भव्यात्माओं! माकंदी के राजा द्रुपद की पुत्री का नाम द्रौपदी था। जब वह नवयौवना हुई तब राजा ने उसके विवाह के लिए स्वयंवर का निर्णय लिया। उस स्वयंवर में कन्या ने अर्जुन को वरण किया। वैदिक सम्प्रदाय में कुछ लोग द्रौपदी को पंचभर्तारी मानते हैं और सती भी कहते हैं।
यह बड़े आश्चर्य की बात है। जैन महाभारत (हरिवंशपुराण) में क्या लिखा है? वह प्रकरण मैं आपको बताती हूँ। जैन श्रावक-श्राविकाओं को यथार्थ जानकारी रखनी चाहिए और बालक-बालिकाओं को भी यह प्रकरण सुनाकर सही बोध देना चाहिए।
हरिवंशपुराण सर्ग ४५ पृ. में पेज ५४७ पर यह प्रकरण आया है कि-
उस समय यह घोषणा की गई कि ‘जो अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुष को गोल करने एवं राधावेध (चन्द्रकवेध) में समर्थ होगा वही द्रौपदी का पति होगा।’ इस घोषणा को सुनकर वहाँ जो द्रोण तथा कर्ण आदि राजा आये थे वे सब गोलाकार हो धनुष के चारों ओर खड़े हो गये। परन्तु सती स्त्री के समान देवों से अधिष्ठित उस धनुष-यष्टिका को देखना भी उनके लिए अशक्त था, फिर छूना और खींचना तो दूर रहा।
तदनन्तर जब सब परास्त हो गये तब द्रौपदी के होनहार पति एवं सदा सरल प्रकृति को धारण करने वाले अर्जुन ने उस धनुष-यष्टि को देखकर तथा छूकर ऐसा खींचा कि वह सती स्त्री के समान इनके वशीभूत हो गयी। जब अर्जुन ने खींचकर उस पर डोरी चढ़ायी और उसका आस्फालन किया तो उसके प्रचण्ड शब्द में कर्ण आदि राजाओं के नेत्र फिर गये तथा कान बहरे हो गये।
तीक्ष्ण आकृति के धारक पार्थ को देखकर कर्ण आदि के मन में यह तर्क उत्पन्न हुआ कि क्या स्वाभाविक ऐश्वर्य को धारण करने वाला अर्जुन अपने भाइयों के साथ मरकर यहाँ पुन: उत्पन्न हुआ है? अर्जुन के सिवाय अन्य सामान्य धनुर्धारी का ऐसा खड़ा होना कहाँ संभव है? अहा! इसकी दृष्टि, इसकी मुट्ठी और इसकी चतुराई सभी आश्चर्यकारी हैं।
उधर राजा लोग ऐसा विचार कर रहे थे इधर अत्यन्त चतुर अर्जुन डोरी पर बाण रख झट से चलते हुए चक्र पर चढ़ गया और राजाओं के देखते-देखते उसने शीघ्र ही चन्द्रकवेध नाम का लक्ष्य बेध दिया। उसी समय द्रौपदी ने शीघ्र ही आकर वर की इच्छा से अर्जुन की झुकी हुई सुन्दर ग्रीवा में अपने दोनों कर-कमलों से माला डाल दी। उस समय जोरदार वायु चल रही थी इसलिए वह माला टूटकर साथ खड़े हुए पाँचों पाण्डवों के शरीर पर जा पड़ी।
इसलिए विवेकहीन किसी चपल मनुष्य ने जोर-जोर से यह वचन कहना शुरू कर दिया कि इसने पाँच कुमारों को वरा है। जिस प्रकार किसी सुगंधित, ऊँचे एवं फलों से युक्त वृक्ष पर लिपटी फूली लता सुशोभित होती है उसी प्रकार अर्जुन के समीप खड़ी द्रौपदी सुशोभित हो रही थी। तदनन्तर कुशल अर्जुन नूपुरों के निश्चल बंधन से युक्त उस द्रौपदी को अनीतिज्ञ राजाओं के आगे से उनके देखते-देखते माता कुन्ती के पास ले चला। युद्ध करने के लिए उत्सुक राजाओं को यद्यपि नीति चतुर राजा द्रुपद ने रोका था तथापि कितने ही राजा जबरदस्ती अर्जुन के पीछे लग गये।
परन्तु अर्जुन, भीम और धृष्टद्युम्न इन तीनों धनुर्धारियों ने उन्हें दूर से ही रोक दिया। ऐसा रोका कि आगे न पीछे कहीं एक डग भी रखने के लिए समर्थ नहीं हो सके।
तदनन्तर धृष्टद्युम्न के रथ पर आरूढ़ अर्जुन ने अपने नाम से चिन्हित एवं समस्त संबंधों को सूचित करने वाला बाण द्रोणाचार्य की गोद में फेंका। द्रोण, अश्वत्थामा, भीष्म और विदुर ने जब समस्त संबंधों को सूचित करने वाले उस बाण को बांचा तो उसने सबको परम हर्ष प्रदान किया। पाण्डवों का समागम होने पर राजा द्रुपद, कुटुम्बीजन तथा द्रोणाचार्य आदि को जो महान सुख उत्पन्न हुआ था, उससे शंख और बाजों के शब्द होने लगे। परम आनन्द को देने वाले भाइयों के इस समागम पर दुर्योधन आदि ने भी ऊपरी स्नेह दिखाया और पाँचों पाण्डवों का अभिनंदन किया।
जिस प्रकार स्नेह-तेल के समूह से भारी दीपिका किसी के पाणिग्रहण-हाथ में धारण करने से अत्यधिक देदीप्यमान होने लगती है उसी प्रकार स्नेह-प्रेम के भार से भरी द्रौपदी, पाणिग्रहण-विवाह के योग से अर्जुन के द्वारा धारण की हुई अत्यधिक देदीप्यमान होने लगी। राजा लोग द्रौपदी और अर्जुन का विवाह मंगल देखकर अपने-अपने स्थान पर चले गये और दुर्योधन भी पाण्डवों को साथ ले हस्तिनापुर पहुँच गया।
दुर्योधनादि सौ भाई और पाण्डव आधे-आधे राज्य का विभाग कर पुन: पूर्व की भांति रहने लगे। उज्ज्वल चारित्र के धारक युधिष्ठिर तथा भीमसेन ने पहले अज्ञातवास के समय अपने-अपने योग्य जिनकन्याओं को स्वीकृत करने का आश्वासन दिया था उन्हें बुलाकर तथा उनके साथ विवाह कर उन्हें सुखी किया। द्रौपदी अर्जुन की स्त्री थी, उसमें युधिष्ठिर और भीम की बहू-जैसी बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल उसे माता के समान मानते थे।
द्रौपदी की भी पाण्डु के समान युधिष्ठिर और भीम में श्वसुर बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल इन दोनों देवरोें में अर्जुन के प्रेम के अनुरूप उचित बुद्धि थी। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो अत्यन्त शुद्ध आचार के धारक मनुष्यों की निंदा करने में तत्पर रहते हैं उनके उस निंदा से उत्पन्न हुए पाप का निवारण करने के लिए कौन समर्थ है? दूसरे के विद्यमान दोष का कथन करना भी पाप का कारण है फिर अविद्यमान दोष के कथन करने की तो बात ही क्या है? वह तो ऐसे पाप का कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता-अवश्य ही भोगना पड़ता है। साधारण से साधारण मनुष्यों में प्रीति के कारण यदि समानधनता होती है तो धन के विषय में होती है स्त्रियों में नहीं होती। फिर जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध है उनकी तो बात ही क्या है? हरिवंशपुराण में कहा है-
महापुरुषकोटीस्थकूटदोषविभाषिणाम्।
असतां कथमायाति न जिह्वया शतखण्डताम्।।१५५।। (सर्ग ४५)
अर्थात् महापुरुषों की कोटि में स्थित पाण्डवों के मिथ्या दोष कथन करने वाले दुष्टों की जिह्वा के सौ खण्ड क्यों नहीं हो जाते? पाप का वक्ता और श्रोता जो इस लोक में उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोक में वृद्धि के लिए ही सुरक्षित रहता है ऐसा समझना चाहिए।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस पाप का फल वक्ता और श्रोता को इस लोक में नहीं मिलता उसका फल परभव में अवश्य मिलता है और ब्याज के साथ मिलता है। सद्बुद्धि से पुण्यरूप कथाओं का सुनना वक्ता और श्रोता के लिए जिस प्रकार कल्याण का कारण माना गया है उसी प्रकार पापरूप कथाओं का सुनना उनके लिए अकल्याण का कारण माना गया है।