आगे इस प्राणी को ध्यान के सन्मुख करने के लिये संसार, देह, भोगादि से वैराग्य उत्पन्न कराना है, सो वैराग्योत्पत्ति के लिये एकमात्र कारण बारह भावना है; इस कारण इनका व्याख्यान इस अध्याय में किया जायेगा। सो प्रथम ही इनके भावने की (बारम्बार चिन्तवन करने की) प्रेरणा करते हैं-
शार्दूलविक्रीडितम्
सङ्गै: किम् न विषाद्यते वपुरिदं किम् छिद्यते नामयै: मृत्यु: किम् न विजृम्भते प्रतिदिनं द्रुह्यन्ति किम् नापद: । श्वभ्रा: किम् न भयानका: स्वपनवद्भोगा न किम् वञ्चका: येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुर प्रख्ये भवे ते स्पृहा ।।१।।
अर्थ –हे आत्मन्! इस संसार में संग कहिये धन-धान्य, स्त्री-कुटुम्बादिक के मिलापरूप जो परिग्रह हैं, वे क्या तुझे विषादरूप नहीं करते ? तथा यह शरीर है, सो रोगों के द्वारा छिन्न रूप व पीड़ित नहीं किया जाता ? तथा मृत्यु क्या तुझे प्रतिदिन ग्रसने के लिये मुख नहीं फाड़ती ? और आपदायें क्या तुझसे द्रोह नहीं करतीं ? क्या तुझे नरक भयानक नहीं दीखते ? और ये भोग हैं सो क्या स्वप्न के समान तुझे ठगने वाले (धोखा देने वाले) नहीं हैं ? जिससे कि तेरे इन्द्रजाल से रचे हुए किन्नरपुर के समान इस असार संसार में इच्छा बनी हुई है ? भावार्थ –संसार, देह, भोगों को उक्त प्रकार के जानकर भी जो जीव अपने प्रयोजन में सावधान नहीं होते, उनका अज्ञानपना स्पष्ट है ।।१।।
आगे इस जीव की भूल कहते हैं-
अनुष्टुप नासादयसि कल्याणं न त्वं तत्त्वं समीक्षसे । न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातर्भूर्तैविडम्बित: ।।२।।
अर्थ –हे भाई! तू भूत अर्थात् इन्द्रियों के विषयों से विडम्बनारूप होकर अपने कल्याण में नहीं लगता है और तत्वों का (वस्तुस्वरूप का) विचार नहीं करता है तथा संसार की विचित्रता को नहीं जानता है; सो यह तेरी बड़ी भूल है ।।२।।
अर्थ –हे मूढ़ प्राणी! अनेक असत् कला, चतुराई, श्रृंगार, शास्त्रादि असद्विद्याओं के कौतूहलों से अपनी आत्मा को मत ठग और तेरे करने योग्य जो कुछ हित कार्य हो उसे कर क्योंकि जगत के ये समस्त प्रवर्तन विनाशीक हैं । क्या तू ये बातें नहीं जानता है ?।।३।।
अर्थ –हे आत्मन्! तू समस्त जीवों को एक सा जान। ममत्व को छोड़कर निर्ममत्व का चिन्तवन कर। मन के शल्य को दूर कर अर्थात् किसी प्रकार का शल्य (क्लेश) अपने चित्त में न रखकर अपने भावों की शुद्धता को अंगीकार कर ।।४।।
आगे बारह भावनाओं के अंगीकार करने का उपदेश करते हैं-
अनुष्टुप चिनु चित्ते भृशं भव्य भावना भावशुद्धये । या: सिद्धान्तमहातन्त्रे देवदेवै: प्रतिष्ठिता: ।।५।।
अर्थ –हे भव्य! तू अपने भावों की शुद्धि के अर्थ अपने चित्त में बारह भावनाओं का चिन्तवन कर, जिन्हें देवाधिदेव श्रीतीर्थंकर भगवान ने सिद्धान्त के प्रबन्ध में प्रतिष्ठित की हैं ।।५।।
अर्थ –उन भावनाओं को मोक्षाभिलाषी मुनियों ने अपने में संवेग (धर्मानुराग), वैराग्य (संसार से उदासीनता), यम (महाव्रतादि चारित्र) और प्रशम की (कषायों के अभावरूप शान्त भावों की) सिद्धि के लिये अपने चित्तरूपी स्तम्भ में आलानित कहिये ठहराई व बाँधी हैं ।
भावार्थ – मुनिगण निरन्तर ही इनका चिन्तवन किया करते हैं ।।६।।
ये भावनाएं सीढ़ियों के समान हैं
अनुष्टुप अनित्याद्या: प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमुक्षुभि: । या मुक्तिसौधसोपानराजयोऽत्यन्तबन्धुरा: ।।७।।
अर्थ –ये भावना अनित्य आदि द्वादश हैं । इनको मोक्षाभिलाषी मुनिगणों ने प्रशंसारूप कही हैं क्योंकि ये सब भावनायें मोक्षरूपी महल के चढ़ने की अति उत्तम पैड़ियों की (सीढ़ियों की) पंक्ति के समान हैं ।।७।।
अथ अनित्यभावना लिख्यतेआगे इन भावनाओं का भिन्न-भिन्न व्याख्यान करेंगे जिनमें से प्रथम अनित्य भावना का वर्णन करते हैं-
अर्थ –इस संसार रूपी समुद्र में भ्रमण करने से मनुष्यों के जितने सम्बन्ध होते हैं, वे सब ही आपदाओं के घर हैं क्योंकि अन्त में प्राय: सब ही सम्बन्ध नीरस (दु:खदायक) हो जाते हैं । यह प्राणी उनसे सुख मानता है, सो भ्रम मात्र है ।।९।।
अनुष्टुप वर्पुविद्भि रुजाक्रान्तं जराक्रान्तं च यौवनम् । ऐश्वर्यं च विनाशान्तं मरणान्तं च जीवितम् ।।१०।।
अर्थ –हे आत्मन्! शरीर को तू रोगों से घिरा हुआ समझ और यौवन को बुढ़ापे से घिरा हुआ जान तथा ऐश्वर्य सम्पदाओं को विनाशीक और जीवन को मरणान्त जान। भावार्थ-ये सब पदार्थ प्रतिपक्ष सहित जानने चाहिये ।।१०।।
अनुष्टुप ये दृष्टिपथमायाता: पदार्था: पुण्यमूर्तय: । पूर्वा न च मध्याह्ने ते प्रयान्तीह देहिनाम् ।।११।।
अर्थ –इस संसार में जिनके यहाँ पुण्य के मूर्तिस्वरूप उत्तमोत्तम पदार्थ प्रभात के समय दृष्टिगोचर होते थे वे मध्याह्नकाल में देखने में नहीं आते अर्थात् नष्ट हो जाते हैं । आत्मन्! तू विचारपूर्वक देख ।।११।।
अर्थ –हे मूढ़ प्राणी! इस संसार में तेरे सन्मुख जो कुछ सुख व दु:ख है, उन दोनों को ज्ञानरूपी तुला में (तराजू में) चढ़ा कर तोलेगा तो सुख से दु:ख ही अनन्तगुणा दीख पड़ेगा , क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है ।।१२।।
अर्थ-इस संसार में भोग सर्प के फण के समान हैं क्योंकि इनको सेवन करते हुए देव भी शीघ्र प्राणान्त हो जाते हैं । भावार्थ – देव भी भोगों के भोगने से मरकर एकेन्द्रिय हो जाते हैं अत: मनुष्य तो नरकादिक में अवश्य ही जावेंगे ।।१३।।
अर्थ-हे मूढ़ प्राणी! यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि इस संसार में जो वस्तुओं का समूह है सो पर्यायों से क्षण-क्षण में नाश होने वाला है। इस बात को तू जान कर भी अनजान हो रहा है, यह तेरा क्या आग्रह (हठ) है ? क्या तुझ पर कोई पिशाच चढ़ गया है जिसकी औषधि ही नहीं है ? ।।१४।।
अर्थ –इस लोक में राजाओं के यहाँ जो घड़ी का घण्टा बजता है और शब्द करता है सो सबके क्षणिकपने को प्रकट करता है अर्थात् जगत् को मानो पुकार-पुकार कर कहता है कि हे जगत् के जीवों! जो कुछ अपना कल्याण करना चाहते हो सो शीघ्र ही कर डालो, नहीं तो पछताओगे क्योंकि यह जो घड़ी बीत गयी वह किसी प्रकार भी पुनर्वार लौट कर नहीं आयेगी। इसी प्रकार अगली घड़ी भी यदि व्यर्थ ही खो दोगे तो वह भी गई हुई नहीं लौटेगी ।।१५।।
अर्थ –हे प्राणी! यदि यह शरीर अपूर्व हो अर्थात् पूर्व में कभी तूने नहीं पाया हो अथवा अत्यन्त अविनश्वर हो तब तो इसके अर्थ निंद्यकार्य करना योग्य भी है परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि यह शरीर तूने अनन्त बार धारण किया है और छोड़ा भी है, तो फिर ऐसे शरीर के अर्थ निन्द्य कार्य करना कदापि उचित नहीं है। इस कारण ऐसे कार्य कर जिससे कि तेरा वास्तव में कल्याण हो ।।१६।। आगे फिर भी इसी अर्थ को सूचित करते हुए कहते हैं-
अर्थ – पुत्र, स्त्री, बाँधव, धन, शरीर आदि चले जाते हैं और जो हैं वह भी अवश्य ही चले जायेंगे। फिर इनके कार्यसाधन के लिये यह जीव वृथा ही क्यों खेद करता है ? ।।१७।।
अर्थ –इस संसार में स्त्रियाँ न तो किसी के साथ आई हैं और न ही किसी के साथ जायेंगी तथापि मूढ़जन इनके लिये निन्द्य कार्य करके नरकादि में प्रवेश करते हैं । यह बड़ा अज्ञान है ।।१८।। आगे बन्धुजन कैसे हैं, सो कहते हैं-
अनुष्टुप ये जाता रिपव: पूर्वं जन्मन्यस्मिन्विधेर्वशात् । त एव तव वत्र्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृद: ।।१९।।
अर्थ – हे आत्मन्! जो पूर्व जन्म में तेरे शत्रु थे वे ही इस जन्म में तेरे अति स्नेही होकर बन्धु हो गये हैं अर्थात् तू इनको हितू व मित्र समझता है परन्तु ये तेरे हितू मित्र नहीं हैं अपितु पूर्वजन्म के शत्रु हैं ।।१९।।
अर्थ – और जो पूर्व जन्म में तेरे बांधव थे वे ही इस जन्म में शत्रुता को प्राप्त होकर तथा क्रोधयुक्त लाल नेत्र करके तुझे मारने के लिये उद्यत हुए हैं । यह प्रत्यक्ष में देखा जाता है ।।२०।।
अर्थ – इस संसार में निरन्तर फिरने वाले प्राणीरूपी पथिक स्त्री आदि के बड़े-बड़े रस्सों से अतिशय कसे हुए संसार नामक महान्ध कूप में गिरते हैं । भावार्थ – जैसे अन्धे पुरुष मार्ग में चलते-चलते अन्ध कूप में गिर पड़ते हैं उसी प्रकार ये जीव सूझते हुए भी अन्ध पुरुष के समान संसाररूपी कूप में गिरते हैं ।।२१।।
आगे फिर उपदेश करते हैं-
अनुष्टुप पातयन्ति भवावत्र्ते ये त्वां ते नैव बान्धवा: । बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिन: ।।२२।।
अर्थ –हे आत्मन्! जो तुझे इस संसार के चक्र में डालते हैं वे तेरे बांधव (हितैषी) नहीं हैं किन्तु जो मुनिगण (गुरु महाराज) तेरे हित की वांछा करके बंधुता करते हैं अर्थात् हित का उपदेश करते हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का मार्ग बताते हैं वे ही वास्तव में तेरे सच्चे और परम मित्र हैं ।।२२।।
अर्थ – देखो! इन जीवों का प्रवत्र्तन कैसा आश्चर्यकारक है कि शरीर तो प्रतिदिन छीजता जाता है और आशा नहीं छीजती है; किन्तु बढ़ती जाती है तथा आयुर्बल तो घटता जाता है और पाप कार्यों में बुद्धि बढ़ती जाती है। मोह तो नित्य स्पुरायमान होता है और यह प्राणी अपने हित व कल्याण मार्ग में नहीं लगता है। सो यह कैसा अज्ञान का माहात्म्य है! ।।२३।।
आगे उपदेश करते हैं-
अनुष्टुप यास्यन्ति निर्दया नूनं यद्दत्वा दाहमूर्जितम । हृदि पुंसां कथं ते स्युस्तव प्रीत्यै परिग्रहा: ।।२४।।
अर्थ –हे आत्मन्! ये परिग्रह पुरुषों के हृदय में अतिशय दाह अर्थात् सन्ताप देकर अवश्य ही चले जाते हैं । ऐसे ये परिग्रह तेरी प्रीति करने योग्य कैसे हो सकते हैं ? भावार्थ तू वृथा ही इन धन-धान्यादि परिग्रहों से प्रीति मत कर; क्योंकि ये किसी प्रकार भी नहीं रहेंगे ।।२४।।
आगे अज्ञान के कारण नरकादिक दु:ख सहेगा, ऐसा कहते हैं-
अर्थ –मिथ्याज्ञानजनित रागों के दुर्निवार विस्तार से अन्धे किये हुए जीवों को अवश्य ही नरकादि में बहुत कालपर्यन्त दु:ख सहने पड़ेंगे, जिसका जीवों को चेत ही नहीं है ।।२५।।
आगे जो लोग विषयों में सुख ढूँढते हैं, वे क्या करते हैं, सो कहते हैं-
अर्थ –जो मूढ़धी पञ्चेन्द्रियों के विषयसेवन में सुख ढूँढते हैं वे मानो शीतलता के लिए अग्नि में प्रवेश करते हैं और दीर्घ जीवन के लिये विषपान करते हैं । उन्हें इस विपरीत बुद्धि से सुख के स्थान में दु:ख ही होगा ।।२६।।
अर्थ –हे आत्मन्! जिन कुटुम्बादिक के लिये तूने नरकादिक के दु:ख देने वाले पापकर्म किये वे पापी तुझे अवश्य ही धोखा देकर अपनी-अपनी गति को चले जाते हैं । उनके लिये तूने जो पापकर्म किये थे उनके फल तुझे अकेले ही भोगने पड़ते हैं अथवा भोगने पड़ेंगे ।।२७।।
अर्थ – इस प्राणी को चाहिये कि इस मनुष्य देह से उभय लोक में शुद्धता को देने वाले कार्य का विचार करके अनुष्ठान करे और उससे भिन्न अन्य सब कार्य छोड़ दे। यह सामान्यतया उपदेश है ।।२८।। आगे कहते हैं कि जो जीव उक्त प्रकार से नहीं करते, वे क्या करते हैं-
अनुष्टुप वर्धयन्ति स्वघाताया ते नूनं विषपादपम् । नरत्वेऽपि न कुर्वन्ति ये विवेच्यात्मनो हितम् ।।२९।।
अर्थ – जिसमें समस्त प्रकार के विचार करने की सामथ्र्य है तथा जिसका पाना दुर्लभ है ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी जो अपना हित नहीं करते, वे अपना घात करने के लिये विषवृक्ष को बढ़ाते हैं ।
भावार्थ –पाप कार्य विष के वृक्ष के समान है इस कारण इसका फल भी मारने वाला है ।।२९।।
आगे प्राणी किस कुल में आकर कैसे जन्म लेते हैं, सो दृष्टान्तपूर्वक वर्णन करके दिखाते हैं-
अर्थ –जैसे पक्षी नाना देशों से आकर संध्या के समय वृक्षों पर बसते हैं वैसे ही ये प्राणीजन अन्यान्य जन्मों से आ-आकर कुलरूपी वृक्षों पर बसते हैं अर्थात् जन्म लेते हैं ।।३०।।
अर्थ –जिस प्रकार वे पक्षी प्रभात के समय उस वृक्ष को छोड़कर अपना-अपना रास्ता लेते हैं उसी प्रकार ये प्राणी भी आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी गति में चले जाते हैं ।।३१।। फिर अन्य प्रकार से कहते हैं-
अर्थ – जिस घर में प्रभात के समय आनन्दोत्साह के साथ सुन्दर-सुन्दर मांगलिक गीत गाये जाते हैं, मध्याह्न के समय उसी घर में दु:ख के साथ रोना सुना जाता है ।।३२।।
अर्थ – हे आत्मन्! इस संसार में जिन परमाणुओं से तेरा यह शरीर रचा गया है उन्हीं परमाणुओं ने इस शरीर से पहले तेरे हजारों शरीर खण्ड-खण्ड किये हैं ।
भावार्थ – पुराने परमाणु तो इस शरीर में से खिरते हैं और नये परमाणु स्थानापन्न होते जाते हैं । इस कारण वे ही परमाणु तो शरीर को रचते हैं और वे ही बिगाड़ने वाले हैं । शरीर की यह दशा है ।।३४।।
अनुष्टुप- शरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न येऽणव: । भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्यन्न ते सन्ति तद्गृहे ।।३५।।
अर्थ – हे भाई! तेरे इस संसार में बहुत काल से भ्रमण करते हुए जो परमाणु शरीरता को तथा आहारता को प्राप्त नहीं हुए, ऐसे बचे हुए परमाणु कोई भी नहीं हैं ।
भावार्थ – इस शरीर में ऐसे परमाणु नहीं हैं जो पहले अनन्त परावर्तन में शरीररूप या आहाररूप से ग्रहण करने में नहीं आए हों ।।३५।।
अर्थ – इस जगत में जो सुर (कल्पवासी देव), उरग (भवनवासी देव) और मनुष्यों के इन्द्र अर्थात् चक्रवर्तीपने के ऐश्वर्य (वैभव) हैं, वे सब इन्द्रधनुष के समान हैं अर्थात् देखने में अति सुन्दर दीख पड़ते हैं परन्तु देखते-देखते विलय हो जाते हैं ।।३६।। फिर अन्य प्रकार दृष्टान्त से कहते हैं
अनुष्टुप यान्त्येव न निवत्र्तन्ते सरितां यद्वदूर्मय: । तथा शरीरिणां पूर्वा गता नायान्ति भूतय: ।।३७।।
अर्थ – जिस प्रकार नदी की जो लहरें जाती हैं, वे फिर लौटकर कभी नहीं आती हैं इसी प्रकार जीवों की जो विभूति पहले होती है वह नष्ट होने के पश्चात् फिर लौटकर नहीं आती। यह प्राणी वृथा ही हर्ष-विषाद करता है ।।३७।। आगे फिर इसी अर्थ को सूचित करते हैं–
अर्थ – नदी की लहरें कदाचित् कहीं लौट भी आती हैं परन्तु मनुष्यों का गया हुआ रूप, बल, लावण्य और सौन्दर्य फिर नहीं आता। यह प्राणी वृथा ही उनकी आशा लगाए रहता है ।।३८।।
आगे फिर भी आयु और यौवन की व्यवस्था का दृष्टान्त देते हैं
अर्थ –जीवों का आयुर्बल तो अंजलि के जल के समान क्षण-क्षण में निरन्तर झरता है और यौवन कमलिनी के पत्र पर पड़े हुए जलबिन्दुओं के समान तत्काल ढलक जाता है। यह प्राणी वृथा ही स्थिरता की इच्छा रखता है ।।३९।। आगे मनोज्ञविषयों की व्यवस्था का दृष्टान्त कहते हैं
अर्थ – जीवों के मनोज्ञ विषयों के साथ संयोग स्वप्न के समान हैं, क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं । जिनकी बुद्धि ठगने में उद्धत है, ऐसे ठगों की भाँति ये किचित्काल चमत्कार दिखाकर फिर सर्वस्व हरने वाले हैं ।।४०।। अब अन्य सामग्री की व्यवस्था कैसी है, यह दिखाते हैं-
अनुष्टुप घनमालानुकारीणि कुलानि च बलानि च । राज्यालज्ररवित्तानि र्कीित्ततानि मर्हिषभि: ।।४१।।
अर्थ –मर्हिषयों ने जीवों के कुल-कुटुम्ब, बल, राज्य, अलंकार, धनादिकों को मेघ पटलों के समूह के समान देखते-देखते विलुप्त होने वाले कहा है। यह मूढ़ प्राणी वृथा ही उनमें नित्य की बुद्धि करता है ।।४१।। अब शरीर को नि:सार बताते हैं-
अर्थ – हे दुर्बुद्धि मूर्ख प्राणी! वास्तव में देखा जाए तो झागों के समूह में तथा केले के थंभ में तो कुछ सार प्रतीत होता भी है परन्तु मनुष्यों के शरीर में तो कुछ सार नहीं है।
भावार्थ – यह दुर्बुद्धि प्राणी मनुष्य के शरीर में कुछ सार समझता है, इससे कहा गया है कि इसमें कुछ भी सार नहीं है। मरने के पीछे यह शरीर भस्म कर दिया जाता है तथा अवशेष कुछ भी नहीं रहता। यह प्राणी वृथा ही शरीर को सार जानता है।।४२।। फिर भी कहते हैं-
अनुष्टुप
यातायातानि कुर्वन्ति ग्रहचन्द्रार्कतारका: । ऋतवश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम् ।।४३।।
अर्थ – इस लोक में ग्रह, चन्द्र, सूर्य, तारे तथा छह ऋतु आदि सब ही जाते और आते हैं अर्थात् निरन्तर गमनागमन करते रहते हैं परन्तु जीवों के गये हुए शरीर स्वप्न में भी कभी लौटकर नहीं आते। यह प्राणी वृथा ही इनसे प्रीति करता है ।।४३।।
अर्थ –हे आत्मन्! इस जगत में जो पुद्गल स्कन्ध पहले जिन पुरुषों के मन को प्रिय और सुख के देने वाले उपजे थे वे ही अब दु:ख के देने वाले हो गये हैं, उन्हें देख अर्थात् जगत् में ऐसा कोई भी नहीं है जो शाश्वत् सुखरूप ही रहता हो ।।४४।। अब सामान्यता से कहते हैं-
अर्थ – यह जगत इन्द्रजालवत् है। प्राणियों के नेत्रों को मोहनी अञ्जन के समान भुलाता है और लोग इसमें मोह को प्राप्त होकर अपने को भूल जाते हैं अर्थात् लोग धोखा खाते हैं अत: आचार्य महाराज कहते हैं कि हम नहीं जानते ये लोग किस कारण से भूलते हैं । यह प्रबल मोह का माहात्म्य ही है ।।४५।।
अनुष्टुप ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतरा: । ते ते मुनिभिरुद्दिष्टा: प्रतिक्षणविनश्वरा: ।।४६।।
अर्थ – इस जगत में जो-जो चेतन और अचेतन पदार्थ हैं, उन्हें सब मर्हिषयों ने क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले और विनाशीक कहा है। यह प्राणी इन्हें नित्यरूप मानता है, यह भ्रम मात्र है ।।४६।। अब संक्षेपता से कहकर अनित्य भावना के कथन को संकुचित करते हैं-
मालिनी छंद गगननगरकल्पं सङ्गमं वल्लभानाम्, जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा । सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि, क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ।।४७।।
अर्थ –आचार्य महाराज कहते हैं कि हे प्राणी! वल्लभा अर्थात् प्यारी स्त्रियों का संगम आकाश में देवों से रचे हुए नगर के समान है; अत: तुरन्त विलुप्त हो जाता है और तेरा यौवन व धन जलद पटल के समान है, सो भी क्षण में नष्ट हो जाने वाला है तथा स्वजन, परिवार के लोग, पुत्र, शरीरादिक बिजली के समान चंचल हैं । इस प्रकार इस जगत की अवस्था अनित्य जानकर नित्यता की बुद्धि मत रख ।।४७।। भावार्थ – इस भावना का संक्षेप यह है कि यह लोक षड्द्रव्यमयी है। इसे द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो छहों द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में शाश्वते अर्थात् नित्य विराजते हैं परन्तु इनकी पर्यायें (अवस्थायें) स्वभाव विभावरूप उत्पन्न होती और विनशती रहती हैं अत: ये अनित्य हैं । संसारी जीवों को द्रव्य के वास्तविक स्वरूप का तो ज्ञान होता नहीं अत: वे पर्याय को ही वस्तु स्वरूप मानकर उसमें नित्यता की बुद्धि से ममत्व व रागद्वेषादि करते हैं । इस कारण यह उपदेश है कि ‘‘पर्याय बुद्धि का एकान्त छोड़कर द्रव्यदृष्टि से अपने स्वरूप को कथंचित् नित्य जान और उसका ध्यान करके लय को प्राप्त होकर वीतराग विज्ञानदशा को प्राप्त होइये’’।
दोहा
द्रव्यरूपकरि सर्व थिर, परजै थिर है कौन ?
द्रव्यदृष्टि आपा लखौ, पर्ययनय करि गौन ।।१।।
इति अनित्य भावना।।१।।
अथ अशरणभावना लिख्यतेआगे अशरण भावना का व्याख्यान करते हैं-सो प्रथम ही कहते हैं कि जब जीव का काल (मृत्यु) आता है तो कोई भी शरण नहीं है-
अनुष्टुप न स कोऽप्यस्ति दुर्बुद्धे शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाश: प्रसरिष्यति ।।१।।
अर्थ –हे मूढ़ दुर्बुद्धि प्राणी! तू जो किसी की शरण चाहता है सो इस त्रिभुवन में ऐसा कोई भी शरीरी (जीव) नहीं है कि जिसके गले में काल की फाँसी नहीं पड़ती हो।
भावार्थ – समस्त प्राणी काल के वश में हैं ।।१।। फिर विशेष कहते हैं-
समापतति दुर्वारे यमकण्ठीरवक्रमे । त्रायते तु न हि प्राणी सोद्योगैस्त्रिदशैरपि ।।२।।
अर्थ –जब यह प्राणी दुर्निवार कालरूपी सिंह के पाँव तले आ जाता है तब उद्यमशील देवगण भी इसकी रक्षा नहीं कर सकते हैं; अन्य मनुष्यादिकों की तो क्या सामथ्र्य है कि रक्षा कर सके ।।२।।
अर्थ –यह काल का जाल अथवा फंदा ऐसा है कि क्षण मात्र में जीवों को फाँस लेता है और सुरेन्द्र-असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा नागेन्द्र भी इसका निवारण नहीं कर सकते हैं ।।३।। अब कहते हैं कि यह काल अद्वितीय सुभट है-
अर्थ – यह काल तीन जगत को जीतने वाला अद्वितीय सुभट है क्योंकि इसकी इच्छा मात्र से देवों के इन्द्र भी क्षण भर में गिर पड़ते हैं अर्थात् स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं, फिर अन्यत्र की कथा ही क्या है ? ।।४।। आगे कहते हैं कि जो मृत्युप्राप्त पुरुष का शोक करते हैं वे मूर्ख हैं-
अर्थ – यदि अपना कोई कुटुम्बीजन अपने कर्मवशात् मरण को प्राप्त हो जाता है तो नष्टबुद्धि मूर्खजन उसका शोक करते हैं परन्तु आप स्वयं यमराज की दाढ़ों में आया हुआ है इसकी चिन्ता कुछ भी नहीं करता है! यह बड़ी मूर्खता है ।।५।। फिर कहते हैं कि पूर्वकाल में बड़े-बड़े पुरुष प्रलय को प्राप्त हो गये-
अर्थ – कालरूप सर्प से सेवित संसाररूपी वन में पूर्व काल में अनेक पुराण पुरुष (शलाका पुरुष) प्रलय को प्राप्त हो गये, उनका विचार कर शोक करना वृथा है ।।६।। फिर भी काल की प्रबलता दिखाते हैं-
प्रतीकारशतेनापि त्रिदशैर्न निवार्यते । यत्रायमन्तक: पापी नृकीटैस्तत्र का कथा ।।७।।
अर्थ –जब यह पापस्वरूप यम देवताओं के सैकड़ों उपायों से भी नहीं निवारण किया जाता है, तब मनुष्यरूपी कीड़े की तो बात ही क्या ?
अर्थ – हे मूढ़ प्राणी! आयुनामा कर्म जीवों को गर्भावस्था से ही निरन्तर प्रतिक्षण अपने प्रयाणों से (मंजिलों से) यम मंदिर की तरफ ले जाता है, सो उसे देख! ।।८।।
अर्थ – हे प्राणी! यदि तूने किसी को यमराज की आज्ञा का लोप करने वाला बलवान पुरुष देखा अथवा सुना हो तो तू उसी की सेवा कर अर्थात् उसकी शरण लेकर निश्चिन्त हो रह और यदि ऐसा कोई बलवान देखा या सुना नहीं है तो तेरा खेद करना व्यर्थ है ।।९।।
परस्येव न जानाति विपिंत्त स्वस्य मूढधी: । बने सत्त्वसमाकीर्णे दह्यमाने तरुस्थवत् ।।१०।।
अर्थ – ये मूढ़जन दूसरों की आई हुई आपदाओं के समान अपनी आपदाओं को इस प्रकार नहीं जानते, जैसे असंख्य जीवों से भरा हुआ वन जलता हो और वृक्ष पर बैठा हुआ मनुष्य कहे कि देखो ये सब जीव जल रहे हैं परन्तु यह नहीं जाने कि जब यह वृक्ष जलेगा तब मैं भी इनके समान ही जल जाऊँगा। यह बड़ी मूर्खता है ।।१०।।
यथा बालं तथा वृद्धं यथाढ्यं दुर्विध तथा । यथा शूरं तथा भीरुं साम्येन ग्रसतेऽन्तक: ।।११।।
अर्थ – यह काल जैसे बालक को ग्रसता है, तैसे ही वृद्ध को भी ग्रसता है और जैसे धनाढ्य पुरुष को ग्रसता है उसी प्रकार दरिद्र को भी ग्रसता है तथा जैसे शूरवीर को ग्रसता है उसी प्रकार कायर को भी ग्रसता है एवं इस प्रकार जगत के सब ही जीवों को समान भाव से ग्रसता है किसी में भी इसका हीनाधिक विचार नहीं है, इसी कारण से इसका एक नाम समवत्र्ती भी है ।।११।।
अब कहते हैं कि इस काल को कोई भी नहीं निवार सकता-
गजाश्वरथसैन्यानि मन्त्रौषधबलानि च । व्यर्थीभवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ।।१२।।
अर्थ – जब यह काल जीवों के विरुद्ध होता है अर्थात् जगत के जीवों को ग्रसता है तथा नष्ट करता है तब हाथी, घोड़ा, रथ, सेना, तन्त्र, मन्त्र, औषधि, पराक्रमादि सब ही व्यर्थ हो जाते हैं । भावार्थ – जब मृत्यु (काल) आती है तब इन जीवों को कोई भी नहीं बचा सकता है ।।१२।।
विक्रमैकरसस्तावज्जन: सर्वोऽपि वल्गति । न शृणोत्यदयं यावत्कृतान्तहरिर्गिजतम् ।।१३।।
अर्थ –पराक्रम ही है अद्वितीय रस जिसके, ऐसा यह मनुष्य तब तक ही उद्धत होकर दौड़ता कूदता है जब तक कि कालरूपी िंसह की गर्जना का शब्द नहीं सुनता अर्थात् ‘तेरी मौत आ गई’ ऐसा शब्द सुनते ही सब खेलकूद भूल जाता है।।१३।।
अर्थ – यह काल ऐसा निर्दयी है कि जिन्होंने अपना मनोवांछित कल्याणरूप कार्य नहीं किया है और न अपने प्रारम्भ किये हुये कार्यों को पूर्ण कर पाये, ऐसे लोगों को यह सबसे पहले आकर तत्काल मार डालता है। लोगों के कार्य जैसे के तैसे अधूरे ही धरे रह जाते हैं ।।१४।। फिर भी जीवों के अज्ञानपन को दिखाते हैं-
अर्थ – जिनकी भौंह के कटाक्षों के प्रारम्भ मात्र से ब्रह्मलोक पर्यन्त का यह जगत भयभीत हो जाता है तथा जिनके चरणों के गुरुभार के कारण पृथ्वी के दबने मात्र से पर्वत तत्काल खण्ड-खण्ड हो जाते हैं, ऐसे-ऐसे सुभटों को भी, जिनकी कि अब कहानी मात्र ही सुनने में आती है, इस काल ने खा लिया है। फिर यह हीनबुद्धि जीव अपने जीने की बड़ी भारी आशा रखता है, यह कैसी बड़ी भूल है ।।१५।।
अर्थ –रुद्र, दिग्गज देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, ग्रह, व्यन्तर, दिक्पाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्ती तथा पवन देव, सूर्यादि बलिष्ठ देहधारी सब एकत्र होकर भी काल के िंककरस्वरूप काल की कला से आरम्भ किये अर्थात् पकड़े हुए प्राणी को क्षणमात्र भी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । भावार्थ-कोई ऐसा समझता होगा कि मृत्यु से बचाने वाला कोई तो इस जगत में अवश्य होगा परन्तु ऐसा समझना सर्वथा मिथ्या है क्योंकि काल से-मृत्यु से रक्षा करने वाला न तो कोई हुआ है और न ही कभी कोई होगा ।।१६।। फिर भी उपदेश करते हैं-
आरब्धा मृगबालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा पुंसां जीवकला निरेति पवनव्याजेन भीता सती । त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमां न त्वं निर्घृण लज्जसेऽत्र जनने भोगेषु रन्तुं सदा ।।१७।।
अर्थ – हे मूढ़ प्राणी! जिस प्रकार वन में मृग की बालिका को िंसह पकड़ने का आरम्भ करता है और वह भयभीत होकर भागती है, उसी प्रकार जीवों के जीवन की कला कालरूपी िंसह से भयभीत होकर उच्छ्वास के बहाने से बाहर निकलती है अर्थात् भागती है और जिस प्रकार वह मृग की बालिका िंसह के पाँवों तले आ जाती है उसी प्रकार जीवों के जीवन की कला के अनुक्रम से अन्त को प्राप्त हो जाती है अतएव तू इस निर्बल की रक्षा करने में समर्थ नहीं है और हे निर्दयी! तू इस जगत में भोगों में रमने को उद्यमी होकर प्रवृत्ति करता है और लज्जित नहीं होता, यह तेरा निर्दयीपन है क्योंकि सत्पुरुषों की ऐसी प्रवृत्ति होती है कि यदि कोई समर्थ किसी असमर्थ प्राणी को दबावे तो अपने समस्त कार्य को छोड़कर उसकी रक्षा करने का विचार करते हैं और तू काल से हनते हुए प्राणियों को देखकर भी भोगों में रमता है और सुकृत करके अपने को नहीं बचाता है, यह तेरी बड़ी निर्दयता है ।।१७।।
अर्थ – यह काल बड़ा बलवान और व्रूâरकर्मा अर्थात् दुष्ट है। जीवों को पाताल में, ब्रह्मलोक में, इन्द्र के भवन में, समुद्र के तट, वन के पार, दिशाओं के अन्त में, पर्वत के शिखर पर, अग्नि में, जल में, हिमालय में, अंधकार में, वङ्कामयी स्थान में, तलवारों के पहरे में, गढ़ कोट भूमि घर में तथा मदोन्मत्त हस्तियों के समूह इत्यादि किसी भी विकट स्थान में यत्नपूर्वक बिठाओ तो भी यह काल बलात्कारपूर्वक जीवोें के जीवन को ग्रसीभूत कर लेता है। इस काल के आगे किसी का भी वश नहीं चलता ।।१८।।
अब अशरण भावना का वर्णन पूरा करने के लिये कथन को संकोचते हैं-
अर्थ – हे आर्य सत्पुरुष! अन्तसमयरूपी दाढ़ से चिह्नित कालरूप सर्प के मुखरूपी विवर में कामरूपी विष की गहलता से र्मूिछत भुवनत्रय के प्राणी गाढ़ निद्रा में सो रहे हैं, उनमें से प्रत्येक को यह निर्दयबुद्धि काल निगलता जाता है परन्तु प्रत्यक्षज्ञान की प्राप्ति के बिना इस काल के पंजे से निकलने का कोई भी उपाय नहीं है अर्थात् अपने ज्ञान व स्वरूप का शरण लेने से ही इस काल से रक्षा हो सकती है। इस प्रकार अशरण भावना का वर्णन किया है ।।१९।। इस भावना का संक्षेप यह है कि निश्चय से तो समस्त द्रव्य अपनी-अपनी शक्ति के भोगने वाले हैं तथा कोई किसी का कत्र्ता-हत्र्ता नहीं है किन्तु व्यवहार दृष्टि से निमित्त नैमित्तिक भाव देखकर यह जीव अन्य किसी के शरण की कल्पना करता है, यह मोहकर्म के उदय का माहात्म्य है। इस कारण यदि निश्चय दृष्टि से विचारा जाय तो अपने आत्मा का ही शरण है और व्यवहार दृष्टि से विचार किया जाय तो परम्परा सुख के कारण वीतरागता को प्राप्त हुए पंचपरमेष्ठी का ही शरण है क्योंकि ये वीतरागता एकमात्र कारण है अतएव अन्य सबका शरण छोड़कर उक्त दो ही शरण को विचारना चाहिये।
सोरठा
जग में शरणा दोय, शुद्धातम अरु पंचगुरु । आन कल्पना होय, मोह उदय जियवै वृथा ।।२।। इति अशरणभावना।।२।।
अथ संसारभावना लिख्यते आगे संसार भावना का व्याख्यान करते हैं-
अर्थ – चार गतिरूप महा आवत्र्त (भौंरे) वाले तथा दु:खरूप वडवानल से प्रज्ज्वलित इस संसाररूपी समुद्र में जगत के दीन अनाथ प्राणी निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ।।१।।
अर्थ – आचार्य महाराज आश्चर्य करते हैं कि देखो! यह संसार जीवों के समूह को समयान्तर में ऊँची-नीची पर्यायों से जोड़कर विडम्बनारूप करता है और जीव के स्वरूप को अनेक प्रकार से बिगाड़ता है ।।६।।
अर्थ – अहो! देखो! स्वर्ग का देव तो रोता पुकारता स्वर्ग से नीचे गिरता है और कुत्ता स्वर्ग में जाकर देव होता है एवं श्रोत्रिय अर्थात् क्रियाकाण्ड का अधिकारी अस्पृष्ट रहने वाला ब्राह्मण मर कर कुत्ता, कृमि अथवा चाण्डाल आदि हो जाता है। इस प्रकार इस संसार की विडम्बना है ।।७।।
अर्थ – यह यंत्रवाहक (प्राणी) संसार में अनेक रूपों को ग्रहण करता है और अनेक रूपों को छोड़ता है। जिस प्रकार नृत्य के रंगमंच पर नृत्य करने वाला भिन्न-भिन्न स्वांगों को धरता है उसी प्रकार यह जीव निरन्तर भिन्न-भिन्न स्वांग (शरीर) धारण करता रहता है ।।८।।
अर्थ – इस संसाररूपी दुर्गम वन में संसारी जीव मिथ्यात्वरूपी रोग से शंकित अतिशय तीव्र असातावेदनीय से दु:खित होते हुए पाँच प्रकार के परिवर्तनों में भ्रमण करते रहते हैं ।।९।। उन पाँच प्रकार के परिवर्तनों के नाम कहते हैं-
द्रव्यक्षेत्रे तथा कालभवभावविकल्पत: । संसारो दु:खसंकीर्ण: पञ्चधेति प्रपञ्चित: ।।१०।।
अर्थ – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव तथा भाव के भेद से संसार पाँच प्रकार के विस्ताररूप दु:खों से व्याप्त कहा गया है। इन पाँच प्रकार के परिवर्तनों का स्वरूप विस्तारपूर्वक अन्य ग्रन्थों से जानना ।।१०।।
अर्थ – इस संसार में अनादिकाल से त्रस-स्थावर योनियों में फिरते हुए जीवों ने समस्त जीवों के साथ पिता, पुत्र, भ्राता, माता, पुत्री, स्त्री आदिक सम्बन्ध अनेक बार पाये हैं । ऐसा कोई भी जीव या सम्बन्ध बाकी नहीं रहा, जो इस जीव ने न पाया हो ।।११।।
देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेऽपि च । न सा योनिर्न तद्रूपं न तद्देशो२ न तत्कुलम् ।।१२।। न तद्दु:खं सुखं किञ्चिन्न पर्याय: स विद्यते । यत्रैते प्राणिन: शश्वद्यातायातैर्न खण्डिता: ।।१३।।
अर्थ –इस संसार में चतुर्गति में फिरते हुए जीव के वह योनि वा रूप, देश, काल तथा वह सुख, दु:ख वा पर्याय नहीं है, जो निरन्तर गमनागमन करने से प्राप्त न हुई हो। भावार्थ – सर्व ही अवस्थाएँ अनेक बार भोगनी पड़ती हैं तथा बिना भोगे कुछ भी नहीं है ।।१२-१३।।
न के बन्धुत्वमायाता: न के जातास्तव द्विष: । दुरन्तागाधसंसारपज्र्मग्नस्य निर्दयम् ।।१४।।
अर्थ –हे प्राणी! इस दुरन्त अगाध संसाररूपी कर्दम (कीच) में पँâसे हुए तेरे ऐसे कौन से जीव हैं जो मित्र वा निर्दयता से शत्रु नहीं हुए ? अर्थात् सब जीव तेरे शत्रु व बन्धु हो गये हैं ।।१४।। भूप: कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायक: । शरीरी परिवर्ततेत कर्मणा वञ्चितो बलात् ।।१५।।
अर्थ-इस संसार में यह प्राणी कर्मों से बलात् वंचित हो राजा से तो मरकर कृमि (लट) हो जाता है और कृमि से मरकर क्रम से देवों का इन्द्र हो जाता है। इस प्रकार परस्पर ऊँची गति से नीची गति और नीची गति से उँची गति पलटती ही रहती है ।।१५।।
माता पुत्री स्वसा भार्या सैव संपद्यतेऽङ्गजा । पिता पुत्र: पुन: सोऽपि लभते पौत्रिकं पदम् ।।१६।।
अर्थ – इस संसार में प्राणी की माता तो मरकर पुत्री हो जाती है और बहन मर कर स्त्री हो जाती है और फिर वही स्त्री मरकर आपकी पुत्री भी हो जाती है। इसी प्रकार पिता मर कर पुत्र हो जाता है तथा फिर वही मरकर पुत्र का पुत्र हो जाता है। इस प्रकार परिवर्तन होता ही रहता है ।।१६।।
अब संसार भावना का वर्णन पूरा करते हैं और उसे सामान्यता से कहते हैं-
अर्थ – इस र्दुिनवार दुर्गतिमय संसार में जीव निरन्तर भ्रमण करते हैं । नरकों में तो ये शूली, कुल्हाड़ी, घाणी, अग्नि, क्षार, जल, छुरा, कटारी आदि से पीड़ा को प्राप्त हुए नाना प्रकार के दु:खों को भोगते हैं और तिर्यंचगति में अग्नि की शिखा के भार से भस्मरूप खेद और दु:ख को पाते हैं तथा मनुष्यगति में भी अतुल्य खेद के वशीभूत होकर नाना प्रकार के दु:ख भोगते हैं । इसी प्रकार देवगति में रागभाव से उद्धत होकर दु:ख सहते हैं अर्थात् चारों ही गति में दु:ख ही पाते हैं, इन्हें सुख कहीं भी नहीं है। इस प्रकार संसार भावना का वर्णन किया है ।।१७।। इसका संक्षेप यह है कि संसार का कारण अज्ञानभाव है। अज्ञान भाव से परद्रव्यों में मोह तथा रागद्वेष की प्रवृत्ति होती है। रागद्वेष की प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध का फल चारों गति में भ्रमण करना है, सो कार्य है। यहाँ कार्य और कारण दोनों को ही संसार कहते हैं । यहाँ कार्य का वर्णन विशेषता से किया गया है क्योंकि व्यवहारी जीव को कार्यरूप संसार का अनुभव विशेषता से है। परमार्थ से अज्ञान भाव ही संसार है।
दोहा
परद्रव्यनतें प्रीति जो, है संसार अबोध । ताको फल गति चार में, भ्रमण कह्यो श्रुतशोध ।।३।। इति संसारभावना।।३।।
अथ एकत्वभावना लिख्यते आगे एकत्व भावना का व्याख्यान करते हैं-सो प्रथम ही यह कहते हैं कि यह आत्मा समस्त अवस्थाओं में एक ही होता है-
अर्थ –महाआपदाओं से भरे हुए दु:खरूपी अग्नि से प्रज्वलित और गहन ऐसे संसाररूपी मरुस्थल में (जल-वृक्षादि हीन रेतीली भूमि में) यह जीव अकेला ही भ्रमण करता है। कोई भी इसका साथी नहीं है ।।१।।
स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोत्तुं शुभाशुभम् । शरीरान्तरमादत्ते एक: सर्वत्र सर्वथा ।।२।।
अर्थ – इस संसार में यह आत्मा अकेला ही तो अपने पूर्व कर्मों के सुख-दु:ख रूप फल को भोगता है और सर्व प्रकार से अकेला ही समस्त गतियों में एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता है ।।२।।
अर्थ –तथा यह आत्मा अकेला ही स्वर्ग की शोभा से रंजायमान होकर देवोपनीत संकल्प मात्र करते ही उत्पन्न होने वाले स्वर्गसुखरूपी अमृत का पान करता है अर्थात् स्वर्ग के सुख भी अकेला ही भोगता है। कोई भी इसका साथी नहीं होता है ।।३।।
संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथवा । सुखदु:खविधौ वास्य न सखान्योऽस्ति देहिन: ।।४।।
अर्थ – इस प्राणी के संयोग-वियोग में अथवा जन्म-मरण में तथा दु:ख-सुख भोगने में कोई भी मित्र साथी नहीं है, अकेला ही भोगता है ।।४।।
अर्थ –तथा यह जीव पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के निमित्त जो कुछ भी बुरे-भले कार्य करता है उनका फल भी नरकादिक गतियों में स्वयं अकेला ही भोगता है। वहाँ भी कोई पुत्र-मित्रादि कर्मफल भोगने को साथी नहीं होते हैं ।।५।।
अर्थ – यह प्राणी बुरे-भले कार्य करके जो भी धनोपार्जन करता है, उस धन के भोगने को तो पुत्र-मित्रादि अनेक साथी हो जाते हैं परन्तु अपने कर्मों से उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दु:खों के समूह को सहने के अर्थ कोई भी साथी नहीं होता है! यह जीव अकेला ही सब दु:खों को भोगता है ।।६।।
एकत्वं कीं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रर्हािदता: । यज्जन्ममृत्युसम्पाते प्रत्यक्षमनुभूयते ।।७।।
अर्थ –आचार्य महाराज कहते हैं कि ये मूर्ख प्राणी संसाररूपी पिशाच से पीड़ित होते हुए भी अपनी एकता को क्यों नहीं देखते, जिसे जन्म मरण के प्राप्त होने पर सब ही जीव प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं । भावार्थ – आप अपनी आँखों से देखता है कि यह जन्मा और यह मरा। जो जन्म लेता है वह मरता है, दूसरा कोई भी उसका साथी नहीं है। इस प्रकार एकाकीपन देखकर भी अपने एकाकीपन को नहीं देखता है, यह बड़ी भूल है ।।७।।
अज्ञातस्वस्वरूपोऽयं लुप्तबोधादिलोचन: । भ्रमत्यविरतं जीव एकाकी विधिवञ्चित: ।।८।।
अर्थ – यह जीव अपने अकेलेपन को नहीं देखता है इसका कारण यह है कि, ज्ञानादि नेत्रों के लुप्त होने से यह अपने स्वरूप को भले प्रकार नहीं जानता है और इसी कारण से कर्मों से ठगाया हुआ यह जीव एकाकी ही इस संसार में भ्रमण करता है।
अर्थ – यह मूढ़ प्राणी जिस समय मोह के उदय से चेतन तथा अचेतन पदार्थों से अपनी एकता मानता है तब यह जीव अपने आपको अपने ही भावों से बाँधता है अर्थात् कर्मबन्ध करता है और जब यह अन्य पदार्थों से अपनी एकता नहीं मानता है तब कर्मबन्ध नहीं करता है और कर्मों की निर्जरापूर्वक परम्परा मोक्षगामी होता है। एकत्वभावना का यही फल है ।।९।।
अर्थ – जिस समय यह जीव भ्रमरहित हो ऐसा चितवन करे कि मैं एकता को प्राप्त हो गया हूँ उसी समय इस जीव का संसार का सम्बन्ध स्वयं ही नष्ट हो जाता है क्योंकि संसार का सम्बन्ध तो मोह से है और यदि मोह जाता रहे तो आप एक हैं फिर मोक्ष क्यों न पावें ? ।।१०।। अब एकत्व भावना का व्याख्यान पूरा करते हैं, सो सामान्यता से कहते हैं-
अर्थ –यह आत्मा आप एक ही देवांगना के मुखरूपी कमल की सुगन्धी लेने वाले भ्रमर के समान स्वर्ग का देव होता है और अकेला आप ही कृपाण, छुरी, तलवारों से छिन्न-भिन्न किया हुआ नरक सम्बन्धी रुधिर को पीता है तथा अकेला आप क्रोधादि कषायरूपी अग्नि सहित होकर कर्मों को बाँधता है और अकेला ही आप विद्वान् ज्ञानी पण्डित होकर समस्त कर्मरूप आवरण के अभाव होने पर ज्ञानरूप राज्य को भोगता है। भावार्थ-आत्मा आप अकेला ही स्वर्ग में जाता है, आप अकेला ही नरक में जाता है, आप ही कर्म बाँधता है और आप ही केवलज्ञान पाकर मोक्ष को जाता है ।।११।। इस भावना का संक्षेप आशय इतना ही है कि परमार्थ से (निश्चय से) तो आत्मा अनन्तज्ञानादिस्वरूप आप एक ही है परन्तु संसार में जो अनेक अवस्थायें होती हैं वे कर्म के निमित्त से होती हैं । उनमें भी आप अकेला ही है, इसका दूसरा कोई भी साथी नहीं है इस प्रकार एकत्व भावना का व्याख्यान किया है।
दोहा
परमारथतें आत्मा, एक रूप ही जोय । कर्मनिमित्त विकल्प घनें, तिनि नाशें शिव होय ।।४।। इति एकत्व भावना।।४।।
अथ अन्यत्वभावना लिख्यतेआगे अन्यत्व भावना का व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही परमार्थत: आत्मा को शरीरादिक से भिन्न दिखाते हैं-
अर्थ – यह आत्मा यदि कर्मबन्ध की दृष्टि से देखा जाए तो बंधरूप वा एकरूप है और स्वभाव की दृष्टि से देखा जाए तो शरीरादिक से विलक्षण चिदानन्दमय परद्रव्य से भिन्न है, शुद्ध है ।।१।।
अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं बन्धं प्रति न वस्तुत: । अनादिश्चानयो: श्लेष: स्वर्णकालिकयोरिव ।।२।।
अर्थ –चेतन और अचेतन के बन्धदृष्टि की अपेक्षा एकपना है और वस्तुत: देखने से दोनों भिन्न-भिन्न वस्तु हैं, एकपना नहीं है। इन दोनों का अनादिकाल से एकक्षेत्रावगाहरूप संश्लेष है-मिलाप है। जैसे सुवर्ण और कालिमा के खानि में एकपना है उसी प्रकार जीव-पुद्गलों के एकता है परन्तु वास्तव में भिन्न-भिन्न वस्तु हैं ।।२।।
अर्थ –इस जगत में मोह के कारण अर्मूितक और चलने वाले जीव को यह र्मूितक अतिनिश्चल चेतनारहित जड़ शरीर अपने साथ-साथ लगाये रहना पड़ता है। भावार्थ-जीव अर्मूितक चेतन है और मोह के कारण चलने के स्वभाव से सहित है और शरीर र्मूितक है, अचेतन है, चलने की इच्छारहित है और चल नहीं है। यह जीव उसको जीता पुरुष जैसे मुरदे को लिये फिरे, उसी प्रकार लिये फिरता है ।।३।।
अर्थ – जीवों का यह शरीर पुद्गल परमाणुओं के समूह से बना है और शरीरी अर्थात् आत्मा उपयोगमयी है और अतीन्द्रिय है। यह इन्द्रियगोचर नहीं है तथा इसका ज्ञान ही शरीर है। शरीर और आत्मा में इस प्रकार अत्यन्त भेद है ।।४।।
अन्यत्वं कि न पश्यन्ति जडा जन्मग्रर्हािदता: । यज्जन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते ।।५।।
अर्थ – यद्यपि उक्त प्रकार से शरीर और आत्मा के अन्यपना है तथापि संसाररूपी पिशाच से पीड़ित मूढ़ प्राणी क्यों नहीं देखते कि यह अन्यपना जन्म तथा मरण के सम्पात में सर्वलोक की प्रतीति में आता है ? अर्थात् जन्मा तब शरीर को साथ लाया नहीं, और मरता है तब यह शरीर साथ जाता नहीं है। इस प्रकार शरीर से जीव की पृथकता प्रतीत होती है ।।५।।
अर्थ – र्मूितक चेतनारहित नाना प्रकार के स्वतन्त्र पुद्गल परमाणुओं से जो शरीर रचा गया है उससे और आत्मा से क्या सम्बन्ध है ? विचारो! इसका विचार करने से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा प्रतिभास होगा ।।६।। इस प्रकार शरीर से भिन्नता बताई, अब अन्यान्य पदार्थों से भिन्नता दिखाते हैं-
अर्थ – जब उपर्युक्त प्रकार से देह से ही प्राणी के अत्यन्त भिन्नता है तब बहिरंग जो कुटुम्बादिक हैं उनसे एकता कैसे हो सकती है ? क्योंकि ये तो प्रत्यक्ष में भिन्न दीख पड़ते हैं ।।७।।
ये ये सम्बन्धमायाता: पदार्थाश्चेतनेतरा: । ते ते सर्वेऽपि सर्वत्र स्वस्वरूपाद्विलक्षणा: ।।८।।
अर्थ – इस जगत में जो-जो जड़ और चेतन पदार्थ इस प्राणी के सम्बन्धरूप हुए हैं, वे सब ही सर्वत्र अपने-अपने स्वरूप से विलक्षण (भिन्न-भिन्न) हैं, आत्मा सबसे अन्य है ।।८।।
पुत्रमित्रकलत्राणि वस्तूनि च धनानि च । सर्वथाऽन्यस्वभावानि भावय त्वं प्रतिक्षणम् ।।९।।
अर्थ –हे आत्मन्! इस जगत में पुत्र, मित्र, स्त्री आदि अन्य वस्तुओं की तू निरन्तर सर्व प्रकार से अन्य स्वभाव भावना कर, इनमें एकपने की भावना कदापि न कर, ऐसा उपदेश है ।।९।।
अर्थ –इस जगत में कोई अन्य जीव ही तो पुत्र होता है और अन्य ही पिता होता है और किसी अन्य जीव के साथ ही स्त्री सम्बन्ध होता है। इस प्रकार सब ही सम्बन्ध भिन्न-भिन्न जीवों से होते हैं ।।१०।।
अर्थ – हे मूढ़ प्राणी! तीन लोकवर्ती समस्त ही पदार्थ तेरे स्वरूप से भिन्न सर्वथा पृथक्-पृथक् तिष्ठते हैं, तू उनसे अपना एकत्व न मान।।११।। अब अन्यत्व भावना के कथन को पूरा करते हैं-
अर्थ –हे आत्मन्! तू इस संसाररूपी गहन वन में मिथ्यात्व के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए सर्वथा एकान्तरूप दुर्नय के मार्ग में भ्रमरूप होता हुआ, बाह्य पदार्थों को अतिशय करके, अपने मान करके तथा अंगीकार करके, चिरकाल से सदैव खेदखिन्न हुआ और अब अस्त हुआ है समस्त विभ्रमों का भार जिसका ऐसा होकर, तू अपने आप ही में रहने वाले उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप को अवगाहन करके उसमें मुक्तिरूपी स्त्री के मुख को अवलोकन कर (देख)। भावार्थ – यह आत्मा अनादिकाल से परपदार्थों को अपने मानकर उनमें रमता है इसी कारण से संसार में भ्रमण किया करता है। आचार्य महाराज ने ऐसे ही जीव को उपदेश किया है कि तू परभावों से भिन्न अपने चैतन्यभाव में लीन होकर मुक्ति को प्राप्त हो। इस प्रकार यह अन्यत्वभावना का उपदेश है ।।१२।। इसका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि इस लोक में समस्त द्रव्य अपनी-अपनी सत्ता को लिये भिन्न-भिन्न हैं । कोई भी किसी में नहीं मिलता है और परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव से कुछ कार्य होता है, उसके भ्रम से यह प्राणी पर में अहंकार ममकार करता है, सो जब यह अपना स्वरूप जाने तब अहंकार ममकार अपने में ही हो और तब पर का उपद्रव आपके नहीं आवे, यह अन्यत्व भावना है।
दोहा
अपने-अपने सत्त्ववूं, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तब, परतैं ममत न धाय ।।२।। इति अन्यत्व भावना।।५।।
अथ अशुचि भावना लिख्यतेआगे अशुचि भावना का व्याख्यान करते हैं । प्रथम शरीर की अशुचि दिखाते हैं-
अर्थ – इस संसार में जीवों का जो शरीर है, वह प्रथम तो स्वभाव से ही मलिन रूप (मैला झरने वाला) है,निंद्य है तथा अनेक धातु-उपधातुओं से भरा हुआ है एवं शुक्र रुधिर के बीज से उत्पन्न हुआ है, इस कारण ग्लानि का स्थान है ।।१।।
अर्थ – यह शरीर रुधिर, माँस, चर्बी से घिरा हुआ सड़ रहा है, हाड़ों का पंजर है और शिराओं से (नसों से) बंधा हुआ दुर्गन्धमय है। आचार्य महाराज कहते हैं कि इस शरीर के कौन से स्थान की प्रशंसा करें ? सर्वत्र निंद्य ही दीख पड़ता है ।।२।।
अर्थ –यह मनुष्य का शरीर नव द्वारों से निरन्तर दुर्गन्धरूप पदार्थों से झरता रहता है तथा क्षणध्वंसी पराधीन है और नित्य अन्न पानी की सहायता चाहता है ।।३।।
अर्थ – यह शरीर लट कीड़ों के सैकड़ों समूहों से भरा हुआ रोगों के समूह से पीड़ित तथा वृद्धावस्था से जर्जरित है। ऐसे शरीर में महन्त पुरुषों की रति (प्रीति) केसे हो ? कदापि नहीं हो ।।४।।
अर्थ –इस शरीर में जो-जो पदार्थ हैं, सुबुद्धि से विचार करने पर वे सब घृणा के स्थान तथा दुर्गन्धमय विष्टा के घर ही प्रतीत होते हैं । इस शरीर में कोई भी पदार्थ पवित्र नहीं है ।।५।।
अर्थ –यदि इस शरीर को दैवात् समुद्र के जल से भी शुद्ध किया जाय तो उसी क्षण समुद्र के जल को भी यह अशुद्ध (मैला) कर देता है। अन्य वस्तु को अपवित्र कर दे, तो आश्चर्य ही क्या ? ।।६।।
कलेवरमिदं न स्याद्यदि चर्मावगुण्ठितम् । मक्षिकाकृमिकाकेभ्य: स्यात्त्रातुं कस्तदा प्रभु: ।।७।।
अर्थ – यदि यह शरीर बाहर के चमड़े से ढका हुआ नहीं होता तो मक्खी, कृमि तथा कौओं से इसकी रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं होता। ऐसे घृणास्पद शरीर को देखकर सत्पुरुष जब दूर से छोड़ देते हैं, तब इसकी रक्षा कौन करे ? ।।७।।
अर्थ – इन जीवों का देहरूपी पिनजरा सदा ही रोगों से व्याप्त, सर्वदा अशुद्धताओं का घर और सदा ही पतन होने के स्वभाव वाला है। ऐसा कभी मत समझो कि किसी काल में यह उत्तम और पवित्र होता होगा ।।८।।
अर्थ – इस शरीर के प्राप्त होने का फल उन्हीं ने लिया जिन्होंने संसार से विरक्त होकर इसे अपने आत्मकल्याण के मार्ग में लगाकर पुण्य कर्मों से क्षीण किया ।।९।।
अर्थ –हे आत्मन्! इस संसार में तूने इस शरीर को ग्रहण करके दु:ख पाये व सहे हैं इसी से तू निश्चय कर जान कि यह शरीर ही समस्त अनर्थों का घर है, इसके संसर्ग से सुख का लेश भी न मान ।।१०।।
अर्थ – इस जगत में संसार से (जन्म मरण से) उत्पन्न जो-जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं वे सब केवल इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं । इस शरीर से निवृत्त (मुक्त) होने पर फिर कोई भी दु:ख नहीं है ।।११।।
अर्थ –कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरिचंदनादि सुन्दर-सुन्दर पदार्थों को भी यह मनुष्यों का शरीर संसर्ग मात्र से ही अर्थात् लगाते ही अशुद्ध (मैले) कर देता है। भावार्थ-आप तो मैला ही है और संसर्ग से उत्तमोत्तम पदार्थों को भी मलिन कर देता है, यह अधिकता है ।।१२।। अब अशुचि भावना के कथनों को पूरा करते हैं-
अर्थ –हे मूढ़ प्राणी! इस संसार में मनुष्यों का यह शरीर चर्म के पटलों से (परदों से) ढका हुआ हाड़ों का पिंजरा है तथा बिगड़ी हुई राध की (पीब की) दुर्गन्ध से परिपूर्ण है एवं काल के मुख में बैठे हुए रोगरूपी सर्पों का घर है। ऐसा शरीर प्रीति करने के योग्य वैâसे हो सकता है ? यह बड़ा ही आश्चर्य है ।।१३।। इस अशुचिभावना के व्याख्यान का संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि आत्मा तो निर्मल है, अमुर्तिक है और उसके मल लगता ही नहीं है; परन्तु कर्मों के निमित्त से जो इस शरीर का सम्बन्ध है उसे यह अज्ञान से (मोह से) अपना मानकर भला जानता है और मनुष्यों का यह शरीर सर्वथा अपवित्रता का घर है। इस कारण इसमें जब अशुचि भावना भावे तब इससे विरक्तता होकर अपने निर्मल आत्मस्वरूप में रमने की रुचि हो। इस प्रकार अशुचिभावना का आशय है।
अथ आस्रवभावना लिख्यतेआगे आस्रवभावना का व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही आस्रव का स्वरूप कहते हैं-
मनस्तनुवच:कर्म योग इत्यभिधीयते । स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदै: ।।१।।
अर्थ –मन-वचन-काय की क्रिया को योग कहते हैं और इस योग को ही तत्वविशारदों ने (ऋषियों ने) आस्रव कहा है। यह स्वरूप तत्वार्थसूत्र में कहा है। यथा-‘‘कायवाङ्मन: कर्मयोग: ।।१।। स आस्रव:’’।।२।।
अर्थ –जैसे समुद्र में प्राप्त हुआ जहाज छिद्रों से जल को ग्रहण करता है, उस ही प्रकार जीव शुभाशुभ योगरूप छिद्रों से (मन-वचन-काय से) शुभाशुभ कर्मों को ग्रहण करता है ।।२।।
अर्थ –यम (अणुव्रत-महाव्रत), प्रशम (कषायों की मंदता), निर्वेद (संसार से विरागता अथवा धर्मानुराग) तथा तत्त्वों का चिन्तवन इत्यादि का अवलंबन हो एवं मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चारों भावों की जिस मन में भावना हो, वही मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है ।।३।।
अर्थ –अपवाद (निन्दा) का स्थान, असन्मार्ग का उपदेशक, असत्य, कठोर, कानों से सुनते ही जो दूसरे के कषाय उत्पन्न कर दे और जिससे पर का बुरा हो जाए, ऐसे वचन अशुभास्रव के कारण होते हैं ।।६।।
अर्थ –भले प्रकार गुप्त रूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्म को संचय (आस्रवरूप) करते हैं ।।७।।
अर्थ –निरन्तर आरम्भ करने वाले और जीव घात के कार्यों से तथा व्यापारों से जीवों का शरीर (काययोग) पापकर्मों को संग्रह करता है अर्थात् काययोग से अशुभास्रव करता है ।।८।। अब आस्रवभावना का व्याख्यान पूर्ण करते हैं-
शिखरणी
कषाया: क्रोधाद्या: स्मरसहचरा: पञ्चविषया:
प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च । दुरन्ते दुध्र्याने विरतिविरहश्चेति नियतं स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ।।९।।
अर्थ – प्रथम तो मिथ्यात्वरूप परिणाम, दूसरे क्रोधादि कषाय, तीसरे काम के सहचारी (मित्र) पंचेन्द्रियों के विषय, चौथे प्रमाद विकथा, पाँचवें मन-वचन-काय के योग, छठे व्रतरहित अविरतिरूप परिणाम और सातवें आत्र्त-रौद्र दोनों अशुभ ध्यान ये सब परिणाम नियम से पापरूप आस्रवों को करते हैं । इन परिणामों का विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं से जानना चाहिये। इस प्रकार आस्रवभावना का व्याख्यान पूर्ण किया ।।९।। इसका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि यद्यपि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से तो आस्रव से रहित केवलज्ञानरूप है तथापि अनादिकर्म के सम्बन्ध से मिथ्यात्वादि परिणामरूप परिणमता है अतएव नवीन कर्मों का आस्रव करता है। जब उन मिथ्यात्वादि परिणामों से निवृत्ति पाकर अपने स्वरूप का ध्यान करे तब कर्मास्रवों से रहित हो और मुक्त हो। यह आस्रवभावना का आशय है।
अथ संवरभावना लिख्यते आगे संवरभावना का व्याख्यान करते हैं । पहले संवर का स्वरूप कहते हैं-
सर्वास्रवनिरोधो य: संवर: स प्रर्कीितत: । द्रव्यभावविभेदेन स द्विधा भिद्यते पुन: ।।१।।
अर्थ – समस्त आस्रवों के निरोध को संवर कहा है। वह द्रव्यसंवर तथा भावसंवर के भेद से दो प्रकार का है ।।१।। आगे दोनों भेदों का स्वरूप कहते हैं-
य: कर्मपुद्गलादानविच्छेद: स्यात्तपस्विन: । स द्रव्यसंवर: प्रोक्तो ध्याननिर्धूतकल्मषै: ।।२।।
अर्थ – ध्यान से पापों को उड़ाने वाले ऋषियों ने कहा है कि जो तपस्वी मुनियों के कर्मरूप पुद्गलों के ग्रहण करने का विच्छेद (निरोध) हो, वह द्रव्यसंवर है ।।२।।
या संसारनिमित्तस्य क्रियाया विरति: स्फुटम् । स भावसंवरस्तज्ज्र्ञैिवज्ञेय: परमागमात् ।।३।।
अर्थ –संसार के कारणस्वरूप कर्म ग्रहण की क्रिया की विरति अर्थात् अभाव को भावसंवर कहते हैं, यह निश्चित है ऐसा उक्त भावसंवर के ज्ञाताओं को परमागम से जानना चाहिये ।।३।।
अर्थ – जिस प्रकार युद्ध के संकट में भले प्रकार से सजा हुआ वीर पुरुष बाणों से नहीं भिदता है, उसी प्रकार संसार की कारणरूप क्रियाओं से विरतिरूप संवर वाला संयमी मुनि भी असंयमरूप बाणों से नहीं भिदता है ।।४।। आगे आस्रवों के रोकने का विधान कहते हैं-
अर्थ – प्रमादरहित संवर के लिए उद्यमी मर्हिषयों द्वारा जो जिसको साध्य हो, वह उसी से रोकना चाहिये। भावार्थ-जिस कारण से आस्रव हो उसके प्रतिपक्षी भावों से उसे रोकना चाहिये ।।५।। उन भावों को आगे कहते हैं-
अर्थ –क्रोधकषाय का तो क्षमा शत्रु है तथा मान कषाय का मृदुभाव (कोमल भाव), मायाकषाय का ऋजुभाव (सरल भाव) और लोभकषाय का परिग्रहत्याग भाव; इस प्रकार अनुक्रम से शत्रु जानने चाहिये ।।६।।
अर्थ – जो योगी ध्यानी मुनि हैं वे निरन्तर समभावों से अथवा निर्ममत्व से राग द्वेष का निराकरण (परास्त) करते रहते हैं तथा सम्यग्दर्शन के योग से मिथ्यात्वरूप भावों को नष्ट कर देते हैं ।।७।।
अर्थ –आत्मा को अवलोकन करने वाले मुनिगण अविद्या के विस्तार से उत्पन्न और तत्त्वज्ञान को रोकने वाले अज्ञानरूपी अंधकार को ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अतिशय दूर कर देते हैं ।।८।।
अर्थ – जिस पुरुष के हृदय में द्वारपाल के समान अतिशय विचार करने वाली चतुर मति कलोलें करती हैं उसके हृदय में स्वप्न में भी पाप की उत्पत्ति होनी कठिन है। भावार्थ-जैसे चतुर द्वारपाल मैले तथा असभ्य जनों को घर में प्रवेश नहीं करने देता है उसी प्रकार से समीचीन बुद्धि पापबुद्धि को हृदय में फटकने नहीं देती ।।१०।। अब संक्षेपता से कहते हैं-
अर्थ –जिस समय समस्त कल्पनाओं के जाल को छोड़कर अपने स्वरूप में मन को निश्चलता से थामते हैं, उस ही काल मुनि को परमसंवर होता है ।।११।। आगे संवर का कथन पूर्ण करते हुए संवर की महिमा कहते हैं-
अर्थ –ईर्या समिति आदि पाँच समितियाँ ही हैं मूल अर्थात् जड़ जिसकी, सामायिक आदि संयम ही हैं स्कन्ध जिसके और प्रशमरूप (विशुद्धभावरूप) बड़ी-बड़ी शाखा वाले उत्तम क्षमा आदि दस धर्म हैं पुष्प जिसके तथा मजबूत अविकल हैं फल जिसमें, ऐसा बारह भावनाओं से सुन्दर यह संवररूपी महावृक्ष सर्वोपरि है। इस प्रकार संवरभावना का व्याख्यान किया है ।।१३।। इसका संक्षिप्त आशय यह है कि आत्मा अनादिकाल से अपने स्वरूप को भूल रहा है इस कारण आस्रवरूप भावों से कर्मों को बाँधता है और जब यह अपने स्वरूप को जानकर उसमें लीन होता है तब यह संवररूप होकर आगामी कर्मबन्ध को रोकता है और पूर्व कर्मों की निर्जरा होने पर मुक्त हो जाता है। उस संवर के बाह्य कारण समिति, गुप्ति, धर्मानुप्रेक्षा, परीषहों का जीतना तथा चारित्र आदि कहे गये हैं । उनका विशेष कथन तत्वार्थसूत्र की टीकाओं से जानना चाहिये।
दोहा
निजस्वरूप में लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति-गुप्ति-संयम धरम, करें पाप की हानि ।।८।। इति संवरभावना।।८।।
अथ निर्जरा भावना लिख्यतेआगे निर्जरा भावना का व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही निर्जरा का तथा यह जिनको होती है, उन्हीं का स्वरूप कहते हैं-
अर्थ –यह निर्जरा जीवों को सकाम और अकाम दो प्रकार की होती है। इनमें से पहली सकाम निर्जरा तो मुनियों को होती है और दूसरी अकाम निर्जरा समस्त जीवों को होती है इससे अर्थात् अकाम निर्जरा से बिना तपश्चरणादि के स्वयमेव निरन्तर ही कर्म उदय रस देकर क्षरते रहते हैं ।।२।।
अर्थ –जिस प्रकार वृक्षों के फलों का पकना एक तो स्वयं ही होता है, दूसरे पाल देने से भी होता है इसी प्रकार कर्मों का पकना भी है अर्थात् एक तो कर्मों की स्थिति पूरी होने पर फल देकर क्षर जाती है दूसरे सम्यग्दर्शनादि सहित तपश्चरण करने से कर्म नष्ट हो जाते हैं अर्थात् क्षर जाते हैं ।।३।।
अर्थ –जैसे सदोष भी सुवर्ण (सोना) अग्नि में तपाने से विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार यह कर्मरूपी दोषों सहित जीव तपरूपी अग्नि में तपने से विशुद्ध और निर्दोष (कर्म रहित) हो जाता है ।।४।।
अर्थ – संसार की परिपाटी से भयभीत धीर और श्रेष्ठ मुनीश्वरगण, उक्त निर्जरा का एकमात्र कारण तप ही है ऐसा जानकर बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार का तप करते हैं ।।५।।
तत्र बाह्यं तप: प्रोक्तमुपवासादिषड्विधम् । प्रायश्चित्तादिभिर्भेदैरन्तरङ्गं च षड्विधम् ।।६।।
अर्थ –उनमें से अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह तो बाह्य (बहिरंग) तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप हैं । इनका विशेषरूप जानना हो तो तत्वार्थसूत्र की टीकाओं को देखना चाहिये ।।६।।
निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा । यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा तथा ।।७।।
अर्थ – संयमी मुनि वैराग्य पदवी को प्राप्त होकर जैसे जैसे (ज्यों-ज्यों) तप करते हैं तैसे-तैसे (त्यों-त्यों) दुर्जय कर्मों को क्षय करते हैं ।।७।।
अर्थ –यद्यपि कर्म अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं तथापि वे ध्यानरूपी अग्नि से स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं । उनके क्षय हो जाने से जैसे अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी तप से कर्म नष्ट होकर शुद्ध (मुक्त) हो जाता है ।।८।। अब निर्जरा का कथन पूर्ण करते हैं-
अर्थ – पवित्र आचरण वाला सुकृती पुरुष प्रथम अनशनादि बाह्य तपों का आचरण करता है तत्पश्चात् आत्माधीन अभ्यन्तर तपों को आचरता है और उनमें नियत विषय वाले ध्यान नामक उत्कृष्ट तप को आचरता है। इस तप से चिरकाल से संचित किये हुए कर्मरूपी पटल को (घातिया कर्मों को) क्षय करता है और पश्चात् परमानन्द के (अतीन्द्रिय सुख के) घर ज्ञानरूपी समुद्र में प्रवेश करता है। भावार्थ – सम्यग्दृष्टि जीव दोनों प्रकार के तपों से, विशेषतया ध्यान नामक उत्कृष्ट तप से घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार निर्जरा भावना का व्याख्यान किया है ।।१२।। इसका संक्षिप्त आशय यह है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है। काललब्धि के निमित्त से यह आत्मा अपने स्वरूप को जब सम्हारे और तपश्चरण करके ध्यान में लीन हो तब संवररूप हो और जब यह आगामी नये कर्म नहीं बाँधे और पुराने कर्मों की निर्जरा करे तब मोक्ष को प्राप्त हो।
दोहा
संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड़ जाय । निजस्वरूप को पाय कर, लोकशिखर जब थाय ।।९।। इति निर्जराभावना।।९।।
अथ धर्मभावना लिख्यतेआगे धर्मभावना का व्याख्यान करते हैं-
अर्थ – जिस धर्म से जगत पवित्र किया जाता है तथा उद्धार किया जाता है और जो दयारूपी रस से र्आिद्रत (गीला) और हरा है उस धर्मरूपी कल्पवृक्ष के लिये मेरा नमस्कार है। इस प्रकार आचार्य महाराज ने धर्म को (माहात्म्य कथनपूर्वक) नमस्कार किया है ।।१।।
अर्थ – वह धर्म जिसके अंशमात्र को भी सेवन करके संयमी मुनि मुक्ति को प्राप्त होते हैं, उसे जिनेन्द्र भगवान ने दश लक्षणयुक्त कहा है ।।२।।
न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभि: । हिंसाक्षपोषवैâ: शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते ।।३।।
अर्थ – धर्म का स्वरूप मिथ्यादृष्टियों तथा हिंसा और इन्द्रिय विषय पोषण करने वाले शास्त्रों के द्वारा भले प्रकार नहीं कहा जा सकता है। इस कारण इस धर्म का वास्तविक स्वरूप हम कहते हैं ।।३।।
अर्थ – आचार्य महाराज कहते हैं कि लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्म के चिरकाल से िंककर (सेवक) हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।।४।।
अर्थ – मेघ, पवन, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, समुद्र और इन्द्र ये सम्पूर्ण पदार्थ जगत के उपकाररूप प्रवर्तते हैं और वे सब ही धर्म द्वारा रक्षा किये हुए प्रवर्तते हैं । धर्म के बिना ये कोई भी उपकारी नहीं होते हैं ।।७।।
मन्येऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रम: । जीवलोकोपकारार्थं धर्म एव विजृम्भित: ।।८।।
अर्थ –आचार्य महाराज ऐसा मानते हैं कि इन्द्रादिक, लोकपाल अथवा राजादिकों के व्याज से (बहाने से) लोकों के उपकारार्थ यह धर्म ही अव्याहत फैल रहा है ।।८।।
न तत्त्रिजगतीमध्ये भुक्तिमुक्त्र्योिनबन्धनम् । प्राप्यते धर्मसामथ्र्यान्न यद्यमितमानसै: ।।९।।
अर्थ – इस तीन जगत में भोग और मोक्ष का ऐसा कोई भी कारण नहीं है जिसको धर्मात्मा पुरुष धर्म की सामथ्र्य से न पाते हों अर्थात् धर्मसामथ्र्य से समस्त मनोवांछित पद को प्राप्त होते हैं ।।९।।
अर्थ – जिनके चित्त में धर्म ही एक शरणभूत है, उनके चरणकमलों की पंक्ति को इन्द्रगण भी नम्रीभूत मस्तक से नमस्कार करते हैं ।
भावार्थ-धर्म के माहात्म्य से जब तीर्थंकर पदवी प्राप्त होती है तब इन्द्र भी आकर नमस्कार करते हैं ।।१०।।
धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्म: स्वामी च बान्धव: । अनाथवत्सल: सोऽयं संत्राता कारणं विना ।।११।।
अर्थ –धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बांधव है, हितू है और धर्म ही बिना कारण अनाथों की प्रीतिपूर्वक रक्षा करने वाला है। इस प्राणी को धर्म के अतिरिक्त और कोई भी शरण देने वाला न हीं है ।।११।।
अर्थ – यह धर्म, नरकों के नीचे जो निगोद स्थान है उसमें पड़ते हुए जगत्त्रय को धारण करता है-अवलम्बन देकर बचाता है तथा जीवों को अतीन्द्रिय सुख भी प्रदान करता है। ।।१२।।
नरकान्धमहावूपे पततां प्राणिनां स्वयम् । धर्म एव स्वसामथ्र्याद्दत्ते हस्तावलम्बनम् ।।१३।।
अर्थ –नरकरूपी महा अंधकूप में स्वयं गिरते हुए जीवों को धर्म ही अपने सामथ्र्य से हस्तावलम्बन (हाथ का सहारा) देकर बचाता है ।।१३।।
अर्थ – धर्म, महाअतिशय से पूर्ण, कल्याणों के उत्कट निवासस्थान और निर्विघ्न ऐसे लक्ष्मी सहित सर्वज्ञ भगवान के वैभव को देता है अर्थात् तीर्थंकर पदवी को प्राप्त कराता है ।।१४।।
अर्थ – धर्म परलोक में प्राणी के साथ जाता है, उसकी रक्षा करता है, नियम से उसका हित करता है तथा संसाररूपी कर्दम से उसे निकालकर निर्मल मोक्षमार्ग में स्थापन करता है ।।१५।।
न धर्मसदृश: कश्चित्सर्वाभ्युदयसाधक: । आनन्दकुञ्जकन्दश्च हित: पूज्य: शिवप्रद: ।।१६।।
अर्थ –इस जगत में धर्म के समान अन्य कोई समस्त प्रकार के अभ्युदय का साधक नहीं है। यह मनोवांछित सम्पदा का देने वाला है। आनन्दरूपी वृक्ष का कन्द है अर्थात् आनन्द के अंकुर इससे ही उत्पन्न होते हैं तथा हितरूप, पूजनीय और मोक्ष का देने वाला भी यही है ।।१६।।
व्यालानलोरगव्याघ्रद्विपशार्दूलराक्षसा: । नृपादयोऽपि द्रुह्यन्ति न धर्माधिष्ठितात्मने ।।१७।।
अर्थ – जो धर्म से अधिष्ठित (सहित) आत्मा है, उसके साथ सर्प, अग्नि, विष, व्याघ्र, हस्ती, िंसह, राक्षस तथा राजादिक भी द्रोह नहीं करते हैं अर्थात् यह धर्म इन सबसे रक्षा करता है अथवा धर्मात्माओं के ये सब रक्षक होते हैं ।।१७।।
नि:शेषं धर्मसामथ्र्यं न सम्यग्वत्तुकमीश्वर: । सफुरद्वक्त्रसहस्रेण भुजङ्गेशोऽपि भूतले ।।१८।।
अर्थ –आचार्य महाराज कहते हैं कि धर्म का समस्त सामथ्र्य भले प्रकार कहने को स्पुâरायमान सहस्र मुख वाला नागेन्द्र भी इस भूतल में समर्थ नहीं है। फिर हम वैâसे समर्थ हो सकते हैं ? ।।१८।।
अर्थ – तत्त्व के यथार्थ ज्ञान से शून्य मिथ्यादृष्टि ‘धर्म-धर्म’ ऐसा तो कहते हैं परन्तु वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते क्योंकि वे उसकी परीक्षा करने में असमर्थ हैं । भावार्थ-नाममात्र को ‘धर्म धर्म’ ऐसा तो कहते हैं परन्तु वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाने बिना सत्य की परीक्षा केसे हो ? यह परीक्षा जिनागम से ही हो सकती है अत: जिनागम में जो धर्म कहा है, उसे कहते हैं ।।१९।।
तितिक्षा मार्दवं शौचमार्जवं सत्यसंयमौ । ब्रह्मचर्यं तपस्त्यागाकिञ्चन्यं धर्म उच्यते ।।२०।।
अर्थ –१-क्षमा, २-मार्दव, ३-शौच, ४-आर्जव, ५-सत्य, ६-संयम, ७-ब्र्रह्मचर्य, ८- तप, ९-त्याग और १०-आिंकचन्य, ये दस प्रकार के धर्म हैं । इनका विशेष स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं से जानना चाहिये ।।२०।।
अर्थ – धर्म का मुख्य (प्रधान) चिह्न यह है कि जो-जो क्रियायें अपने को अनिष्ट (बुरी) लगती हों, सो-सो अन्य के लिये मन-वचन-काय से स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिये ।।२१।। अब धर्मभावना का व्याख्यान पूर्ण करते हुए सामान्यता से कहते हैं-
शार्दूलविक्रीडितम्
धर्म: शर्म: भुजङ्गपुङ्गवपुरीसारं विधातुं क्षमो धर्म: प्रापितमत्र्यलोकविपुलप्रीतिस्तदाशंसिनां । धर्म: स्वर्नगरीनिरन्तरसुखास्वादोदयस्यास्पदम धर्म: कि न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यं जनम् ।।२२।।
अर्थ – यह धर्म धर्मात्मा पुरुषों को धरणीन्द्र की पुरी के सारसुख को करने में समर्थ है तथा यह धर्म उस धर्म के वांछक और उसके पालने वाले पुरुषों को मनुष्यलोक में विपुल प्रीति (सुख) प्राप्त कराता है और यह धर्म स्वर्गपुरी के निरन्तर सुखास्वाद के उदय का स्थान है तथा यह धर्म ही मनुष्य को मुक्तिस्त्री से संभोग करने के योग्य कराता है। धर्म और क्या-क्या नहीं कर सकता ? ।।२२।।
मालिनी
यदि नरकनिपातस्त्यत्तुâमत्यन्तमिष्ट- स्त्रिदशपतिमहद्र्धिं प्राप्तुमेकान्ततो वा । यदि चरमपुमर्थ: प्रार्थनीयस्तदानीं किमपरमभिधेयं नाम धर्मं विधत्त ।।२३।।
अर्थ –हे आत्मन्! यदि तुझे नरक निपात का छोड़ना परम इष्ट है अथवा इन्द्र का महान विभव पाना एकान्त ही इष्ट है, यदि चारों पुरुषार्थों में से अन्त का पुरुषार्थ (मोक्ष) प्रार्थनीय ही है, तो और विशेष क्या कहा जाए, तू एकमात्र धर्म का सेवन कर क्योंकि धर्म से ही समस्त प्रकार के अनिष्ट नष्ट होकर समस्त प्रकार के इष्ट की प्राप्ति होती है। इस प्रकार धर्मभावना का व्याख्यान पूर्ण किया ।।२३।। इसका संक्षिप्त आशय यह है कि जिनागम में धर्म चार प्रकार का वर्णन किया गया है अर्थात् १-वस्तुस्वभावरूप, २-उत्तमक्षमादि दशरूप, ३-रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) रूप और ४-दयामय। निश्चय व्यवहाररूप नय से साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सधता है। यहाँ व्यवहारनय की प्रधानता से वर्णन किया गया है अर्थात् धर्म का स्वरूप, महिमा तथा फल अनेक प्रकार से वर्णन किया जाता है, सो उसको विचारकर धर्म की भावना निरन्तर चित्त में रखनी चाहिये।
दोहा
दर्श ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि ।
दया-क्षमादिक रतनत्रय, यामें र्गिभत जानि ।।१०।।
इति धर्मभावना।।१०।।
अथ लोकभावना लिख्यते अब लोकभावना का व्याख्यान करते हैं । प्रथम लोक का स्वरूप कहते हैं-
अर्थ –जितने आकाश में जीवादिक चेतन-अचेतन पदार्थ ज्ञानी पुरुषों ने देखे हैं, सो तो लोक है। उसके बाह्य जो केवल मात्र आकाश है, उसे अलोक व अलोकाकाश कहते हैं ।।१।।
अर्थ –तीन भुवन सहित यह लोक अन्त में सब तरफ से अतिशय वेग वाले और अतिशय बलिष्ठ तीन वातवलयों से वेष्टित है और ताड़ वृक्ष के आकार सरीखा है अर्थात् नीचे से चौड़ा, बीच में सरल तथा अन्त में विस्ताररूप है ।।२।।
निष्पादित: स केनापि नैव नैवोद्धृतस्तथा । न भग्न: किन्त्वनाधारो गगने स स्वयं स्थित: ।।३।।
अर्थ –यह लोक किसी के द्वारा बनाया नहीं गया है अर्थात् अनादिनिधन है। भिन्न धर्मीगण इसे ब्रह्मादिक का बनाया हुआ कहते हैं, सो मिथ्या है तथा किसी से धारण किया हुआ व थामा हुआ हो, सो भी नहीं है। अन्यमती कच्छप की पीठ पर अथवा शेषनाग के फण पर ठहरा हुआ कहते हैं, यह उनका भ्रम है। यदि कोई आशंका करे कि बिना आधार के आकाश में वैâसे ठहरेगा, भग्न हो जायेगा ? तो उत्तर देना चाहिये कि निराधार होने पर भी भग्न नहीं होता अर्थात् आकाश में वातवलय के आधार से स्वयमेव स्थित है ।।३।।
अनादिनिधन: सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वर: । अनीश्वरोऽपि जीवादिपदार्थै: संभृतो भृशम् ।।४।।
अर्थ – यद्यपि यह लोक अनादिनिधन है, स्वयंसिद्ध है, अविनाशी है और इसका कोई ईश्वर, स्वामी व कत्र्ता नहीं है; तथापि जीवादिक पदार्थों से भरा हुआ है। अन्यमती लोक-रचना की अनेक प्रकार की कल्पनायें करते हैं, वे सब ही सर्वथा मिथ्या हैं ।।४।।
अधो वेत्रासनाकारो मध्ये स्याज्झल्लरीनिभ: । मृदङ्गसदृशश्चाग्रे स्यादित्थं स त्रयात्मक: ।।५।।
अर्थ – यह लोक नीचे तो वेत्रासन अर्थात् मोढ़े के आकार का है अर्थात् नीचे से चौड़ा है, पीछे ऊपर-ऊपर घटता आया है और बीच में झालर के जैसा है तथा ऊपर मृदंग के समान अर्थात् दोनों तरफ सकरा और बीच में चौड़ा है। इस प्रकार तीन स्वरूपात्मक यह लोक स्थित है ।।५।।
अर्थ – इस लोक में ये सब प्राणी नाना गतियों में संस्थित अपने-अपने कर्मरूप फाँसी के वशीभूत होकर मरते तथा उपजते रहते हैं ।।६।। अब लोकभावना का व्याख्यान पूर्ण करते हुए सामान्यता से कहते हैं-
अर्थ –इस लोक को ऐसा चिंतवन करना चाहिये कि तीन वलयों के मध्य में स्थित है। पवनों से अतिशय गाढ़रूप घिरा हुआ है। इधर-उधर चलायमान नहीं होता और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसहित वस्तु-समूहों से अनादिकाल से स्वयमेव भरा हुआ है अर्थात् अनादिसिद्ध है, किसी का रचा हुआ नहीं है इसी कारण पुराण है तथा उत्पत्ति और प्रलय से रहित है। इस प्रकार लोक को स्मरण करते रहो, यह लोकभावना का उपदेश है। इसका विशेष स्वरूप त्रैलोक्यसारादि ग्रन्थों से जानना चाहिये। किसी को लोक के अनादिनिधन होने में (अकर्तापन में) संदेह हो तो उसे परीक्षामुख की प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमात्र्तण्ड-टीका तथा अष्टसहस्री, श्लोकर्वाितकादि ग्रन्थों को देखना चाहिये। इनमें कर्तृवाद का विद्वानों के देखने योग्य विशेष प्रकार से (युक्ति प्रमाणों से) निराकरण किया गया है ।।७।। इस भावना का संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि यह लोक जीवादिक द्रव्यों की रचना है जो (समस्त द्रव्य) अपने-अपने स्वभाव को लिये हुए भिन्न-भिन्न तिष्ठते हैं । उनमें आप एक आत्मद्रव्य है। उसका स्वरूप यथार्थ जानकर, अन्य पदार्थों से ममता छोड़कर आत्मभावना करना ही परमार्थ है। व्यवहार से समस्त द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप जानना चाहिये जिससे मिथ्याश्रद्धान दूर हो जाता है। इस प्रकार लोकभावना का चिंतवन करना चाहिये।
अथ बोधिदुर्लभ भावना लिख्यतेआगे बोधिदुर्लभ भावना का व्याख्यान करते हैं, जिसमें निगोद से लेकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति पर्यन्त की उत्तरोत्तर दुर्लभता दिखाते हैं-
अर्थ –बुरा है अन्त जिसका, ऐसे पापरूपी वैरी से निरन्तर पीड़ित इस जीव का प्रथम तो नरकों के नीचे निगोदस्थान है, सो वहाँ के नित्यनिगोद से निकलना अत्यन्त कठिन है ।।१।।तथा-
तस्माद्यदि विनिष्क्रान्त: स्थावरेषु प्रजायते ।
त्रसत्वमथवाप्नोति प्राणी केनापि कर्मणा ।।२।।
अर्थ – उस नित्यनिगोद से निकला तो फिर पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों में उपजता है और किसी पुण्यकर्म के उदय से स्थावर काय से त्रसगति पाता है ।।२।। और-
अर्थ –कदाचित् त्रसगति भी पावे तो तिर्यंच योनि में पर्याप्तता (पूर्णावयवसंयुक्तत्व) पाना कुछ न्यून पाप के क्षय से नहीं होता है अर्थात् बहुत पाप के क्षय होने पर पाता है। उसमें भी मन सहित पंचेन्द्रिय पशु का शरीर पाना बहुत ही दुर्लभ है, तिस पर भी सम्पूर्ण अवयव पाना अतिशय दुर्लभ है ।।३।।
अर्थ –आचार्य महाराज कहते हैं कि ये प्राणीगण संसार में मनुष्यपना और उसमें गुणसहितपना तथा उत्तम देश, जाति, कुल आदि साहित्य उत्तरोत्तर कर्मों के क्षय से पाते हैं । ये बहुत दुर्लभ हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।।४।।
अर्थ –जीवों के देश, जाति, कुलादि सहित मनुष्यपना होते हुए भी दीर्घायु, पाँचों इन्द्रियों की पूर्ण सामग्री, विशिष्ट तथा उत्तम बुद्धि, शीतल मंद कषायरूप परिणामों का होना काकतालीयन्याय के समान दुर्लभ जानना चाहिये। जैसे किसी समय ताल का फल पक कर गिरे और उस ही समय काक का आना हो एवं वह उस फल को आकाश में ही पाकर खाने लगे। ऐसा योग मिलना अत्यन्त कठिन है ।।५।।
ततो निर्विषयं चेतो यमप्रशमवासितम् । यदि स्यात्पुण्ययोगेन न पुनस्तत्त्वनिश्चय: ।।६।।
अर्थ –कदाचित् पुण्य के योग से उक्त सामग्री प्राप्त हो जावें तो विषयों से विरक्त वा व्रतरूप परिणाम तथा यम-प्रशमरूप शुद्ध भावों सहित चित्त का होना बड़ा कठिन है। कदाचित् पुण्य के योग से इनकी प्राप्ति हो जाये, तो तत्त्वनिर्णय होना अत्यन्त दुर्लभ है ।।६।।
अर्थ – यद्यपि पूर्वोक्त सामग्री अत्यन्त दुर्लभ है तथापि यदि दैवयोग से प्राप्त हो जाय तो अनेक संसारी जीव प्रमाद के वशीभूत होकर काम और अर्थ में लुब्ध होकर सम्यग्मार्ग से च्युत हो जाते हैं और विषयकषाय में लग जाते हैं ।।७।।
अर्थ – कोई-कोई सम्यक् रत्नत्रय मार्ग को पाकर भी तीव्र-मिथ्यात्वरूप विष से व्यामूढ़ चित्त होते हुए सम्यग्मार्ग को छोड़ देते हैं । गृहीत मिथ्यात्व बड़ा बलवान है, जो उत्तम मार्ग मिले तो उसको भी छुड़ा देता है ।।८।।
स्वयं नष्टो जन: कश्चित्कश्चिन्नष्टश्च नाशित: । कश्चित्प्रच्यवते मार्गाच्चण्डपाषण्डशासनै: ।।९।।
अर्थ – कोई-कोई तो सम्यग्मार्ग से आप ही नष्ट हो जाते हैं । कोई अन्य मार्ग से च्युत हुए मनुष्यों के द्वारा नष्ट किये जाते हैं और कोई-कोई प्रचंड पाखंडियों के उपदेशे हुए मतों को देखकर मार्ग से च्युत हो जाते हैं ।।९।।
अर्थ – जो मार्ग से च्युत अज्ञानी है वह समस्त मनोवांछित सिद्धि के देने वाले विवेकरूपी चिन्तामणि रत्न को छोड़कर बिना विचार के रमणीक भासने वाले पक्षों में (मतों में) प्रवृत्ति करने लग जाता है।।१०।।
अर्थ –जो पुरुष जिह्वा तथा उपस्थादि इन्द्रियों से दंडित हैं, वे अविचार से रमणीक भासने वाले दुष्टों के चलाए हुए अधम मतों को भी सेवन करते हैं । विषयकषाय क्या-क्या अनर्थ नहीं कराते ? ।।११।।
अर्थ –यह जो बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप रत्नत्रय है, संसाररूपी समुद्र में प्राप्त होना सुगम नहीं है किन्तु अत्यन्त दुर्लभ है। इसको पाकर भी जो खो बैठते हैं, उनको हाथ में रखे हुए रत्न को बड़े समुद्र में डाल देने पर जैसे फिर मिलना कठिन है, उसी प्रकार सम्यग् रत्नत्रय का पाना दुर्लभ है ।।१२।। अब इस भावना के कथन को पूर्ण करते हैं-
अर्थ –इस जगत में (त्रैलोक में) समस्त द्रव्यों का समूह सुलभ है तथा धरणीन्द्र, नरेन्द्र, सुरेन्द्रों द्वारा प्रार्थना करने योग्य अधिपतिपना भी सुलभ है क्योंकि ये सब ही कर्मों के उदय से मिलते हैं तथा उत्तम कुल, बल, सुभगता, सुन्दर स्त्री आदिक समस्त पदार्थ सुलभ हैं; किन्तु जगत्प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप बोधिरत्न अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार बोधिदुर्लभभावना का व्याख्यान पूर्ण किया ।।२३।। इसका संक्षिप्त आशय ऐसा है कि यदि परमार्थ से (निश्चय से) विचार किया जाए तो जो पराधीन वस्तु होती है वह दुर्लभ है और स्वाधीन वस्तु सुलभ है। यह बोधि (रत्नत्रय) आत्मा का स्वभाव है, स्वाधीन सम्पत्ति है। जब अपने स्वरूप को जाने तब अपने ही निकट है इसलिये दुर्लभ नहीं है किन्तु आत्मा जब तक अपने स्वरूप को नहीं जाने तब तक कर्म के आधीन है। इस अपेक्षा से अपना बोधिस्वभाव पाना दुर्लभ है और कर्मकृत सब ही पदार्थ संसार में सुलभ हैं । सो आचार्य महाराज ने व्यवहारनय की प्रधानता से बोधि की दुर्लभता वर्णन की है अर्थात् उत्तरोत्तर पर्यायें दुर्लभता से पाते-पाते बोधि के योग्य उत्तम पर्याय पाना दुर्लभ है। उसमें भी बोधि का पाना दुर्लभ है। इस बोधि को प्राप्त होकर प्रमादादि के वशीभूत होकर नहीं खो देना चाहिये, ऐसा उपदेश है।
दोहा
बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ निहिं । भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार किहिंह ।।१२।। इति बोधिदुर्लभभावना।।१२।।
अथोपसंहार अब बारह भावनाओं का प्रकरण पूरा करते हैं और भावनाओं का फल तथा महिमा कहते हैं-
अर्थ – इन बारह भावनाओं से निरन्तर रमते हुए ज्ञानीजन इसी लोक में रोगादिक की बाधारहित अतीन्द्रिय अविनाशी सुख को पाते हैं अर्थात् केवलज्ञानानन्द को पाते हैं ।।१।। आर्या-विध्याति कषायाग्र्नििवगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ।।२।। अर्थ – इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषायरूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति रागभाव गल जाता है और अज्ञानरूप अंधकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीपक का प्रकाश होता है ।।२।।
अर्थ – आचार्य महाराज कहते हैं कि मित्र! ये बारह भावनायें निश्चय से मुक्तिरूपी लक्ष्मी की सखी हैं । इन्हें मुक्तिरूपी लक्ष्मी के संगम की लालसा करने वाले पंडितगणों ने मित्रता करने के अर्थ प्रयोगरूप कही हैं । इन भावनाओं के अभ्यास करने से मुक्तिरूपी स्त्री आनन्द सहित स्नेहरूप प्रसन्न हृदय होकर योगीश्वरों को आनन्ददायिनी होती है।
भावार्थ –पंडितों ने भावनाओं को मोक्ष की सखी के तुल्य कहा है। योगीश्वर इनको भाते हैं तो ये उन्हें मुक्तिरूपी स्त्री से मिला देती हैं । इस प्रकार भावनाओं का वर्णन किया है ।।३।। इसका अभिप्राय यह है कि इस ग्रन्थ में ध्यान का अधिकार है और ध्यान मोक्ष का कारण है। जब तक जीवों की संसार में प्रीति रहती है; तब तक उनका ध्यान के सन्मुख होना कठिन है और बारह भावनायें संसार, देह, भोगों से वैराग्य उपजाने के लिये निमित्त हैं अत: इनका वर्णन पहले ही किया गया है।
प्रथम – तो यह प्राणी अनादिकाल से पर्यायबुद्धि है, इसे द्रव्यबुद्धि कभी भी नहीं हुई। इस कारण द्रव्यबुद्धि करने के लिये पर्याय को अनित्य दिखलाया है क्योंकि इससे वैराग्य होकर ध्यान की रुचि होती है।
दूसरे – यह प्राणी जब तक अज्ञान से पर का शरण चाहता रहता है तब तक इसके ध्यान नहीं होता है इस कारण पर का शरण छुड़ा कर अपना ही शरण बताया है।
तीसरे – संसार में दु:ख ही दु:ख दिखाये हैं ।
चौथे –अपना अकेलापन दिखाया है। जगत में कोई भी संगी साथी नहीं है।
पाँचवे – अन्य के संग से मोह उत्पन्न होता है अत: अपने को सबसे भिन्न बताया है।
छठे – शरीर की अशुचि का विचार करने से शरीर का मोह दूर होकर आत्मसन्मुख वृत्ति होती है।
सातवें – आस्रव से कर्मबन्ध होना बताया है।
आठवें –संवर से कर्मों का रुकना और ध्यान की सिद्धि बताई है।
नवमें –निर्जरा का कारण ध्यान तथा निर्जरा से ध्यान की वृद्धि होना बताया है।
दसवें –लोक का स्वरूप जानने से मिथ्याश्रद्धान नष्ट होता है। इस कारण लोक का स्वरूप बताया है।
ग्यारहवें – धर्म ध्यान का स्वरूप है अत: धर्म का स्वरूप बताया है।
बारहवें – बोधिदुर्लभता बताई है और इसका संयोग मिलने से प्रमादी नहीं होना चाहिये ऐसा उपदेश किया है। इस प्रकार बारह भावनाओं का स्वरूप जानकर इनकी निरन्तर भावना भाने से ध्यान की रुचि होती है तथा ध्यान में स्थिर होने से केवलज्ञान उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त होता है।
दोहा
ऐसे भावे भावना, शुभ वैराग्य जु पाय । ध्यान करे निज रूप को, ते शिव पहुँचे धाय ।।२।।
इति श्री ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते द्वादशभावनाप्रकरणम् ।।२।।