केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर की स्थापना तत्कालीन होलकर नरेश यशवन्तराव होलकर द्वितीय ने अक्टूबर १९२९ में नवरत्न मंदिर में की गयी। होलकर रियासत के केन्द्रीय संग्रहालय नामकरण को मध्य भारत एवं मध्य प्रदेश सरकार ने भी यथावत् रखा। ईस्वी सन् १९६५ में नवीन भवन का निर्माण कार्य रुपये ८,८९,००० की लागत से १०,८०४ वर्गफीट क्षेत्रफल में पूर्ण हुआ। यह दो मंजिला भवन आगरा—बम्बई मार्ग पर स्थित है। जहाँ १९६५ में संग्रहालय स्थानान्तरित हुआ। संग्रहालय में बड़े पैमाने पर पूरी सामग्री का संकलन हुआ और वर्तमान में दोनों मंजिलों पर आठ दीर्घाएँ प्रदर्शित हैं। संग्रहालय में पश्चिमी मालवा से प्राप्त महत्वपूर्ण जैन प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं, जिनमें कुछ अभिलिखित महत्त्वपूर्ण जैन मूर्तियों का विवरण इस प्रकार है—
तीर्थंकर नेमिनाथ की यह प्रतिमा ऊन जिला पश्चिमी निमाड़ (खरगोन) से प्राप्त हुई है। पद्मासन पर अंकित अरिहंत परमेष्ठी नेमिनाथ की इस प्रतिमा का सिर व बायीं भुजा भग्न है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स तथा आसन पर ध्वज लांछन शंख का आलेखन कलापूर्ण है। हल्के हरे रंग के पत्थर पर निर्मित प्रतिमा है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १२२७ (ईस्वी सन् ११७०) का तीन पंक्तियों का एक स्थापना लेख अंकित है। क्षरण के कारण उसके कुछ अक्षर अस्पष्ट हो चुके हैं। इस लेख में ‘श’ के स्थान पर ‘स’ तथा अनुनासिक ‘न’ के स्थान में ‘अनुस्वार’ का प्रयोग हुआ है। लेख के आदि में दो अनुष्टुप छन्द में निर्मित श्लोक हैं, इनके बाद गद्य भाग है, जिसमें प्रतिष्ठाकारक का नामोल्लेख है। लेख में देशीगण में बुद्धिसम्पन्न महामुनि, रत्नत्रय रूपी प्रवर्द्धमान लक्ष्मी से उदधि स्वरूप पण्डिताचार्य गुणचन्द्र के शिष्य महादानी, ज्ञानियों में विचक्षण, चन्द्र स्वरूप संघ के आचार्य, संघ में शास्त्रों के ज्ञाता तीव्रचन्द्र हुए, सम्भवत: प्रतिमा—प्रतिष्ठा कार्य में प्रतिष्ठाचार्य का कार्य उन्होंने ही सम्पन्न किया था। गुर्जरान्वय में हुए शाह तीकम का पौत्र और पुत्र वीन (वीनू) संवत् १२७७ में इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराकर नित्य वन्दना करता है, लेख का पाठ इस प्रकार है—
१. संवत् १२२७। श्री मदेसी (शी) गणाधीस (श) गुणचंद्रो महामुनि (:।) श्री वद्धित पंडिताचार्य श्रव्य (सर्व) रत्नत्रयो ।घि:।। तस्यणि (शि) स्य महो।
२. दान…..(ज्ञान) चंद्र विचक्षणा:।। तीव्रचंद्र संघाचार्य्य संघे सा (शा) स्त्र—विसा
३. तत्पुत्रो बीन प्रणमति नित्यं।
यह तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित यह प्रतिमा किसी मूल प्रतिमा के पार्श्व में अंकित रही होगी। इसमें बांयी ओर परिकर के रूप में गज एवं सिंह व्यालाकृतियाँ तथा चामरधारी का आलेखन है। संगमरमर पत्थर पर निर्मित प्रतिमा है। आसन पर दो पंक्तियों में विक्रम संवत् १३४२ (ईस्वी सन् १२८५) का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है, इसमें संवत् १३४२ वैशाख सुदी द्वितीया शनिवार के दिन परीक्षि और जशवीर ने पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। लेख का पाठ इस प्रकार है—
१. संवत् १३४२ वर्षे वैशाख (ख) सुदि २ शनौ
२. रीक्षिज (स) (प्रतीष्ठित) वीर श्री श्री पार्श्वनाथ बिंब।
पार्श्वनाथ—यह तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। (सं. क्र. ३८१ ब) यह कायोत्सर्ग रूप में अंकित तीर्थकर का दाहिना हाथ अंशत: भग्न है। यह कलाकृति मूल प्रतिमा के दाहिनी ओर की ‘का उस्सग्ग’ प्रतिमा होगी क्योंकि परिकर का निर्माण करने वाले सिंह, व्याल तथा चामरधारी का आलेखन भी स्थानक मूर्ति के दाहिनी ओर ही किया हुआ है। संगमरमर पत्थर पर निर्मित प्रतिमा ५१²२५·१० सेमी आकार की है। पादपीठ पर तीन पंक्तियों में विक्रम संवत् १३४२ (ईस्वी सन् १२८५) का स्थापना लेख उत्कीर्ण है। जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में संवत् १३४२, वैशाख सुदी द्वितीया शनिवार के दिन परीक्षि और जसवीर भक्त ने पार्श्वनाथ प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। लेख का पाठ इस प्रकार है—
१. संवत् १२४२ वर्षे बैशाष (ख) सुदि २ शनौ
२. परीक्षि जसवीर समक्त श्री पार्श्वनाथ बिंबस्य।।
पार्श्वनाथ प्रतिमा पादपीठ—तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रतिमा का पादपीठ बूढ़ा जिला मन्दसौर से प्राप्त हुआ है। (सं. क्र. ३८१ स) शास्त्रोक्त पद्धति के अनुरूप निर्मित यह प्रतिमा पादपीठ तीर्थंकर पार्श्वनाथ से संबंधित होना चाहिए। सिंहासन के कोनों पर पार्श्व यक्ष एवं यक्षिणी पद्मावती का आलेखन है। मध्य में धर्मचक्र एवं मृगयुगल तथा चतुर्भुजी देवी प्रतिमा का अंकन है। शासन देवताओं और धर्मचक्र के मध्य गज तथा िंसह की प्रभावोत्पादक आकृतियाँ बनी हैं। संगमरमर पत्थर पर निर्मित प्रतिमा पादपीठ १२७ x ४०=३५ से. मी. आकार का है। पादपीठ पर दो पंक्ति में विक्रम संवत् १३४२ वें वर्षे के वैशाख सुदि द्वितीया शनिवार को सम्मेदाचल विहार में माथुरगच्छ धर्कट वंश के परीक्षि, रत्नाचार्य माल्हणि के पुत्र नासल तथा कुंवरपाल िंसह और अट्ट िंसह तथा उसकी पत्नी जसदेवी तथा पुत्र अभय िंसह कुमार पौत्र पद्म िंसह जाटव आदि समुदाय द्वारा श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा का निर्माण कराया गया तथा श्री शालिसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराई गई। लेख का वाचन इस प्रकार है—
१. श्री संवत् १३४२ वर्षे वैशाष (ख) सुदि २ शनौ श्री काशोदभव ग्रप्ततिबद्ध प्रासादे श्री संमेद विहारे श्री माथुर गच्छे श्री द्यर्कटवंशे परीक्षि रत्नाचार्य माल्हणि पुत्र नासल कुवर पालसी।
२. ह अट्टसीह भार्या चांद पुत्र परीक्षि जसवीर भार्या जसदेवि पुत्र अभय िंसह कुमार पुत्र पद्मिंसह जाटव समुदायेन श्री पार्श्वनाथ बिंव कारितं प्रतिष्ठित श्री शालिसूरिभि:।।
जैन प्रतिमा पादपीठ—यह प्रतिमा पादपीठ ऊन जिला पश्चिमी निमाड़ (खरगोन) से प्राप्त हुआ है। (सं. क्र. ४२०) इस विशालकाय प्रतिमा पादपीठ पर सामने मध्य में धर्मचक्र तथा उसके दोनों ओर गज एवं सिंहाकृतियाँ बनी हुई हैं। वैसे तो धर्मचक्र प्राय: आदिनाथ की प्रतिमाओं से सम्बद्ध माना जाता है किन्तु मालवा में अन्य तीर्थकरों के आसनों पर भी उसे अंकित किया गया है अत: निश्चितपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि यह आसन किस तीर्थंकर से संबंधित रहा होगा। बलुआ पत्थर पर निर्मित पादपीठ १२० x ५०=३५ से. मी. आकार का है। पादपीठ पर विक्रम संवत् १३३२ (ईस्वी सन् १२७५) का प्रतिष्ठा लेख भी अंकित है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। इसमें पादपीठ के दायीं ओर लेख में माघ वदी सप्तमी सोमवार को मूल संघ बलात्कारगण के पण्डिताचार्य सम्भवत: टुमनदेव के प्रशिष्य और सागरचन्द्र के शिष्य पंडिताचार्य श्री रत्नकीर्ति संभवत: प्रतिष्ठाचार्य के रूप में प्रतिष्ठा कराकर नित्य प्रणाम करते हैं। पादपीठ पर बायीं ओर के लेख में प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराने वाले दो परिवार थे। प्रथम परिवार में शाह कदम्ब का पौत्र तथा शाह माहण का पुत्र शाह खाऊल और उसकी पत्नी जोजे प्रतिष्ठा कराकर प्रतिमा को नित्य प्रणाम करते हैं, दूसरे परिवार में उदयादित्य देव के राज्य में तीकव की माता उसका पुत्र शाह बहिण तथा उसकी पत्नी और पुत्र मंगलमहा श्री की कामना से नित्य प्रणाम करते हैं। लेख का पाठ इस प्रकार है—
पादपीठ की दायीं ओर अंकित
संवत १३३२ वर्षे माघ्य वदि सोमे।।……अघे (मूलसंघे) हल: करगणधम (बलात्कार गणमान्ये) पडिताचार्य (य्य्र) श्री उमान दिड (टूमन देव) ………. (तस्य सिस्य स्त्री सागर चन्द्र तास्तास्य) पंडिताचर्य (य्य्र श्री रतनकीर्ति: प्रणमति नित्यं।
पादपीठ की बायीं ओर अंकित
झंडरीलाल साधु……कदम्ब तस्य सुत साधु माहण तस्य सुत साधु साउल प्रतस्य स्पर्धा (भार्या) जोज (जोजे) प्रथलज्य (प्रतिष्ठाय्य) प्रणम (मं) ति नित्यं।। साहु तीकव भ्रातृ…..(उदयादित्य देव) राज्य (ये) तस्य श्रुत (सुत) सा, (साहु) वहिण तस्य भार्या…..लताया: : पुं ……(पुत्र) प्रणम (मं) ति नित्यं।। मंगल महा श्री।।
अम्बिका—यक्षी अम्बिका की यह प्रतिमा पुरागिलाना जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। ऊँचे स्थण्डिल पर सव्य ललितासन में बैठी हुई अम्बिका का सिर एवं चारों हाथ भग्न हैं। चतुर्भुजी होने के कारण सामान्यतया इसे दिगम्बर सम्प्रदाय से संबंधित माना जा सकता है। यक्षी के दाहिनी ओर आसन के समीप बैठे हुए पुत्र शुभकर का अंकन है। वे अपने बायें हाथ से देवी का स्पर्श कर रहे हैं। अम्बिका की गोद में प्रियकर का भी आलेखन था किन्तु वह टूट चुका है। आसन पर िंसह का आलेखन है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा है। पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है। लेख में पार लगाने वाली महान देवी का सर्पिणी नित्य प्रणाम करती है। आर. एस. गर्ग ने इसे रूपिणी पढ़ा है, जबकि डॉ. कस्तूरचन्द जैन सुमन इसे सर्पिणी पढ़ा है, लेख वाचन इस प्रकार है—
महान्तारिका सर्पिणी प्रणमति नित्यं-अम्बिका—यक्षी अम्बिका की यह प्रतिमा पुरागिलाना जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। सव्य ललितासन में बैठी यक्षी अम्बिका के पैरों के समीप फल लिए लघुकाय, नग्न रूप में स्थानक शुभकर का अंकन बड़ा भावपूर्ण है। बायीं ओर गोद में प्रियकर का आलेखन था किन्तु वह टूट चुका है। यक्षी के चारों हाथ भग्न हैं और चतुर्भुजी होने के कारण इसे दिगम्बर सम्प्रदाय की अम्बिका कहा जा सकता है। यक्षी अम्बिका का अलंकरण १२वीं शती के अनुरूप बोझिल है। चौड़ी मेखला का आलेखन अत्यन्त सादा है। पैरों में कड़े और हाथों की चूड़ियाँ भी सामान्य स्तर की है, आसन अनुपात से अधिक ऊँचा है। बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा ९० x ५५=२० सेमी. आकार की है। पादपीठ पर लगभग १२वीं शती ईस्वी का लेख उत्कीर्ण है, जिसकी लिपि नागरी भाषा संस्कृत है, इसमें पार लगाने वाली महान देवी को रूणिणी नित्य प्रणाम करती है, लेख का पाठ इस प्रकार है—
महान्तारिका रूपिणी प्रणमति नित्यं-विद्या देवी अच्छुप्ता—विद्या देवी अच्छुप्ता की यह प्रतिमा हिगलाजगढ़ जिला मन्दसौर से प्राप्त हुई है। दिगम्बर परम्परा में चौदहवीं परम्परा में अच्छुप्ता है। श्वेताम्बर परम्परा में अच्छुप्ता है। वर्ण, वाहन तथा आयुध खड्ग के संबंध में दोनों परम्पराओं के वर्णन में समानता है। श्वेताम्बर परम्परा में भी अच्युता नाम की देवी अवश्य है परन्तु वहाँ वह छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की यक्षिणी मानी जाती है। प्रवचनसारोद्धार में नेमिचन्द्र सूरि ने उसे सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ की यक्षिणी लिखा है। यह प्रतिमा निश्चितरूपेण श्वेताम्बर सम्प्रदाय की विद्या है क्योंकि इसके स्थापना लेख में इसे स्पष्ट रूप से ‘अच्छुप्त देव्या’ लिखा गया है। विद्या देवी अच्छुप्ता का सिर, हाथ तथा आयुध भग्न है किन्तु अवशिष्ट आलेखन से स्पष्ट है कि वह चतुर्भुजी रही होगी। पादलिप्ताचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ निर्वाणकलिका में कहा है—इस विद्या देवी के आयुध क्रम था, इसे स्पष्ट नहीं बतलाया जा सकता है। देवी के आसन पर दोनों ओर दो चामरधारिणी परिचारिकाएं तथा सामने पूजक पुरुष व स्त्री प्रतिमाएं बनी हुई हैं। यह प्रतिमा जैन कला का बहुत की सुन्दर तथा महत्वपूर्ण उदाहरण है। उन्नत उरोज और उन पर पड़ी हुई हारावली, स्तन सूत्र, कटिबंध, उरूद्दाम तथा अधोवस्त्र का आलेखन मनोहारी है, देवी का वाहन अश्व भी बना हुआ है।
ई. सन् ७५ तथा ई. ११०८ के चतुर्भज विष्णु मंदिर प्रवेश द्वार पर स्थित शिलालेख जैन पुरातत्व और विरासत को प्राचीनतम इतिहास से जोड़ते हैं। इन शिलालेखों का वाचन पुराविद् कनिंघम ने १८६२ ई. में किया फिर पुन: वाचन भी कुछ समय बाद किया, पुनर्वाचन में आपने लिखा कि सास बहू मंदिर के उत्तर की ओर सामने वाली भूमि पर जहां अभी गरुड़ स्तंभ है, जैन विद्यापीठ संघालय था, इसका विस्तार ७० x ३५ था, पास में एक विशालकाय जैन मंदिर था। लगभग २० अभिलेख अलग-अलग कालावधि के इस तथ्य की पुष्टि करते हैं, ये सभी १४४० से १४८५ ई. के हैं।
विशालकाय जिनालय के भग्नावशेष, जो वर्धमान मंदिर के नाम से सुविख्यात था, वर्तमान मेंं सिक्खों के गुरुद्वारे में पीछे वाली सड़क से जाकर सिंधिया स्कूल के खेल मैदान के भीतर स्थित है। चारों ओर दीवार होने से यह स्थल स्पष्ट नहीं दिखाई देता है। यह मंदिर तीन मंजिल का है तेली के मंदिर जैसा दिखता है। पहली मंजिल के गर्भगृह में जाकर देखने से पता चलता है कि इसके द्वारशीश पर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। दूसरी मंजिल पर भगवान महावीर की मूर्ति द्वार पर शीशमय है तथा यह मंजिल कलापूर्ण है। तीसरी मंजिल अत्यन्त कलापूर्ण है। खम्बे मेहराब सभी बारीक नक्काशी लिए हुए हैं। तीन मंजिल की ऊँचाई ६० फुट के लगभग है। यदि तीसरी मंजिल के ऊपर शिखर का भी अनुमान किया जाए तो धरातल से १०० फुट हो सकती है। मंदिर की स्थापत्य, वास्तुकला और नाप—जोख देखने से पता चलता है कि यह मन्दिर ४०० फुट आगे तक रहा होगा। नीचे की मंजिल बिना चूने आदि के सिर्फ शिलाओं को एक के ऊपर एक रखकर बनायी गई है। मंदिर का सिर्फ गर्भगृह ही शेष बचा है। तीसरी मंजिल को देखना संभव नहीं, क्योंकि ऊँचाई बहुत है। दूसरी मंजिल से तीसरी मंजिल तक सीढ़ियां हैं, जो टूट गई हैं। इस मंदिर की मरम्मत बाद में की गई जो संभव है गर्दे साहब ने कराई हो। गर्भगृह की मूर्तियाँ कहाँ गईं ? बिना मूर्तियों का तो मन्दिर संभव नहीं। इस मंदिर का उल्लेख जैसलमेर तथा पाटण की हस्तलिखित पोथियों में भी मिलता है। महाकवि रइधू ने इनका उल्लेख अपने साहित्य में किया है।
ग्वालियर दुर्ग के स्थापत्य को सुन्दर बनाने के प्रयोजन से मध्ययुग में किसी मूर्तिविहीन प्रासाद या मंदिर की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इतनी अधिक और इतने प्रकार की मूर्तियाँ उत्तर भारत के ग्वालियर अंचल में बनाई गईं कि अनेक शताब्दियों तक निरन्तर तोड़े जाने के उपरान्त भी लगभग प्रत्येक शताब्दी की मूर्तियाँ कहीं न कहीं टूटी, अधटूटी या बिना टूटी मिल जाती हैं। काल और मनुष्य दोनों के प्रहार से उनका कुछ अंश बच ही निकला है। अलवर और मथुरा के जैन चौरासी मन्दिर में तोमर राजाओं के उल्लेखयुक्त मूर्तियाँ अभी भी हैं।
गोपाचल गढ़ और गोपाचल नगर (ग्वालियर) दो भिन्न स्थल हैं, गढ़ के नीचे विशाल गोपाचल नगर बसा हुआ है। यह अत्यन्त विचित्र बात है कि गोपाचल गढ़ पर या गोपाचल नगर में आज कोई भी तोमरकालीन हिन्दू या जैन मंदिर अस्तित्व में नहीं है। जैन मंन्दिरों का एक वर्ग गुहा मन्दिर अवश्य गोपाचल गढ़ पर बसा हुआ है तथापि अन्य सभी मन्दिर नष्ट कर दिये गये हैं। गोपाचल नगर के जैन मन्दिरों का वर्णन बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया है, उसने लिखा है कि इन मन्दिरों में दो—दो और कुछ में तीन—तीन मंजिलें भी। प्रत्येक मंजिल प्राचीन प्रथा के अनुसार नीची-नीची थीं, कुछ मन्दिर मदरसों के समान थे। परन्तु प्रश्न उठता है कि वे अनेक मंजिलों के जैन मंदिर कहाँ गये ? बाबर ने तो उन्हें तुड़वाया नहीं था। उन मंदिरों का स्वरूप अब खबर की आत्मकथा से ही जाना जा सकता है।
डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी अपने ग्रंथ ‘ग्वालियर के तोमर’ में लिखते हैं कि मान मन्दिर के सामने बायीं ओर कोई बहुत बड़ा जैन मन्दिर था। बाबर के गोपाचल गढ़ के सूबेदार रहीमदाद खां ने बिना बादशाह की आज्ञा के उसका अग्रभाग तुड़वा कर वहां मेहराबदार द्वार बना दिया और उसका नाम ‘रहीमदाद का मदरसा’ रख दिया। यह मन्दिर डूगरेन्द्रसिंह तोमर के समय में बना था। गढ़ के दक्षिणी भाग की ओर एक विशालकाय बहुमंजिला जैन मन्दिर और था जो तोमरों के पूर्व ही बन चुका था, इसका उल्लेख कच्छपघात राजाओं के समय का प्राप्त होता है।
गोपाचल गढ़ के चंदेल यशोवर्मन के शिलालेख विक्रम सम्वत् १०११ (सन् ९५४ ई.) में विस्मयैक निलयगिरि कहा गया है। एपीग्राफिका इंडिका के अनुसार गोपाचल गढ़ को कन्नौज (उ.प्र.) के प्रतापी राजा यशोवर्धन के पुत्र आमदेव ने अपनी राजधानी बनाया था। इस आमदेव ने वप्पभट्टसूरि का शिष्यत्व ग्रहण किया और गोपगिरि पर एक सौ हाथ लम्बा मंदिर बनवाया और उसमें वर्धमान महावीर की विशाल मूर्ति स्थापित की। वप्पभट्टचरित तथा प्रभावक चरित से भी इस अनुश्रुति की पुष्टि होती है। आमदेव के पुत्र का नाम प्रभावक चरित में दुरंक लिखा है। प्रबन्धककोष में गोपाचल का नाम गोपगिरि भी दिया गया है।
आमदेव और उसके वंशजों का जैन ग्रंथों का यह विवरण सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा करने का अभी कोई साधन नहीं है। डा. एस एस.पी. पंडित ने अपनी पुस्तक ‘गौडवहो’ की प्रस्तावना में लिखा है कि आमदेव यशोवर्मन का पुत्र था। डॉ. आर. एस त्रिपाठी के मत से आमदेव प्रतिहार वंश के नागाभलोक (नागभट्ट—।।) या वत्सराज से भिन्न नहीं हैं। आमदेव यदि यशोवर्मन का पुत्र है तब उसका समय ७५० ई. होगा और यदि उसे प्रतिहार वत्सराज या नागभट्ट का अभिन्न माना जाय तब उसका समय ७८० ई. या ८३० ई. के लगभग बैठता है।
इस प्राचीन तीन मंजिले जैन मन्दिर के गर्भगृह के मिलने से तथा इसकी पुरातात्विक/ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्थापित करने से शोध के जैन स्रोतों को और अधिक प्रकाश में लाया जा सकता है। हो सकता है ऊपर की मंजिल में कुछ शिलालेख भी हों जिनसे अतीत पर कुछ प्रभाव पड़े। हमारी विरासत को जैन संस्कृति के पोषक क्षत्रिय राजाओं ने हजारों वर्षों तक सरंक्षण-संवर्धन किया, वहीं हमें बड़े खेद के साथ लिखना पड़ रहा हे कि हम इन अधबचे हुए अवशेषों का सूचीकरण / प्रशस्तियों / शिलालेखों का वाचन / संग्रहीकरण भी करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। गोपाचल की जैन विरासत को संजोने के लिये पर्याप्त शोध की आवश्यकता है।
जैनधर्म भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इस धर्म के अनुयायी भारत के प्राय: सभी भागों में पाये जाते हैं। ये अनुयायी मुख्यत: दो प्रमुख सम्प्रदायों—दिगम्बर एवं श्वेताम्बर में विभक्त हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी अपनी देवमूर्तियों को बिना किसी साज-सज्जा के पूजते हैं जबकि श्वेताम्बरी अपनी पूज्य प्रतिमाओं को सुन्दर मुकुट एवं विभिन्न आभूषणों से सजाकर उनकी पूजा आराधना करते हैं। भारत में पाई गयी प्राचीनतम प्रतिमायें नग्न हैं क्योंकि उस समय केवल दिगम्बर सम्प्रदाय का ही प्राबल्य था परन्तु शताब्दियों पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित जैन प्रतिमाओं का भी निर्माण होने लगा और इस प्रकार अब दोनों प्रकार की प्रतिमायें आज भी भारत के विभिन्न भागों में उनके अनुयाइयों द्वारा पूजी जाती हैं।
प्रारम्भ में अनेक जैन विद्वानों का विचार था कि उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म अब से हजारों साल पूर्व भी विद्यमान था और जब सन् १९१२ में हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों की खुदाई में नग्न मानव धड़ एवं ऐसी अन्य पुरातत्वीय महत्त्व की वस्तुएँ प्राप्त हुईं, तो उन विद्वानों ने उनको भी जैनधर्म से सम्बन्धित ठहराया परन्तु अनेक आधुनिक विद्वानों ने शोध के आधार पर इस प्रचलित धारणा का खण्डन करते हुए उन्हें प्राचीनतम यक्ष प्रतिमाओं का प्रतिरूप बतलाया है।
यद्यपि जैन साहित्य से यह प्रमाणित है कि स्वयं भगवान महावीर के समय छठी शताब्दी ईसवी पूर्व में ही उनकी चन्दन की प्रतिमा का निर्माण हो चुका था परन्तु पुरातात्त्विक खोजों के आधार पर अब तक सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा मौर्य काल की, लगभग तीसरी शती ई. पूर्व की ही मानी जाती है। पटना के समीप लोहानीपुर के इस काल का एक नग्न धड़ प्राप्त हुआ है जो अब पटना संग्रहालय में प्रदर्शित है। यह अपनी तरह का एक बेजोड़ उदाहरण है। बलुआ पत्थर के बने इस धड़ पर मौर्यकालीन चमकदार पालिस आज भी विद्यमान है जिसका कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में वङ्का लेप के नाम से उल्लेख किया है। इस नग्न धड़ में ‘जिनको स्पष्ट रूप से कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है, इसी से काफी साम्यता रखता परन्तु पालिस रहित एक अन्य धड़ शुंगकाल का माना जाता है, पटना संग्रहालय में प्रदर्शित है। शुंगकाल के पश्चात् कुषाणकाल में जैन आयागपट्टों एवं स्वतंत्र प्रतिमाओं का निर्माण अधिकाधिक रूप से होने लगा। मथुरा के विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक कुषाण एवं गुप्तकालीन प्रस्तर मूर्तियाँ स्थानीय राजकीय संग्रहालय तथा राज्य संग्रहालय लखनऊ में विद्यमान हैं जिनसे जैन देवप्रतिमाओं के विकास की पूर्ण शृंखला का आभास सरलता से हो जाता है।
विदेशों में रहने वाले कलाप्रेमियों का ध्यान जब जैन मूर्तिकला की ओर आकर्षित हुआ तो धीरे—धीरे उन्होंने भी भारत से मूर्ति सम्पदा को अपने-अपने देशों में ले जाकर संग्रहालयों में प्रदर्शित किया। भारत की भाँति प्राय: सभी विदेशी संग्रहालय में जैन कला सम्बन्धी एक से एक सुन्दर उदाहरण देखने को मिलते हैं। आठ प्रमुख पाश्चात्य देशों में स्थित पन्द्रह प्रमुख संग्रहालयों में जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिमायें सुरक्षित हैं, उनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है—ये संग्रहालय मुख्यत: ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली, बुलगारिया, जर्मनी, स्विट्जरलैंड, डेनमार्क एवं अमेरिका में स्थित हैं।
ब्रिटेन : (अ) ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दन—
लन्दन स्थित इस विख्यात संग्रहालय में मथुरा से प्राप्त कई जिनशीर्षों के अतिरिक्त उड़ीसा से मिली एक पाषाण मूर्ति भी है जिसमें आदिनाथ एवं महावीर को साथ-साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में दर्शाया गया है। पीठिका पर आदिनाथ और महावीर के लांछन वृषभ तथा सिंहों का अंकन है। इसके साथ ही उपासिकाओं की मूर्तियाँ भी बनी हुई हैं। कला की दृष्टि से यह मूर्ति ग्यारहवीं शती में बनी प्रतीत होती है।
उड़ीसा से ही प्राप्त नेमिनाथ की यक्षी अम्बिका की लगभग उपर्युक्त प्रतिमा की समकालीन मूर्ति भी यहाँ विद्यमान हैं जिसमें वह आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी है। इनका छोटा पुत्र प्रभंकर गोद में व बड़ा पुत्र शुभंकर दाहिनी ओर खड़ा हुआ है। मूर्ति के ऊपरी भाग में नेमिनाथ की लघु मूर्ति ध्यान मुद्रा में है तथा पीठिका पर देवी का वाहन सिंह बैठा दिखाया गया है।
इस संग्रहालय में मध्य प्रदेश से प्राप्त सुलोचना, धृति, पद्मावती, सरस्वती तथा यक्ष एवं यक्षी की सुन्दर प्रस्तर मूर्तियाँ भी विद्यमान हैं। अन्तिम मूर्ति की पीठिका पर अनन्तवीर्य उत्खनित है।
(ब) विक्टोरिया एवं एलर्बट संग्रहालय, लन्दन—
इस संग्रहालय में कुषाण एवं गुप्त कालों की भगवान ऋषभ की दो मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं। साथ ही, मध्य प्रदेश में ग्यारसपुर नामक स्थान से लाई गयी पार्श्वनाथ की एक अद्वितीय मूर्ति भी विद्यमान है जो सातवीं शती की प्रतीत होती है। इसमें तेईसवें तीर्थंकर ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं और मेघकुमार एक बड़े तूफान के रूप में उन पर आक्रमण करता दिखाया गया है। साथ ही नागराज धरणेन्द्र अपने विशाल फण फैलाकर उनकी पूर्ण सुरक्षा करता दर्शाया गया है और उसकी पत्नी एक नागिनी के रूप में तीर्थंकर के ऊपर अपना छत उठाये हुए हैं। मूर्ति के ऊपरी भाग में जिन की कैवल्य प्राप्ति पर दिव्य नामक नगाड़ा बजाता भी दिखाया गया है। प्रस्तुत मूर्ति चालुक्य कला के समय (नवमीं—दसवीं शती) की बनी प्रतीत होती है। यहाँ राजस्थान के पूर्वी भाग से प्राप्त एक पाषाण सिरदल भी है जो कला का सुन्दर उदाहरण है। इसके नीचे वाली ताख में ध्यानी जिन की मूर्ति निर्मित है और उनके दोनों ओर अन्य दो-दो तीर्थंकर कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्ण किये मिलते हैं। यह तेरहवीं—चौदहवीं शती की मूर्ति है।
डेनमार्क : राष्ट्रीय संग्रहालय, कोपेनहेगन—
इस संग्रहालय में मुख्यत: आंध्रप्रदेश व कर्नाटक से प्राप्त जैन मूर्तियों का अच्छा संग्रह है। ये सभी मूर्तियां ११वीं- १२वीं शती की हो सकती हैं। इस संग्रह में कई चालुक्ययुगीन महावीर स्वामी की नग्न प्रतिमाएँ हैं, जिनमें उन्हें कायोत्सर्ग—मुद्रा में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त ऋषभनाथ की एक चौबीसी भी है जिसमें मूलप्रतिमा वे दोनों ओर तथा ऊपरी भाग में अन्य तेईस तीर्थंकरों की लघु आकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गई मिलती हैं। ये सभी मूर्तियाँ ध्यान मुद्रा में हैं।
इटली : राष्ट्रीय संग्रहालय, रोम-
इन संग्रहालय में गुजरात में सन् १४५० ई. में बनी भगवान नेमिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी मूर्ति मुख्य आकर्षण है। इनके दोनों ओर अन्य दो—दो तीर्थंकर खड़े व बैठे दिखाये गये हैं। मुख्य मूर्ति के पैरों के समीप उनके यक्ष एवं यक्षी गोमेध एवं अम्बिका भी बैठे दिखाये गये हैं। कला की दृष्टि से भी यह मूर्ति पर्याप्त रूप से सुन्दर है।
बुलगारिया : रङ्काग्रेड संग्रहालय, रङ्काग्रेड-
राजस्थान में लगभग ११ वीं शती ई. में निर्मित परन्तु उत्तर पूर्वी बुलगारिया में सन् १९२९ में पाई गई इस मूर्ति में तीर्थंकर को एक कलात्मक सिंहासन पर बैठे दिखाया गया है। अन्य प्रतिमाओं की भाँति इसके वक्ष पर भी कमल की पंखुड़ियों के समान श्रीवत्स चिन्ह अंकित है।
स्विट्जरलैन्ड : रिटवर्ग संग्रहालय, ज्यूरिक
ज्यूरिक के इस सुप्रसिद्ध संग्रहालय में राजस्थान में चन्द्रावती नामक स्थान से प्राप्त भगवान आदिनाथ की लगभग आदमकद प्रतिमा विद्यमान है, जो श्वेत संगमरमर की बनी है। इसमें उनको दो कलात्मक स्तम्भों के बीच कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है। इसके ऊपरी भाग में त्रि-छत्र बना है। इन्होंने सुन्दर धोती धारण कर रखी है जिससे स्पष्ट है कि उसकी प्रतिष्ठापना श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जैनियों द्वारा की गयी थी। पीठिका पर बने वृषभ के अतिरिक्त उनके चरणों के पास दानकर्ता एवं उनकी पत्नी तथा अन्य उपासकों की लघु मूर्तियाँ बनी हैं। कला की दृष्टि ये मूर्ति परमार काल की लगभग बारहवीं शती की बनी प्रतीत होती है।
जर्मनी : (अ) म्यूजियम फॉर वोल्कुर कुण्डे, बर्लिन-
इस संग्रहालय में मथुरा क्षेत्र से प्राप्त कुषाणकाल (२—३ शती) के कई जिनशीर्ष विद्यमान हैं। इस प्रकार के कई अन्य शीर्ष स्थानीय राजकीय संग्रहालय में भी देखने को मिलते हैं।
उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त दक्षिण भारत में मध्यकाल में निर्मित कई जैन प्रतिमायें भी यहाँ पर प्रदर्शित हैं। इन सभी मूर्तियों में जिनको कायोत्सर्ग मुद्रा में नग्न खड़े दिखाया गया है, इनके पैरों के समीप प्रत्येक तीर्थंकर के सेवकों तथा उपासकों की लघु मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई मिलती हैं।
(ब) म्यूजियम फॉर वोल्कुर कुण्डे, म्यूनिख :
इस संग्रहालय में यक्षी अम्बिका की एक अत्यन्त भव्य प्रतिमा प्रदर्शित है जिसे पट्टिका पर दुर्गा बताया गया है। मध्य प्रदेश से प्राप्त लगभग अठारहवीं शती की इस मूर्ति में देवी अपने आसन पर ललितासन में विराजमान हैं। इनके दाहिने हाथ में गुच्छा था जो अब टूट गया है और दूसरे हाथ से वह अपने पुत्र प्रियंकर को गोदी में पकड़े हुए हैं। इनका दूसरा पुत्र पैरों के समीप खड़ा है। देवी के शीश के पीछे बने प्रभामण्डल की दाहिनी ओर गजारूढ़ इन्द्राणी और बाँई ओर गरूड़ारूढ़ चक्रेश्वरी की मूर्तियाँ हैं जिनके मध्य ऊपरी भाग में भगवान नेमिनाथ की ध्यान मुद्रा में लघु मूर्ति उत्कीर्ण है। मूर्ति के नीचे भाग में कई उपासक बैठे हैं जिनके हाथ अंजली मुद्रा में दिखाये गये हैं।
अमेरिका : (अ) क्लीवलैण्ड कला संग्रहालय, क्लीवलैण्ड, ओहायो-
इस संग्रहालय में प्रदर्शित जैन मूर्तियों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मूर्ति पार्श्वनाथ की है जिसका निर्माण मालवा क्षेत्र में लगभग दसवीं शती में हुआ था। लगभग आदमकद इस मूर्ति में पार्श्वनाथ सर्प के साथ फणों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं और कमठ अपने साथियों सहित उन पर आक्रमण करता दिखाया गया है। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि जब पार्श्वनाथ अपनी घोर तपस्या में लीन थे, तब दुराचारी कमठ ने उसमें विघ्न-बाधायें डालीं जिससे वे तपस्या न कर सकें और उनके लिये उसने उन पर घोर वर्षा की, पाषाण शिलाओं से प्रहार किया तथा अनेक जंगली जंतुओं से भय दिलाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु इतना सब सहते हुये पार्श्वनाथ अपने पुनीत कार्य से जरा भी विचलित नहीं हुए और अपनी तपस्या पूर्ण कर ज्ञान प्राप्त करने में सफल रहे। परिणामस्वरूप कमठ को लज्जित होकर उनसे क्षमा माँगना पड़ी। प्रस्तुत मूर्ति में सम्पूर्ण दृश्य को बड़ी सजीवता से दर्शाया गया है। यद्यपि इस आशय की अन्य प्रस्तर प्रतिमाएँ भारत के अन्य कई भागों से भी प्राप्त हुई हैं परन्तु फिर भी यह मूर्ति अपनी प्रकार का अद्वितीय उदाहरण है।
(ब) बोस्टन कला संग्रहालय, बोस्टन, मैसाचुसैहस
इस संग्रहालय में मध्य प्रदेश से प्राप्त जैन मूर्तियों का काफी अच्छा संग्रह है। इनमें अधिकतर तो प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्तियाँ हैं जिनमें से कुछ में वह ध्यान मुद्रा में तथा कुछ में कायोत्सर्ग मुद्रा में दर्शाये गये हैं। उन प्रतिमाओं के अतिरिक्त यहाँ एक अत्यन्त कलात्मक तीर्थंकर वक्ष भी है, जिसे संग्रहालय की पट्टिका में महावीर बताया गया है परन्तु यहाँ यह उल्लेख है कि प्रस्तुत मूर्ति में केश ऊपर को बँधे हैं और जटाएँ दोनों ओर कंधों पर लटक रहीं हैं। इससे प्रतिमा की आदिनाथ के होने की ही सम्भावना प्रतीत होती है। इनके शीश के दोनों ओर बादलों में उड़ते हुए आकाशचारी गन्धर्व और ‘‘त्रिछत्र’’ के ऊपर आदिनाथ की ज्ञान-प्राप्ति की घोषणा करता हुआ एक दिव्य वादक बना हुआ है। यह सुन्दर मूर्ति दसवीं शती की बनी प्रतीत होती है।
(स) फिलाडेल्फिया कला संग्रहालय, फिलाडेल्फिया
इस संग्रहालय में सबसे उल्लेखनीय जैन मूर्तियाँ जबलपुर क्षेत्र से प्राप्त कल्चुरिकालीन दसवीं शती की हैं। इसमें से एक भगवान महावीर की है जिसमें उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है। द्वितीय प्रतिमा में पार्श्वनाथ तथा नेमिनाथ को इसी प्रकार खड़े दिखाया गया है। पार्श्वनाथ की पहचान उनके शीश के ऊपर बने सर्प फणों से तथा नेमिनाथ की पहचान पीठिका पर उत्कीर्ण शंख से की जा सकती है।
(द) सियाटल कला संग्रहालय, सियाटल
इस संग्रहालय में भी मध्य प्रदेश से प्राप्त कई मध्यकालीन जैन प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ गुजरात से मिली भगवान कुन्थुनाथ की एक पंचतीर्थी है जिसकी पीठिका पर सन् १४४७ ई. का लघु लेख उत्कीर्ण है। साथ ही, यहाँ आबू क्षेत्र से प्राप्त नर्तकी नीलांजना की भी सुन्दर मूर्ति प्रदर्शित है जिसका प्राचीनतम अंकन हमें मथुरा की कुषाण कला में देखने को मिलता है।
(य) एसियन कला संग्रहालय, सेन फ़्रांसिसको, कैलिफोर्निया
इस संग्रहालय में भी देवगढ़ क्षेत्र से प्राप्त कई जैन मूर्तियाँ प्रदर्शित हैं जिनमें उनके माता—पिता की प्रतिमा काफी महत्त्व की है। यहीं पर अंबिका की भी एक सुन्दर मूर्ति विद्यमान है, जिसमें वह आम के वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं और पैरों के निकट उनका वाहन सिंह अंकित है।
(र) बर्जीनिया कला संग्रहालय, रिचमोन्ड, बर्जीनिया—
इस संग्रहालय में सबसे महत्त्वपूर्ण भगवान पार्श्वनाथ की त्रितीर्थक है जो राजस्थान में नवमी शती में बनी प्रतीत होती है। इसमें मध्य में पार्श्वनाथ ध्यान मुद्रा में विराजमान हैं। सर्प के फणों की छाया में और उनके दोनों ओर एक—एक तीर्थंकर खड़ा दिखाया गया है। सिंहासन की दाहिनी ओर सर्वाण्ह यक्ष की मूर्ति तथा बाँई ओर अम्बिका दर्शाये गये हैं। सामने दो मृगों के मध्य धर्मचक्र तथा अष्ट ग्रहों के सुन्दर अंकन हैं।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से विदित होता है कि जैनधर्म ने भारतीय मूर्तिकला के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट योगदान दिया है। सम्पूर्ण भारत के विभिन्न भागों में निर्मित देवालयों के अतिरिक्त देश—विदेश के अनेक संग्रहालयों में भी जैनधर्म से संबंधित असंख्यकला मूर्तियाँ सुरक्षित हैं जिनका वैज्ञानिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अध्ययन होना परमावश्यक है।