अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्वमन्यता । अशौचमास्रवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ।।२९।।
लोको दुर्लभता बोधे: स्वाख्यातत्वं वृषस्य च । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षा: प्रर्कीितता: ।।३०।।
अर्थ – अनित्यता अशरण संसार एकता अन्यता अशुचिता आस्रव संवर निर्जरा लोक बोधिदुर्लभता धर्म के स्वरूपवर्णन की श्रेष्ठता इन बारह विषयों के बार-बार चिन्तन करने को बारह अनुप्रेक्षा कहते हैं। उनके लक्षण इस प्रकार हैं-
अनित्य अनुप्रेक्षा का स्वरूप-क्रोडी करोति
प्रथमं जात-जन्तुमनित्यता । धात्री च जननी पश्चाद् धिग् मानुष्यमसारकम् ।।३१।।
अर्थ – इस प्राणी को उत्पन्न होते ही प्रथम तो अनित्यता गोद में लेती है और बाद में माता तथा धाय गोद में ले सकती हैं, इसलिये इस असार मनुष्य जन्म को धिक्कार हो अर्थात् अनित्यता तो किसी भी चीज के उत्पाद होने के साथ ही लगी हुई है। मनुष्य जन्मने के कुछ समय बाद ही माता तथा धाय की गोद में आ सकेगा, परन्तु जो उत्पन्न हुआ है उसका मरना उसी समय से उसके साथ लगा हुआ है इसलिये इन शरीरादिकों को स्थिर मानकर इनमें प्रीति करना बड़ी भूल है। ऐसी मूर्खता को धिक्कार हो।
अर्थ – भयंकर मृत्युरूपी व्याघ्र जब जीव को घेरता है तब देव भी बचाने को समर्थ नहीं होते, मनुष्यों की तो बात ही क्या है! ऐसे शरणरहित इस जीवन को धिक्कार हो।
संसारानुप्रेक्षा का स्वरूप
चतुर्गति-घटीयन्त्रे सन्निवेश्य घटीमिव । आत्मानं भ्रमयत्येष हा कष्टं कर्म-कच्छिक: ।।३३।।
अर्थ – जैसे घटीयन्त्र में घटी को लगाकर काछी उसे फिराता है उसी प्रकार चतुर्गतिरूप घटीयन्त्र में यह कर्मरूपी काछी जीवरूपी घटी को लगाकर निरन्तर फिराता है, यह बड़ा कष्ट है। इस कर्म के वश प्राणी को कभी तिर्यंच तो कभी देव, कभी मनुष्य तो कभी नारकी-इस प्रकार नाना योनियों में फिरना पड़ता है। कभी चैन से स्थिर नहीं हो पाता। इस फिराने का कारण कर्म है। इस परिभ्रमण का नाम ही संसार है इसलिये समझना चाहिये कि संसार कोई सुख की चीज नहीं है।
एकत्वानुप्रेक्षा का स्वरूप
कस्यापत्यं पिता कस्य कस्याम्बा कस्य गेहिनी । एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे ।।३४।।
अर्थ –किसका कौन पुत्र और कौन किसका पिता ? किसी कौन माँ और किसकी कौन स्त्री ? दुस्तर संसारसमुद्र में जीव अकेला ही इधर से उधर भटकता है इसलिये किसी को अपना समझना नितान्त भ्रम है।
अन्यत्वानुप्रेक्षा का स्वरूप
अन्य: सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनम् । हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोर्जना: ।।३५।।
अर्थ –जीव अन्य है और शरीर अन्य है। जीव का चैतन्य लक्षण है और शरीर का जड़ता लक्षण है। इन लक्षणों से दोनों जुदे-जुदे अनुभव में आ सकते हैं। तो भी, बड़ा खेद है कि मनुष्य शरीर को अपने से जुदा नहीं मानते हैं। जब दोनों ही भिन्न-भिन्न हैं तो इस शरीर को अपनाना बड़ी भूल है। जैसे शरीर भिन्न है वैसे ही पुत्र, धनधान्यादिक प्रत्यक्ष ही भिन्न हैं।
अशुचित्वानुप्रेक्षा का स्वरूप
नाना कृमि-शताकीर्णे दुर्गन्धे मलपूरिते। आत्मनश्च परेषां च क्व शुचित्वं शरीरके ।।३६।।
अर्थ –अनेक प्रकार के सैकड़ों कृमि-कीटों से यह शरीर भरा रहता है और मूत्र-विष्टा-थूक-खकार-पीव इत्यादि मलों से पूरित रहता है, इसलिये न यह शरीर पवित्र है और न दूसरों का। जैसा यह शरीर, वैसा ही दूसरों का। इसमें पवित्रता कहाँ से आयी ? ऐसे अपवित्र नीच शरीर में स्नेह करना या आसक्ति रखना बड़ी भूल है।
अर्थ –कर्मों के भर जाने से जीव संसार में डूबता है। संसार मानो एक समुद्र है। कष्ट है कि समुद्र का कदाचित् अन्त भी लग जाये परन्तु इसका अन्त कभी नहीं लगता। जीव जहाज के समान है। योगरूप छिद्रों द्वारा संचित हुए कर्मरूप जल से प्राणी परिपूर्ण हो रहा है इसलिए समुद्र के समान इस संसार में डूबता है। योग ही आस्रव है। इसी के द्वारा कर्म आते हैं। न कर्म आते और न ही प्राणी डूबता। इस सारे दु:ख का कारण योग अथवा आस्रव है।
अर्थ – योग अथवा आस्रवरूप द्वारों को जो किवाड़ों के समान गुप्ति द्वारा बन्द करते हैं वे धन्य हैं। वे आते हुए कर्मों द्वारा भी बाधित नहीं हो पाते हैं। आने का द्वार ही रुक गया तो आपत्तियाँ आ कहाँ से सकती हैं, इसलिये जो योग-द्वारों को रोक देते हैं वे ही कर्मों के जाल से बचते हैं। वे धन्य हैं। उन्हीं का अनुकरण सबको करना चाहिये। यह हुआ आने वाले नवीन कर्मों के रोकने का उपाय। अब संचित कर्मों के खिपाने का उपाय बताते हैं।
अर्थ –रेचन की औषधि सेवन करने से जिस प्रकार गाढ़ जमा हुआ आम दोष अथवा अजीर्णता का दोष दूर हो जाता है उसी प्रकार पूर्वसंचित कर्म तपश्चरण करने से नष्ट हो जाता है। यह संचित कर्म के दूर करने का उपाय है। इससे कैसा ही दृढ़बद्ध कर्म भी नष्ट हो जाता है।
लोकानुप्रेक्षा का स्वरूप
नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवत्र्मनि । वसति-स्थानवत् कानि कुलान्यध्युषितानि न ।।४०।।
अर्थ –जीव सदा ही भ्रमण करता है। राहगीर ही बना रहता है। लोक मात्र भ्रमण का मार्ग है। घर, द्वार की तरह असंख्यातों ऐसे शरीराकार हैं कि जिन्हें कुल कहते हैं। उनमें से ऐसे कौन से कुल हैं जो कि जीव ने अपने भ्रमण में घररूप न बना लिये हों-जिनमें कि जीव भ्रमते हुए निवास न कर चुका हो। जबकि अनादि से भ्रम रहा है तो कौन सा लोक-क्षेत्र तथा कुल इससे छूट सकता है ? एक बार नहीं किन्तु अनेक बार, एक-एक क्षेत्र में जन्म-मरण हो चुके हैं। इस प्रकार लोक का अपने साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह कैसे’ छूटे ?
बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा का स्वरूप
मोक्षारोहणनिश्रेणि: कल्याणानां परम्परा । अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा ।।४१।।
अर्थ –देखो, यह बड़ा कष्ट है कि, जो मोक्ष तक चढ़ने के लिये सीढ़ियों के समान है, कल्याणों की परम्परा है, ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति संसार सागर में जीव के लिये अत्यन्त दुर्लभ हो रही है। यदि जीव इस संसार सागर से तरना चाहे तो रत्नत्रय के द्वारा ही तर सकता है। उसी के द्वारा मोक्ष में पहुँच सकता है। संसार में जब तक जीव रहे तब तक भी उससे अनेक और सातिशय सुख प्राप्त हो सकते हैं परन्तु उस रत्नत्रय ही प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन हो रहा है। जीव का नित्यनिगोद पहला निवास स्थान है। वहाँ से मनुष्य जन्म तक आना अति कठिन है। मनुष्य भव में ही रत्नत्रय का लाभ हो सकता है। यदि यह जन्म निष्फल गया तो फिर समुद्र में चिन्तामणि रत्न फैक देने के बराबर हानि होगी।
अर्थ – उत्तम क्षमादिरूप धर्म का सच्चा स्वरूप जिनेन्द्र भगवान ने ही कहा है। संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियों को यही आश्रय देने वाला-उन्हें थामने वाला खम्भ है। इसी के सहारे से प्राणी संसार समुद्र में डूबने से बचते हैं और पार होते हैं।
भावनाओं का एकमात्र फल
एवं भावयत: साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यम: । ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवर: ।।४३।।