाना प्रकार का दान अवश्य करना चाहिये क्योंकि यह उत्तम आदि पात्रों में दिया हुवा दान ही संसाररूपी समुद्र से पार करने में जहाज के समान है।
भावार्थ —अत्यंत दुर्लभ इस मनुष्यभव को पाकर तथा ऊँचा कुल आदि पाकर भव्यजीवों को मोक्ष के लिये प्रयत्न अवश्य करना चाहिये यदि मोक्ष के लिये प्रयत्न न हो सके तो शक्ति तथा धन के अनुसार दान तो अवश्य ही करना चाहिये क्योंकि यह दान ही संसार-समुद्र से पार करने वाला है किन्तु दान के बिना जीवन को तथा धन को कदापि व्यर्थ नहीं खोना चाहिये।।१७।।
यैर्नित्यं न विलोक्यते जिनपतिर्न स्मर्यते नार्च्यते न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम्।
सामर्थ्ये सति तद्गृहस्थाश्रमपदं पाषाणनावा समं तत्रस्था भवसागरेऽतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च।।१८।।
अर्थ —जो मनुष्य समर्थ होने पर भी निरन्तर न तो भगवान का दर्शन ही करते हैं तथा न उनका स्मरण ही करते हैं और उनकी पूजा भी नहीं करते हैं तथा न उनका स्तवन करते हैं और न निर्ग्रंन्थ मुनियों को भक्तिपूर्वक दान ही देते हैं उन मनुष्यों का वह गृहस्थाश्रमरूप स्थान पत्थर की नाव के समान है तथा उस गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ इस भयंकर संसाररूपी समुद्र में नियम से डूबते हैं और डूबकर नष्ट हो जाते हैं इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि जो भव्यजीव गृहस्थाश्रम को तथा अपने जीवन और धन को पवित्र करना चाहते हैं उनको जिनेन्द्रदेव की पूजा-स्तुति आदि कार्य तथा उत्तमादि पात्रों के लिये दान अवश्य ही देना चाहिये।।१८।।
आचार्यदाता की महिमा का वर्णन करते हैं-
चिन्तारत्नसुरद्रुकामसुरभिस्पर्शोपलाद्या भुवि ख्याता एव परोपकारकरणे दृष्टा न ते केनचित्।
तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि प्रायो न सम्भाव्यते तत्कार्याणि पुन: सदैव विदधद्दाता परं दृश्यते।।१९।।
अर्थ —चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, कामधेनु, पारस पत्थर आदिक पदार्थ संसार में परोपकारी हैं यह बात आज तक सुनी ही है किन्तु किसी ने अभी तक ये साक्षात् उपकार करते हुवे देखे नहीं हैं तथा उन्होंने किसी में उपकार किया है इस बात की भी संभावना नहीं की जाती परन्तु चिन्तामणिरत्न आदि के कार्य को करने वाला दाता (मनोवांछित दान देने वाला) अवश्य देखने में आता है इसलिये चिंतामणिरत्न, कल्पवृक्ष आदि उत्कृष्ट पदार्थ दाता ही हैं किन्तु इनसे भिन्न चिंतामणि आदिक कोई पदार्थ नहीं हैं।।१९।।
यत्र श्रावकलोक एव वसति स्यात्तत्र चैत्यालयो यस्मिन्सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वर्तते।
धर्मे सत्यघसंचयो विघटते स्वर्गापवर्गाश्रयं सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्यु: श्रावका: सम्मता:।।२०।।
अर्थ —जिस नगर तथा देश में श्रावक लोग रहते हैं वहाँ पर जिनमंदिर होता है और जहाँ पर जिनमंदिर होता है वहाँ पर यतीश्वर निवास करते हैं और जहाँ पर यतीश्वरों का निवास होता है वहाँ पर धर्म की प्रवृत्ति रहती है तथा जहाँ पर धर्म की प्रवृत्ति रहती है वहाँ पर अनादिकाल से संचय किये हुये प्राणियों के पापों का नाश होता है तथा भाविकाल में स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों की प्राप्ति होती है इसलिये गुणवान मनुष्यों को धर्मात्मा श्रावकों का अवश्य आदर करना चाहिये।
भावार्थ —धर्मात्मा श्रावक ही अपने धन से जिनमन्दिर को बनवाते हैं तथा जिनमन्दिरों में यतीश्वर निवास करते हैं और यतीश्वरों से धर्म की प्रवृत्ति होती है तथा धर्म से पापों का नाश तथा उत्तम स्वर्ग-मोक्ष आदि के सुखों की प्राप्ति होती है इत्यादि ये समस्त बातें श्रावकों के द्वारा ही होती हैं यदि श्रावक न होवें तो ये बातें कदापि नहीं हो सकती इसलिये ऐसे उत्तम श्रावकों का भव्यजीवों को अवश्य आदर-सत्कार करना चाहिये।।२०।।
काले दु:खमसंज्ञके जिनपतेर्धर्मे गते क्षीणतां तुच्छे सामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति।
चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो य: सोऽपि नो दृश्यते यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्भव्य: स वन्द्य: सताम्।।२१।।
अर्थ —इस दु:खम नाम काल में जिनेन्द्र भगवान के धर्म के क्षीण होने से तथा आत्मा के ध्यान करने वाले मुनिजनों की विरलायत से और गाढ़ मिथ्यात्वरूपी अंधकार के पैâल जाने से जो जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा में तथा जिनमंदिरों में भक्ति सहित थे तथा उनको भक्तिपूर्वक बनवाते थे वे मनुष्य इस समय देखने में नहीं आते हैं किन्तु जो भव्यजीव इस समय भी विधि के अनुसार उन जिनमन्दिर आदि कार्यों को करता है, वह सज्जनों का वंद्य ही है अर्थात् समस्त उत्तम पुरुष उसकी निर्मलहृदय से स्तुति करते हैं।।२१।।
बिम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृतिं वा।
पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य।।२२।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं जो भव्यजीव इस संसार में भक्तिपूर्वक यदि छोटे से छोटे बिम्बा (कुन्दुक) पत्ते के समान जिन- मन्दिर तथा यव (जौ) के समान जिनप्रतिमा को भी बनावे तो उस मनुष्य को भी इतने पुण्य की प्राप्ति होती है कि जिसको और की तो क्या बात ? साक्षात् सरस्वती भी वर्णन नहीं कर सकती किन्तु जो मनुष्य ऊँचे—ऊँचे जिनमन्दिर तथा जिन प्रतिमाओं का बनाने वाला है उसको तो फिर अगम्यपुण्य की ही प्राप्ति होती है।
भावार्थ —बिम्बा के पत्र की ऊँचाई बहुत थोड़ी होती है और यव की भी ऊँचाई बहुत थोड़ी होती है किन्तु आचार्य इस बात का उपदेश देते हैं कि इस कलिकाल अर्थात् पंचमकाल में यदि कोई मनुष्य बिम्बा के पत्ते की ऊँचाई के समान जिनमन्दिर को तथा यव की ऊँचाई के समान ऊँची जिनप्रतिमा को भी बनावे तो उसके पुण्य की स्तुति करने के लिये साक्षात् सरस्वती भी हार मानती हैं किन्तु जो मनुष्य ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिरों को बनाने वाला है तथा ऊँची—ऊँची जिनप्रतिमाओं का निर्माण करने वाला है उसका तो पुण्य फिर अगम्य ही समझना चाहिये इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे ऊँची—ऊँची जिनप्रतिमाओं का तथा जिनमन्दिरों का उत्साहपूर्वक इस पंचम काल में अवश्य निर्माण करावें।।२२।।
–शार्दूलविक्रीडित-
यात्राभि:स्नपनैर्महोत्सवशतै: पूजाभिरुल्लोचवैâ नैवेद्यैर्बलिभिर्ध्वजैश्च कलशैस्तौर्यत्रिवैâर्जागरै:।
घण्टाचामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां भव्य:पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये।।२३।।
अर्थ —इस संसार में चैत्यालय के होने पर भव्यजीव यात्रा से कलशाभिषेकों से और सैकड़ों बड़े उत्सवों से और पूजा तथा चाँदनियों से और नैवेद्य से, बलि से तथा ध्वजाओं के आरोपण से, कलशारोपण से और अत्यंत शब्दों के करने वाले बाजों से तथा घंटा-चमर-दर्पण आदिक से उन चैत्यालयों की उत्कृष्ट शोभा को बढ़ाकर पुण्य का संचय कर लेते हैं इसलिये भव्यजीवों को चैत्यालय का निर्माण अवश्य ही कराना चाहिये।।२३।।
ते चाणुव्रतधारिणोऽपि नियतं यान्त्येव देवालयं तिष्ठन्त्येव महर्द्धिकामरपदं तत्रैव लब्ध्वा चिरम्।
अत्रागत्य पुन: कुलेऽति महति प्राप्य प्रकृष्टं शुभान्मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्तत:।।२४।।
अर्थ —जो षट् आवश्यकपूर्वक अणुव्रत के धारण करने वाले श्रावक हैं वे नियम से स्वर्ग को जाते हैं तथा वहाँ पर महान ऋद्धि के धारी देव होकर चिरकाल तक निवास करते हैं और पीछे वे इस मृत्युलोक में आकर शुभकर्म के योग से अत्यंत उत्तमकुल में मनुष्य जन्म को पाकर तथा वैराग्य को धारण कर और समस्त बाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रह का नाशकर सीधे सिद्धालय को पधारते है तथा वहाँ पर अनन्त सुख के भोगने वाले होते हैं इस प्रकार जब अणुव्रत आदि भी मुक्ति के कारण हैं तो भव्यों को चाहिये कि वे षट्आवश्यकपूर्वक अणुव्रतों को प्रयत्न से धारण करें।।२४।।
पुन्सोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलतरो मोक्ष: परं सत्सुख: शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरत:।
तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो सम्मतो यो भोगादिनिमित्तमेव स पुन: पापं बुधैर्मन्यते।।२५।।
अर्थ —चारों पुरुषार्थों में मनुष्य के लिये अविनाशी तथा उत्तमसुख का भंडार केवल मोक्ष ही पुरुषार्थ है किन्तु मोक्ष से अतिरिक्त अर्थ-काम आदि पुरुषार्थ विपरीत धर्म के भजने वाले हैं इसलिये वे मोक्षाभिलाषी को सर्वथा त्यागने योग्य हैं तथा धर्म नामक पुरुषार्थ यदि मोक्ष का कारण होवे, तो वह अवश्य ग्रहण करने योग्य है किन्तु यदि वही पुरुषार्थ नाना प्रकार के भोग-विलासों का कारण होवे, तो वह भी सर्वथा नहीं मानने योग्य है तथा ऐसे भोगविलास के कारण धर्मपुरुषार्थ को ज्ञानीजन पाप ही कहते हैं।
भावार्थ —धर्म-अर्थ-काम तथा मोक्ष इस प्रकार चार प्रकार के पुरुषार्थ हैं उन सब में अविनाशी तथा अनंतसुख का भंडार मोक्ष ही उत्तम पुरुषार्थ है इसलिये विद्वानों को वही ग्रहण करने योग्य है परन्तु इससे विपरीत अर्थ आदि पुरुषार्थ हैं वे विनाशीक तथा दु:ख के कारण हैं इसलिये सर्वथा त्यागने योग्य हैं और यदि धर्मनामक पुरुषार्थ मोक्ष का कारण होवे, वह तो विद्वानों को सदा ग्रहण करने योग्य है किन्तु यदि वही पुरुषार्थ नाना प्रकार के भोगों का कारण होवे, तो वह पाप ही है इसलिये सर्वथा वह त्याग करने योग्य ही है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे मोक्षपुरुषार्थ के लिये तो सर्वथा ही प्रयत्न करें तथा यदि धर्म नामक पुरुषार्थ मोक्ष का साधन होवे तो उसके लिये भी भलीभांति प्रयत्न करें किन्तु इनसे अतिरिक्त पुरुषार्थों को पाप के कारण समझकर उनके लिये कदापि प्रयत्न न करें।।२५।।
भव्यानामणुभिर्व्रतैरनणुभि: साध्योऽत्र मोक्ष: परं नान्यत्किञ्चिदिहैव निश्चयनयाज्जीव: सुखी जायते।
सर्वंतु व्रतजातमीदृशधिया साफल्यमेत्यन्यथा संसाराश्रयकारणं भवति यत्तदु:खमेव स्फुटम्।।२६।।
अर्थ —भव्य जीव अणुव्रत तथा महाव्रत को मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही धारण करते हैं किन्तु उनके धारण करने से उनको अन्य कोई भी वस्तु साध्य नहीं है क्योंकि निश्चयनय से जीव को सुख की प्राप्ति मोक्ष में ही होती है तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये जो अणुव्रत-महाव्रत आदि व्रत आचरण किये जाते हैं वे सफल समझे जाते हैं किन्तु जो व्रत मोक्ष की प्राप्ति के लिये नहीं हैं संसार के ही कारण हैं वे दु:ख स्वरूप ही हैं यह भलीभांति स्पष्ट है इसलिये भव्यजीवों को मोक्ष के लिये ही व्रतों को धारण करना चाहिये।।२६।।
देशव्रतोद्योतननामक अधिकार को समाप्त करते हुवे आचार्य इस व्रतोद्योतननामक अधिकार का फल दिखाते हैं—
यत्कल्याणपरम्परार्पणपरं भव्यात्मनां संसृतौ पर्यन्ते यदनन्तसौख्यसदनं मोक्षं ददाति ध्रुवम्।
तज्जीयादतिदुर्लभं सुनरतामुख्यैर्गुणै: प्रापितं श्रीमत्पज्र्जनन्दिभिर्विरचितं देशव्रतोद्योतनम्।।२७।।
अर्थ —जो देशव्रतोद्योतन संसार में भव्यजीवों को इन्द्र, चक्रवर्ती आदि समस्त कल्याणों का देने वाला है और सबसे अंत में अनन्त सुखों का भंडार जो मोक्ष, उसका देने वाला है तथा जिसकी प्राप्ति, अत्यन्त दुर्लभ जो मनुष्यपना आदि अनेकगुण, उनसे होती है और जिसकी रचना श्री पद्मनन्दि नामक आचार्य ने की है ऐसा वह व्रतोद्योतन चिरकाल तक इस संसार में जयवंत रहे।
अर्थ —यह देशव्रतोद्योतन क्रम से इन्द्र-अहमिन्द्र-चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े कल्याणों की प्राप्ति कराकर अंत में मोक्ष को देता है तथा मनुष्यपना, उत्तम कुल आदि अनेक गुणों से ही उसकी प्राप्ति होती है और जिसकी रचना आचार्य श्री पद्मनन्दि ने की है ऐसा यह व्रतोद्योतन चिरकाल तक इस संसार में जयवंत रहे।।२७।।
इस प्रकार इस पद्मनन्दिपंचिंवशतिका में देशव्रतोद्योतन
नामक अधिकार समाप्त हुआ।