विजया-हे माताजी! मेरे घर में निरन्तर बहुत ही अशांति मची रहती है, किस प्रकार से शान्ति हो, आप ही कुछ उपाय बतलाइये?
आर्यिका–किस हेतु से अशांति रहती है, कुछ कारण तो बताओ?
विजया-जहाँ तक मेरा अनुभव है बात यह है कि मेरी माँ हमेशा घर में हर किसी पर संदेह की दृष्टि रखती है। कोई किसी से हँसकर बोल दे या कुछ भी बात कर ले, बस वह चारित्रहीन हो गया। कोई ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी अथवा साधु-साध्वी ही क्यों न हों, वे सभी पर अपनी संदिग्ध दृष्टि रखती हैं और समय पाकर कुछ आरोप अवश्य लगा देती हैं। पिताजी से भी उनका इसी बात पर हमेशा झगड़ा हुआ करता है। अपने पुत्रों और पुत्रियों को भी वे सदैव बुरा-भला ही सुनाया करती हैं। यही कारण है कि ऐसे ही संस्कार आने वाली बहुओं में भी हो गये हैं, वे भी अपने पति को, देवर को, नन्दों को आरोप लगाने में चूकती नहीं हैं। आज इसका परिणाम यह हो गया है कि घर में एक दिन को या एक क्षण को भी शान्ति का अनुभव नहीं होता है। मैं कुछ ही दिनों के लिए पीहर आती हूँ, तो कभी माँ कुछ आरोप लगाती हैं, तो कभी भावज और कभी बहनें ही मर्मछेदी शब्द सुना डालती हैं। अब ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? इतने बड़े समाज में या इतने बड़े परिवार में न सब निर्दोष ही हैं और न सब सदोष ही हैं। जो निर्दोष हैं, उनकी अन्तरात्मा पर क्या चोट पहुँचती है? सो तो वे ही जानते हैं किन्तु सदोष की आत्मा भी दु:खती है और इस तरह के वातावरण से उनकी गलतियाँ तो निकलती नहीं हैं, मात्र क्लेश ही बढ़ता है।
आर्यिका-विजया! मैं तुम्हें एक कथा सुनाती हूँ, तुम अपनी माँ और अपने घर में सबको सुनाना, तब उनको अवश्य ही बोध प्राप्त होगा।
‘‘उज्जयिनी में सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण था, उसकी पत्नी का नाम काश्यपी था। उन दोनों के अग्निभूति और सोमभूति नाम के दो पुत्र थे। वे दोनों परदेश से विद्याध्ययन करके लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने एक जिनमती र्आियका को अपने पुत्र जिनदत्त मुनि से कुशलक्षेम पूछते हुए देखा तथा एक सुभद्रा नाम की आर्यिका को अपने श्वसुर जिनभद्र मुनि से कुशलक्षेम पूछते हुए देखा। इस पर दोनों भाइयों ने उपहास किया। जवान की स्त्री बूढ़ी और बूढ़े की स्त्री जवान, विधाता ने अच्छा उलट फैर किया है। उस समय इन दोनों भाइयों को निकाचितरूप महापाप का बंध हो गया।
इस उज्जयिनी नगरी में एक सुदत्त नाम का सेठ था, जो कि सोलह करोड़ द्रव्य का धनी था। वहीं पर एक वसंतसेना वेश्या थी। सोमशर्मा ब्राह्मण मरकर उस वेश्या के गर्भ में कन्यारूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम वसंततिलका रखा गया। सुदत्त सेठ ने इस वसंततिलका वेश्या को अपने घर में रख लिया। सेठ के संयोग से जब वह गर्भवती हुई, तब उनके अनेक रोग उत्पन्न हो गये। उस समय सेठ ने उसे घर से निकाल दी, वह वेश्या अपने घर आ गई। उसके गर्भ से युगलिया-बालक और बालिका उत्पन्न हुए। ये दोनों मुनि-आर्यिका का उपहास करने वाले अग्निभूति और सोमभूति के ही जीव थे, जो कि अपने पूर्वोपार्जित कर्म के अनुसार वेश्या की संतान हुए। वेश्या ने इन्हें अलग-अलग कम्बल में लपेटकर पुत्री को दक्षिण दिशा की ओर गली में और पुत्र को उत्तर की ओर गली में डाल दिया। प्रयोग के सुकेतु नामक व्यापारी ने कन्या को लेकर सुप्रभा भार्या को सौंप दिया, जिसका नाम कमला रखा गया। अयोध्या निवासी सुभद्र नामक व्यापारी ने पुत्र को पाया, उसे ले जाकर अपनी पत्नी सुव्रता को दिया जिसका नाम धनदेव रखा गया।
पूर्व जन्म के उपार्जित पापकर्म के उदय से ही इन दोनों का आपस में विवाह हो गया। एक बार धनदेव व्यापार के लिए उज्जयिनी गया, वहाँ वंसततिलका वेश्या से उसका संबंध हो गया। दोनों के संबंध से एक वरुण नाम का पुत्र पैदा हुआ, जो कि काश्यपी ब्राह्मणी का ही जीव था। एक बार कमला ने श्रीमुनिदत्त गुरु से अपने पूर्वभव पूछे। मुनिराज ने उपर्युक्तरूप से कमला के पूर्वभव की कथा सुनाई। सुनते ही कमला को जातिस्मरण हो गया।
जिनवाणी की कथा में लिखा है कि एक बार कमला ने एक अवधिज्ञानी मुनिराज का पड़गाहन किया, पड़गाहन के अनन्तर मुनिराज माथा धुन कर वापस चले गये, तब कमला ने मुनिराज के पास जाकर प्रश्न किया-भगवन्! आप घर से वापस क्यों आ गये? तब मुनिराज ने कहा कि तेरा ब्याह भाई के साथ हो गया है और तुम दोनों वेश्या की संतान हो। तुम्हारा पति आजकल उज्जयिनी में माता के साथ रमण कर रहा है, उसके फलस्वरूप तुम्हारी माँ को एक पुत्र हुआ है जिसका नाम वरुण है। मुनिराज के मुख से अपने पूर्वभवों को सुनकर कमला ने अणुव्रत लिए और पुन: उज्जयिनी जाकर वसंततिलका के घर में प्रवेश कर पालने में पड़े हुए वरुण को झुलाने लगी और कहने लगी-
१. हे बालक! मेरे पति का पुत्र होने से तू मेरा भी पुत्र है।
२. मेरे भाई धनदेव का पुत्र होने से तू मेरा भतीजा है।
३. तेरी और मेरी माता एक होने से तू मेरा भाई है।
४. धनदेव की माँ से जन्म लेने से अत: धनदेव का छोटा भाई होने से तू मेरा देवर है।
५. धनदेव मेरी माता वसंततिलका का पति है इसलिए धनदेव मेरा पिता है, उसका भाई होने से तू मेरा चाचा है।
६. मैं वेश्या वसंततिलका की सौत हूँ, अत: धनदेव मेरा पुत्र है, तू उसका पुत्र है अत: मेरा पोता है।
पुन: कमला ने धनदेव के विषय में छह नाते बताये-
१. धनदेव वसंततिलका का पति होने से मेरा पिता है।
२. तू (वरुण) मेरा काका है और धनदेव तेरा भी पिता है अत: वह मेरा दादा है।
३. तथा वह मेरा पति भी है।
४. उसकी और मेरी माता एक ही है अत: धनदेव मेरा भाई है।
५. मैं वेश्या वसंततिलका की सौत हूँ और उस वेश्या वसंततिलका का यह धनदेव पुत्र है अत: मेरा भी पुत्र है।
६. वेश्या मेरी सास है, मैं उसकी पुत्रवधू हूँ और धनदेव वेश्या का पति है अत: वह मेरा श्वसुर है।
पुन: कमला ने वसंततिलका के विषय में छह नाते बताये-
१. मेरे भाई धनदेव की पत्नी होने से यह वसंततिलका वेश्या मेरी भावज है।
२. तेरे-मेरे दोनों के धनदेव पिता हैं और वेश्या उनकी माता है अत: वह मेरी दादी है।
३. धनदेव की और तेरी माता होने से वह वेश्या मेरी भी माता है।
४. मेरे पति धनदेव की भार्या होने से वह मेरी सौत है।
५. धनदेव मेरी सौत का पुत्र होने से मेरा भी पुत्र कहलाया और धनदेव की पत्नी होने से वह वेश्या मेरी पुत्रवधू है।
६. मैं धनदेव की स्त्री हूँ और वह उसकी माता है, अत: मेरी सास है।
इन अट्ठारह नाते के विस्तार को सुनकर उस समय धनदेव और वसंततिलका आदि को जातिस्मरण हो गया। पूर्वभव का समस्त वृत्तान्त जान लेने से इन लोगों को अपने-अपने पापकृत्यों से अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हो गई और इन लोगों ने अपने योग्य तप आदि ग्रहण कर स्वर्ग को प्राप्त किया।
देखो विजया! मुनि और आर्यिकाओं को अवर्णवाद लगाने से उसका फल कितना कटु मिला है? और भी सुनो।
एक ग्राम के उद्यान में सुदर्शन मुनिराज के पास उनकी बहन सुदर्शना आर्यिका बैठी थीं, मुनि उन्हें कुछ समझा रहे थे। एक वेदवती कन्या ने ग्राम में जाकर कहा कि ‘‘मैंने इन साधु को एकांत में एक सुन्दर स्त्री के साथ बैठे देखा है’’ इस बात को किन्हीं ने माना और किन्हीं ने नहीं माना। कुछ लोगों ने मुनि का अनादर किया, तब मुनि ने यह नियम किया कि मेरा अवर्णवाद दूर होने तक मेरा आहार का त्याग है, उस समय वनदेवता ने आकर ग्राम में सारी सही स्थिति बताकर मुनिराज का आरोप दूर किया, तब वेदवती ने भी मुनि से अपने अपराध की क्षमा कराकर प्रायश्चित किया किन्तु उसी पाप का फल उसे सीता की पर्याय में भोगना पड़ा है। उस प्रसंग में आचार्य कहते हैं कि-
दृष्ट: सत्योऽपि दोषो न वाच्यो जिनमतश्रिता।
उच्चमानेऽपि चान्येन, वार्य: सर्वप्रयत्नत:।।२३२।।
ब्रुवाणे लोकविद्वेषकरणं शासनाश्रितम्।
प्रतिपद्य चिरं दु:खं संसारमवगाहते।।२३३।।
सम्यग्दर्शनरत्नस्य गुणोऽत्यंतमयं महान्।
यद्दोषस्य कृतस्यापि प्रयत्नादुपगूहनम्।।२३४।।
अज्ञानान्मत्सराद्वापि दोषं वितथमेव तु।
प्रकाशयन् जनोऽत्यंतं जिनमार्गाद् बहि:स्थित:।।२३५।।
यदि किसी का यथार्थ दोष भी देखा हो, तो जिनमत के अवलम्बी को नहीं कहना चाहिए और दूसरा कोई कहता हो तो उसे सर्व प्रकार से रोकना चाहिए। फिर लोक में विद्वेष पैâलाने वाले शासनसंबंधी दोषों को जो कहता है वह दु:खों को प्राप्त कर चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है। किसी के द्वारा किये गये दोष को भी प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का बहुत बड़ा गुण है। अज्ञान अथवा मत्सरभाव से जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है, वह मनुष्य जिनमार्ग से बिल्कुल बाहर स्थित है। इस प्रकार श्रीसकलभूषणकेवली ने उपदेश दिया है।
विजया-इन कथाओं को सुनकर यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी को झूठे दोष लगाने से महापाप ही पाप पल्ले पड़ता है न कि िंकचित् लाभ तथा सच्चे भी दोष प्रगट नहीं करना चाहिए, यह श्री सकलभूषणकेवली भगवान का बहुत ही सुन्दर उपदेश है।
आर्यिका-हाँ विजया! इस तरह आपके घर में, या कहीं पर भी देखो सर्वत्र शान्ति का वातावरण रहेगा। दोषारोपण करने वाले व्यक्ति दूसरों पर कीचड़ उछालकर, कटु शब्द बोलकर केवल दूसरों को ही दु:खी नहीं करते हैं और परलोक में ही पापकर्म का संचय नहीं करते हैं किन्तु वर्तमान में भी वे आप स्वयं भी संक्लिष्ट रहते हैं, अनादर पाते हैं और सभी जनों की दृष्टि से गिर जाते हैं, उनके आत्मीयजन भी उन्हें शत्रु समझने लगते हैं तथा वे भविष्य में निकाचित कर्मों का बंध कर लेते हैं पर के ऊपर संदिग्ध दृष्टि रखने से, सतत दोषग्राही बने रहने से उनके पल्ले कुछ भी सुख और शान्ति नहीं पड़ती है अत: विजया! तुम इन्हीं उदाहरणों को सभी को सुनाओ, उनका भविष्य अच्छा होगा, तो वे लोग उभय लोग को सुखमय बनायेंगे। अन्यथा तुम अपनी सद्भावना कायम रखने की कोशिश करो और सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझो क्योंकि साधु-संघ आदि के अवर्णवाद से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है।