जैन दर्शन में पदार्थ को सत् कहा गया है। सत् द्रव्य का लक्षण है। यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला है। जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। सारा विश्व परिवर्तन की धारा में बहा जा रहा है। जहाँ भी हमारी दृष्टि जाती रही है सब कुछ बदल रहा है। वह देखो! सामने पेड़ खड़ा है, उसमें कोपलें फूट रही हैं, पत्तियाँ बढ़ रही हैं, वे झड़ रहे हैं, प्रतिक्षण वह अपनी पुरानी अवस्था को छोड़कर नित नवीन रूप धर रहा है। बालक युवा हो रहा है, युवा वृद्ध हो रहा है, वृद्ध मर रहा है। सर्वत्र परिवर्तन ही परिवर्तन है। चाहे जड़ हो या चेतन सभी इस परिवर्तन की धारा में बहे जा रहे हैं। प्रत्येक पदार्थ विश्व के रंगमंच पर प्रतिक्षण नया रूप धर कर आ रहे हैं। वह अपनी पुरानी अवस्था को छोड़ता है, नए को ओढ़ता है। पुराने का विनाश और नए की उत्पत्ति ही इस परिवर्तन का आधार है। कच्चे आम का पक जाना ही तो आम का परिवर्तन है। बालक का युवा, युवा का वृद्ध हो जाना ही तो मनुष्य का परिवर्तन है। पुरानी अवस्था के विनाश को व्यय कहते हैं तथा नयी अवस्था की उत्पत्ति को उत्पाद। नये की उत्पत्ति और पुराने के विनाश के बाद भी द्रव्य अपनी मौलिकता को नहीं खोता। कच्चा आम बदलकर भले ही पक जाये, परन्तु वह अपने आमपने को नहीं खोता। बालक भले ही वृद्ध हो जाये पर मनुष्यता नहीं बदलती। इस मौलिक स्थिति का नाम ध्रौव्य है, जो प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहने के बाद भी पदार्थ में समरूपता बनाए रखता है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला है। जगत् का कोई भी पदार्थ इसका अपवाद नहीं है।
पुरानी अवस्था का विनाश और नए की उत्पत्ति दोनों साथ-साथ होती है, प्रकाश के आते ही अंधकार तिरोहित हो जाता है। इनमें कोई समय भेद नहीं है। यह परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहा है, यह बात अलग है कि सूक्ष्म होने के कारण वह हमारी पकड़ के बाहर है। बालक यौवन और प्रौढ़ अवस्थाओं से गुजरकर ही वृद्ध हो पाता है। ऐसा नहीं है कि कोई साठ-सत्तर वर्ष की अवस्था में एकाएक वृद्ध हो गया वह तो साठ-सत्तर वर्ष तक निरंतर वृद्ध हुआ है, तब कहीं वृद्ध बन पाया है। वृद्ध होने की यात्रा प्रतिक्षण हुई है। यदि एक क्षण भी वह रुक जाये तो वह वृद्ध हो ही नहीं सकता।
प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने के कारण द्रव्य अनित्य है तथा परिवर्तित होते रहने के बाद भी वह अपने मूल में अपरिवर्तित है, अत: द्रव्य नित्य भी है। इसलिए जैनदर्शन में द्रव्य को नित्यानित्यात्मक कहा गया है। यदि द्रव्य सर्वथा नित्य होता तो जगत के सारे पदार्थ कूटस्थ हो जाते। न तो नदियाँ बह पातीं, न ही पेड़ों के पत्ते हिल पाते। बालक, बालक ही रहता, वह युवा न हो पाता, युवा युवा ही रहता, वह वृद्ध नहीं हो पाता, वृद्ध वृद्ध ही रहता, वह मर न पाता। जो जैसा है वह वैसा ही रहता। यदि पदार्थ अनित्य ही होता तो प्रतिक्षण बदलाव होते रहने के कारण हम एक-दूसरे को पहचान ही नहीं पाते। प्रतिक्षण होने वाले परिवर्तन की इस दौड़ में किसी का किसी से परिचय ही नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में न तो हमें कोई स्मृति होती, न ही होते हमारे कोई संबंध। जबकि ऐसा है ही नहीं, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष और अनुभव के विपरीत है। अत: जैनदर्शन में पदार्थ को नित्यानित्यात्मक कहा गया है।
नित्यानित्यात्मक होने के कारण द्रव्य को गुण-पर्याय वाला कहा गया है। गुण पदार्थ का नित्य अंश है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। उसकी अवस्थाएँ/पर्यायें बदलती रहती हैं। पदार्थ अनेक गुणों का समूह है। उनमें होने वाला परिवर्तन ही पर्याय है। प्रत्येक गुण द्रव्य आश्रित रहता है किन्तु स्वयं गुण हीन होता है। इसलिए यह गुण होकर भी निर्गुण कहलाता है। गुण पदार्थ में सर्वत्र रहते हैं। ऐसा नहीं है कि वह पदार्थ के किसी एक अंश में रहता हो, वह तो तिल में तेल की तरह पूरे पदार्थ में व्याप्त होकर रहता है। सर्वत्र होने के साथ-साथ यह सर्वदा पाया जाता है, इसलिए इसे नित्य कहते हैं। पर्यायें क्षणक्षयी होती हैं, प्रतिक्षण मिटते रहने के कारण ये (पर्यायें) अनित्य कहलाती हैं।
समझने के लिए, आम एक पदार्थ है। स्पर्श, रस, गंध तथा रूप इसके गुण हैं। इन गुणों का समूह ही आम है। यदि इन्हें पृथक कर लिया जाये, तो आम नाम का कोई पदार्थ ही नहीं बचता। किन्तु इन्हें पृथक किया ही नहीं जा सकता। ये द्रव्य के अनन्य अंग हैं। द्रव्य से इनका नित्य संबंध रहता है। आम का स्वाद, रंग, गंध और स्पर्श रूप गुण आम के रग-रग में समाये हैं। इनके अतिरिक्त आम नाम का कोई पदार्थ ही नहीं बचता। अत: वस्तु गुणों का समूह रूप है। इन गुणों में परिवर्तन होता रहता है। आम खट्टे से मीठा, मीठे से कड़वा, कड़वे से कसैला हो सकता है, उसका हरा रंग बदलकर पीला या काला हो सकता है, वह कठोर से मृदु अथवा पिलपिले स्पर्श वाला हो सकता है, सुगंधित से वह दुर्गंधित भी हो सकता है। ये सब पूर्वोक्त चार गुणों की अवस्थाएँ हैं। किन्तु गुणों में परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता। उसका रंग बदलकर रस नहीं होता, रस बदलकर रंग नहीं बन सकता। उसी तरह गंध और स्पर्श भी अपने मूल रूप में नहीं बदलते। गुण त्रैकालिक होते हैं। यही गुणों की नित्यता है। पर्यायों में परिवर्तन होते रहने के कारण उन्हें अनित्य कहते हैं।
इस प्रकार गुण भी सत्, द्रव्य की तरह नित्यानित्यात्मक है। चूँकि सत् नित्यानित्यात्मक है, इसलिए उसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला कहा गया है। गुण नित्य है, पर्याय अनित्य हैं, इसलिए द्रव्य को गुण पर्याय वाला भी कहते हैं। इन तीनों लक्षणों में ऐक्य है इसलिए आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पंचास्तिकाय ग्रंथ में द्रव्य का लक्षण तीनों प्रकार से किया है-
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वय धुवत्त संजुत्तं।
गुण पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हु।।१०।।
अर्थात् भगवान जिनेन्द्र द्रव्य का लक्षण सत् कहते हैं वह उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त है अथवा जो गुण और पर्यायों का आश्रय है, वह द्रव्य है।
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में एक उदाहरण से द्रव्य की नित्यानित्यात्मकता की सुंदर प्रस्तुति की है-
घट मौलि सुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोक-प्रमोद माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम्।।५९।।
एक राजा है जिसकी एक पुत्री है और एक पुत्र। राजा के पास सोने का घड़ा है, पुत्री उसे चाहती है। पुत्र उसे तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र की भावना को पूर्ण करने के लिए घड़े को तोड़कर मुकुट बनवा देता है। घट के नाश से पुत्री दु:खी होती है, पुत्र आनंदित होता है। राजा स्वर्ण का इच्छुक है, जो कि घट के टूटने और मुकुट के बनने दोनों में समान है। इसलिए वह मध्यस्थ रहता है। अत: वस्तु त्रयात्मक है।
‘‘सत् द्रव्य लक्षण्’’ द्रव्य का लक्षण सत् है और ‘‘उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य-युक्तं सत्’’ अर्थात् जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित है, वह सत् है। ‘‘गुण-पर्ययवद्-द्रव्यम्’’ अर्थात् गुण व पर्याय वाला द्रव्य है। इस प्रकार जो सत् लक्षण वाला है, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य से युक्त है तथा जो गुण व पर्याय वाला है, उसे द्रव्य कहते हैं। इस प्रकार द्रव्य में तीन लक्षण पाये जाते हैं-
द्रव्य का प्रथम लक्षण सत् है। सत् का अर्थ अस्तित्व (Existence) है। जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (नित्यता) पाया जावे वह सत् कहलाता है। सत् का कभी नाश नहीं होता है और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता है। लोक में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसका सर्वथा विनाश होता हो अथवा जिसका नये सिरे से उत्पाद होता हो, उनकी मात्र पर्याय बदलती है। उत्पाद से अर्थ है पुरानी पर्याय को छोड़कर नई पर्याय का बनना, व्यय से अर्थ है पुरानी पर्याय का नष्ट होना और ध्रौव्य से अर्थ है मूल स्वभाव का सभी पर्यायों में बने रहना। पुरानी अवस्था का नाश और नवीन की उत्पत्ति युगपत् एक ही समय में होती है।
उदाहरण- सोने के हार को गलाकर चूड़ी बना लेते हैं तो पूर्व पर्याय (हार) का नाश होकर नई पर्याय (चूड़ी) बन गई मगर दोनों दशाओं में सोने का मूल तत्त्व बना रहा। इसी प्रकार जीव मनुष्य गति से देव या अन्य गति में जाता है तो मनुष्य पर्याय का नाश हुआ और नई पर्याय (देव आदि) बनी, लेकिन जीव का स्वभाव (चैतन्यता) दोनों पर्यायों में बना रहा।
यह द्रव्य का दूसरा लक्षण है। जो द्रव्य के साथ रहे और द्रव्य से अलग नहीं किया जा सके, वह गुण कहलाता है। द्रव्य के समस्त भागों और समस्त अवस्थाओं (पर्यायों) में गुण रहता है। जैसे जीव का गुण ज्ञान है। वह जीव चाहे निगोद में रहे, चाहे किसी गति में रहे, चाहे मोक्ष चला जावे, यह ज्ञान गुण उसमें सदा रहता है। इसी गुण के कारण आत्मा को ज्ञानमय कहते हैं।
सामान्य और विशेष के भेद से गुण दो प्रकार के होते हैं। उनका कथन प्रस्तुत है-
(१) सामान्य गुण- जो सभी द्रव्यों में पाया जावे वह सामान्य गुण कहलाता है। लोक में एक भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें ये गुण नहीं हों। सामान्य गुण अनेक होते हैं। किन्तु उनमें छः मुख्य हैं-
(क) अस्तित्व (अस्ति) गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में विद्यमानपना है, वह अस्तित्व गुण है। इस गुण के कारण द्रव्य कभी नाश को प्राप्त नहीं होता है, वह हमेशा अस्तित्व में बना रहता है। सभी द्रव्यों में यह गुण विद्यमान रहता है। प्रत्येक द्रव्य की सत्ता स्वयं से होती है। यही अस्ति गुण है। द्रव्य को किसी ने बनाया नहीं है और न उसे कोई मिटा ही सकता है। मात्र पर्याय बदलती रहती है।
(ख) वस्तुत्व गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में प्रयोजन भूत क्रिया हो, वह वस्तुत्व गुण है। जैसे घड़े की अर्थ-क्रिया जल धारण करना है। इसी गुण के कारण द्रव्य को वस्तु कहते हैं। इस लोक में प्रत्येक वस्तु अपने प्रयोजन से युक्त है और वह पर के प्रयोजन की नहीं है।
(ग) द्रव्यत्व गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्था निरंतर बदलती रहती है, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। इस गुण की मुख्यता के कारण द्रव्य को वस्तु कहते हैं। द्रव्य में परिवर्तन का कारण अन्य द्रव्य नहीं है। द्रव्य स्वयं ही परिणमनता है, उसे परिणमन करने में दूसरे द्रव्य की सहायता की अपेक्षा नहीं है।
(घ) प्रमेयत्व गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय हो, वह प्रमेयत्व गुण है। ज्ञान की कमी के कारण पकड़ में नहीं आवे तो दूसरी बात है। जिसका ज्ञान पूर्ण विकसित हो जाता है, उसके ज्ञान में सब कुछ आ जाता है। ऐसा नहीं हो सकता है कि जग का कोई भी पदार्थ जानने में नहीं आवे।
(ड.) अगुरुलघुत्व गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है, उसे अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का रूप नहीं ले सकता है, सब अपने-अपने रूप में स्वतंत्र हैं। द्रव्य में रहने वाले अनन्त गुण बिखर कर अलग-अलग नहीं होते हैं।
(च) प्रदेशत्व गुण- एक परमाणु आकाश में जितने स्थान को घेरता है, उसे प्रदेश (एज्aम ज्दग्हू) कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है अर्थात् वह आकाश में कुछ न कुछ स्थान (प्रदेश) अवश्य घेरता है, यही उसका प्रदेशत्व गुण है।
उपरोक्त गुणों से यह स्पष्ट होता है कि सभी जीव द्रव्य हैं और द्रव्य गुणों का पिण्ड है। हम व आप भी गुणों के पिण्ड हैं। हममें भी अस्तित्व आदि गुण है। हमारा कोई नाश नहीं कर सकता है।
(२) विशेष गुण- जो गुण सभी द्रव्यों में नहीं होकर विशेष द्रव्य में पाया जावे, वह विशेष गुण कहलाता है। जैसे ज्ञान गुण केवल जीव द्रव्य में पाया जाता है और रूप, गंध आदि गुण केवल पुद्गल द्रव्य में पाये जाते हैं। इसी प्रकार जीव/पुद्गल के गमन में सहायक गुण धर्म द्रव्य में तथा ठहरने में सहायक गुण अधर्म-द्रव्य में पाया जाता है। अन्य द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देने का गुण आकाश द्रव्य में और उनके परिणमन (परिवर्तन) में सहकारी होने सम्बन्धी गुण काल द्रव्य में पाया जाता है।
सामान्य गुण सभी द्रव्यों में होते हैं और कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जिसमें ये गुण नहीं हों। विशेष गुण द्रव्य विशेष में पाये जाते हैं।
द्रव्य की परिणमनशील अवस्था को पर्याय कहते हैं। यद्यपि एक समय में द्रव्य की एक ही पर्याय रहती है किन्तु यह प्रति समय बदलती रहती है – एक के बाद दूसरी पर्याय और दूसरी के बाद तीसरी पर्याय । कोई भी द्रव्य परिणमन के बिना एक समय भी नहीं रह सकता है और इस परिणमन का नाम ही पर्याय है। पदार्थ में परिवर्तन प्रति क्षण होता है। कुछ पदार्थ अल्प समय में बदल जाते हैं और कुछ अधिक समय में बदलते हैं। कतिपय मामलों में यह दिखाई नहीं देता है। जैसे आम के पकने पर परिवर्तन हमें दिखाई देता है लेकिन पाषाण प्रतिमा में यह दिखाई नहीं देता है। वस्तुतः पाषाण-प्रतिमा में भी प्रति क्षण परिवर्तन हो रहा है मगर वह सैकड़ों वर्ष बाद ही दिखाई देता है क्योंकि प्रतिमा हमें सैकड़ों वर्ष पश्चात् जीर्ण होती दिखाई देती है। आशय यही है कि प्रत्येक पदार्थ प्रति क्षण बदलता अवश्य है।
(१) अर्थ-पर्याय- प्रत्येक द्रव्य में जो प्रति क्षण सूक्ष्म परिवर्तन होता है, वह अर्थ-पर्याय है। यह मन व वचन के अगोचर है।
(२) व्यंजन पर्याय- जीव व पुद्गल की स्थूल पर्यायों को व्यंजन पर्याय कहते हैं। इसे शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। जैसे जीव की मनुष्य, देव आदि पर्यायें और पुद्गल (लकड़ी) की चौकी, मेज, अलमारी, कुर्सी आदि पर्यायें।
गुण व पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता है और द्रव्य के बिना गुण व पर्याय नहीं होती हैं। इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्याय तीनों साथ-साथ होते हैं।
द्रव्य मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है-जीव तथा अजीव। अजीव द्रव्य में इतनी विविधता और व्यापकता है कि उसे समझने हेतु पृथक्करण की आवश्यकता होती है। अतः इसके ५ विभाग कर दिये गये हैं – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। इस प्रकार द्रव्य छः भेदों में विभाजित है।
१. जीव (Soul) |
२. पुद्गल (Matter) |
३. धर्म (Medium of motion) | ४. अधर्म (Medium of rest) |
५. आकाश (Space) | ६. काल (Time) |
ये सभी द्रव्य तीनों लोकों में व्याप्त अर्थात् ठसाठस भरे हैं फिर भी एक दूसरे के रहने में बाधक नहीं हैं। सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी हैं, कोई भी द्रव्य दूसरे द्रव्य के अधीन नहीं है। कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य का भला-बुरा नहीं कर सकता है और न उसका कर्ता, हर्ता या धर्ता है। द्रव्य स्वयं की पर्याय का स्वयं ही कर्ता हैै।
लोक द्रव्यों का समूह है। विश्व में जितने द्रव्य हैं, वे उतने ही रहेंगे, उनकी संख्या में कमी या वृद्धि नहीं होगी। द्रव्य कभी उत्पन्न नहीं होता है और न कभी नष्ट होता है। द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता, फिर भी उसकी पर्यायें उत्पन्न व नष्ट होती रहती हैं। यह द्रव्य प्रत्येक समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है। अतः यह द्रव्य दृष्टि से नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है।
लोक में जीव व पुद्गल दो द्रव्य ही क्रियाशील हैं। जीव द्रव्य तो स्वयं चेतन है और सुख-दुःख का वेदन वही करता है। पुद्गल द्रव्य जड़ है, उसकी अवस्था (पर्याय) कैसी भी हो, उससे पुद्गल को कोई सुख-दुःख नहीं होता है। ये दोनों द्रव्य ही विश्व की व्यवस्था के मूल द्रव्य हैं। सारा संसार इन दो द्रव्यों का ही खेल है क्योंकि ऐसा करना इनका स्वभाव है। अनादिकाल से यह कार्य चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा।
शेष चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) का कोई स्वतंत्र कार्य नहीं है। ये जीव व पुद्गल द्रव्यों के उपकारी अर्थात् निमित्त मात्र हैं अर्थात् ये उनके कार्यों में सहायता करते हैं। ये चारों द्रव्य जीव का किसी भी प्रकार से अहित नहीं करते हैं। मात्र पुद्गल द्रव्य ही जीव का अहितकारी है, क्योंकि जीव के राग-द्वेष परिणामों से पुद्गल द्रव्य ही कर्म-रूप परिणमित होकर आत्मा से बंधते हैं, शेष चारों द्रव्य कर्मरूप परिणमित नहीं होते हैं।