देवादेव अर्थसिद्धिश्चेद्धैवं पोरुषत: कथं।
दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत्।।८८।।
यदि देव (भाग्य) से ही कार्यों की सिद्धि मानो तो देव पुरुषार्थ से वैâसे बना; यदि देव का निर्माण देव से ही होता है तो किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा और पुरुषार्थ भी निष्फल हो जाएगा। किन्तु ऐसी बात नहीं है। वर्तमान के पुरुषार्थ से ही भावी भाग्य का निर्माण होता है। यदि कोई पुरुषार्थ का ही एकांत ग्रहण करे तो कहते हैं-
पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवत: कथं।
पौरूषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम्।।८९।।
यदि पुरुषार्थ से ही कार्य की सिद्धि होती है तो फिर पुरुषार्थ देव से वैâसे हुआ, यदि कहो कि पुरुषार्थ से ही होता है तब तो सभी के सभी कार्य सफल हो जाएंगे, क्योंकि पुरुषार्थ तो सभी प्राणियों में है ही है।
किन्तु देखा जाता है कि एक साथ खेत में बीज बोने वालों के भी फसल में अंतर पड़ जाता है। सो ऐसा क्यों; कहना पड़ेगा कि उसका भाग्य अनुकूल नहीं है।
अब इस समस्या में श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं-
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवत:।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात्।।९१।।
अनायास-बिना सोचे-विचारे कोई अनुवूâल या प्रतिकूल कार्य हो जाता है तो वह स्वदैवकृत माना जाता है क्योंकि उसमें बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा नहीं है अत: वहाँ पुरुषार्थ अप्रधान है, देव प्रधान है और इससे विपरीत आयासपूर्वक यदि कोई इष्ट या अनिष्ट कार्य होता है तो वह पुरुषार्थकृत् माना जाता है क्योंकि वहाँ बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा विद्यमान है अत: वहाँ पर दैव की अप्रधानता है, पुरुषार्थ की प्रधानता है।
ऐसी आशंका होती है कि सर्वज्ञ के ज्ञान में जो झलका है सो तो होगा ही होगा पुन: पुरुषार्थ करने की, नाना निमित्तों को जुटाने की क्या आवश्यकता है।
उसका समाधान यह है कि सर्वज्ञ का ज्ञान तो दर्पण के समान है। उसमें हमारा पुरुषार्थ, मोक्ष जाने का समय व उसके लिए मिलने वाले निमित्त सभी झलक चुके हैं। यदि हमारे सामने दर्पण रखा है जो हमारी चेष्टा हो रही हैं सो ही उसमें झलक रही हैं तद्वत् सर्वज्ञदेव के ज्ञान में हमारी संपूर्ण ही त्रैकालिक स्थिति स्पष्ट है। फिर भी बिना पुरुषार्थ किए कोई भी जीव न आज तक मोक्ष जा सका है और न जा सकता है, यह बात भी उस ज्ञान में झलकी ही होगी ।
आश्चर्य है कि लोग आत्महित के लिए ऐसी कर्तव्यशून्यता का अवलंबन ले लेते हैं किन्तु वैसे ही व्यापार आदि प्रसंगों में थोड़ा संतोष कर लें और सोच लें कि जो मिलना होगा सो मिलेगा, धर्म व कर्तव्य को जलांजलि देकर धन कमाने में आसक्त क्यों होना; तो उससे उनको लाभ ही होगा न कि हानि । हाँ, जब अतीव प्रयत्न करने के बाद भी कोई कार्य सफल न हो सके अथवा बिगड़ जाए उस समय यही विचार करना चाहिए कि जो होनहार होती है, होकर ही रहती है अत: अब पश्चात्ताप या अशांति करने से क्या लाभ अथवा जो कुछ सर्वज्ञदेव के ज्ञान में प्रतिभासित हुआ है सो हो रहा है। अशांति करने से यहाँ संक्लेश करके अशुभ कर्मबंध से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा अर्थात् कुछ भी नहीं ।
इसलिए अनेकांत का आश्रय लेकर निश्चय और व्यवहार नय में से किसी एक को मुख्य करके, दूसरे को गौण करना चाहिये और जब दूसरे को मुख्य करे तो प्रथम को गौण कर वस्तुस्वरूप को समझना चाहिये। तभी निमित्त और उपादान का भी सही स्वरूप समझ में आता है, अन्यथा नहीं ।
श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा भी कहा है कि-
एकेनाकर्षन्ती श्लघयन्ती वस्तुतत्वमितरेणं।
अंतेन जयति जैनी नीतिर्मथाननेत्रमिव गोपी।।२२५।।
जैसे ग्वालिन दर्धि मंथन करते समय हाथ से एक ओर ही रस्सी को खींचती है तथा दूसरे हाथ की रस्सी को शिथिल करती है और इस प्रक्रिया से वह नवनीत निकाल लेती है इसी प्रकार से जैनशासन में एक नयदृष्टि (निश्चय) को मुख्य करके दूसरी नयदृष्टि (व्यवहार) को गौण कर दिया जाता है और जब दूसरी दृष्टि (व्यवहार) मुख्य होती है तब पहली दृष्टि (निश्चय) गौण हो जाती है, इससे दोनों ही दृष्टियों का महत्व समान है यह स्पष्ट हो जाता है।
प्रत्येक वस्तु अनंत धर्मात्मक होती है। उन परस्पर विरोधी धर्मों को समझने के लिये ही सप्तभंगी प्रक्रिया मानी गई है। नयों को मुख्य-गौण करके वह प्रक्रिया सिद्ध होती है।
सो ही अकलंकदेव तत्वार्थराजवार्तिक में स्पष्ट करते हैं-
‘‘उस स्याद्वाद नय से संस्कृत श्रुत नामक प्रमाण के द्वारा प्रत्येक पर्याय के प्रति सप्तभंगी घटित कर जीवादि पदार्थों को जानना चाहिये।’’
‘‘प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी।।५।।’’
एक ही वस्तु में प्रश्न के वश से प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के अविरुद्ध विधि-प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है।
जैसे-जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध है, निश्चयनय की अपेक्षा से । जीव द्रव्य स्यात् अशुद्ध है, व्यवहार नय की अपेक्षा से।
जीवद्रव्य स्यात् शुद्ध-अशुद्ध है, क्रम से दोनों नयों की विवक्षा करने से । जीवद्रव्य स्यात् अवक्तव्य है, युगपत् दोनों नयों की विवक्षा करने से जीव द्रव्य स्यात् शुद्ध अवक्तव्य है, क्रमश: निश्चयनय की और युगपत् दोनों की अपेक्षा करने से ।
जीवद्रव्य स्यात् अशुद्ध अवक्तव्य है, क्रम से दोनों नयों की और युगपत् दोनों नयों की विवक्षा होने से।
इसी प्रकार से यह सप्तभंगी वस्तु के प्रत्येक धर्म में घटित कर लेना चाहिये।
यहाँ यह शंका होती है कि यदि अनेकांत में भी विधि प्रतिषेध कल्पना घटित होती है तो जिस समय अनेकांत में ‘‘नास्ति’’ भंग प्रयुक्त होगा उस समय एकांतवाद का प्रसंग आ जावेगा और यदि अनेकांत में अनेकांत नहीं लगेगा तो उसमें एकांत व्यवस्था हो जावेगी ।
उसका समाधान यह है कि अनेकांत में भी प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकांत और एकांत रूप से अनेकमुखी कल्पनाएं हो सकती हैं। अनेकांत और एकांत दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एकदेश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यव्â एकांत है। एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है।
एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकांत है।
एक वस्तु को तत्-अतत आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करने वाला जो अर्धशून्य वचन विलास है वह मिथ्या अनेकांत है।
सम्यक् एकांत नय कहलाता है एवं सम्यक् अनेकांत प्रमाण कहलाता है। यदि अनेकांत को अनेकांत ही माना जाय और एकांत का लोप किया जाए तो सम्यक् एकांत के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदाय रूप अनेकांत का भी अभाव हो जायेगा और यदि एकांत ही माना जाय तो उसके अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत धर्म का भी लोप हो जाने से सर्वलोप का प्रसंग प्राप्त होगा अत: अनेकान्त भी अनेकांत रूप है।
जैसे-अनेकांत कथंचित् अस्ति रूप है, प्रमाण की अपेक्षा से । अनेकान्त कथंचित् नास्तिरूप है, नय (सम्यक् एकांत) की विवक्षा से इत्यादि सप्तभंगी प्रक्रिया लगा लेना चाहिये।
अनेकांत छलरूप नहीं है, क्योंकि जहाँ वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन विधान किया जाता है वहाँ छल होता है किन्तु अनेकांत सुनिश्चित मुख्य
गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करने वाला है।
प्रश्न उठता है कि एक वस्तु में विरोधी अनेक धर्मों का रहना असंभव है अत: अनेकांत संशय का हेतु है।
उसका उत्तर यह है कि सामान्य धर्म के प्रत्यक्ष होने से और विशेष धर्मों के प्रत्यक्ष न होने से किन्तु उभय विशेषों का स्मरण होने पर संशय होता है। जैसे-धुंधली रात्रि में
स्थाणु को देखकर पुरुष का संशय होना। विंâतु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है, सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से स्वीकृत है।
और उन-उन धर्मों का विशेष प्रतिभास विवाद रहित सापेक्ष रीति से बताया है। जैसे-एक ही देवदत्त में परस्पर विरोधी पिता-पुत्र, चाचा-भतीजा, मामा-भांजा, शत्रु-मित्र आदि संबंध पाये जाते हैं उसी तरह से एक ही जीव में नित्य-अनित्य, शुद्ध-अशुद्ध,एक-अनेक आदि परस्पर विरोधी धर्म अपनी-अपनी अपेक्षा से पाये जाते हैं। यह निर्विवाद है।
इस प्रकार से नयों को मुख्य-गौण करके अनेकांत रूप से वस्तु के सही स्वरूप को समझना चाहिये और एकांत दुराग्रह से होने वाले मिथ्यात्व को छोड़ देना चाहिये ।
मिथ्यात्व-
जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान न करना अथवा अन्य के द्वारा उपदिष्ट असत् अर्थ का श्रद्धान करना सो मिथ्यात्व है।
इसके गृहीत, अगृहीत की अपेक्षा दो भेद हैं। गृहीत, अगृहीत और सांशयिक की अपेक्षा तीन भेद हैं। एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान की अपेक्षा से पांच भेद हैं तथा क्रियावाद आदिकों की अपेक्षा से तीन सौ त्रेसठ भेद भी हो जाते हैं। अथवा जीव के भावों की अपेक्षा संख्यात,असंख्यात और अनंतभेद भी हो जाते हैं। मध्यम रीति से
तीन सौ त्रैसठ भेदों का संक्षिप्त स्वरूप देखिये-
तीन सौ त्रैसठ पाखंडमत-
क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और वैनयिकवादियों के ३२, ऐसे १८०+ ८४+ ६७+ ३२= ३६३ पाखंडमत होते हैं। इनका विशेष वर्णन इस प्रकार है-‘‘अस्ति’’ पद को ‘‘आप से’’ ‘‘पर से’’ नित्यपने से’’ और ‘‘अनित्यपने से’’ इन चार से, जीवादि नव पदार्थ से तथा ‘‘काल’’ ‘‘ईश्वर’’ ‘‘आत्मा’’ ‘‘नियति’’ और
‘‘स्वभाव’’ इन पांच से, ऐसे क्रम से गुणा करने से १²४²९²५=१८० भेद क्रियावादियों के होते हैं।
‘‘नास्ति’’ पद को ‘‘आपसे’’ ‘‘पर से’’ पुण्य-पाप रहित सात पदार्थ से और ‘‘काल’’ आदि पांच से गुणा करने पर १²२²७²५·७०भंग होते हैं। पुन: ‘‘नास्ति’’ पद की सात पदार्थ और नियति तथा ‘‘काल’’ इन दो से गुणा करने पर १²७²२·१४ भेद हुये। दोनों मिलाकर ७०±१४·८४ भेद अक्रियावादियों के होते हैं।
नव पदार्थ को सप्तभंगी से गुणा करने पर ९²७=६३ भेद हुये, पुन: ‘‘शुद्ध पदार्थ’’ को अस्ति, नास्ति,उभय और अवक्तव्य इन चार भेदों से गुणा करने पर १²४·४ भेद हुये।
सब मिलाकर ६३+४=६७ भेद अज्ञानवाद के होते हैं।
इसका अर्थ यह है कि जीवादि नव पदार्थों में एक-एक का सप्तभंग से न जानना। जैसे कि ‘‘जीव’’ अस्तिरूप है ऐसा कौन जानता है, नास्ति रूप है ऐसा कौन जानता है, इत्यादि ।
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता और पिता इन आठों का मन, वचन, काय और दान इन चार से विनय करना सो ८²४·३२ ये बत्तीस भेद विनयवादियों के हैं। ये विनयवादी गुण-अगुण की परीक्षा किये बिना विनय से ही सिद्धि मानते हैं।
पूर्व में क्रियावादी के भेदों में जो ‘‘अस्ति’’ ‘‘स्व’’ ‘‘पर’’ ‘‘नित्य’’ ‘‘अनित्य’’, नवपदार्थ, और काल आदि पांच आये हैं, उनमें से सबका अर्थ तो स्पष्ट ही है। अब काल, ईश्वर आदि पांचों का अर्थ बताते हैं।
काल ही सबको उत्पन्न करता है, और सबका नाश करता है, काल ही सोते हुये प्राणियों में जागता है। ऐसे काल को ठगने के लिये कौन समर्थ है।इस प्रकार काल से ही सब कुछ मानना कालवाद है।
आत्मा ज्ञान रहित है, अनाथ है, कुछ कर नहीं सकता, उस आत्मा का सुख-दु:ख तथा स्वर्ग-नरक में गमन आदि सब ईश्वर का किया हुआ होता है। ऐसी मान्यता ईश्वरवाद है।
संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष है, वही देव है, वह सब में व्यापक है, सर्वांगपने से अगम्य है, चेतना सहित है, निर्गुण है और उत्कृष्ट है। इस तरह आत्मस्वरूप से ही सबको मानना आत्मवाद है।
जो जिस समय, जिससे,जैसे, जिसके नियम से होता है, वह उस समय, उससे, वैसे और उसके ही होता है। ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना नियति वाद है।
कांटे आदि तीक्ष्ण वस्तुओं में तीक्ष्णता कौन कराता है मृग आदि पशु-पक्षियों के अनेक आकार कौन बनाता है, इत्यादि प्रश्न होने पर कहना पड़ेगा कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सब को कारण के बिना स्वभाव से ही मानना स्वभाववाद है।
इस प्रकार से काल आदि की अपेक्षा से ‘‘अस्ति’’ आदि के साथ एकांत पक्ष ग्रहण करने से क्रियावादी और अक्रियावादी के भेद होते हैं।
इस प्रकार स्वच्छंद श्रद्धानी पुरुषों ने इन ३६३ मतों की कल्पना की है। ये पाखंडी लोगों को ही अच्छे प्रतीत होते हैं।
आगे और भी एकांतवादों को कहते हैं।
जो आलसी है, उद्यम करने में उत्साह रहित है, वह कुछ भी फल नहीं भोग सकता। जैसे-माता के स्तन का दूध पीना भी बिना पुरुषार्थ के नहीं होता है। इस तरह पुरुषार्थ से ही सर्व कार्य की सिद्धि मानना पौरुषवाद है।
मैं केवल भाग्य को ही उत्तम मानता हूँ, निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार हो । देखो! किले के समान ऊँचा राजा कर्ण युद्ध में मारा गया। इस तरह देव से ही सिद्धि मानना देववाद है।
जैसे-एक अंधा और एक पंगु दोनों वन में प्रविष्ट हुये, सो किसी समय वहाँ आग लग जाने से ये दोनों एक-दूसरे के संयोग से बचकर नगर में आ गए। ऐसे ही संयोग से ही सर्वकार्य सिद्ध होते हैं। ऐसा कहना संयोगवाद है।
एक बार की उठी हुई लोकप्रसिद्धि देवों द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती है, अन्य की बात क्या। देखो! द्रौपदी ने केवल अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी विंâतु ‘‘इसने पांचों को वरा है’’ ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस तरह लोक प्रवृति को ही सर्वस्व मानना लोकवाद है।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या, जितने भी वचन बोलने के मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। तात्पर्य यही है कि जो कुछ भी बोला जाता है वह कुछ न कुछ अपेक्षा को लिये हुये ही होता है। उस जगह जो अपेक्षा है वही नय है और बिना अपेक्षा से बोलना या एक ही अपेक्षा से अनंतधर्म वाली वस्तु को सिद्ध करना यही पर मतों में मिथ्यापना है।
सो ही स्वयं कहते हैं-
पर मतों के वचन ‘‘सर्वथा’’ कहने से नियम से असत्य होते हैं और जैनमत के वचन ‘‘कथंचित्’’ किसी एक प्रकार से कहने से सत्य होते हैं।’’
आजकल कुछ लोग आशंका करते हैं कि हमेशा अपने मत का मंडन करना चाहिये, दूसरे के मत को मिथ्या कहने और उसके खंडन करने की क्या आवश्यकता है।
उसका समाधान यह है सर्वथा ऐसा एकांत नहीं है, चूंकि दूसरों के मिथ्यात्व के स्वरूप को समझे बिना और शिष्यों को समझाये बिना उनका त्याग करना असंभव है तथा वह पाखंड मतों का निराकरण तो द्वादशांग के अंतर्गत है। दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग में इनका वर्णन आता है। यथा-
‘‘दृष्टिवाद नाम के अंग में कौत्कल,काण्ठेविद्धि,कौशिक आदि क्रियावादियों के १८० मतों का, मरीचि, कपिल, उलूक आदि अक्रियावादियों के ८४ मतों का, शाकल्य, बल्कल आदि अज्ञनवादियों के ६७ मतों का तथा वशिष्ठ, पाराशर आदि वैनयिकवादियों के ३२ मतों का वर्णन और उनका निराकरण किया गया है।’’
ऐसे ही कुश्रुत ज्ञान के प्रकरण में कहा है कि-‘‘चौर शास्त्र,हिंसा शास्त्र,भारत और रामायण आदि के तुच्छ और साधन करने अयोग्य उपदेशों को श्रुत अज्ञान कहा है।
तात्पर्य यही हुआ कि ये सब मिथ्यात्व, मिथ्या अनेकांत और मिथ्या एकांत से ही कल्पित किये गये हैं तथा इनके कहने वाले शास्त्र भी मिथ्यात्व के पोषक होने से कुश्रुत ही हैं। इनके स्वरूप को समझकर इन सबका त्याग करे स्याद्वादमय अनेकांत धर्म का आश्रय लेना चाहिये।
हुण्डावसर्पिणी के निमित्त से इस काल में अनेकों द्रव्य मिथ्यात्व उत्पन्न हो गये हैं विंâतु भाव मिथ्यात्व तो सर्वत्र-विदेह क्षेत्र में, विजयार्ध की श्रेणियों में, स्वर्गादि में व सर्व काल में पाया ही जाता है। ये द्रव्य और भाव दोनों मिथ्यात्व सर्वथा त्याज्य हैं।