४.१ जैन तत्त्वमीमांसा का आधारभूत सिद्धांत वस्तु की त्रयात्मकता है। वस्तु में उत्पाद-व्यय के साथ-साथ स्थायित्व भी बना हुआ है। कोई भी वस्तु सदा एक सी नहीं रहती और न ही पूर्णत: नष्ट होती है। परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती रहती है और अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। वस्तु के इस त्रयात्मक स्वरूप को ही परिणामिनित्यता द्रव्यपर्यायात्मकता, नित्यानित्यात्मकता तथा सामान्य-विशेषात्मकता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यता के अनुसार विश्व का कोई भी तत्व सर्वथा नित्य नहीं है। सर्वथा अनित्य नहीं है। प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य-इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्वित है। तत्त्व का अस्तित्व ध्रुव है, इसलिए वह नित्य है। ध्रुव परिणमन-शून्य नहीं होता और परिणमन ध्रुव शून्य नहीं होता इसलिए वह अनित्य भी है। वह एकरूप में उत्पन्न होता है और एक अवधि के पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता है। इस अवस्था में प्रत्येक तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीन धर्मों का समवाय है। उत्पाद और व्यय- ये दोनों परिणमन के आधार बनते हैं और ध्रौव्य- उनका अन्वयी सूत्र है। वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और व्यय की स्थिति में भी रहता है। वह दोनों को अपने साथ जोड़े हुए हैं। जो रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार नहीं हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है, वह भी पहली बार नहीं हो रहा है। उससे पहले अनगिनत बार उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न होने पर अस्तित्व का सृजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसका विनाश नहीं हुआ। ध्रौव्य उत्पाद और व्यय को एक क्रम देता है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अंतर नहीं आने देता। अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नहीं होती। कुछ दर्शन वस्तु के स्थिर अंश को पकड़ने वाले ‘कूटस्थ नित्य’ के सिद्धांत का प्रतिपादन करते है। कुछ दर्शन समुद्र में होने वाली उर्मियों को पकड़ने वाले ‘क्षणिकवाद’ के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। जैन दर्शन ने इन दोनों को एक ही धारा में देखा, इसलिए उसने नित्यानित्यत्ववाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। तीर्थंकरों ने प्रत्येक तत्त्व की व्याख्या नित्यानित्यवाद के आधार पर की। उनसे पूछा गया-आत्मा नित्य है या अनित्य? पुद्गल नित्य है या अनित्य? उन्होंने एक ही उत्तर दिया-अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता। इस अपेक्षा से वे नित्य हैं। परिणमन का क्रम कभी अवरुद्ध नहीं होता, इस दृष्टि से वे अनित्य हैं। समग्रता की भाषा में वे न नित्य हैं और न अनित्य, किन्तु नित्यानित्य हैं।
किसी भाव अर्थात् सत् का अत्यंत नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद, व्यय करते रहते हैं। लोक में जितने सत् है वे त्रैकालिक सत् हैं। उनकी संख्याओं में कभी भी हेर-फेर नहीं होता। उनकी गुण और पर्यायों में परिवर्तन अवश्यम्भावी है, उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता। इस विश्व में अनंत चेतन, अनंत पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालाणु द्रव्य हैं। इनसे यह लोक व्याप्त है। जितने आकाश देश में ये जीवादि द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं। लोक के बाहर भी आकाश है, वह अलोक कहलाता है। लोकगत आकाश और अलोकगत आकाश दोनों एक अखण्ड द्रव्य हैं। यह विश्व इन अनंतानंत ‘सत्त्वों’ का विराट आगार है और अकृत्रिम है। प्रत्येक ‘सत्’ अपने में परिपूर्ण, स्वतंत्र और मौलिक है।
सत् का लक्षण है उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होना। प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिणमन करता है। वह पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय धारण करता है। उसकी यह पूर्व व्यय तथा उत्तरोत्पादकी धारा अनादि और अनंत है, कभी भी विच्छिन्न नहीं होता है। चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भी सत् इस उत्पाद, व्यय के चक्र से बाहर नहीं है। यह उसका निज स्वभाव है। उसका मौलिक धर्म है कि उसे प्रतिक्षण परिणमन करना ही चाहिये और अपनी अविच्छिन्न धारा में असंकर भाव से अनाद्यनंत रूप में परिणत होते रहना चाहिए। ये परिणमन कभी सदृश भी होते है और कभी विसदृश भी। ये कभी एक दूसरे के निमित्त से प्रभावित भी होते हैं। यह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन की परम्परा किसी समय दीपनिर्वाण की तरह बुझ नहीं सकती। यही भाव ‘भावस्सणत्थि णासो’ पद द्वारा दिखाया गया है। कितना भी परिवर्तन क्यों न हो जाय, परिवर्तनों की अनंत संख्या होने पर भी वस्तु की सत्ता नष्ट नहीं होती। उसका मौलिक तत्त्व अर्थात् द्रव्यत्व नष्ट नहीं हो सकता। अनंत प्रयत्न करने पर भी जगत के रंगमंच से एक भी अणु को विनष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी हस्ती को नहीं मिटाया जा सकता।विज्ञान की तीव्रतम भेदक शक्ति अणु द्रव्य का भेद नहीं कर सकती। आज जिसे विज्ञान ने ‘एटम’ माना है और जिसके इलैक्ट्रान और प्रौट्रान रूप से भेदकर वह यह समझता है कि हमने अणु का भेद कर लिया, वस्तुत: व अणु न होकर सूक्ष्म स्कंध ही है और इसीलिए उसका भेद संभव हो सका है।
परमाणु का वही आदि, वही अंत तथा वही मध्य है। यह इंद्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है-उसके टुकड़े नहीं किये जा सकते। ऐसे अविभागी द्रव्य को परमाणु कहते हैं।
समस्त स्कन्धों का जो अंतिम भेद है, वह परमाणु है। वह शाश्वत है, शब्दरहित है, एक है, सदा अविभागी है और मूर्तिक है। तात्पर्य यह कि प्ारमाणु द्रव्य अखंड है और अविभागी है। उसको छिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता। जहाँ तक छेदन-भेदन सम्भव है वह सूक्ष्म स्कन्ध का हो सकता है, परमाणु का नहीं। परमाणु की द्रव्यता और अखण्डता का सीधा अर्थ है उसका अविभागी एक सत्ता और मौलिक होना। वह छिंद-भिंद कर दो सत्तावाला नहीं बन सकता। यदि बनता है तो समझना चाहिए कि वह परमाणु नहीं हैं। ऐसे अनंत मौलिक अविभागी अणुओं से यह लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन्हीं परमाणुओं के परस्पर संबंध से छोटे-बड़े स्कंधरूप अनेक अवस्थाएँ होती हैं।
सत् के परिणमन दो प्रकार के होते हैं-एक स्वभावात्मक और दूसरा विभावरूप। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और असंख्यात कालाणुद्रव्य ये सदा शुद्ध स्वभावरूप परिणमन करते हैं। इनमें पूर्व पर्याय नष्ट होकर भी जो नयी उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है वह सदृश और स्वभावात्मक ही होती है, उसमें विलक्षणता नहीं आती। प्रत्येक द्रव्य में एक ‘अगुरुलघु’ गुण या शक्ति है, जिसके कारण द्रव्य की समतुला बनी रहती है, वह न तो गुरु होता है और न लघु। यह गुण द्रव्य की निजरूप में स्थिर मौलिकता कायम रखता है। इसी गुण में अनंतभाग वृद्धि आदि षड्गुणी हानि वृद्धि होती रहती है, जिसमें ये द्रव्य अपने ध्रौव्यात्मक परिणामी स्वभाव को धारण करते हैं और कभी अपने द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता। इनमें कभी भी विभाव या विलक्षण परिणमन नहीं होता और न कहने योग्य कोई ऐसा फर्क आता है, जिससे प्रथम क्षण के परिणमन से द्वितीय क्षण के परिणमन का भेद बताया जा सके।
यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब अनादि से अनंतकाल तक ये द्रव्य सदा एक जैसे समान परिणमन करते है, उनमें कभी भी कहीं भी किसी भी रूप में विसदृशता, विलक्षणता या असमानता नहीं आती तब उनमें परिणमन अर्थात् परिवर्तन वैâसे कहा जाए? उनके परिणमन का क्या लेखा-जोखा हो? परन्तु जब लोक का प्रत्येक सत् सदा परिणामी है, कूटस्थ नित्य नहीं, सदा शाश्वत नहीं, तब सत् के इस अपरिहार्य और अनिवार्य नियम का आकाश आदि सत् वैâसे उल्लंघन कर सकते हैं? उनका अस्तित्व ही त्रयात्मक अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। इसका अपवाद कोई भी सत् कभी भी नहीं हो सकता। भले ही उनका परिणमन हमारे शब्दों का या स्थूल ज्ञान का विषय न हो, पर इस परिणामित्व का अपवाद कोई भी सत् नहीं हो सकता।
तात्पर्य यह है कि जब हम एक सत् पुद्गलपरमाणु में प्रतिक्षण परिवर्तन को उसके स्कन्धादि कार्यों द्वारा जानते हैं, सत्-आत्मा में ज्ञानादि गुणों के परिवर्तन को स्वयं अनुभव करते हैं तथा दृश्य विश्व में सत् की उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यशीलता प्रमाण सिद्ध है, तब लोक के किसी भी सत् को उत्पादादि से रहित होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। एक मृिंत्पड पिंडाकार को छोड़कर घट के आकार को धारण करता है तथा मिट्टी दोनों अवस्थाओं में अनुगत रहती हैं वस्तु के स्वरूप को समझने का यह एक स्थूल दृष्टांत है। अत: जगत् का प्रत्येक सत् चाहे वह चेतन हो या अचेतन, परिणामी नित्य है, उत्पाद व्यय ध्रौव्य वाला है, वह प्रतिक्षण पर्यायान्तर को प्राप्त होकर भी कभी समाप्त नहीं होता, धु्रव है।
जीवद्रव्य में जो आत्माएँ कर्म बंधन को काट कर सिद्ध हो गई हैं उन मुक्त जीवों का भी सिद्धि के काल से अनंतकाल तक सदा शुद्ध ही परिणमन होता है। समान और एकरस परिणमन की धारा सदा चलती रहती है, उसमें कभी कोई विलक्षता नहीं आती। रह जाते हैं संसारी जीव और अनंत पुद्गल, जिनका रंगमंच यह दृश्य विश्व है। इनमें स्वाभाविक और वैभाविक दोनों परिणमन होते हैं। फर्क इतना है कि संसारी जीव के एक बार शुद्ध हो जाने के बाद फिर अशुद्धता नहीं आती, जब कि पुद्गलस्कंध अपनी शुद्ध दशा परमाणुरूपता में पहुँचकर भी फिर अशुद्ध हो जाते हैं। पुद्गल की शुद्ध अवस्था परमाणु है और अशुद्ध दशा स्कंध अवस्था है। पुद्गल द्रव्य स्कंध बनकर फिर परमाणु अवस्था में पहुँच जाते हैं और फिर परमाणु से स्कंध बन जाते हैं। सारांश यह है कि संसारी जीव और अनंत पुद्गल परमाणु भी प्रतिक्षण अपने परिणामी स्वभाव के कारण एक दूसरे के तथा परस्पर निमित्त बनकर स्वप्रभावित परिणमन के भी जनक हो जाते हैं। एक हाइड्रोजन का स्कंध ऑक्सीजन के स्कंध से मिलकर जल पर्याय को प्राप्त हो जाता है। फिर गर्मी का सन्निधन पाकर भाप बनकर उड़ जाता है, फिर सर्दी पाकर पानी बन जाता है, और इस तरह अनंत प्रकार के परिवर्तन-चक्र में बाह्य आभ्यंतर सामग्री के अनुसार परिणत होता रहता है। यही हाल संसारी जीव का है। उसमें भी अपनी सामग्री के अनुसार गुण पर्यायों का परिणमन बराबर होता रहता है। कोई भी समय परिवर्तन से शून्य नहीं होता। इस परिवर्तन परम्परा में प्रत्येक द्रव्य स्वयं उपादान कारण होता है तथा अन्य द्रव्य निमित्त कारण।
सांख्य सभी पदार्थों को सर्वथा कूटस्थ नित्य मानते हैं, उनका कहना है कि आत्मा जानने रूप क्रिया का भी कर्त्ता नहीं है। ज्ञान और सुख प्रकृति (जड़) के धर्म है, केवल आत्मा इनका भोक्ता अवश्य है। ये लोग कारण में कार्य को सदा विद्यमान रूप ही मानते हैं।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि सभी पदार्थों में परिणमन दिख रहा है अत: वे सर्वथा नित्य नहीं हैं तथा ज्ञान और सुख ये आत्मा के ही स्वभाव हैं, आत्मा से भिन्न नहीं हैं। मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ इत्यादिरूप से जो स्वसंवेदन होता है वह ज्ञान के द्वारा ही होता है और वह अनुभव सर्वथा नित्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु पूर्वाकार को छोड़कर उत्तराकार को ग्रहण करती है और उन दोनों अवस्थाओं में अन्वय संबंध पाया जाता है, इस अन्वय स्वभाव से वस्तु नित्य है तथा पूर्वाकार, उत्तराकार के त्याग और ग्रहणरूप से व्यय और उत्पाद स्वरूप भी है, अत: अनित्य भी है। जीव ने मनुष्य पर्याय को छोड़कर देव पर्याय ग्रहण की तथा दोनों अवस्थाओं में अन्वय रूप जीवात्मा विद्यमान है, ऐसा स्पष्ट है तथा मिट्टी से कुंभकार घट बनाता है, घट उसमें विद्यमान था कुंभार ने प्रगट कर दिया, यह कल्पना गलत है। हाँ, मिट्टी में घट शक्तिरूप से अवश्य है अर्थात् मिट्टी में घट बनने की शक्ति अवश्य है, कारक निमित्तों से प्रकट हो जाती है अत: आत्मा आदि पदार्थ द्रव्य दृष्टि से नित्य हैं, पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं।
बौद्ध का कहना है कि सभी पदार्थ सर्वथा क्षण-क्षण में नष्ट हो रहे हैं। उनमें जो कहीं स्थायित्व दिख रहा है वह सब वासना मात्र है तथा ये लोग कारण का जड़मूल से विनाश मानकर ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि सभी पदार्थों को सर्वथा क्षणिक मानने पर तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि सिद्ध नहीं होंगे, प्रात: अपने घर से निकलकर कोई भी व्यक्ति पुन: यह वही घर है, जिसमें मैं रहता हूँ, ऐसा स्मृतिपूर्वक प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकने से वापस नहीं आ सकेगा। पुन: सारे लोक व्यवहार समाप्त हो जावेंगे तथा मृत्पिंड के सभी परमाणु का सर्वथा नाश हो गया पुन: घट किससे बना ? यह प्रश्न होता रहेगा, कारण के विनाश के बाद कार्य की उत्पत्ति मानने से तो मिट्टी से ही घट क्यों बने ? तंतु से घट और मृत्पिंड से वस्त्र भी बन जायेंगे, जौ के अंकुरों से चने पैदा होने लगेंगे, कोई व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अत: कारण का कार्यरूप परिणत हो जाना ही कार्य है। तंतु ही वस्त्ररूप परिणत होते हैं, यही सिद्धांत सत्य है।
बौद्ध कहता है कि वस्तु सत् है, असत् है, उभय रूप है, अनुभय रूप है, ये चार विकल्प ही हो सकते हैं और ये चारों ही विकल्प अवाच्य हैं-कहे नहीं जा सकते अत: ‘वस्तु अवाच्य है।’ जैनाचार्य कहते हैं कि भाई! ‘वस्तु अवाच्य हैं’ इस वाक्य से भी पुन: तुमने वैâसे कहा, इस वाक्य से वाच्य कर देने से वह अवाच्य कहां रही, यह तो ऐसा है कि कोई मुँह से कहे कि ‘मैं मौनव्रती हूँ’ ऐसे ही बौद्ध की एक और मान्यता बहुत ही विचित्र है वह कहता है कि ‘विनाश अहेतुक है’ घड़े पर मुद्गर का प्रहार हुआ वह फूट गया, तो उसका कहना है कि मुद्गर के निमित्त से घड़ा नहीं फूटा है, प्रत्युत स्वभाव से ही फूटा है। हाँ, मुद्गर के निमित्त से कपाल टुकड़े अवश्य उत्पन्न हुए हैं। जैनाचार्य तो घड़े के फूटने में और कपाल के उत्पन्न होने में दोनों में ही एक मुद्गर को ही हेतु मानते हैं क्योंकि इन्होंने पूर्वाकार घट का विनाश और उत्तराकार कपाल का उत्पाद इन दोनों को एक हेतुक और एक समय में ही माना है। घट का फूटना ही तो कपाल का उत्पाद है।
बौद्ध ने तो कार्य को ही सहेतुक मान लिया है, किन्तु आजकल कुछ ऐसे भी लोग हैं जो विनाश और उत्पाद दोनों को ही अहेतुक कह देते हैं, उनका कहना है कि कार्य का उत्पाद होना था, तब निमित्त उपस्थित हो गया, वह सर्वथा अकिंचित्कर है, उस बेचारे ने क्या किया है ? ऐसा कहने वालों की दशा तो बौद्धों से भी अधिक शोचनीय है।
बौद्ध के सर्वथा क्षणिक मत में अपने किये हुए को नहीं भोगना और दूसरे के किए हुए का फल पाना ये दोष भी आ जाते हैं।
जैसे-किसी व्यक्ति की आत्मा ने हिंसा का भाव किया, वह उसी क्षण नष्ट हो गई, दूसरी आत्मा ने आकर हिंसा कर दी, वह भी नष्ट हो गई, तीसरी आत्मा को पाप का बंध हो गया, उसी क्षण वह भी नष्ट हो गया, चौथी आत्मा ने आकर उसका फल दु:ख भोगा।
अहो! यह सिद्धान्त बहुत ही हास्यास्पद है।
१. जैन सिद्धान्त के अनुसार तो सभी पदार्थ कथंचित् नित्य हैं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नय से वे कभी नष्ट नहीं होते हैं।
२. सभी पदार्थ कथंचित् अनित्य हैं, क्योंकि पर्यायों का विनाश और उत्पाद देखा जाता है।
३. सभी पदार्थ कथंचित् नित्य और अनित्य उभयरूप हैं, क्योंकि क्रम से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की अपेक्षा है।
४. सभी पदार्थ कथंचित् अवक्तव्य हैं, क्योंकि एक साथ दोनों नयों की विवक्षा होने से दोनों धर्म एक साथ कहे नहीं जा सकते हैं।
५. सभी पदार्थ कथंचित् नित्य और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से द्रव्यार्थिक नय और युगपत् दोनों की विवक्षा है।
६. सभी पदार्थ कथंचित् अनित्य और अवक्तव्य इस छठे भंगरूप हैं, क्योंकि क्रम से पर्यायार्थिक नय और युगपत् दोनों नयों की विवक्षा है।
७. सभी पदार्थ कथंचित् नित्यानित्य और अवक्तव्य हैं, क्योंकि क्रम से दोनों नय और युगपत् दोनों नयों की अपेक्षा है।
इस प्रकार सप्तभंगी प्रक्रिया से सभी बातें व्यवस्थित हैं।