एक व्रत इसमे 48 बेला और इतनी ही पारणाएं की जाती हैं। द्विकावली व्रत में दो उपवास के अनन्तर पारणा की जाती है। इसमें कुल ५४ उपवास होते हैं और ५४ दिन ही पारणा करनी पड़ती है। इसमें तिथि आदि का कोई नियम नहीं है। मतान्तर से द्विकावली व्रत के प्रत्येक महीने के कृष्णपक्ष में चतुर्थी-पंचमी, अष्टमी-नवमी, चतुर्दशी-अमावस्या और शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा-द्वितीया, पंचमी-षष्ठी, अष्टमी-नवमी और चतुर्दशी-पूर्णिमा का उपवास करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक महीने में ७ उपवास तथा ७ एकाशन करने चाहिए। वर्ष में इस प्रकार ८४ उपवास और ८४ पारणाएँ होती हैं।
द्विकावली व्रत की विधि के संबंध में दो मत प्रचलित हैं। पहला मत इस व्रत के लिए तिथि का कोई बंधन नहीं मानता है। इसमें कभी भी दो दिन उपवास कर पारणा करनी चाहिए। इस प्रकार५४ उपवास और ५४ पारणाएँ करके व्रत को समाप्त करना चाहिए। ५४ उपवास १६२ दिन में सम्पन्न किये जाते हैं। उपवास करने वाला प्रथम दो दिन उपवास, एक दिन पारणा पुन: दो दिन उपवास, एक दिन पारणा, इसी प्रकार आगे भी करता जाता है। इस प्रकार एक उपवास के सम्पन्न करने में तीन दिन लगते हैं, अत:५४ उपवास के ५४²३·१६२ दिन हुए। उपवास के दिनों में शीलव्रत का पालन करते हुए तीनों समय प्रतिदिन प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय सर्वशांतिकराय सर्वक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय श्रीं क्लीं नम: स्वाहा’ मंत्र का जाप करना चाहिए। यह मंत्र तीनों संध्याकालों में कम से कम १०८ बार जपा जाता है। उपवास और पारणा के लिए किसी तिथि का नियम नहीं है; फिर भी यह व्रत श्रावण मास से आरंभ किया जाता है। यह माघ मास की द्वादशी तक किया जाता है। कुछ लोग इसे वर्ष भर करने की सम्मति देते हैं, उनका कहना है कि श्रावण मास से आरंभ कर दो दिन उपवास, एक दिन पारणा इस क्रम से वर्षान्त तक व्रत करते रहना चाहिए। द्विकावली व्रत की विधि के संबंध में दूसरी मान्यता यह है कि इस व्रत में प्रत्येक मास में सात उपवास किये जाते हैं, ये सात उपवास २१ दिन में सम्पन्न होते हैं। दो दिन व्रत रखने के उपरान्त पारणा करनी होती है, इस प्रकार २१ दिन में सात उपवास करने के पश्चात् महीने के शेष दिनों में एकाशन करना चाहिए। प्रथम उपवास कृष्ण पक्ष में चतुर्थी-पंचमी का किया जायेगा। षष्ठी को पारणा की जायेगी, सप्तमी को एकाशन करने के उपरान्त अष्टमी और नवमी को व्रत किया जायेगा। इस व्रत की दशमी को पारणा होगी, पुन: एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी को एकाशन करना होगा। चतुर्दशी और अमावस्या को उपवास, पुन: शुक्लपक्ष में प्रतिपदा और द्वितीया का उपवास करना होगा। इस प्रकार व्रत में एक बार चार दिन का उपवास पड़ेगा। एक पारणा बीच की लुप्त हो जायेगी। चार दिनों के व्रत के उपरान्त तृतीया और चतुर्थी को एकाशन करना होगा। पंचमी और षष्ठी के उपवास के अनन्तर, सप्तमी को पारणा, पश्चात् अष्टमी और नवमी को उपवास करने पर दशमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी को एकाशन करना चाहिए। प्रत्येक महीने का अंतिम उपवास शुक्लपक्ष में चतुर्दशी और पूर्णिमा का करना होगा। कुछ लोग इस व्रत को शुक्लपक्ष से आरंभ करने के पक्ष में हैं। शुक्ल पक्ष से आरंभ करने पर प्रथम बार चार दिन तक लगातार उपवास नहीं पड़ता है, क्योंकि चतुर्दशी और पूर्णिमा के उपवास के पश्चात् कृष्णपक्ष में चतुर्थी-पंचमी को उपवास करने का विधान है। परन्तु इस क्रम में भी दूसरी आवृत्ति में चार उपवास करना पड़ेगा। द्वितीय मान्यता में द्विकावली व्रत के लिए तिथियाँ निर्धारित की गई हैं। अत: इसमें भी छ: घटी प्रमाण तिथि के होने पर ही व्रत करना होगा। इस व्रत की जाप-विधि सर्वत्र एक सी ही है। कषाय और विकथाओं के त्याग पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। द्विकावली व्रत का फल स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होना है। जो श्रावक इस व्रत का अनुष्ठान ध्यानपूर्वक करता है तथा प्रमाद का त्याग कर देता है, वह शीघ्र ही अपना आत्मकल्याण कर लेता है। यों तो सभी व्रतों द्वारा आत्मकल्याण करने में व्यक्ति समर्थ है, पर इस व्रत के पालन करने से समस्त मनोवाञ्छाएँ पूरी हो जाती हैं। किसी संकट या विपत्ति को दूर करने के लिए भी यह व्रत किया जाता है। कुछ लोग इसे संकटहरण व्रत भी कहते हैं।
यह व्रत १२० दिन में समाप्त होता है, इसमें २४ बेला, ४८ एकाशन और २४ पारणा, इस प्रकार १२० दिन लगते हैं। प्रथम बेला, पुन: पारणा, तत्पश्चात् दो एकाशन करें। इस प्रकार इस व्रत को पूर्ण करना चाहिए। इस व्रत में णमोकार मंत्र का जाप या पूर्वोक्त बृहद् द्विकावली मंत्र का जाप करना चाहिए।