श्री अमितगति आचार्य के द्वारा बनायी गयी यह ‘द्वात्रिंशतिका स्तुति’ है। इसमें साम्यभाव, वैराग्यभाव और अध्यात्मभाव का अच्छा सम्मिश्रण है। जो पुरुष या स्त्री ,बाल या वृद्ध भगवान् के समक्ष बैठकर शांतचित्त से इसका अर्थ समझते हुए इसे पढ़ेंगे अथवा एकांत में या सामायिक के काल में इसका चिंतवन करेंगे, उन्हें बहुत ही शांति मिलेगी और आत्मा का अभूतपूर्व आनंद आएगा, अत: यहाँ पर अन्वयार्थ और विशेषार्थ सहित इसे दे रहे हैं— मुझे कौन—कौन सी भावनायें मिलें ?
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
अन्वयार्थ- (देव ! मम आत्मा सदा) हे भगवन् ! मेरी आत्मा हमेशा (सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं विपरीतवृत्तौ माध्यस्थभावं) संपूर्ण जीवों में मैत्रीभाव, गुणीजनों में हर्षभाव, दु:खी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत व्यवहार करने वाले शत्रुओं के प्रति माध्यस्थभाव को (विदधातु) धारण करे। संसार में जितने भी जीव हैं वे प्राय: मध्यम रीति से चार भागों में ही बांटे जा सकते हैं। सामान्य सभी जीवराशि अपने से अधिक गुणवान्, दु:खी जीव और अपने प्रति शत्रुवर्ग या स्वयं गलत मार्ग पर चलने वाले जीव इनमें से सामान्य जीवों में प्रेम रख सकता है किन्तु गुणों से अधिक में ईर्ष्या—मत्सर भाव भी हो जाता है। उनके गुणों को न देख सकना, उनके गुणों में दोषारोपण करके उन्हें समाज में नीचा दिखाने का भाव हो जाता है। जो दीन-दु:खी हैं उनके प्रति भी तिरस्कार का भाव या उपेक्षा का भाव अथवा उनकी हंसी-मजाक उड़ाने का भाव भी हो जाया करता है। जो शत्रु जैसा या शत्रुता का ही व्यवहार कर रहे हैं, अकारण गुणों में दोषारोपण कर निंदा कर रहे हैं या गाली-गलौज, मार—पीट आदि के द्वारा कष्ट पहुंचा रहे हैं, उनसे पीड़ित होकर उन्हें दु:ख देने का भाव या उनसे आज नहीं तो जन्मांतर में बदला लेने का भाव सहज आ जाता है। इसलिये आचार्यदेव स्वयं ऐसी भावना भा रहे हैं और दूसरे को भी ऐसी प्रेरणा दे रहे हैं कि— ‘‘हे भव्य जीवों ! तुम इस भव में मानसिक शांति और सांसारिक सुख चाहते हो तो भी इन चार भावनाओं को भाओ और यदि सम्यग्दृष्टी हो, संसार के दु:खों से छूटना चाहते हो, अपनी संसार परंपरा को बढ़ाना नहीं चाहते हो प्रत्युत घटाना चाहते हो तो इन भावनाओं को सतत भाते रहो। भाते ही नहीं रहो प्रत्युत अपने आचरण को इन रूप ही बनाओ। सत्वेषु मैत्रीं-इस संसार में जितने भी प्राणी हैं सबके साथ मित्रता का, प्रेम का—सौहार्द का भाव रखो, कभी भी किसी के साथ द्वेष, कलह या वैर का भाव मत रखो। यदि कदाचित् किसी भी निमित्त से किसी से वैर या कलह हो भी जावे तो उसे मन से निकालकर क्षमा भाव धारण करो और उससे भी क्षमा करा लो। इस भावना को भाने वाले महापुरुष ही ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम् ’सारा भूमंडल—संसार ही मेरा कुटुम्ब है, ऐसी सूक्ति को चरितार्थ करते हैं। गुणिषु प्रमोदं-जो अपने से ज्ञान में, चारित्र में, तपश्चरण में या गृहस्थाश्रम में व्यवहारकुशलता, कार्यक्षमता आदि गुणों में बड़े हैं उन्हें देखकर हर्ष से रोमांच आ जाना यह अच्छे मनुष्यों का लक्षण है। गुणीजनों को देखकर अपना मुख प्रसन्न करना, उनकी प्रशंसा करना, उनके गुणों के प्रति आदरभाव रखना, उनसे ईर्ष्या नहीं करना ही प्रमोद भाव है। इस गुण से अपना मन प्रसन्न होता है और अपने में गुणों का विकास होता है। क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं-दीन, दु:खी, अनाथ या अंधे, लंगडे, लूले अथवा अज्ञानी, मूर्खजनों को देखकर उनके प्रति दया भाव से चित्त का ओत—प्रोत हो जाना कारुण्य भाव है, पुन: तन से, मन से या धन से जहाँ तक बन सके उनका उपकार करना, भोजन कराना, औषधि देना, वस्त्रादि देना, जैसे बने वैसे उनको सुख—शांति पहुंचाना। इससे वे दु:खी जीव अपने उपकारी का भव-भव में उपकार मानकर प्रत्युपकार करते हैं। विपरीतवृत्तौ माध्यस्थभावं-जो अपने से विपरीत हैं—शत्रु सदृश कष्ट देने वाले हैं। अपने कर्म के उदय में ये बेचारे निमित्त मात्र हैं, ऐसा सोचकर उनके राग-द्वेष नहीं करना। उनके निमित्त से अपने मन में भी हर्ष-विषाद या क्लेश नहीं करना यही माध्यस्थ भाव है, इससे अपनी मानसिक शांति बनी रहती है और आगे के लिये वैर बंध नहीं होता है। इन चारों भावनाओं को प्रतिदिन भाते रहने से ये एक न एक दिन अपने अंतरंग में अवश्य ही प्रस्फुट हो जावेंगी।
अन्वयार्थ 🙁जिनेंद्र ! कोषात् खड्गयष्टिं इव) हे जिनेंद्रदेव! म्यान से तलवार को निकालने के समान (अपास्तदोषं अनंतशत्तिंक आत्मानं शरीरत: विभिन्नं कर्तु) दोषों से रहित और अनंत शक्तिमान इस आत्मा को शरीर से पृथक् करने में (तव प्रसादेन मम शक्ति: अस्तु) आपके प्रसाद से मुझे शक्ति प्राप्त होवे। जैसे म्यान में रखी हुई तलवार को खींचकर म्यान से बाहर निकाल लिया जाता है उसी प्रकार यहाँ जिनेेंद्रदेव से प्रार्थना की गई है कि हे भगवान् ! आपके प्रसाद से मुझे ऐसी शक्ति मिले कि मैं अनंत शक्तिमान अपनी आत्मा को इस पौद्गलिक शरीर से भिन्न कर लेऊं। जैसे दूध में घी है, दूध का दही बनाकर उसे बिलोकर मक्खन निकालकर घी बना लिया जाता है अथवा तिल को पेलकर तेल निकाल लिया जाता है, वैसे ही इस देहरूपी देवालय में यह भगवान् आत्मा विराजमान है। निश्चयनय से यह सर्व दोषों से रहित है और अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख तथा अनंतशक्ति आदि अनंत गुणों का पुंज है। व्यवहारनय से अनादिकालीन कर्म के संबंध से यह पौद्गलिक शरीर में निवास करते हुये जन्म-मरण के दु:ख उठा रहा है। जिनेन्द्रदेव की भक्ति से जब सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तब यह सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्ज्ञान से अपनी आत्मा को शुद्ध नय से शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध सदृश समझता हुआ सम्यक् चारित्र को ग्रहण कर शरीर से ममत्व हटाकर उसे पर समझकर भगवान् से यही प्रार्थना करता है कि हे भगवान् ! आपके कृपाप्रसाद से मुझे ऐसी शक्ति शीघ्र मिले कि जिससे मैं इस नश्वर शरीर से अपनी अविनश्वर—शाश्वत, अनादि अनंत आत्मा को अलग करके अपनी अनंत शक्ति को प्राप्त कर लूं। उससे अपने अनंत गुणों को विकसित कर अनंत-अनंत काल तक अनंत सुखी हो जाऊं। भगवान से ऐसी याचना करते रहने से कभी न कभी ऐसी शक्ति आयेगी ही आयेगी।
अन्वयार्थ :-(नाथ ! निराकृताशेषममत्वबुद्धे: मे मन:) हे नाथ! संपूर्ण वस्तु में ममत्व बुद्धि से रहित मेरा मन (दु:खे सुखे वैरिणि बंधुवर्गे योगे वियोगे भवने वने वा) दु:ख-सुख में, वैरी और बंधुजनों में, संयोग में—वियोग में अथवा महल में या वन में (सदा अपि समं अस्तु) निरंतर ही समता भाव धारण करे। जीवन में सुख के पीछे दु:ख और दु:ख के बाद सुख होता ही रहता है। कोई वैरी हैं तो कोई बांधवजन हैं। अकारण मित्र भी हैं। कभी इष्टजनों का संयोग है तो कभी उनका वियोग भी हो जाता है अथवा कभी सुंदर भवन में निवास रहता है तो कभी वन—वन में भटकना पड़ता है। इसी प्रकार जन्म के पीछे मरण, जवानी के पीछे बुढ़ापा और सुख संपत्ति के बाद आपत्ति ये अनादिनिधन व्यवस्था है। कोई विरले ही जीव इनसे बच पाये हैं तो भी जन्म-मरण से तो कोई भी नहीं बच पाए हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सुख में, बांधवों में, इष्टवस्तु के संयोग में और महल इत्यादि अनुकूल प्रसंगों में हर्ष से विभोर हो उठता है और दु:ख, संकट, व्याधि, पीड़ा आदि में, वैरियों के बीच में या इष्टजनों के वियोग में अथवा वन आदि प्रतिकूल प्रसंगों में दु:खी, विषादयुक्त, खेदखिन्न हो जाता है। आकुल-व्याकुल हो जाता है। यह हर्ष—विषाद परिणति कर्मबंध का कारण है, विषाद और दु:ख से आगे पुन: असातावेदनीय का ही आस्रव होता है अत: सतत भगवान् से यह प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवान् ! इन सम-विषम परिस्थितियों में मेरा मन हर्ष-विषाद से रहित साम्यभाव का अवलंबन लेवे। श्री जिनेन्द्रदेव के समक्ष की गई यह प्रार्थना व्यर्थ नहीं जायेगी, एक न एक दिन अवश्य सफल होगी। यही भावना आगे चलकर वीतरागभाव को प्राप्त कराकर इस जीव को पूर्ण सुखी बना देगी।
अन्वयार्थ :-(मुनीश! त्वदीयौ पादौ) हे मुनियों के ईश! आपके दोनों चरणकमल (मम हृदि सदा लीनौ इव) मेरे हृदय में हमेशा के लिये लीन के समान, (कीलितौ इव) कीलित हुये के समान (निखातौ इव स्थिरौ) गड़े हुये के समान स्थिर हो जावें (विंबितौ इव) प्रतिबिंबित हुये के समान और (तमो-धुनानौ दीपिकौ इव) अंधकार को दूर करते हुये दीपक के समान (तिष्ठतां) स्थित हो जावें। हे भगवान् ! आपके चरणकमलयुगल मेरे हृदय में इस प्रकार स्थित हो जावें कि सदा-सदा के लिये वे अलग ही न हों अर्थात् आपकी भक्ति मेरे जीवन में एक क्षण के लिये भी छूटे नहीं। मेरा मन सतत आपके चरणकमलों में रमा रहे। इसके लिये यहाँ पांच प्रकार की उपमायें दी हैं। जैसे कोई वस्तु किसी में लीन या विलीन हो जाती है तो वह उससे अलग नहीं होती है, जैसे दूध में जल लीन या विलीन हो जाता है ऐसे भगवान् के चरणों में मेरा मन ऐसा स्थिर हो कि विलीन हो जावे। जैसे किसी लकड़ी के दो आदि टुकड़ों में कील ठोक कर एक चौकी या पाटा बन जाता है वैसे ही आपके चरण मेरे हृदय में कीलित हो जावें—मजबूत जम जावें अर्थात् मेरा मन आपके चरणों में कील से जड़े हुये के समान स्थिर बना रहे। जैसे कोई वस्तु जमीन में गाड़ देने से वहीं स्थिर हो जाती है वैसे ही आपके चरणकमल मेरे हृदय में सदा ही गड़े हुये के समान स्थिर हो जावें। जैसे दर्पण में किसी चीज का प्रतिबिंब जैसे का तैसा झलकता है वैसे ही आपके चरणकमल मेरे हृदय में सदा प्रतिबिंबित होते रहें। जैसे दीपक अंधकार को दूर कर देता है वैसे ही आपके चरणकमल मेरे हृदय के मोहरूपी अंधकार को या अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करते हुये दीपक के समान ज्ञानरूपी प्रकाश को भर देवें। बात यह है कि भगवान् का कैसा ही भक्त क्यों न हो, जब वह भक्ति के प्रभाव से स्वर्ग में जाता है तो वहाँ के वैभव में अपने आपको या भगवान् को भूल जाता है इसीलिये आचार्यदेव ने ऐसी गाढ़ भक्ति भाई है कि जो जन्मांतर में भी न छूटे और नियम से मुक्ति को प्राप्त करा देवे। ऐसी दृढ़ भावना ही दृढ़ संस्कार जमा देती है जिससे कि परलोक में भी जिनेन्द्रदेव की भक्ति नहीं छूटती है इसलिये इस श्लोक को तो रट लेना चाहिये और जब कभी किसी निमित्त से आकुलता हो, शरीर में पीड़ा हो या नींद उचट जावे तो इसे बार-बार पढ़ना चाहिये। इससे तत्काल तो पुण्यबंध होकर शांति होगी और कालांतर में तथा जन्मांतर में भी जिनभक्ति दृढ़ बनी रहेगी और यह मोक्ष प्राप्त कराने में कारण बनेगी।
पापों से दूर होने के उपाय
एकेन्द्रियाद्य यदि देव! देहिन:, प्रमादत: संचरता इतस्तत:।
अन्वयार्थ :-(देव! इतस्तत: संचरता: एकेन्द्रियाद्या: देहिन:) हे भगवन् ! इधर-उधर संचार करते हुये एवेंâद्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों को (यदि प्रमादत: क्षता: विभिन्ना मिलिता निपीडिता:) यदि मैने प्रमाद से क्षति पहुंचाई हो—नष्ट किया हो, अलग—अलग किया हो, मिला दिया हो या दु:ख दिया हो (तदा तत् दुरनुष्ठितं मिथ्या) तो वह मेरा असत् व्यवहार मिथ्या हो। मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा कहने से क्या पापों का क्षालन हो जायेगा ? हाँ, अवश्य हो जायेगा। बात यह है कि भगवान के दर्शन के लिये जाते समय या अन्यत्र कहीं भी गमनागमन करते समय चार हाथ आगे जमीन देखकर सावधानीपूर्वक चलते हुये भी एवेंâद्रिय—पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति— कायिक जीव, दो इंद्रिय—लट, केंचुआ आदि, तीन इंद्रिय—चींटी आदि, चार इंद्रिय—मक्खी, मच्छर आदि, पंचेन्द्रिय—मेंढक आदि, कोई भी जो इधर-उधर हैं या चल फिर रहे हैं उनका विघात हुआ हो या उन्हें अलग-अलग छिटका दिया हो या एक साथ कर दिया हो या कुछ पीड़ा पहुंचाई हो, इन जीवविराधना से जो भी पाप कर्म संचित हुआ हो—हे भगवन् ! आपके समक्ष आलोचना करने से या प्रार्थना करने से वह सब मेरा पाप नष्ट हो जावे। ऐसी प्रार्थना अवश्य ही सर्व पापों को नष्ट करने में समर्थ है।
अन्वयार्थ :-(विमुक्तिमार्ग प्रतिकूलवर्तिना) मोक्षमार्ग के प्रतिकूल चलने वाले (दुर्धिया कषायाक्षवशेन मया) दुर्बुद्धि से मैंने कषाय और इंद्रियों के आधीन होकर (चारित्रशुद्धि: यत् लोपनं अकारि) चारित्र की शुद्धि का जो लोप किया है (प्रभो! तत् मम दुष्कृतं मिथ्या अस्तु) हे प्रभो ! वह मेरा सब दुष्कृत मिथ्या होवे।
प्रश्न—चारित्र में दोष—अतिचार लगने में मूल कारण क्या हैं ?
उत्तर—कषाय—क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियां हैं। इन कषायों और इंद्रियों के वश में होने से ही चारित्र में—महाव्रत या अणुव्रत में दोष लगते हैं अत: प्रयत्नपूर्वक इन कषायों को जीतना चाहिये और इंद्रियों को वश में रखना चाहिये।
प्रश्न-क्या ये कषाय और इंद्रियां मोक्षमार्ग के प्रतिवूल हैं ?
उत्तर-हाँ, ये मोक्षमार्ग जो रत्नत्रय है उसके प्रतिकूल हैं। फिर भी प्रारंभ अवस्था में ये कषाय और इंद्रियों के विषय छूटते तो हैं नहीं अत: उनका सदुपयोग—शुभ उपयोग कर लेना चाहिये।
प्रश्न-सो कैसे ?
उत्तर-यदि कषायें आ गईं तो उन्हें जल्दी ही निकालकर क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष प्रवृत्ति में इन्हें जीतना चाहिये अथवा अपने क्रोधादि दुर्भावों पर ही क्रोध करके अपने शुद्ध, सिद्धस्वरूप आत्मा का मान—स्वाभिमान धारण कर माया पिशाची को ही ठगकर, उसे छोड़कर लोभ को दूर करने के लिये दान पूजन, तीर्थों के जीर्णोद्धार, जिनमंदिर, जिनबिंब-निर्माण, तीर्थयात्रा आदि कार्यों में धन का सदुपयोग करना चाहिये। इंद्रियों के विषयों को यदि सर्वथा छोड़ न सकें तो गृहस्थाश्रम में रहते हुये न्याय से धन कमाकर अपनी शक्ति के अनुसार इन पाँचों इन्द्रियों के विषयों का न्याययुक्त श्रावक धर्म के अनुसार ही सेवन करना चाहिये। अभक्ष्य भक्षण का त्याग, एकदेश ब्रह्मचर्य पालन—स्वस्त्री संतोषव्रत और अश्लील दृश्य नहीं देखना व अश्लील गाना आदि नहीं सुनना इत्यादि प्रकार से इंद्रियों को अपने अधीन रखना चाहिये। पूर्णतया इंद्रियों के विषयों का तो मुनि ही त्याग करते हैं। गृहस्थ एकदेशरूप से सेवन करते हुये उन इंद्रियों का सदुपयोग कर लेते हैं। तब ये इंद्रियां भी मोक्षमार्ग के अनुसार हो जाती हैं। यहाँ पर महामुनि श्री अमितगति आचार्य ने यह प्रार्थना की है कि हे भगवान् ! कषाय और इंद्रियों के वश होने से मेरे चारित्र में जो कुछ भी अतिचार लगे हों वे सब आपके प्रसाद से मिथ्या होवें—नष्ट हो जावें और मेरा चारित्र निर्मल हो जावे।
इस प्रकार की प्रार्थना से निश्चित ही अपने व्रतोें में लगे हुये दोषों का क्षालन हो जाता है
अन्वयार्थ :—(मनोवच: कायकषायनिर्मितं) मन,वचन,काय और कषाय से निर्मित (भवदु:खकारणं अखिलं पापं अहं) चतुर्गति दु:ख के कारण ऐसे सर्व पापों का मैं (भिषग, मंत्रगुणै: विषं इव निहन्मि) मंत्र गुणों के द्वारा जैसे वैद्य विष को दूर कर देता है वैसे नाश करता हूूं। निंदा—हा, मैंने यह गलत किया, ऐसा अपनी आत्मा की साक्षीपूर्वक जो अपने द्वारा किये हुये पापों का पश्चात्ताप करना निंदा है। आलोचना—गुरू आदि के समक्ष अपने दोषों को कहना आलोचना है। गर्हा—पर के समक्ष अपने दोषों को कहना यह गर्हा है।
प्रश्न—इन निंदा आदि के द्वारा दोषों का नाश कैसे होता है ?
उत्तर—जैसे कोई वैद्य मंत्रों के प्रयोग से सर्प के काटे हुये विष को उतार देता है वैसे ही अपने दोषों की सच्चे हृदय से निंदा, गर्हा और आलोचना करने से दोषों का क्षालन हो जाता है।
प्रश्न—दोष मन से होते हैं या वचन आदि से ?
उत्तर—कषाय का निमित्त लेकर कुछ दोष मन से होते हैं, कुछ वचन से होते हैं, कुछ काय से होते हैं। कुछ दोष प्राय: तीनों के संयोग से होते हैं। कुछ दोष दो से होते हैं।
प्रश्न—ये दोष क्या हानि करते हैं ?
उत्तर—ये संसार के दु:खों को उत्पन्न करते हैं। इनके निमित्त से यह जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है। अनादिकाल से हम और आप इन दोषों के निमित्त से ही संसार में भटक रहे हैं इसलिये आचार्यदेव ने यह प्रार्थना की है— हे भगवन् ! मैं निंदा, गर्हा, आलोचना के द्वारा अपने मन,वचन, काय और कषाय द्वारा उपार्जित दोषों को दूर करके संसार के कारणों को घटाता हूँ।
अन्वयार्थ :-(जिन! सुचरित्र कर्मण: यद् विमते: प्रमादत:) हे जिनराज ! सम्यक् चारित्र में जो मोह और प्रमाद से मैंने (अतिक्रमं व्यतिक्रमं अतिचारं अपि व्यधाम्) अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार किया है। (तस्य शुद्धये प्रतिक्रमं करोमि) उस दोष की शुद्धि के लिये मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। अज्ञान, मोह या प्रमाद से व्रतों में लगे हुये दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। यह मुनियों के लिये सात प्रकार का माना गया है—दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ। श्रावक भी ईर्यापथ से मंदिर में आकर ‘‘पडिक्कमामि भंते! इरियावहियाए’’ इत्यादि पाठ बोलकर ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण करते हैं। व्रतिक श्रावक अपने व्रतों के अनुसार श्रावक प्रतिक्रमण का पाठ भी करते हैं।
श्रावकों के लिये मुख्य रूप से आलोचना कही गई है। उसे प्रतिदिन मंदिर में भगवान के समक्ष बैठकर पढ़ना चाहिये। वह यह है
-दोहा-
वंदो पांचों परमगुरु, चौबीसों जिनराज। करुं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करन के काज।।’’
सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अति भारी ’ इत्यादि।
प्रश्न—इसमें आता है—‘‘झाड़ू ले जगा बुहारी, चींटी आदिक जीव विदारी। इधर भगवान के पास आलोचना करना, उधर रोज झाडू लगाना, इससे क्या पापों का क्षालन होगा ?
उत्तर- आपके कहने से ही स्पष्ट है कि दोषों का क्षालन हो जाता है। देखो! जैसे घर में झाडू लगाओ, रोज गंदा होता है तो प्रतिदिन ही झाडू लगाना पड़ता है अन्यथा उसमें रहना भारी हो जाय उसी प्रकार से यद्यपि रोज झाडू, बुहारी, वूâटने, पीसने आदि के द्वारा पाप संचित होते रहते हैं तो भी रोज-रोज आलोचना करने से वे दोष भी धुलते रहते हैं अत: झाडू के उदाहरण के समान ही पाप हल्का होता रहता है। यदि आलोचना नहीं करते हैं तो पापों का संचय बढ़ता जाता है जिसको हल्का करना कठिन हो जाता है।
प्रश्न-हमने देखा है कि कुछ महिलायें घर में झाडू लगाते समय, कूटते, पीसते समय, रसोई बनाने के समय भी आलोचना पाठ पढ़ा करती हैं यह तो उनकी बिल्कुल ही मूढ़ता है। मैंने उनको जब समझाने की कोशिश की, तब वे कहती हैं कि हम क्या करें ? हमेें मुश्किल से १०-१५ मिनट का समय मिलता है उसमें मैं मंदिर जाकर भगवान का दर्शन कर आती हूं। मुझे बचपन से जो पाठ याद हैं, एक आर्यिका जी ने कहा था कि उन्हें घर का काम करते हुये भी पढ़ लिया करो जिससे कंठ की विद्या बनी रहे अन्यथा भूल जावोगी इसीलिये मैं आलोचना, भक्तामर, छहढाला आदि पाठों को पढ़ लिया करती हूँ। कई महिलायें समझदार थी उन्होंने तो मेरी बात मानकर घर के काम को करने में इन पाठों का पढ़ना छोड़ दिया किन्तु कई एक हठाग्रही हैं, वे पढ़ती ही रहती हैं ?
उत्तर-जो पढ़ती रहती हैं उनका यह गुण है दोष नहीं है क्योंकि इसमें हानि क्या है ? सोचो तो सही, एक तो उन्हें वह पाठ विस्मृत नहीं होगा, याद रहेगा। दूसरी बात काम करते समय जिस काम को कर रही हैं धार्मिक पाठ से वह वस्तु अमृत के समान गुणकारी हो जावेगी—मंत्रित जैसी हो जावेगी। तीसरी बात वे उस काल में ‘मैं—मैं, तू—तू’ आदि व्यर्थ के आपस के विसंवाद या फालतू के वार्तालाप से बचेंगी इसीलिये हानि कुछ भी न होकर लाभ ही लाभ है। हाँ, यदि उन्हें समय अधिक मिलता है मंदिर में भगवान् के दर्शन, पूजन के बाद अवकाश रहता है तो वहीं पर भगवान् के सानिध्य में ही आलोचना पाठ पढ़ें, यदि समय नहीं मिलता है तो जब चाहें तब पढ़ लें या सोते समय पढ़ लें किन्तु प्रतिदिन आलोचना पाठ पढ़ना अवश्य चाहिये। इससे दिन भर के गृहस्थाश्रम में होने वाले आरंभ से जो भी पाप संचित होते हैं वे हल्के होते रहते हैं—धुलते रहते हैं, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये।
प्रश्न-अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि का क्या लक्षण है ?
उत्तर-अतिक्रम—व्यतिक्रम का लक्षण सुनो— अतिक्रम-व्यतिक्रम आदि क्या हैं ?
अन्वयार्थ :-(प्रभो! मन:शुद्धिविधे: क्षतिं अतिक्रमं) हे प्रभो! मन की शुद्धि की हानि को अतिक्रम, (शीलवृतेर्विलंघनं व्यतिक्रमं) शील की बाढ़ का उल्लंघन कर देने को व्यतिक्रम (विषयेषु वर्तनं अतिचारं) विषयों में प्रवृत्ति करने को अतिचार और (इह अतिसक्ततां अनाचारं वदंति) इन विषयों में ही अति आसक्ति होने को अनाचार ऐसा-आपके शासन में कहते हैं। जो भी व्रत लिया है उसके विषय में मानसिक शुद्धि न रख पाना, उसमें कुछ हानि हो जाना अतिक्रम है। व्रतों की रक्षा के जो साधन, भावनायें आदि हैं उनका उल्लंघन हो जाना व्यतिक्रम है। विषयों में वर्तन करना अतिचार और उसमें आसक्ति होना अनाचार है। अन्यत्र अन्य प्रकार से भी कहा है- किसी कार्यविशेष के प्रसंग से अथवा चित्त में संक्लेश हो जाने से आगम में कथित अनुष्ठान काल का उल्लंघन कर आवश्यक आदि क्रिया करना अतिक्रम है। ऐसे ही किसी भी निमित्त से आगमकथित क्रिया के काल से पहले या कम समय में क्रिया करना व्यतिक्रम है। आवश्यक आदि क्रिया के करने में आलस्य आदि करना अतिचार है और व्रत, समिति आदि का आचरण नहीं करना या खंडित कर देना अनाचार है। अथवा अन्य प्रकार से भी कहा है— मानसिक शुद्धि की हानि का होना अतिक्रम है, विषयों की अभिलाषा होना व्यतिक्रम है, आलस करना अतिचार है और व्रतों का भंग कर देना अनाचार है। लिये हुये व्रतों में इन चार प्रकार से दोष लगते हैं। उनकी आलोचना करते हुए जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के समक्ष अपने दोषों को कहकर ‘‘मेरा यह दोष मिथ्या होवे’’ ‘‘मिच्छा मे दुक्कडं’’ ऐसा कहना ही प्रतिक्रमण है।
सामायिक भक्ति आदि पाठ पढ़ने में जो हीनाधिक दोष हुआ हो, उसका निराकरण करते हैं
अन्वयार्थ :—(मया प्रमादात् यत् किंचन अर्थमात्रापदवाक्यहीनं उत्तर) मैंने प्रमाद से जो कुछ भी अर्थ, मात्रा, पद और वाक्य से हीन कहा हो (तत् क्षमित्वा सरस्वती देवी) उस कमी को क्षमा करके सरस्वती देवी (मे केवलबोधलब्धिं विदधातु) तुम मुझे केवलज्ञानलब्धि प्रदान करो। हे सरस्वती माता! मैंने प्रमाद से सामायिक करते समय जो चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति पढ़ते समय या पूजा आदि के पाठ को पढ़ते समय अर्थ से हीन कुछ भी पढ़ा है या मात्राओं को छोड़कर पढ़ा है या पदों को ही छोड़ दिया है अथवा वाक्य से हीन पढ़ा है अर्थात् अशुद्ध उच्चारण किया है। अर्थ को न समझकर या विपरीत अर्थ समझकर पढ़ा है। हे सरस्वती मात:! आप मेरी उस सब कमी को क्षमा करके मुझे पूर्ण केवलज्ञान की प्राप्ति करा दो। यह सामायिक क्रिया, पूजा, आराधना या स्वाध्याय आदि जो भी साधुओं की आवश्यक क्रियायें हैं या श्रावकों की क्रियायें हैं, उन सबको करते हुये लक्ष्य एक ही रहना चाहिये कि हमें केवलज्ञान को प्राप्त करना है। कितने ही व्याकरण कुशल, छंदों के पारगामी , निष्णात ज्ञानी हों फिर भी भक्ति आदि पाठों को पढ़ते समय कुछ न कुछ हीनाधिक गलती हो जाना संभव है। फिर भला जो व्याकरण, छंद आदि शास्त्रोंं के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं उनके पाठोच्चारण के समय तो अनेक गल्तियां होती ही हैं इसलिये इस पद्य द्वारा सरस्वती माता से क्षमायाचना करते हुये उनसे पूर्णज्ञान की प्रार्थना करना, यह ऐसा एक उपाय है जो दोषों को दूर कर ज्ञान को पूर्ण श्रुतज्ञान बना सकता है और कालांतर में पूर्ण ज्ञान—केवलज्ञान को भी प्राप्त कराने में सहायक होगा। आज भी हम देखते हैं कि जो विनीत मनुष्य गलती होते ही क्षमायाचना कर लेते हैं, उनके दोष माफ कर दिये जाते हैं और प्राय: आगे बार-बार उनसे वह गलती नहीं भी होती है। दोष दो प्रकार के होते हैं—एक तो वे जो छोड़े जा सकते हैं, दूसरे वे जिनका छोड़ना संभव नहीं है। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना आदि ये छोड़े जा सकते हैं। दूसरे दोष वो हैं जैसे भोजन करना, मलमूत्र विसर्जन करना, चलना, फिरना, बोलना आदि । इन क्रियाओं में दोष संभव हैं। इतना ही है कि इन कार्यों में शास्त्र में कहे प्रकार से प्रवृत्ति करें और प्रमाद छोड़कर सावधानी बरतें, फिर भी इन दोषों की आलोचना, निंदा, गर्हा की जाती है। ऐसे ही स्तोत्र पाठ आदि को पढ़ते समय अज्ञान, प्रमाद आदि के निमित्त से हीनाधिक दोष संभव हैं उनके हो जाने पर क्षमायाचना कर लेना उचित है। साधुओं की प्रत्येक क्रियाओं में प्राय: हीनाधिक दोष को दूर करने के लिये समाधिभक्ति पढ़ने का विधान है। उसमें भी सरस्वती माता से क्षमायाचना करके उन्हीं से सर्व दु:खक्षय की प्रार्थना की गई है। यथा-
अक्खर पयत्थहीणं मत्ताहीणं च जं मए भणियं।
तं खमउ णाणदेवय! मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु।।
हे ज्ञानदेवते! हे सरस्वति! मैंने अकार आदि अक्षरों से हीन, पद और अर्थ से हीन तथा मात्रा से हीन जो कुछ भी पाठ पढ़ा हो उस विषय में मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ और मेरे सर्व दु:खों का क्षय करो ऐसी प्रार्थना करता हूँ।
अन्वयार्थ-(देवि! चिंतितवस्तुदाने चिंतामणिं त्वां वंद्यमानस्य मम) हे सरस्वती देवि!चिंतित वस्तु को देने में चिंतामणि स्वरूप ऐसी आपकी वन्दना करने वाले मुझे (बोधि: समाधि: परिणामशुद्धि: स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्यसिद्धि: अस्तु) रत्नत्रय की प्राप्ति, समाधि, परिणामों की शुद्धि, अपने शुद्ध आत्मा की प्राप्ति और मोक्षसुख की सिद्धि होवे ।
सरस्वती माता—जिनवाणी मनचिंतित वस्तुओं को देने में चिंतामणि के समान है। ज्ञान के बल से ही यह प्राणी यह जान लेता है कि मैं ऐसा कार्य करूंगा तो ऐसा फल मिलेगा इसीलिये यहाँ पर सरस्वती माता से बोधि आदि पांच चीजें मांगी गई हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है। इस संसार में यही अत्यंत दुर्लभ है।
इसके बाद समाधि—धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परिणामों का होना या अंत समय में प्रायोपगमन, इंगिनी या भक्तप्रत्याख्यान रूप सल्लेखना विधि से पंडितमरण होना समाधि है। आज इनमें से भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना नाम की समाधि होती है। परिणामों की निर्मलता, शुद्धोपयोग या शुभोपयोग का होना, अशुभोपयोग का नहीं होना ही परिणामों की शुद्धि है।अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धि—प्राप्ति होना ही मोक्ष है। कहा भी है— ‘‘सिद्धि : स्वात्मोपलब्धि:’’ स्वात्मा की उपलब्धि हो जाना ही सिद्धि है। यह तेरहवें गुणस्थान में अर्हंत भगवान् के संभव है। उसके बाद मोक्ष के अव्याबाध सौख्य की प्राप्ति हो जाना ही ‘शिवसौख्यसिद्धि:’ है। यद्यपि इनमें से एक की याचना करने से भी चारों उसके साथ मिल जायेंगी। जैसे बोधि के बाद समाधि आदि मिल जाती हैं। समाधि के बाद बोधि आदि संभव हैं इत्यादि, फिर भी कदाचित् बोधि मिलकर छूट भी सकती है इसीलिये आचार्यदेव ने एक साथ पांचों की याचना की है। इससे यह भी प्रगट होता है कि सरस्वती माता चिंतामणि के समान हैं, प्रतिदिन इसकी आराधना, उपासना, भक्ति, पूजा और पठन-पाठन करते रहना चाहिये।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रै:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१२।।
अन्वयार्थ :-(य: सर्वमुनीन्द्रवृंदै: स्मर्यते) जिनका सर्व मुनिनाथ स्मरण करते हैं (य: सर्वनरामरेंद्रै: स्तूयते)जिनकी सर्व मनुष्य और सुरेंद्रगण स्तुति करते हैं, (यो वेदपुराण शास्त्रै: गीयते) जिनका वेद, पुराण और शास्त्रों में वर्णन किया जाता है, (स: देवदेवो मम हृदये आस्तां) वे देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान होवें। जन्म के दस अतिशय, केवलज्ञान के दस अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय इन चौंतीसों अतिशयों से युक्त, आठ प्रातिहार्य से सहित और चार अनंत चतुष्टयों से सहित ऐसे इन छ्यालीस गुणों से समन्वित एवं क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित अर्हंत परमेष्ठी ही देवों के देव होने से देवाधिदेव हैं। सर्व आरंभ और परिग्रह के त्यागी महामुनि इन्हीं अर्हंत देव का स्मरण करते हैं—ध्यान करते हैं। सर्व मनुष्य, राजाधिराजा, चक्रवर्ती तथा इंद्र, प्रतीन्द्र, सुर, असुर आदि इन्हीं अर्हंत देव का स्तवन करते हैं और चार वेदों में—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग में सर्व महापुराण आदि पुराणों में और सर्व शास्त्रों में इन्ही का बखान किया गया है एवं इन्हीं जैसे बनने का मार्ग बतलाया गया है। ऐसे अर्हंतदेव—जिनेन्द्रदेव को अपने हृदय में विराजमान करने से उनकी भक्ति, स्तुति, अर्चा, पूजा करने से अपने सर्व मनोरथ सफल हो जाते हैं, सर्व पापोंं का नाश होकर सर्व मंगल होता है इसलिये ऐसे देवाधिदेव सदा मेरे मन में विराजमान रहें यही प्रार्थना है।
यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:, समस्तसंसारविकारबाह्य:।
समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञ:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१३।।
अन्वयार्थ :-(यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:) जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान और अनंतसुखस्वभावी हैं, (समस्तसंसारविकारबाह्य:) संपूर्ण संसार के विकारों से बहिर्भूत हैं, (समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञ:)योगियों के ध्यान में ही जाने जाते हैंं और ‘परमात्मा’ इस नाम को प्राप्त है (स: देवदेवो मम हृदये आस्तां) वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें। जो भगवान् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सुख और वीर्यस्वरूप हैं वे ही परमात्मा इस नाम से कहे जाते हैं।
प्रश्न- अपनी आत्मा में भी तो ये अनंतचतुष्टय विद्यमान हैं ?
उत्तर-अपनी आत्मा में ही क्या, प्रत्येक संसारी—एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी की आत्मा में ये अनंतचतुष्टय विद्यमान हैं विंâतु वे शक्तिरूप से हैं न कि प्रगट रूप। जैसे कि दूध में घी, तिल में तेल और बीज में वृक्ष विद्यमान हैं किन्तु ये प्रगटरूप न होकर शक्तिरूप में ही माने गये हैं। यदि दूध को कोई पी ले या तिल को खा ले अथवा बीज को पीस डाले तो घी, तेल या वृक्ष नहीं मिलेगा वैसे ही यदि कोई संसारी, मोही, अज्ञानी जीव अपने को राग, द्वेष, मोह और पांचों इन्द्रियों के विषयों में ही फंसाये रखे वो वह भी अपनी आत्मा के इन गुणों को प्रगट कर परमात्मा का आनंद नहीं प्राप्त कर सकता, वह तो जन्म-मरण के अनेक दु:ख ही उठाता रहेगा अत: अपनी आत्मा को परमात्मा सदृश समझकर उसे प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिये।
प्रश्न-संसार के विकार क्या हैं ?
उत्तर-संसार के विकार भाव चारों गतियों में भ्रमण रूप हैं। उनके कारण ये क्रोध, मान, माया, लोभ और पांचों इंद्रियों के विषय व्यापार ही हैं अथवा हिंसा, झूठ, चोरी कुशील व परिग्रह आदि पाप भी संसार के ही कारण हैं। जो इन समस्त संसार के जन्म—मरण दु:खों से और उनके कारणों से रहित हो चुके हैं वे ही परमात्मा हैं।
प्रश्न-इन परमात्मा को समाधि द्वारा ही जानना शक्य है, ऐसा क्यों ?
उत्तर-परमज्ञानी महामुनि निर्विकल्पध्यानरूप समाधि में जब स्थित होते हैं तभी वे ऐसे परमात्मा का ध्यान कर सकते हैं। हम और आप जैसे व्यक्ति तो शास्त्रों से या गुरुओं के उपदेश से उन परमात्मा के गुणों को सुनकर उनकी श्रद्धा करके उनकी भक्ति,पूजा, उपासना करके पुण्य का संचय कर लेते हैं। ऐसे ये देवों के देव अरंहत भगवान् मेरे मनमंदिर में सदा ही निवास करें।
निषूदते यो भवदु:खजालं, निरीक्षते यो जगदंतरालं।
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१४।।
अन्वयार्थ :-(य: भवदु:खजालं निषूदते) जिन्होंने भवदु:खों के समूह को नष्ट कर दिया है, (यो जगदंतरालं निरीक्षते)जो सर्व जगत के अंतराल को देखते हैं। (य: अंतर्गत: योगिनिरीक्षणीय:) जो अध्यात्म ध्यान में रत हुए योगियों के द्वारा देखे जाते हैं (स: देवदेवो मम हृदये आस्तां) वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें।
प्रश्न-संसार के दु:खों का नाश कब होता है ?
उत्तर-जब यह जीव पुरुषार्थ के द्वारा मोहनीय प्रमुख घातिया कर्मों का नाश कर देता है तभी इसके संसार के सर्व दु:खों का अंत हो जाता है। इसके पहले तो यह संसारी ही रहता है और जन्म-मरण के दु:ख उठाता रहता है।
प्रश्न-क्या संसारी जीव सारे जगत् को नहीं देख सकता ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि जब तक इस जीव को पूर्ण ज्ञान प्रगट नहीं हो जाता है तब तक इंद्रिय चक्षु से या अवधिज्ञान आदि चक्षु से भी सर्व चराचर जगत् का देख पाना संभव नहीं है इसीलिये जब यह आत्मा कर्मपर्वतों को चूर कर देता है तभी विश्व के लोक—अलोक के संपूर्ण पदार्थों को एक साथ एक समय में देखने— जानने में समर्थ ऐसा विश्व का ज्ञाता—दृष्टा बन जाता है।
प्रश्न-पुन: जब वे भगवान् सबको देखते और जानते हैं तो वे किसी को दिखाई क्यों नहीं देते ?
उत्तर-परम वीतरागी नग्न दिगंबर महायोगी अध्यात्मध्यान में—शुद्धोपयोग में लीन होकर उन शुद्ध आत्मा—परमात्मा को देख लेते हैं—अनुभव द्वारा जान लेते हैं। वे अमूर्तिक—अशरीरी भगवान् चर्मचक्षुओं से नहीं दिखते हैं अथवा आज के युग में साक्षात् अर्हंतदेव और उनका समवसरण नहीं है इसलिये उन परमौदारिक दिव्य शरीर के धारी अर्हंत को भी हम और आप शास्त्रों के ज्ञान से समझकर उनका श्रद्धान करते हैं किन्तु सिद्ध—शुद्ध परमात्मा तो सदा—चतुर्थकाल में भी अध्यात्मयोगियों के ही ध्यान के गोचर—अनुभव के विषय होते हैं। ऐसे देवों के देव अर्हंतदेव मेरे हृदय में सदा विराजमान रहें यही आचार्यदेव की याचना है।
विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्व्यतीत:।
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलंक: स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१५।।
अन्वयार्थ :-(य: विमुक्तिमार्गप्रतिपादको) जो मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने वाले हैं, (यो जन्ममृत्युव्यसनाद् व्यतीत:)जो जन्म मृत्यु के दु:ख से छूट चुके हैं, (त्रिलोकलोकी विकल: अकलंक:) तीनों लोकों को देखने वाले हैं, शरीररहित हैं और कर्मकलंक रहित हैं (स: देवदेवो मम हृदये आस्तां) वे देवाधिदेव मेरे हृदय में विराजमान रहें। जो मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले होने से मोक्षमार्ग के नेता कहलाते हैं, स्वयं अपने जन्म-मरण के दु:खों से छूट चुके हैं तभी वे दूसरों को जन्म-मरण के दु:खों से छुड़ा सकते हैं और तभी वे तीनों लोकों को जानने-देखने वाले हो सकते हैं। वे ही परमात्मा शरीर आदि नोकर्मों से रहित अकलंक कहलाते हैं। वे सदा मेरे चित्त में निवास करते रहें जिससे मेरी आत्मा भी इन तीन गुणों से युक्त हो जावे।
प्रश्न-ये तीन गुण कौन से हैं ?
उत्तर–वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशिता ये तीन गुण अर्हंत के माने गये हैं। कर्मों का नाश कर देने से वीतरागता आती है पुन: सर्व लोकालोक को देखने— जानने से सर्वज्ञता होती है और तभी वे भगवान् मोक्षमार्ग के सच्चे प्रतिपादक—हितोपदेशी कहलाते हैं। ये ही गुण यहाँ विवक्षित हैं।
क्रोडीकृताशेषशरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न संति दोषा:।
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपाय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१६।।
अन्वयार्थ :-(क्रोडीकृता शेषशरीरिवर्गा:) जिन्होंने सर्व संसारी जीवों को अपने अधीन कर रखा है (रागादयो दोषा:) ऐसे ये राग-द्वेष आदि दोष (यस्य न संति) जिनके नहीं हैं (निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपाय:) जो इंद्रियों से रहित ज्ञानस्वरूप और दु:खरहित हैं, (स: देवदेवो मम हृदये आस्तां) वे देवदेव मेरे हृदय में निवास करें। ये राग,द्वेष,क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि दोष एवेंâद्रिय से लेकर सभी पंचेन्द्रिय प्राणियों में हैं अथवा नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति तक के सर्व जीवों में पाए जाते हैं। बस इतना ही अंतर है कि मुनि, ऋषियों में ये अल्प मात्रा में संज्वलन रूप से पाये जाते हैं। जो इनसे बचे हैं या इनसे छूट चुके हैं वे केवली भगवान् और सिद्ध परमात्मा ही हैं इसीलिये यहाँ ऐसा कहा है कि अशेष शरीरधारी जीवों को अपनी गोद में रखने वाले अर्थात् सभी देहधारी संसारी जीवों के ऊपर अपना अधिकार जमाने वाले ऐसे ये राग, द्वेष आदि दोष बहुत ही प्रभावशाली हैं फिर भी जिन्होंने इनको जीत लिया है या इनका जड़ मूल से नाश कर दिया है वे जिनेन्द्र भगवान् ही सच्चे परमात्मा कहला सकते हैं। वे इंद्रियों के ज्ञान से भी परे केवलज्ञानी —अतीन्द्रिय ज्ञानी हैं, ज्ञानस्वरूप हैं और जिनके पास किसी प्रकार के दु:ख या कष्ट कभी भी नहीं आ सकते हैं ऐसे वे भगवान् सदाकाल अनंतसुख में निमग्न हैं।
प्रश्न-रागादि से क्रोधादि कषाएं वैसे लेना ?
उत्तर-शास्त्रों में क्रोध, मान को द्वेष में और माया, लोभ को राग में गर्भित किया है तथा दूसरी बात यह भी है कि ‘आदि’ का पेट बहुत बड़ा होता है। यहाँ रागादि शब्द होने से आदि में क्रोधादि कषायें, पांचों इंद्रियां और उनके विषय तथा आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि असंख्यात लोकप्रमाण जितने भी विभाव भाव हैं या क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोष हैं वे सब इसमें गर्भित हो जाते हैं। प्रश्न-यदि मुनियों में ये रागादि दोष हैं तो उन्हें नमस्कार कैसे करना ?
उत्तर-मुनियों में रत्नत्रय गुण मौजूद हैं, वे पांच महाव्रत आदि सकलचारित्र के धारी हैं इसलिये नमस्कार के योग्य हैं तथा उनमें अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय न होने से मात्र संज्वलन कषायें हैं जो संयम को भी बना रहने देती हैं इसीलिये ये मुनिराज पांचों परमेष्ठी के अंतर्गत होने से सदा पूज्य हैं।
यो व्यापको विश्वजनीनवृत्ते:, सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबंध:।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्।।१७।।
अन्वयार्थ :-(यो विश्वजनीनवृत्ते: व्यापक:) जो संसार के संपूर्ण व्यापारों में व्यापक हैं (सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबंध:) सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, कर्मबंध से रहित हैं (ध्यातो सकलं विकारं धुनीते) और जिनका ध्यान करने से संपूर्ण विभाव भाव नष्ट हो जाते हैं (स: देवदेवो मम हृदये आस्ताम्) वे देवाधिदेव मेरे हृदय में निवास करें।
प्रश्न-आप कर्मसिद्धांतवादी के भगवान् संसार के सब कार्यों में कैसे रहते हैं ?
उत्तर-जैनसिद्धांत के अनुसार अर्हंतदेव अपने ज्ञान से लोक—अलोक सबको जानते हैं अत: वे ज्ञान की अपेक्षा से सर्वत्र सर्व कार्यों में व्यापक हैं—रहते हैं, प्रदेशों की अपेक्षा से नहीं क्योंकि उनके आत्मप्रदेश तो उनके शरीर में ही स्थित हैं और सिद्धों के आत्मप्रदेश अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार में रहते हुये वहीं सिद्धशिला के ऊपर उन्हीं सिद्ध परमात्मा के साथ हैं, ऐसा समझना। प्रश्न-बुद्ध से क्या समझना ?
उत्तर-बुद्धि—केवलज्ञान जिनके प्रगट हो चुका है वे बुद्ध कहलाते हैं। ऐसे जिनेन्द्रदेव का ध्यान करने से संपूर्ण राग, द्वेष, मोह आदि विकार भाव—विभाव भाव नष्ट हो जाते हैं और स्वभाव की प्राप्ति सहज हो जाती है।जितने भी केवली अरिहंत भगवान् आज तक हुए हैं, होते हैं और होवेंगे, वे सब प्रारंभ अवस्था में उन अर्हंत, सिद्धों का ध्यान कर ही हुये हैं, होते हैं और होवेंगे इसीलिये ये देवाधिदेव मेरे हृदय में सदा विराजमान रहें, ऐसी प्रार्थना है।
न स्पृश्यते कर्मकलंकदोषै:, यो ध्वांतसंघैरिव तिग्मरश्मि:।
अन्वयार्थ :-(य: ध्वांतसंघै: तिग्मरश्मि: इव कर्मकलंकदोषै: न स्पृश्यते) जो अंधकारसमूह से स्पर्शित नहीं हुये सूर्य के समान कर्मरूपी कलंक दोषों से स्पर्शित नहीं होते हैं (निरंजनं नित्यं अनेकं एकं) कर्मांजन से रहित हैं, नित्य हैं,अनेक हैं और एक हैं (तं आप्तं देवं शरणं प्रपद्ये) उन सच्चे देव की मैं शरण लेता हूँ। जैसे सूर्य को अंधकार का स्पर्श नहीं होता है वैसे ही जिन्हें ज्ञानावरण आदि कर्मकलंक और अज्ञान, मोह, राग, द्वेष आदि दोष भाव कर्मों का स्पर्श भी नहीं होता है। इन कर्मों से छूट चुके हैं वे ही भगवान् निरंजन कहलाते हैं, वे शाश्वत काल रहने से नित्य हैं, अनेक—सहस्रों नामों से पुकारे जाते हैं अथवा ज्ञान, दर्शन आदि अनंत गुणों से सहित होने से अनेक हैं तथा स्वतंत्र—अपने आत्मा के अस्तित्व को धारण करने से एक हैं। ऐसे अरिहंतदेव की मैं शरण लेता हूँ।
प्रश्न-गुणों से अनेक कैसे हैं ?
उत्तर-आज भी भगवान् पार्श्वनाथ के अनेक गुणों की अपेक्षा अनेक तीर्थ बन गये हैं। जैसे अहिच्छत्र पार्श्वनाथ, चिंतामणि पार्श्वनाथ, विघ्नहर पार्श्वनाथ आदि। ऐसे ही अनेक गुणों के निमित्त से वे भगवान् एकरूप होकर भी अनेकरूप कहे जाते हैं। ऐसे देवाधिदेव की शरण लेने से ही अशरणरूप इस जगत् से रक्षा हो सकती है ऐसा समझना।विभासते तत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासि।
अन्वयार्थ :-(यत्र भुवनावभासि विद्यमाने) जिनके विद्यमान रहने पर (मरीचिमाली न विभासते) सूर्य भी शोभायमान नहीं होता है (स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं) जो अपनी आत्मा में ही स्थित हैं, ज्ञानरूप प्रकाश से युक्त हैंं, (तं आप्तं देवं शरणं प्रपद्ये) उन आप्त देव की मैं शरण लेता हूँ। भगवान अरिहंतदेव के केवलज्ञान का प्रकाश ऐसा प्रकाश है कि उसमें सारा विश्व और उससे परे अनंत अलोकाकाश भी एक साथ अपनी सर्व भूत-भविष्यत्कालीन अनंत पर्यायों के साथ झलकते हैं, ऐसे उन त्रिभुवनप्रकाशी भगवान् के मौजूद रहने पर सूर्य का प्रकाश क्या है ? सूर्य तो बाहर के ही अध्ांकार को दूर करता है किंतु भगवान् का ज्ञान भव्य जीवों के अंतरंग के अज्ञान अंधकार को दूर कर सम्यग्ज्ञान प्रकाश को भर देता है, जिसके प्रकाश से यह आत्मा अनंत जन्मों के पाप पुंज को नष्ट कर शुद्ध पवित्र हो जाता है। इतने ज्ञानज्योतिर्मय होते हुये भी ये अरिहंत देव अपनी आत्मा में ही स्थित हैं। पर में राग-द्वेष आदि के न होने से ये स्वयं परमानंदमय सुख का अनुभव करते रहते हैं। ऐसे आप्तदेव की शरण लेने से संसार के दु:खों से रक्षा होती है और अपनी ज्ञानज्योति प्रगट होते हुए एक दिन पूर्णता को—केवलज्ञानरूप परम ज्योति की अवस्था को प्राप्त कर लेती है।
अन्वयार्थ :-(यत्र विलोक्यमाने सति) जिनको देख लेने पर (इदं विविक्तं विश्वं स्पष्टं विलोक्यते) यह लोक-अलोक से भेदरूप जगत् स्पष्ट देख लिया जाता है। (शुद्धं शिवं शांतं अनादि अनंतं) जो शुद्ध हैं, शांत हैं, शिव हैं, अनादि और अनंत हैं (तं आप्तं देवं शरणं प्रपद्ये) उन सच्चे देव की मैं शरण लेता हूँ। ध्यान में स्थित होकर जिन अरिहंत भगवान् का ध्यान करने पर अथवा निर्विकल्प ध्यान में अरिहंत, सिद्ध सदृश अपनी आत्मा का ध्यान करने पर ऐसी योग्यता प्रगट हो जाती है कि यह सारा चराचर जगत् अपने आप दिख जाता है तभी यह आत्मा शुद्ध हो जाता है, शिव—कल्याणस्वरूप हो जाता है, शांत—कर्मों के बंध, उदय आदि के दूर हो जाने से परम शांत हो जाता है, ऐसा यह आत्मा अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा ही, अत: अनादि अनंतस्वरूप शाश्वत परमात्मा सदा काल स्थित रहता है। उन आप्तस्वरूप अरिहंतदेव की मैं शरण लेता हूँ।
प्रश्न-अरिहंत भगवान् का ध्यान तो सविकल्प है और सिद्धों का ध्यान भी सविकल्प है पुन: सविकल्प ध्यान से केवलज्ञान कैसे प्रगट हो सकता है ?
उत्तर–प्रारंभ अवस्था में छठे-सातवें गुणस्थान तक इन अर्हंत, सिद्धों का ध्यान माना है। ज्ञानार्णव में संस्थानविचय धर्मध्यान के प्रकरण में अप्रमत्तमुनि को ध्यान का स्वामी बतलाया है। इसके बाद जब कोई मुनि आठवें गुणस्थान आदि से श्रेणी में उन सिद्ध सदृश शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हुये उसी में एकलीन हो जाता है तब वहाँ सिद्ध परमात्मा और अपनी आत्मा इन दोनों का भेद अनुभव में न आने से अभेदरूप निर्विकल्प ध्यान एकाग्रता होने से कर्मों का निर्मूल नाश होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उन सिद्धों का ध्यान करते-करते भेद समाप्त होकर जब यह जीव अभेद में पहुँच जाता है तब लोकालोक प्रकाशी बनने में समर्थ हो जाता है इसीलिये यह कहना सार्थक है कि केवली भगवान् को अर्थात् केवली भगवान् स्वरूप अपनी आत्मा को देख लेने पर सारा विश्व देख लिया जाता है। ऐसी योग्यता प्रगट करने के लिये ही उन केवली भगवान् की शरण लेना आवश्यक है।
अन्वयार्थ :—(अनलेन तरुप्रपंच: क्षय: इव) जैसे अग्नि से वृक्षों का समूह जल जाता है वैसे ही (येन मन्मथमानमूच्र्छा:) जिन्होंने काम, मान, मूच्र्छा, (विषादनिद्राभयशोकचिंता:) विषाद, निद्रा, भय, शोक और चिंता को (क्षता:) नष्ट कर दिया है। (तं आप्तं देवं शरणं प्रपद्ये) उन आप्तदेव की मैं शरण लेता हूँ। जब वन में दावाग्नि लग जाती है या कोई आग लगा देता है तब वन के सारे वृक्षसमूह जलकर खाक हो जाते हैं उसी प्रकार से जब महामुनि सम्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र और तपश्चरण के अनुष्ठान में तत्पर हो जाते हैं तब उस समय यह तपरूपी अग्नि कामविकार, घमंड, ममत्वपरिणाम, विषाद, खेद, नींद, भय, शोक और चिंता आदि समस्त दोषों को जलाकर भस्मसात् कर देती है तब वे महामुनि घातिया कर्मों को भी नष्ट कर अठारह दोष रहित भगवान् परमात्मा बन जाते हैं। ऐसे देव ही आप्त—सच्चे देव हैं उन्हीं की मैं शरण ग्रहण करता हूँ इसलिये कि वे मुझे भी इन दोषों को दूर करने में समर्थ ऐसी शक्ति प्रदान करें। संसार के अन्य सभी मोही जीव अथवा कल्पित किये गये अनेक प्रकार के देवी-देवता इन दोषों से युक्त हैं अत: वे हमारे या आपके किसी के भी इन दोषों को दूर नहीं कर सकते हैं। यह नियम है कि जिसके पास जो कुछ होता है वही दूसरे को देता है, ऐसे ही जिनेन्द्रदेव के पास दोषों का अभाव है और अनंत गुणों का सद्भाव है अत: वे अपने आश्रितजनों को यही देते हैं, उनके दोषों को दूर कर उन्हें गुणों से पूर्ण कर देते हैं। कहा भी है-
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रय:।
ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वच:१।।
अज्ञानीजनों की उपासना से अज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानीजनों की उपासना से ज्ञान मिलता है क्योंकि जिसके पास जो कुछ है वही देता है यह बात जगत् में प्रसिद्ध है।
न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मित:।
अन्वयार्थ:-(अश्मा संस्तरो न न तृणं न मेदिनी) साधु के लिये संस्तर न पत्थर की शिला है, न घास—पुवाल है, न पृथ्वी है (विधानत: विनिर्मित: फलक: न) और विधान से बनाया गया पाटा भी नहीं है (यतो सुधीभि: निरस्ताक्षकषायविद्विष: आत्मा एव निर्मल: मत:) क्योंकि बुद्धिमानों ने इंद्रिय और कषायों को जीतने वाला आत्मा ही अत्यंत निर्मल माना है। सल्लेखना के समय निर्यापकाचार्य गुरु सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्षपक मुनि को चार प्रकार के संस्तर में से किसी एक प्रकार का संस्तर देते हैं जिसे आज कोई-कोई संथारा कहते हैं। पत्थर की शिला,चावल की या कोदों की घास, जमीन या लकड़ी का पाटा। मूलाचार में मुनियों के सोने के लिये ये ही चार प्रकार के संस्तर माने गये हैं। यहाँ उसी सल्लेखना के समय के संस्तर—संथारा की अपेक्षा को रखकर ही आचार्य श्री अमितगति ने कहा है।
प्रश्न-जब अन्य ग्रन्थों में इन चार प्रकार के संस्तरों का विधान है तब यहाँ निषेध क्यों किया है ?
उत्तर-यहाँ पर यह विवक्षा है कि जब यह आत्मा इंद्रियों के विषयों को और कषायों को जीत लेता है तब स्वयं निर्मल-पवित्र-शुद्ध हो जाता है। ये संस्तर सल्लेखना के समय उपयोगी हैं, सल्लेखना की सिद्धि में कारण हैं पुन: जब विषय कषायों से रहित होकर आत्मा स्वयं पवित्र बन जाता है तब इन संस्तरों की क्या आवश्यकता है ? इसी कारण यहाँ इन संस्तरों को महत्त्व नहीं दिया है किन्तु व्यवहारनय से बाहर में तो चाहे जो मुनि हों, अंत समय पत्थर की शिला पर या पृथिवी पर बैठकर ध्यानमुद्रा से ही सल्लेखना करेंगे अत: व्यवहार से यह संस्तर उपयोगी हैं और अंतरंग में विषय कषायों को दूर करना उपयोगी है ऐसा अभिप्राय निकालना चाहिये। संस्तर के महत्त्व की अपेक्षा विषयकषायों को दूर करने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये।
न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनंं, न लोकपूजा न च संघमेलनम्।
अन्वयार्थ :-(भद्र! संस्तर: समाधिसाधनं न) हे भद्र! ये संस्तर समाधि के साधन नहीं हैं (न लोकपूजा न च संघमेलनं) न लोक पूजा और न संघ का संमेलन ही समाधि का साधन है। (यत: तत: अनिशं) (अध्यात्मरतो भव) जिस कारण ऐसा है उसी कारण तुम सदा (सर्वां अपि बाह्यवासनां विमुच्य) अध्यात्म में लीन होवो, सभी बाह्य वासना को छोड़कर। हे भद्र! संथारा समाधि—सल्लेखना को सिद्ध करने वाला नहीं है, सब भक्तों का समुदाय अथवा जैन-जैनेतर जनता भी मिलकर पूजा करें इससे भी सल्लेखना की सिद्धि नहीं है और अड़तालीस मुनियों का समूह एकत्रित हो या और भी बहुत से चतुर्विध संघों का आना सल्लेखना में साधन नहीं है।
प्रश्न-तो क्या है ?
उत्तर-हे भव्य मुनिराज! तुम संपूर्ण बाहरी वासनाओं को छोड़कर—इंद्रियों के विषय और कषायों को छोड़कर आत्मा के स्वरूप का चिंतवन करते हुये उसी में लीन होवो, इसी से सुंदर सल्लेखना होगी—पंडितमरण प्राप्त करोगे, यहाँ यह अभिप्राय है।
प्रश्न-भगवती आराधना में जो बताया है कि एक मुनि की सल्लेखना को—भक्तप्रत्याख्यान नाम के पंडितमरण को कराने के लिये विधिवत् अड़तालीस मुनि होने चाहिये। निर्यापकाचार्य सल्लेखना करने वाले मुनि को विधिवत् संथारा ग्रहण करावें, पुन: इसकाकथन क्यों है ?
उत्तर– यहाँ पर उन मुनियों की अपेक्षा कथन है जो जिनकल्पी हैं या उन जिनकल्पी के समान उत्तम संहनन, उत्तम धर्म आदि गुणों से सहित हैं, उनके लिये यह कथन है अथवा यदि ये मुनियों का समूह, निर्यापकाचार्य और भक्तों द्वारा पूजा, व्यवस्था इत्यादि बाह्य साधन नहीं भी मिल सवेंâ तो भी मुनियों को प्रेरणा देते हैं कि तुम बाह्य वासना को छोड़कर अंतरंग में आत्मस्वरूप का चिंतवन करो। वास्तव में बाह्य विकल्पों को छोड़ना और अंतरंग में आत्मतत्त्व का चिंतवन करना, इतनी क्षमता-स्थिरता अंत समय में बनी रह जावे इसीलिये तो संघ में आचार्य देव और अड़तालीस मुनियों का परिकर बताया है क्योंकि अंत समय शरीर अत्यर्थ शिथिल हो जाने से या किसी प्रकार की वेदना आदि के आ जाने से अथवा उपसर्ग हो जाने से परिणामों में अशांति हो जाना, आर्तध्यान हो जाना संभव है। इन्हीं सब बातों से सल्लेखनारत क्षपक मुनि को बचाकर आत्मतत्त्व में, धर्मध्यान में उनका उपयोग लगाए रखने के लिये बाह्य परिकर सामग्री आवश्यक बतलाई है। हाँ, यदि कोई अपना अंत साधने में स्वयं समर्थ हो तो उसके लिये निष्प्रयोजन ही है ऐसा समझना, सर्वथा एकांत नहीं ग्रहण करना प्रत्युत साधु हों या श्रावक, आज के युग में प्रत्येक को अंत समय अपनी सल्लेखना बनाने के लिये भगवती आराधना का स्वाध्याय करना चाहिये।
न संति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषांं न कदाचनाहं।
इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थ: सदा त्वं भव भद्र! मुक्त्यै।।२४।।
अन्वयार्थ :-(बाह्या: केचन अर्था: मम न संति) बाहरी कोई भी पदार्थ मेरे नहीं हैं (अहं कदाचन तेषां न भवामि) और मैं भी उन किसी का नहीं हूँ (इत्थं विनिश्चित्य) ऐसा निश्चय करके (भद्र! त्वं बाह्यं विमुच्य मुक्त्यै सदा स्वस्थ: भव) हे भव्य! तुम बाह्य पदार्थों को छोड़कर मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा अपने आत्मा में स्थित होवो। बाह्य शिष्य—शिष्यायें, शास्त्र और भक्त श्रावक आदि कोई भी पदार्थ मेरे नहीं हैं और न मैं उनका ही हूँ, ऐसा साधुगण सोचते हैं तथा श्रावक सोचते हैं कि बाहरी स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, कुटुंब, घर आदि पदार्थ मेरे नहीं हैं और न मैं इनका ही हूँ। ऐसा दृढ़ निश्चय जब हो जाता है तब बाह्य वस्तुओं के रहते हुये भी उनमें ममत्व परिणाम नहीं होता है और जब ममत्व घट जाता है तब उनकी अनुकूलता में राग और प्रतिकूलता में द्वेष भी नहीं होता है, यदि कदाचित् होता भी है तो अधिक देर न ठहरकर उपर्युक्त एकत्व भावना के बल से जल्दी ही दूर हो जाता है इसलिये सदा पर को पर समझते हुये और अपनी आत्मा के गुणों का चिंतवन करते हुये उसी में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिये। जब तक आत्मा में स्थित न हो सवेंâ तब तक उसकी भावना भाते रहना चाहिये। यह अपनी आत्मा अनंत गुणों का पुंज है, जन्म जरा मरण से रहित होने से अजर, अमर, अविनाशी है, संसार के सर्व दु:खों से परे अनंतसुख स्वरूप है। चिच्चैतन्य चिंतामणि है। इसके ध्यान से, चिंतवन से संसार के सर्व दु:खों का नाश होता है और अनंतशक्तिमान अपनी आत्मा का दर्शन हो जाता है। यही आत्मा परमात्मा होकर अनंत-अनंत काल तक सुखी हो जाता है इसलिये अपनी आत्मा का ही सतत चिंतवन करते रहना चाहिये। प्रश्न-आज तो शरीर में रोग के अभाव से निरोगी को स्वस्थ कहते हैं, यहाँ आत्मा में स्थित होने को स्वस्थ कहा है, सो कैसे ?
उत्तर-यह शारीरिक स्वस्थता औपचारिक है। वास्तव में यहाँ ‘‘स्वस्मिन् तिष्ठतीति स्वस्थ:’’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो अपनी आत्मा में स्थित होते हैं वे ही स्वस्थ हैं, उस समय भले ही शरीर की स्वस्थता-नीरोगता हो अथवा न भी हो किन्तु आत्मा में स्थिति होने से मानसिक शांति व संतुलन बना रहने से एक विशेष ही आनंद अनुभव आता है जो कि सम्यग्दृष्टिजनों को ही सुलभ है अन्यजनों को दुर्लभ है इसीलिये आचार्यदेव ने यहाँ पर स्वस्थ होने के लिये अपनी आत्मा के ध्यान करने की प्रेरणा दी है।
अन्वयार्थ :-(आत्मानं आत्मनि अवलोक्यमान:) आत्मा को आत्मा में देखते हुये (त्वं दर्शनज्ञानमय: विशुद्ध:) तुम दर्शन ज्ञानमय हो, विशुद्ध हो (यत्र खलु साधु: एकाग्रचित्त:) क्योंकि जिस समय साधु एकाग्रचित्त (स्थित:) होते हैं (तत्र समाधिं अपि लभते) उस समय समाधि को प्राप्त कर लेते हैं। आचार्यश्री कहते हैं कि हे भव्य! तुम अपनी आत्मा में ही दर्शन-ज्ञानमय, विशुद्ध अपनी आत्मा को देखो, उसी में एकाग्रमना होकर स्थिर हो जावो, इसी से समाधि की प्राप्ति हो जावेगी । लोकव्यवहार में भी हम देखते हैं कि जब किसी पुरुष की किसी भी कार्य में एकाग्रता—तन्मयता हो जाती है तब वह कार्य जल्दी ही पूर्ण हो जाता है। उसी प्रकार जब मुनि अपनी आत्मा में ही एकाग्र हो जाते हैं तब शुद्धोपयोग के बल से धर्मध्यान या शुक्लध्यान को ध्याते हुये कर्मों का नाश करने में समर्थ हो जाते हैं अथवा अंत समय में धर्मध्यानपूर्वक समाधि को—सल्लेखना को साध लेते हैं।
एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वभाव:।
बहिर्भवा: सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वता: कर्मभवा: स्वकीया:।।२६।।
अन्वयार्थ :-(मम आत्मा सदा एक:) मेरा आत्मा सदा अकेला है, (शाश्वतिक: विनिर्मल: साधिगमस्वभाव:) अविनाशी है, कर्ममल से रहित है और ज्ञानस्वभावी है (अपरे समस्ता: बहिर्भवा: सन्ति) अन्य सभी बाहरी भाव या पदार्थ (न शाश्वता:) अविनाशी नहीं हैं—क्षणिक हैं (स्वकीया: कर्मभवा:) और ये अपने द्वारा संचित कर्म के निमित्त से ही हुये हैं। प्रत्येक जीव इस संसार में अकेला ही है, यह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। अकेला ही सुख-दु:ख को भोगता है और रोगादि के होने पर अकेला ही उससे उत्पन्न वेदना का अनुभव करता है। अनादिकाल से इसके साथ सभी जीवों का संबंध हो चुका है। कोई भी ऐसा जीव नहींं है कि जो किसी न किसी भव में इसका माता—पिता, पुत्र-पुत्री, स्त्री, मित्र आदि न हुआ हो फिर भी यह जीव सदा अकेला ही रहा है इसलिये जब यह मोक्ष प्राप्त करना चाहता है तब भी अपने को एक—अकेला पर वस्तुओं से रहित मानकर कुटुंब या शिष्य परिकर को अपना रक्षक न समझता हुआ सबसे विरक्त हो अपनी आत्मा को शुद्धस्वरूप अनुभव करता है। यह आत्मा शाश्वतिक है, अनादिकाल से आज तक है और आगे भी अनंत-अनंत काल तक विद्यमान रहेगा, कभी भी नष्ट नहीं होगा।
प्रश्न-तब मरण कैसे होता है ?
उत्तर-मरण तो एक पर्याय का होता है। कोई मनुष्य अपनी मनुष्यायु को पूरी करके मरण कर यदि पूर्व में पुण्य किया है तो देव हो जाता है अत: यह निश्चित है कि पर्यायार्थिक नय से यह जीव जन्म—मरण करता है, शाश्वत नहीं है, अनित्य है फिर भी द्रव्यार्थिक नय से यही जीव अमर है, न कभी मरा है न मरेगा। जैसे कोई पुराने कपड़े उतारकर नये पहन लेता है वैसे ही यह जीव भी ग्रहण की हुई मनुष्य आदि पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय में पहुंच जाता है और जब यही आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव का चिंतवन करता है तब अपने को शाश्वत मानकर परमानंद का अनुभव करने लगता है। यह आत्मा यद्यपि अनादिकाल से कर्ममल से मैला हो रहा है फिर भी शुद्ध निश्चयनय से कर्म मल से रहित निर्मल है इसलिये आत्मा के ध्यान से मुनियों के शरीर को भी पवित्र—निर्मल कहा है। ‘स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रते।’यह शरीर स्वभाव से अशुचि—अपवित्र है फिर भी रत्नत्रय से पवित्र होकर पूज्य हो जाता है पुन: तपश्चरण के बल से यही जीव अपनी आत्मा को निर्मल स्वभावी समझते हुये पूर्ण पवित्र बना लेता है। अधिगम—ज्ञान ही है स्वभाव जिसका, ऐसा यह आत्मा अपने को ज्ञानस्वभावी अनुभव करता हुआ एक न एक दिन पूर्ण केवलज्ञानी बन जाता है। इस आत्मा से अतिरिक्त जितने भी पदार्थ हैं वे सब मेरे से बाह्य हैं, कर्म के निमित्त से हुये हैं अत: उनसे ममत्व छोड़कर अपने आत्मा का अनुभव करना चाहिये, उसके गुणों का बार—बार चिंतवन करना चाहिये। पुत्र, मित्र आदि तो संसार में अपने दिखते हैं
पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपा:, कतो हि तिष्ठंति शरीरमध्ये।।२७।।
अन्वयार्थ :-(यस्य वपुषा साद्र्धं अपि ऐक्यं न अस्ति) जिसका शरीर के साथ भी ऐक्य नहीं है (तस्य पुत्रकलत्रमित्रै: विंâ अस्ति) उसका पुत्र, स्त्री, मित्रों से ऐक्य है क्या ? (हि चर्मणि पृथक्कृते शरीरमध्ये रोमवूâपा: कुत: तिष्ठंति) क्योंकि चमड़े को अलग कर देने पर शरीर में रोमछिद्र कैसे रहेंगे ? जब इस आत्मा की शरीर के साथ भी एकता नहीं है, मरने के बाद यह शरीर यहीं पड़ा रह जाता है और जीव अन्यत्र चला जाता है तब भला पुत्र, पत्नी, मित्र, कुटुंब, धन, मकान आदि के साथ ऐक्य—एकत्व कैसे हो सकता है ? क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष में ही अपने से भिन्न पृथव दिख रहे हैं। अथवा जिन महापुरुषों ने अपने शरीर के साथ भी अपने आत्मा का एकत्व नहीं माना है। अपने शरीर को भी अपने से भिन्न मानते हैं वे पुत्र, मित्र आदि को अपना कैसे समझेंगे ? यदि शरीर से कोई मनुष्य सारी चमड़ी निकाल दे तो भला रोयें और उनके छिद्र कहाँ रह सकते हैं ? यह पद्य आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान के साथ-साथ पर वस्तुओं से ममत्व छुड़ाने वाला है। इसे प्रतिदिन पढ़ना चाहिये और इसके अर्थ का बार—बार चिंतवन करना चाहिये।
अन्वयार्थ :-(शरीरी यत: जन्मवने संयोगत: अनेकभेदं दु:खं अश्नुते) यह संसारी प्राणी जिस हेतु से इस जन्मरूपी वन में संयोग से अनेक प्रकार के दु:ख भोगता है। (तत: आत्मनीनां निर्वृतिं यियासुना असौ त्रिधा परिवर्जनीय:)उसी कारण आत्मा से संबंधित सुख को प्राप्त करने के इच्छुक को वह संयोग मन, वचन, काय से छोड़ देना चाहिये। आत्मा से शरीर का संबंध संयोग संबंध है और पर स्त्री, पुत्र आदि तथा धन, मकान आदि का संबंध भी संयोग संबंध है। जैसे जिसके हाथ में छतरी है या डंडा है उसे ‘ओ छाता, ओ डंडे’ इधर आओ, ऐसा कह देते हैं वैसे ही जब यह जीव मनुष्य शरीर में रहता है तब उसे मनुष्य और जब देव के शरीर में रहता है तब उसे देव कहते हैं। यह सब संयोग संबंध है। दूध और पानी भी मिलकर एकमेक हो जाते हैं वह भी संयोग संबंध ही है। इसी प्रकार जीव के साथ यद्यपि अनादिकाल से कर्मों का संबंध और शरीर का संबंध चला आ रहा है फिर भी वह संयोग संबंध ही है। जैसे दूध से पानी अलग किया जा सकता है वैसे ही आत्मा से कर्मों को अलग किया जा सकता है और जब कर्म ही नष्ट हो जाते हैं तब भला शरीर आदि कहाँ रहेंगे ? वे तो साथ ही नष्ट हो जायेंगे। ऐसी योग्यता को प्राप्त करने के लिये ही पहले पुत्र,स्त्री, धन आदि बाह्य पदार्थ छोड़ देने चाहिये, उन्हें पर समझकर उनसे ममत्व नहीं करना चाहिये पुन: अपने शरीर को भी पौद्गलिक समझकर उससे भी ममत्व हटाना चाहिये। यह संयोग संबंध ही इस जीव को संसार में भ्रमण कराता है अत: मन, वचन, कायपूर्वक इस संयोग संबंध को छोड़ देना चाहिये। जीव के साथ ज्ञान, दर्शन गुणों का तादात्म्य संबंध है, इसे ही समवाय संबंध भी कहते हैं। इन्हें अपने गुण समझकर इनको ही लक्ष्य में रखकर आत्मा को ज्ञान दर्शनस्वरूप अनंत गुणों का पिंड समझकर उसी को प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये। यद्यपि यह आत्मा अपने पास है और उसके अनंत गुण भी उसी में शक्तिरूप से मौजूद हैं फिर भी उस आत्मा को प्राप्त करने के लिये और अपने अनंत गुणों को प्रगट करने के लिये ही सारे पुरुषार्थ माने गये हैं। मुनि दीक्षा लेना, घोर तपश्चरण करना आदि सब अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये ही माने गए हैं।
अन्वयार्थ :-(संसारकांतारनिपातहेतुं सर्वं विकल्पजालं निराकृत्य) संसाररूपी वन में गिराने में कारण ऐसे संपूर्ण विकल्प समूह को दूर करके (आत्मानं विवित्तंâ अवेक्ष्यमाण:) अपनी आत्मा को पर से भिन्न देखने वाले (त्वं परमात्मतत्त्वे निलीयसे)तुम परमात्म तत्त्व में लीन हो जाओ। कर्मों के उदय से मन में अनेक प्रकार के विकल्प उठते हैं। ‘यह वस्तु मेरी है, मैं इसका हूँ, मैंने यह काम किया, यह करना है ’ इत्यादि प्रकार के बहुत से जो विकल्प हैं वे सब इस जीव को संसाररूपी भयंकर जंगल में भटकाने वाले हैं इसलिये यहाँ समझाया गया है कि हे भव्यात्मन् ! जब तक तू इन विकल्पों को छोड़कर शांतमन, निराकुल, निर्विकल्प नहीं होगा तब तक तू संसाररूपी भयंकर अटवी में ही भटकता रहेगा।
प्रश्न-पूजा करना, दान देना, जीवों की दया पालना, स्वाध्याय करना, ये भी तो विकल्प हैं ?
उत्तर-हाँ, ये सब विकल्प हैं किन्तु प्रशस्त विकल्प होने से गृहस्थों के लिये करने योग्य हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापों के विकल्प और मिथ्यात्व आदि के विकल्प अप्रशस्त होने से सर्वथा छोड़ने योग्य हैं। इसके बाद मुनि बन जाने पर वहाँ भी सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण आदि के विकल्प उनके पद योग्य प्रशस्त होने से करने योग्य हैं और उन्हीं के लिये यह उपदेश है कि वे इन प्रशस्त विकल्पों से भी हटकर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा का ध्यान करें या रूपातीत नाम का ध्यान करते हुये—सिद्ध परमात्मा का ध्यान करते हुये उन परमात्मा में या उन सदृश अपने शुद्ध आत्मा में लीन हो जावें। श्रावक पहले अशुभ व्यसन, पाप, अन्याय आदि से हटकर शुभ क्रियाओं में आता है पश्चात् मुनि बनकर प्रशस्त विकल्पों से भी हटने के लिये निर्विकल्प शुद्ध आत्मा का चिंतवन करता है और जब तक निज आत्मा में स्थिर एकाग्र नहीं हो पाता है तब तक पंच परमेष्ठी की भक्ति करता हुआ अपने उपयोग को आगमानुकूल प्रवृत्ति में ही लगाता है, यही क्रम परमात्मा में लीन होने के लिये माना गया है।स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।।३०।।
अन्वयार्थ :- (पुरा आत्मना यत् कर्म स्वयं कृतं) पहले इस जीव ने कर्म जो स्वयं किये हैं (तदीयं शुभाशुभं फलं लभते) उन्हीं का अच्छा या बुरा फल प्राप्त करता है (यदि परेण दत्तं स्फुटं लभ्यते)यदि पर के द्वारा दिये गये फल को भोगता है (तदा स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं) तब तो अपने द्वारा किये हुये कर्म व्यर्थ हो जावेंगे ? संसार में अनादिकाल से यह जीव स्वयं ही अपने अच्छे या बुरे भावों से शुभ या अशुभ कर्मों को बांध लेता है और समय आने पर वे बंधे हुये कर्म उदय में आकर इस जीव को सुख या दु:खरूप फल देते हैं यही जैन सिद्धांत है जो प्राय: सर्व संप्रदाय के जनों को किसी न किसी रूप में मान्य है।
प्रश्न-आज क्या, हमेशा से ही ऐसा सुनने में आता है कि अमुक ने अमुक को मारा, दु:खी किया या अमुक ने अमुक को जीवनदान दिया, सुखी किया आदि। लक्ष्मण ने रावण को मारा, रावण ने सीता का अपहरण कर उसे और रामचन्द्र आदि को दु:खी किया, सो कैसे कहा जाता है ?
उत्तर-अंतरंग में अपने द्वारा संचित अशुभ कर्म जब उदय में आते हैं तभी बाहर में अन्य लोग या अन्य पदार्थ निमित्त बन जाते हैं। यही कारण है कि विवेकी लोग अपने पुण्य या पाप कर्मों का उदय मुख्य समझकर निमित्त में हुये परजनों पर दोषारोपण नहीं करते हैं अथवा पर के निमित्त बनने पर अपने द्वारा संचित कर्मों की असमय में भी उदीरणा हो जाया करती है। फिर भी यह निश्चित है कि स्वयं के कर्मों के उदयजन्य फल को ही यह जीव भोगता है अन्यथा ऐसा न मानने पर तो स्वयं के द्वारा किये गये कर्म व्यर्थ ही हो जावेंगे। इस कर्मसिद्धांत को समझकर स्वयं गलत कार्य नहीं करना चाहिये कि जिससे अशुभ बंध हो और अन्य जनों द्वारा किये गये अपकार में अपने अशुभ कर्मों का उदय समझकर मन में उसके प्रति वैर, द्वेष, बदला लेने का भाव आदि न करके परिणामों में शांति धारण करना चाहिये तभी वे अशुभ कर्म अपना फल देकर चले जायेंगे और आगे के लिये पुन: अशुभ कर्म नहीं बंधेंगे।
नजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति कचन।
अन्वयार्थ :-(देहिन: निजार्जितं कर्म विहाय) प्राणियों को अपने द्वारा अर्जित कर्म को छोड़कर (कोऽपि कस्य अपि किंचन न ददाति) कोई भी किसी को कुछ नहीं देता है। (एवं विचारयन् अनन्यमानस:) ऐसा विचार करते हुये अन्य में मन न लगाकर (पर: ददाति इति शेमुषीं विमुंच) दूसरा देता है ऐसी बुद्धि को छोड़ो। इस संसार मे प्रत्येक जीव ने पूर्व जन्मों में या इसी जन्म में जो कुछ भी शुभ-अशुभ कर्म उपार्जित किया है उसके सिवाय किसी भी प्राणी को कोई कुछ भी सुख-दु:ख या जीवन-मरण को देने में समर्थ नहीं हैं। संसार में जो कुछ भी दूसरे सुख-दु:ख देते दिखाई दे रहे हैं वे सब निमित्त मात्र से ही हैं। ऐसा चिंतवन करते हुये हे भव्यात्मन्! तुम एकचित्त होकर पर जन कुछ देते हैं ऐसी भावना को छोड़कर सभी में समता भाव धारण करो।
प्रश्न- इस समताभाव से क्या होगा ?
उत्तर-अनंत संसार का कारण जो वैरबंधान है वह नहीं होगा, मानसिक शांति बनी रहेगी और पर जनों में राग-द्वेष के न होने से वीतराग भाव बढ़ता चला जायेगा। जिससे यह जीव निर्विकल्प ध्यान को ध्याने में समर्थ हो जायेगा। जैसे अग्निपरीक्षा के बाद सीता ने रामचन्द्र द्वारा क्षमायाचना करने पर यही कहा कि आपका कुछ भी दोष नहीं है, मैंने जो पूर्व में कर्म बांधे थे उन्हीं के फलस्वरूप मुझे यह अवर्णवाद सहन करना पड़ा है, अब मैं उन्हीं कर्मों को नष्ट करने के लिये जैनेश्वरी—स्त्रीपर्याय के योग्य आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ, इत्यादि। ऐसे ही पांडव, गजकुमार आदि मुनि अपने स्वकृत कर्म के उदय को ही समझकर शत्रुओं द्वारा किए गये घोर उपसर्ग को सहनकर मोक्षसुख के अधिकारी हो चुके हैं।
अन्वयार्थ :-(यै: अमितगतिवंद्य: सर्वविविक्त: भृशमनवंद्य:) जो अमितगति से वंदनीय, सर्व पर पदार्थों से भिन्न, अत्यंत निर्दोष,(परमात्मा शश्वत् मनसि अधीत:) परमात्मा का हमेशा मन में चिंतवन करते हैं (ते विभववरं मुक्तिनिकेतं लभन्ते) वे वैभव से परिपूर्ण मुक्तिस्थान को प्राप्त कर लेते हैं। जो परमात्मा अपरिमित माहात्म्य वाला है अथवा अमितगति नाम के आचार्य के द्वारा सदा वंदनीय है, सर्व पर पदार्थों से भिन्न शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकार है, कर्ममल कलंक से रहित होने से क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण आदि दोषों के अभाव से सदा निर्दोष है ऐसे परमात्मा का जो निरंतर अपने चित्त में ध्यान करते हैं, वे स्वयं ही अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेते हैं। परमात्मा दो प्रकार के हैं—एक शक्तिरूप परमात्मा, दूसरे व्यक्तरूप परमात्मा। संसार में एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक जितने भी जीव हैं वे सभी शक्तिरूप परमात्मा हैं। जैसे दूध शक्तिरूप से घी है या बीज शक्तिरूप में वृक्ष है। व्यक्त परमात्मा वे हैं जो धर्म पुरुषार्थ के बल से सर्व कर्मबंधन से छूटकर सिद्ध हो चुके हैं, फिर भी संसार में नहीं आयेंगे। शाश्वत काल तक अनंत सुख में निमग्न परमात्मा ही बने रहेंगे।
प्रश्न-जब हम भी परमात्मा हैं तो अन्य परमात्मा की स्तुति क्यों करना ?
उत्तर-जब तक हम अपने शक्तिरूप परमात्मा को प्रगट करने के लिये ‘जिन्होंने प्रगट कर लिया है या जो प्रगट करने के पुरुषार्थ में लगे हुये हैं ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों की भक्ति, स्तुति, उपासना, आराधना नहीं करेंगे तब तक अपने शक्तिरूप परमात्मा को व्यक्त नहीं कर सवेंâगे तो फिर जैसे के तैसे संसारी—चतुर्गति में भ्रमण करने वाले दु:खी के दु:खी ही बने रहेंगे अत: अपने देह देवालय में विराजमान आत्मा को भगवान् परमात्मा बनाने के लिये सच्चे परमात्मा की भक्ति, स्तुति और उनके बतलाए हुए मार्ग पर चलना अत्यंत आवश्यक है।
प्रश्न-मुक्तिस्थान में वैभव क्या है ?
उत्तर-अनंतज्ञान, दर्शन, अनंतसुख, वीर्य आदि अनंत गुणों का प्रगट हो जाना यही सबसे बड़ा वैभव है। जिस गति के बाद पुन: कभी भी आगति ही न हो, जिस सुख के बाद पुन: कभी दु:ख ही न हो, जिस ज्ञान के बाद पुन: किसी वस्तु का अज्ञान ही न रहे। जहाँ मृत्यु स्वयं मर गई हो, जरा जर्जरित हो गई हो, दु:ख दु:खी होकर नष्ट हो गये हों और भय आदि भयभीत होकर भाग गये हों, भला ऐसे सुख स्थान से बढ़कर और वैभव क्या है ? हम लोक में देखते हैं किसी के यहाँ खाने को उत्तम-उत्तम मालपुये—पकवान रखे हैं किन्तु मोती झरा बुखार के बाद उसे पथ्य में मात्र मूंग की दाल का पानी मिलता है तो उसके लिये वह भोजन का वैभव किस काम का ? किन्तु जहाँ तृप्ति परिपूर्ण हो चुकी हो वहीं सब कुछ सुख है। सिद्धों का सुख शाश्वत है, निराबाध है, परमानंदमय है और परम आल्हादमय है अत: वही सबसे बड़ा वैभव है, ऐसा समझना।
अनुष्टुप् छंद
इति द्वात्रिंशता वृत्तै:, परमात्मानमीक्षते।
योऽनन्यगतचेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम्।।३३।।
अन्वयार्थ :-(इति द्वात्रिंशता वृत्तै: य: अनन्यगत-चेतस्क: परमात्मानं ईक्षते) इस प्रकार इन बत्तीस पद्यों के द्वारा जो एकाग्रचित्त होकर परमात्मा का अवलोकन करता है (असौ अव्ययम् पदं याति) वह कभी नष्ट नहीं होने वाले अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है। जो स्त्री या पुरुष इन बत्तीस पद्यों में निबद्ध परमात्मा की स्तुति को पढ़ते हुये इन्हीं के अर्थ के चिंतवन में एकचित्त होकर परमात्मा का चिंतवन करता है वह उस परमात्मा के ध्यान में एकलीन होकर अभेदरूप से अपने आत्मा को ही परमात्मा समझकर उसी में एकाग्र होकर कर्मों का नाश करके अविनाशी मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है। ध्यान में शुद्ध आत्मा का अनुभव आने पर बाह्य अनेक शास्त्रों का ज्ञान और श्लोकों का चिंतवन समाप्त हो जाता है। मात्र निर्विकल्प अवस्था में एक आत्मा का ही ध्यान रह जाता है उस समय ही शुक्लध्यान से विशुद्धि बढ़ते हुये कर्मों का नाश हो जाता है। उसके पूर्व ये परमात्मा की स्तुति के पाठ आदि बाह्य साधन उपकारी हैं इसलिये आप सभी को इस द्वात्रिंशतिका का नित्य ही पाठ करना चाहिये।