प्राणिमात्र में मित्रपना हो, गुणिजन में आनन्द रहे।
दीन दुखी जीवों में मेरा, करूणा भाव अपार बहे।।
जो विपरीत आचरण वाले, उनके प्रति समभाव धरूँ।
हे देवों के देव जिनेश्वर मैं ऐसे नित सुगुण वरू।।१।।
अनन्त आत्मा शक्तिवान है दोष रहित होने पर ये।
शरीर से जब भिन्न होयगा ज्यों तलवार म्यान से।
हे जिनेन्द्र भगवन्त आप से मुझ में ऐसी शक्ति मिले।
शक्ति अनन्त जगाकर प्रभुवर तुम सम मेरी आत्म खिले।।२।।
दुख में वा नाना सुख में भी नाना शत्रु मित्र में भी।
सब संयोग वियोग कार्य में मिले भवन यावन में भी।।
सकल ममत्व बुद्धि को त्याग समता भाव सदैव जगें।
हे नाथों के नाथ साथ हो ऐसा मेरा चित्त लगें।।३।।
हे यतीन्द्र ! आपके द्वय पद हृदय कमल में लीन रहे।
कीले जैसे खुदे हुवे सम अथवा र्मूित समान रहे।।
तिमिर विनाशक दीपक द्वय सम शाश्वत स्थिरपना धरे।
इसी प्रकार मेरे में राजे मेरा जीवन शुद्ध करे।।४।।
हे जिनेन्द्र ! यदि प्रमाद द्वारा, इधर उधर के चलने से।
एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक, प्राणी मुझसे नशने से।।
भिन्न किया हो तथा मिलाया, मुझसे पीडित जीव हुये।
सभी पाप मेरा मिथ्या हो, हे जिनेन्द्र हम दास हुये।।५।।
हे प्रभु मोक्ष मार्ग के प्रति में, मार्ग विपर्यय चलने से।
दुर्मति द्वारा अरू कषाययुत, इन्द्रिय के वश रमने से।
जो मेरा चारित्र शुद्धि का, मेरे द्वारा लोप हुआ।
हे दोषों से रहित जिनेश्वर, दोष नशो अपराध हुआ।।६।।
मन वच तन द्वारा कषाय से, मेरे द्वारा र्नििमत हो।
जो संसार दु:ख के कारण, भूत रहे ऐसा अघ हो।।
जैसे मंत्रों द्वारा वर वैद्य सकल विष नष्ट करें।
वैसे निन्दा आलोचन अरू गर्हा कर हम पाप हरें।।७।।
हे जिनेन्द्र ! सम्यक् चरित्र में दुर्मतिवश हो प्रमाद से।
जो अतिक्रम अरू व्यतिक्रम कीना जो अतिचार लगाने से।।
अनाचार से पतित हुआ मैं सारे दोष नशाने को।
प्रतिक्रमण मैं करूं जिनेश्वर, पावनता को पाने को।।८।।
मन कि विशुद्धि की क्षति होना यह अतिक्रम कहलाता है।
शील और व्रत का उल्लंघन यह व्यतिक्रम कहलाता है।।
इन्द्रिय विषयो में प्रवर्तना यह अतिचार बताया है।
हे प्रभु अति आसक्ति विषय में अनाचार दर्शाता है।।९।।
हे श्रुत वाणी मम प्रमाद से, अर्थ वाक्य पद मात्रा में।
जो कुछ हीन कहा है मुझ से क्षमा करो नित ध्याता मैं।।
केवलज्ञान लब्धि को मुझ में शीघ्र जगाओ हे माता।
अत: ध्यान मैं करूँ निरन्तर मिल जाये अनुपम साता।।१०।।
सरस्वती चिन्तामणि जैसी, जग में पूजी जाती है।
जिनके चिन्तन से सुवस्तुयें जन जन को मिल जाती हैं।।
अत: मुझे भी बोधि लाभ हो, अरू समाधि की प्राप्ति करो।
परिणामों की विशुद्धि होवे, स्वात्म लब्धि शिव सौख्य करो।।११।।
जो मुनियों के इन्द्र वृन्द्र से, स्मृत होते रहते हैं।
जो सब नर अरू इन्द्रों द्वारा पूजा पाते रहते हैं।।
जो पुराण शास्त्रों वेदों में, गाये जाते पद्यों से।
वो देवों के देव जिनेश्वर, मम उर राजें भावों से।।१२।।
जो दर्शन अरू ज्ञानमयी है, नैर्सिगक सुख वाला है।
जो सांसारिक विकार विरहित निर्विकार गुण वाला है।।
जो समाधि के जानन हारे, परमात्मा संज्ञा पाते।
वे देवाधिदेव मेरे इस, उर में राजें हम ध्याते।।१३।।
जो सांसारिक दुख समूह को, निर्दयता से हनते हैं।
सर्व विश्व को अन्तराल बिन, दिव्यालोकन करते हैं।।
जो अध्यात्म निमग्न संत है, उनसे देखे जाते हैं।
ऐसे वो देवाधिदेव मम, हृदय कमल में राजे हैं।।१४।।
मोक्षमार्ग के प्रतिपादक जो, जन्म मरण भय आदि नहीं।
जिनके केवलज्ञान चक्षु से, त्रिभुवन देखे सदा सही।
पंच देह से रहित अतनुमय, कर्म कलंक रहित होवे।
वो देवो के देव जिनेश्वर, मेरे उर को नित शोभे।।१५।।
जिनके औदारिक आदिक सब, निर्मूलन को प्राप्त हुवे।
जिनके राग मोह भय आदिक, दोष अठार नाश हुवे।।
सभी इन्द्रियों से जो विरहित, परम ज्ञानमय सदा रहा।
सर्व उपाय बिना जो शोभित, वही नाथ मम हृदय लहा।।१६।।
विश्व जनीन प्रवृत्तिपने से, जो व्यापक होकर रहते।
ऐसे सिद्ध प्रबुद्धवान वे, कर्म बन्ध क्षय कर रमते।।
जिनने सभी विकार धूल को, परम ध्यान से उड़ा दिया।
ऐसे वो देवाधिदेव मम, उर में बैठे साथ लिया।।१७।।
कर्म कलंकरूप दोषों से, जिनका छूना ना होवे।
जैसे तिमिर समूह सघन से, भानु न स्र्पिशत होवे।।
नित्य एक अरू अनेक भी जो, निष्कलंक वो सिद्ध रहे।
वो देवो का देव आप्त मम, हम उसकी ही शरण लहे।।१८।।
जिसके रहते जगत प्रकाशक, रवि भी फीका पड जाता।
जो निजात्मा में नित्य काल ही, स्थिरता अनुपम पाता।।
परम बोधमय प्रकाश वाला, कभी न फीका होता है।
ऐसे उस देवाधिदेव की, शरण लहूँ अघ धोता है।।१९।।
जिनके देखे जाने पर यह, लोकालोक अनन्त कहा।
भिन्न भिन्न स्पष्ट झलकता, जिनका निरुपम ज्ञान रहा।।
शान्त आदि अनन्त शुद्ध उस, नि:श्रेयस पद को ध्याऊँ।
उन देवाधिदेव जिनवर की, चरण शरण को मैं जाऊँ।।२०।।
जिसमें मदन मान मूच्र्छा भय, विषाद निद्रा रूदनपना।
निद्रा चिता विनश गई है, नाना दुर्गुण कर्मपना।।
जिस प्रकार तरू के समूह को, दहन जलाते ऐसे हो।
ऐसे उन देवाधिदेव की, शरण जाऊँ तुम मेरे हो।।२१।।
ना संस्तर अरू शिला न तृण भू, पटल सहित वा आसन से।
ये सब निज के हितकारक नहि, पवित्र नाही प्रसंग से।।
क्योंकि इन्द्रियाँ अरू कषाय ये, शत्रु समान आत्म हाने।
अत: गुणीजन बुधजन द्वारा, चेतन ही निर्मल माने।।२२।।
हे उदार संस्तर आदिक निंह, समाधि साधन कहलाता।
न लोक की पूजा पाने से, संघ मिलन भी निंह जमता।।
सभी बाह्य विषयादि छोड़कर, जो निजात्म में लीन रहे।
क्योंकि यही निज आत्मरूप है, अन्य सभी तो व्यर्थ रहे।।२३।।
ना मेरा कुछ बाह्य द्रव्य ही, मैं न कदाचित् इनका हूँ।
यह संसार असार भार है, न मै इनका कारण हूँ।।
इस प्रकार निश्चय करके सब, बाह्य परिग्रह को छोडे।
सदा स्वपद में रमें हैं श्रमण अत: मुक्ति को मन जोडे।।२४।।
तुम आत्मा को आत्मा में ही, अवलोकन करने वाले।
दर्शन ज्ञानमयी विशुद्ध यह, स्वभाव में रमने वाले।।
जो साधु एकाग्रचित्त हो, इधर उधर भी भटक रहा।
वह भी समाधि को पा जाता, आत्म साध्य को जान रहा।।२५।।
सदा एक है शाश्वत मेरी, निर्मल ज्ञान स्वभावयी।
मेरे से जो बाह्य भाव है, भिन्न भिन्न वे इतरमयी।।
मेरे से जो क्रिया कर्म वे, शाश्वत नाहि विनश्वर है।
आत्मा नित्य स्वतन्त्र रूप है, अत: रमू सुख सागर में।।२६।।
तनु भी एकमेक निंह होवे, साथ साथ रहने वाला।
दारा पुत्र मित्र आदिक भी, कैसे मेरे हित वाला।।
जिस शरीर से चर्म अलग हो, उसमें रोम छिद्र कैसे।
अत: आत्म को इन सबसे तू, भिन्न मान ले भज ऐसे।।२७।।
दुख अनेक विधि संयोगों से, क्योंकि जन्मरूपीवन है।
इन सब संयोगों को छोड़ो, मन वच तन से भवभ्रम है।।
निजात्म की सब प्रवृत्तियों से, निरोध करने का इच्छुक।
प्राणी यह कर्तव्य करे तो, फल पायेगा शिव इच्छुक।।२८।।
जो संसार रूपी अटवी में, सतत गिराने वाले हैं।
सभी विकल्प समूह दूरकर, ये दुख देने वाले हैं।।
पर से भिन्न देखने वाला, आत्म स्वभाव को प्रकटाओ।
हे आत्मन तू इसी आत्म के, परम तत्व में रम जाओ।।२९।।
स्वयं आत्मा से किया कर्म जो, पूर्व काल में कीना है।
वही शुभ अशुभ कर्मों का फल, इसी आत्म को लीना है।।
शुभ अरू अशुभ दूसरे दे यदि, वह फल तुमको मिलता है।
ऐसा हो तो स्वयं किया सब, कर्म निरर्थक होता है।।३०।।
अपने द्वारा कर्म किये जो, शुभ अरू अशुभ बन्ध जैसा।
किंचित भी निंह कोई किसी का, फल लेगा जैसा तैसा।।
ऐसे सत्य विचार सहित तुम मन एकाग्र बना डालो।
देता कोई सुख दुख ऐसी, भ्रान्ति सर्वथा धो डालो।।३१।।
जो परमात्मा नमित अमितगति, परम सिद्ध को प्राप्त हुये।
सबसे भिन्न दोष से विरहित, जिनने सारे कर्म धुये।।
शाश्वत पद को वह पाता है, मन से इसको जो ध्याता।
उत्तम वैभव युक्त अमितगति, मुक्ति धाम को वो पाता।।३२।।
इस प्रकार बत्तीस इन, छन्दों से जो ध्याय।
मन एकाग्र करे वही, अविनाशी पद पाय।।