—दोहा—
आठ प्रातिहार्यों सहित, श्री अरिहंत जिनेश।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, ऋषभदेव परमेश।।
अथ मण्डलस्योपरि द्वितीय कोष्ठकस्थाने पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-गीता छंद-
वर प्रातिहार्य सु आठ में, तरुवर अशोक विराजता।
मरकत मणी के पत्र पुष्पों, से खिला अतिभासता।।
वृषभेश की ऊँचाई से, बारह गुणे तुंग फरहरे।
इस युत प्रभू की अर्चना, कर शोक सब मन का हरें।।१।।
ॐ ह्रीं अशोकवृक्षमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु शीश पर त्रय छत्र शोभें, मोतियों की हैं लरें।
प्रभु तीन जग के ईश हैं, यह सूचना करती फिरें।।
क्या चन्द्रमा नक्षत्रगण, को साथ ले भक्ति करें।
इस कल्पनायुत छत्रत्रययुत, की सदा अर्चा करें।।२।।
ॐ ह्रीं छत्रत्रयमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल फटिक मणि से बना, बहुरत्न से चित्रित हुआ।
जिननाथ सिंहासन दिपे, निज तेज से नभ को छुआ।।
इस पीठ पर तीर्थेश, चतुरंगुल अधर ही राजते।
इस प्रातिहार्य समेत को, जन पूजते निज भासते।।३।।
ॐ ह्रीं सिंहासनमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर मुनीगण देव देवी, चक्रि नर पशु आदि सब।
निज निजी कोठे बैठ अंजलि, जोड़ते सुप्रसन्न मुख।।
इन बारहों गण से घिरे, वृषभेश त्रिभुवन सूर्य हैं।
इस प्रातिहार्य समेत जिनको, जजत जन जग सूर्य हैं।।४।।
ॐ ह्रीं द्वादशगणपरिवेष्टितमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभन-फलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब आइये जिन शरण में, मानों कहे यह दुंदुभी।
सब देवगण मिलकर बजाते, बहुत बाजे दुंदुभी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनको, वाद्य ध्वनि से पूजते।
सुरगण बजावें वाद्य उनके, सामने बहु भक्ति से।।५।।
ॐ ह्रीं देवदुंदुभिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगण गगन से कल्पतरु के, पुष्प बहु वर्षा करें।
यह वर्ण-वर्ण सुगंध खिलते, पुष्प जन मन भा रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, सुमन अर्घ्य लिये जजूँ।
अतिशय सुयश सुख प्राप्तकर, सब अशुभ अपयश से बचूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सुरपुष्पवृष्टिमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह कोटि भास्कर तेज हरता, ‘प्रभाम्ाण्डल’ नाथ का।
जन दर्श से निज सात भव को, देखते उसमें सदा।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनको, पूजहूँ अति चाव से।
निज आत्मतेज अपूर्व पाकर, छूटहूँ भव दाव से।।७।।
ॐ ह्रीं भामण्डलमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुर यक्षगण चौसठ चंवर, जिनराज पर ढोरें सदा।
ये चन्द्रसम उज्ज्वल चंवर, हरते सभी मन की व्यथा।।
इस प्रातिहार्य समेत जिन को, पूजहूँ श्रद्धा धरे।
जो जजें चामर ढोरकर, वे उच्च पद के सुख भरें।।८।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिचामरमहाप्रातिहार्यगुणमंडिताय वरप्रातिहार्यशोभनफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
प्रातिहार्य वर आठ हैं, तीर्थंकर पहिचान।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊॅँ स्वात्मनिधान।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टमहाप्रातिहार्यसमन्विताय श्रीतीर्थंकरऋषभदेवाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।