जंबूद्वीवाहिंतो संखेज्जािंण पयोधिदीवािंण।
गंतूण अत्थि अण्णो जंबूदीओ परमरम्मो१।।१७९।।
तत्थ वि विजयप्पहुदिसु भवंति देवाण दिव्वणयरीओ।
उविंर वज्जखिदीए चित्तामज्झम्मि पुव्वपहुदीसुं।।१८०।।
उच्छेहजोयणेणं पुरीओ बारससहस्सरुंदाओ।
जिणभवणभूसिदाओ उववणवेदीिंह जुत्ताओ।।१८१।।
पण्णत्तरिदलतुंगा पायारा जोयणद्धमवगाढा।
सव्वाणं णयरीणं णच्चंतविचित्तधयमाला।।१८२।।
कंचणपायाराणं वररयणविणिम्मियाण भूवासो।
जोयणपणुवीसदलं तच्चउभागो य मुहवासो।।१८३।।
२५ २५
२ । ४
एक्केक्काए दिसाए पुरीण पणुवीसगोउरदुवारे।
जंबूणदणिम्मविदा मणितोरणथंभरमणिज्जा।।१८४।।
बासट्ठि जोयणािंण ताणं हवंति पुरोवरिपुराणं।
उदओ तदलमेत्तो रुदो गाढो दुबे कोसा।।१८५।।
६२। ३१। को २।
मज्झे चेट्ठदि रायं विचित्तबहुभवणएहि अदिरम्मं।
जोयणसदाणि बारस वासजुदं एक्ककोसउच्छेहो।।१८६।।
१२००। को १।
तस्स य थलस्स उविंर समंतदो दोण्णि कोस उच्छेहं।
पंचसयचावरुंदं चउगोउरसंजुदं वेदी।।१८७।।
को २ । दंड ५००।
रायंगणबहुमज्झे कोससयं पंचवीसमव्भहियं।
विक्खंभो तद्दुगुणो उदओ गाढं दुवे कोसा।।१८८।।
१२५। २५०। को २।
पासादो मणितोरणसंपुण्णो अट्ठजोयणुच्छेहो।
चउवित्थारो दारो वज्ज्कवाडेिंह सोहिल्लो।।१८९।।
८।४।
एदस्स चउदिसासु चत्तारो होंति दिव्वपासादा।
उप्पण्णुप्पण्णाणं चउ चउ वट्टंति जाव छक्कंतं।।१९०।।
एत्तो पासादाणं परिमाणं मंडले पडिभणामो।
एक्को हवेदि मुक्खो चत्तारो मंडलम्मि पढमम्मि।।१९१।।
१। ४।
सोलस विदिए तदिए चउसट्ठी बेसदं च छप्पण्णं।
तुरिभे तं चउपहदं पंचमिए मंडलम्मि पासादा।।१९२।।
१६। ६४। २५६। १०२४।
चत्तारि सहस्सािंण छण्णउदिजुदाणि होंति छट्ठीए।
एत्तो पासादाणं उच्छेहािंद परूवेमो।।१९३।।
४०९६।
सव्वब्भंतरमुक्खप्पासादुस्सेहवासगाडसमा।
आदिमदुगमंडलए तस्स दलं तदिय-तुरिमम्मि।।१९४।।
पंचमिए छट्ठीए तद्दलमेत्तं हुवेदि उदयादी।
एक्केक्के पासादे एक्केक्का वेदिया विचित्तयरा।।१९५।।
वेकोसुच्छेहािंद पंचसयािंण धणूणि वित्थिण्णा।
आदिल्लयपासादे पढमे विदियम्मि तम्मेत्ता।।१९६।।
पुव्विल्लवेदिअद्धं तदिए तुरिमम्मि होंति मंडलए।
पंचमिए छट्ठीए तस्सद्धपमाणवेदीओ।।१९७।।
गुणसंकमणसरूवट्ठिदाण सव्वाण होदि परिसंखा।
पंचसहस्सा चउसयसंजुत्ता एक्कसट्ठी य।।१९८।।
५४६१।
आदिमपासादादो उत्तरभागे ट्ठिदा सुधम्मसभा।
दलिदपणुवीसजोयणदीहा तस्सद्धवित्थारा।।१९९।।
२५/२। २५/४।
णवजोयणउच्छेहा गाउदगाढा सुवण्णरयणमई।
तीए उत्तरभागे जिणभवणं होदि तम्मेत्तं।।२००।।
९। को १।
पवणदिसाए पढमप्पासादादो जििंणदगेहसमा।
चेट्ठदि उववादसभा कंचणवररयणणिवहमई।।२०१।।
२५/२ ।२५/४। ९। को १।
पुव्वदिसाए पढमप्पासादादो विचित्तविण्णासा।
चेट्ठदि अभिसेयसभा उववादसभाए सारिच्छा।।२०२।।
तत्थ च्चिय दिब्भाए अभिसेयसभासरिच्छवासादी।
होदि अलंकारसभा मणितोरणदाररमणिज्जा।।२०३।।
तिंस्स चिय दिब्भाए पुव्वसभासरिसउदयवित्थारा।
मंतसभा चामीयररयणमई सुंदरदुवारा।।२०४।।
एदे छप्पासादा पुव्वेिंह मंदिरेहि मेलविदा।
पंच सहस्सा चउसयअब्भहिया सत्तसट्ठीिंह।।२०५।।
५४६७।
ते सव्वे पासादा चउदिम्मुहविप्फुरंतकिरणेिंह।
वररयणपईवेिंह णिच्चच्चियणिच्चउज्जोवा।।२०६।।
पोक्खरणीरम्मेिंह उववणसंडेिंह विविहरुक्खेिंह।
कुसुमफलसोहिदेिंह सुरमिहुणजुदेहि सोहंति।।२०७।।
विद्दुमवण्णा केई केई कप्पूरकुंदसंकासा।
कंचणवण्णा केई केई वज्जिंदणीलणिहा।।२०८।।
तेसुं पासादेसुं विजओ देवीसहस्ससोहिल्लो।
णिच्चजुवाणा देवा वररयणविभूसिदसरीरा।।२०९।।
लक्खणवंजणजुत्ता धादुविहीणा य वाहिपरिचत्ता।
विविहसुहेसुं सत्ता कीडंते बहुविणोदेणं।।२१०।।
सयणाणि आसणािंण रयणमयािंण भवंति भवणेसुं।
मउवाणि णिम्मलािंण मणणयणाणंदजणणाणिं।।२११।।
आदिमपासादस्स य बहुमज्झे होदि कणयरणमयं।
सिहासणं विसालं सपादपीढं परमरम्मं।।२१२।।
िंसहासणमारूढो विजओ णामेण अहिवई तत्थ।
पुव्वमुहे पासादे तत्थाणंदेदि लीलाए।।२१३।।
तस्स य सामाणीया चेट्ठंते छस्सहस्सपरिमाणा।
उत्तरदिसाविभागे विदिसाए विजयपीढादो।।२१४।।
चेट्ठंति णिरुवमाणा छ च्चिय विजयस्स अग्गदेवीओ।
ताणं पीढा रम्मा िंसहासणपुव्वदिब्भाए।।२१५।।
परिवारा देवीओ तिण्णि सहस्सा हुवंति पत्तेक्कं।
साहियपल्लं आऊ णियणियठाणम्मि चेट्ठंति।।२१६।।
बारस देवसहस्सा बाहिरपरिसाए विजयदेवस्स।
णइरिदिदिसाए ताणं पीढािंण सामिपीढादो।।२१७।।
१२०००।
दस देवसहस्सािंण मज्झिमपरिसाए होंति विजयस्स।
दक्खिणदिसाविभागे तप्पीढा णाहपीढाहो।।२१८।।
१००००।
अब्भंतरपरिसाए अट्ठ सहस्साणि विजयदेवस्स।
अग्गिदिसाए होंति हु तप्पीढा णाहपीढादो।।२१९।।
८०००।
सेणामहत्तराणं सत्ताणं होंति दिव्वपीढािंण।
िंसहासणपच्छिमदो वरकंचणरयणरइदाइं।।२२०।।
तणुरक्खा अट्ठारससहस्ससंखा हवंति पत्तेक्कं।
ताणं चउसु दिसासुं चेट्ठंते चंदपीढािंण।।२२१।।
१८०००। १८०००। १८०००। १८०००।
सत्तसरमहुरगीयं गायंता पलहवंसपहुदीणि।
वायंता णच्चंता विजयं रंजंति तत्थ सुरा।।२२२।।
रायंगणस्स बाहिर परिवारसुराण होंति पासादा।
विप्फुरिदधयवडाया वररयणजोइअधियंता।।२२३।।
बहुविहरइकरणेहिं कुसलाओ णिच्चजोव्वणजुदाओ।
णाणाविगुव्वणाओ मायालोहादिरहिदाओ।।२२४।।
उल्लसिदविब्भमाओ चित्तसहावेण पेम्मवंताओ।
सव्वाओ देवीओ लग्गंते विजयदेवस्स।।२२५।।
णियणयराणि णिविट्ठा देवा सव्वे वि विणयसंपुण्णा।
णिब्भरभत्तिपसत्ता सेवंते विजयमणवरदं।।२२६।।
तण्णयरीए बाहिर गंतूणं जोयणाणि पणवीसं।
चत्तारो वणसंडा पत्तेक्कं चेत्ततरुजुत्ता।।२२७।।
होंति हु ताणि वणािंण्ा दिब्वाणि असोयसत्तवण्णाणं।
चंपयचूदवणा तह पुव्वादिपदाहिणक्कमेणं।।२२८।।
बारससहस्सजोयणदीहा ते होंति पंचसयरुंदा।
पत्तेक्कं वणसंडा बहुविहरुक्खेहिं परिपुण्णा।।२२९।।
१२०००। ५००।
एदेसुं चेत्तदुमा भावणचेत्तप्पमाणसारिच्छा।
ताण चउसु दिसासुं चउचउजिणणाहपडिमाओ।।२३०।।
देवासुरमहिदाओ सपाडिहेराओ रयणमइयाओ।
पल्लंकआसणाओ जििंणदपडिमाओ विजयंते।।२३१।।
चेत्तदुमस्सीसाणे भागे चेट्ठेदि दिव्वपासादो।
इगितीसजोयणाणिं कोसब्भहियाणि वित्थिण्णो।।२३२।।
३१। को १।
वासादि दुगुणउदओ दुकोस गाढा विचित्तमणिखंभो।
चउ-अट्ठजोयणािंण रुंदुच्छेहा दु तद्दारे।।२३३।।
६२। को २। ४। ८
सुजलंतरयणदीओ विचित्तसयणासणेिंह परिपुण्णो।
सद्दरसरूवगंधप्पासेहिं सुरमणारम्मो।।२३४।।
कणयमयकुड्ढविरचिदविचित्तचित्तप्पबंधरमणिज्जो।
अच्छरियजणणरूवो िंक बहुणा सो णिरुवमाणो।।२३५।।
तस्सिं असोयदेओ रमेदि देवीसहस्ससंजुत्तो।
वररयणमउडधारी चामरछत्तादिसोहिल्लो।।२३६।।
सेसम्मि वइजयंतत्तिदए विजयं व वण्णणं सयलं।
दक्खिणपच्छिमउत्तरदिसासु ताणं पि णयरािंण।।२३७।।
जम्बूद्वीप से आगे संख्यात समुद्र व द्वीपों के पश्चात् अतिशय रमणीय दूसरा जम्बूद्वीप है।।१७९।। वहाँ पर भी वङ्काा पृथिवी के ऊपर चित्रा के मध्य में पूर्वादिक दिशाओं में विजय प्रभृति देवों की दिव्य नगरियाँ हैं।।१८०।। ये नगरियाँ उत्सेध योजन से बारह हजार योजनप्रमाण विस्तार से सहित, जिनभवनों से विभूषित और उपवनवेदियों से संयुक्त हैं।।१८१।। विस्तार १२०० यो.। इन सब नगरियों के प्राकार पचहत्तर के आधे (साढ़े सैंतीस) योजन ऊँचे, अर्ध योजन प्रमाण अवगाह से सहित और फहराती हुई विचित्र ध्वजाओं के समूह से संयुक्त हैं।।१८२।। उत्सेध ७५/२। अवगाह १/२। उत्तम रत्नों से निर्मित इन सुवर्णप्राकारों का भूविस्तार पच्चीस के आधे (साढ़े बारह) योजन और मुखविस्तार पच्चीस का चतुर्थ भाग अर्थात् सवा छह योजनमात्र है।।१८३।। भूविस्तार २५/४। मुखविस्तार २५/४। इन नगरियों की एक-एक दिशा में सुवर्ण से निर्मित और मणिमय तोरण स्तम्भों से रमणीय पच्चीस गोपुरद्वार हैं।।१८४।। इन नगरियों के उत्तम भवनों की ऊँचाई बासठ योजन, इससे आधा विस्तार और अवगाह दो कोशमात्र है।।१८५।। उत्सेध ६२। विस्तार ३१। अवगाह को. २। नगरियों के मध्य में विचित्र, बहुत भवनों से अतिशय रमणीय, बारह सौ योजनप्रमाण विस्तार से सहित और एक कोश ऊँचा राजांगण स्थित है।।१८६।। विस्तार १२००। उत्सेध को. १। इस स्थल के ऊपर चारों ओर दो कोश उँâची, पांच सौ धनुष विस्तीर्ण और चार गोपुरों से युक्त वेदी स्थित है।।१८७।। उत्सेध २ को. । विस्तार ५०० धनुष। राजांगण के बहुमध्य भाग में एक सौ पच्चीस कोश विस्तार वाला, इससे दूना उँâचा, दो कोश मात्र अवगाह से सहित और मणिमय तोरणों से परिपूर्ण प्रासाद है। इसका वङ्कामय कपाटों से सुशोभित द्वार आठ योजन ऊँचा और चार योजन मात्र विस्तार से सहित है।।१८८-१८९।। प्रासाद विस्तार १२५। उत्सेध २५०। अवगाह २ को.। द्वारोत्सेध ८। विस्तार ४ यो.। इसकी चारों दिशाओं में चार दिव्य प्रासाद हैं। (?) उनसे आगे छठे मण्डल तक उत्तरोत्तर चार-चार गुणे प्रासाद हैं।।१९०।। यहाँ से प्रत्येक मण्डल के प्रासादों के प्रमाण को कहते हैं। एक (मध्य का) प्रासाद मुख्य है। प्रथम मण्डल में चार प्रासाद हैं।।१९१।। द्वितीय मण्डल में सोलह, तृतीय में चौंसठ, चतुर्थ में दो सौ छप्पन और पांचवें मण्डल में इससे चौगुणे अर्थात् दश सौ चौबीस प्रासाद हैं।।१९२।। द्वि. मं. १६। तृ. मं. ६४। च. मं. २५६। पं. मं. १०२४।
छठे मण्डल में चार हजार छियानवे प्रासाद हैं। अब यहाँ से आगे भवनों की ऊँचाई आदि का निरूपण किया जाता है।।१९३।। षष्ठ मं. ४०९६।
आदि के दो मंडलों में स्थित प्रासादों की ऊँचाई, विस्तार और अवगाह सबके बीच में स्थित मुख्य प्रासाद की ऊँचाई, विस्तार और अवगाह के समान है। तृतीय और चतुर्थ मंडल के प्रासादों की उँâचाई आदि उससे आधी है। इससे भी आधी पंचम और छठे मण्डल के प्रासादों की उँâचाई आदिक है। प्रत्येक प्रासाद के विचित्रतर एक-एक वेदिका है।। १९४-१९५।।
प्रथम प्रासाद के आश्रित वेदी दो कोश, उँâचाई आदि से सहित और पाँच सौ धनुष विस्तीर्ण है। प्रथम और द्वितीय मंडल में स्थित प्रासादों की वेदियाँ भी इतनी मात्र ऊँचाई आदि से सहित हैं।।१९६।। तृतीय व चतुर्थ मण्डल के प्रासादों की वेदिका की उँâचाई व विस्तार का प्रमाण पूर्वोक्त वेदियों से आधा और इससे भी आधा प्रमाण पाँचवें व छठे मण्डल के प्रासादों की वेदिकाओं का है।।१९७।। गुणित क्रम से स्थित इन सब भवनों की संख्या पाँच हजार चार सौ इकसठ है।।१९८।। ५४६१। प्रथम प्रासाद के उत्तर भाग में पच्चीस योजन के आधे अर्थात् साढ़े बारह योजन लम्बी और इससे आधे विस्तार वाली सुधर्म सभा स्थित है।।१९९।। लम्बाई २५/२। विस्तार २५/४ योजन। सुवर्ण और रत्नमयी यह सभा नौ योजन ऊँची और एक गव्यूति अर्थात् कोशमात्र अवगाह से सहित है। इसके उत्तरभाग में इतने मात्र प्रमाण से संयुक्त जिनभवन है।।२००।। उत्सेध ९ यो.। अवगाह को.। प्रथम प्रासाद से वायव्यदिशा में जिनेन्द्र भवन के समान सुवर्ण एवं उत्तम रत्नसमूहों से निर्मित उपपाद सभा स्थित है।।२०१।। लम्बाई २५/४। विस्तार २५/४। उत्सेध ९ योजन। अवगाह १ को. १।
प्रथम प्रासाद के पूर्व में उपपाद सभा के समान विचित्र रचना से संयुक्त अभिषेक सभा स्थित है।।२०२।। इसी दिशा भाग में अभिषेक सभा के समान विस्तारादि से सहित और मणिमय तोरणद्वारों से रमणीय अलंकार सभा है।।२०३।। इसी दिशाभाग में पूर्व सभा के सदृश ऊँचाई व विस्तार से सहित, सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित और सुन्दर द्वारों से संयुक्त मंत्रसभा है।।२०४।।
इन छह प्रासादों को पूर्व मन्दिरों में मिला देने पर भवनों की समस्त संख्या पाँच हजार चार सौ सड़सठ होती है।।२०५।। ५४६७।
जिनकी किरणें चारों दिशाओं में प्रकाशमान हो रही हैं ऐसे उत्तम रत्नमयी प्रदीपों से वे सब भवन नित्य अर्चित और नित्य उद्योतित रहते हैं।।२०६।। पुष्करिणिओं से रमणीय, फल-फूलों से सुशोभित, अनेक प्रकार के वृक्षों से सहित और देवयुगलों से संयुक्त ऐसे उपवन खण्डों से वे प्रासाद शोभायमान होते हैं।।२०७।। इनमें से कितने ही भवन मूंगे जैसे वर्ण वाले, कितने ही कपूर और कुंदपुष्प के सदृश, कितने ही सुवर्ण वर्ण और कितने ही वङ्का एवं इन्द्रनीलमणि के सदृश हैं।।२०८।।
उन भवनों में हजारों देवियों से सुशोभित विजय नाम के देव शोभायमान हैं और वहाँ नित्ययुवक, उत्तम रत्नों से विभूषित शरीर से संयुक्त, लक्षण व व्यंजनों से सहित, धातुओं से विहीन, व्याधि से रहित तथा विविध प्रकार के सुखों में आसक्त देव बहुत विनोद के साथ क्रीडा करते हैं।।२०९-२१०।। इन भवनों में मृदुल, निर्मल और मन एवं नेत्रों को आनन्ददायक रत्नमय शय्याएँ व आसन विद्यमान हैं।।२११।। प्रथम प्रासाद के बहुमध्य भाग में अतिशय रमणीय और पादपीठ सहित सुवर्ण एवं रत्नमय विशाल िंसहासन है।।२१२।। वहाँ पूर्वमुख प्रासाद में िंसहासन पर आरूढ़ विजय नामक अधिपति देव लीला से आनन्द को प्राप्त होता है।।२१३।। विजय के िंसहासन से उत्तरदिशा और विदिशा में उसके छह हजार प्रमाण सामानिक देव स्थित रहते हैं।।२१४।। मुख्य िंसहासन के पूर्व दिशाभाग में विजयदेव की अनुपम छहों अग्रदेवियाँ स्थित रहती हैं। उनके सिंहासन रमणीय हैं।।२१५।। इनमें से प्रत्येक अग्रदेवी की परिवार देवियाँ तीन हजार हैं जिनकी आयु एक पल्य से अधिक होती है। ये परिवार देवियाँ भी अपने-अपने स्थान में स्थित रहती हैं।।२१६।।
विजयदेव की बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं। उनके िंसहासन स्वामी के िंसहासन से नैऋत्य दिशाभाग में स्थित रहते हैं।।२१७।। १२०००।
विजयदेव की मध्य परिषद् में दश हजार देव होते हैं। उनके िंसहासन स्वामी के िंसहासन से दक्षिण दिशाभाग में स्थित रहते हैं।।२१८।। १००००।
विजयदेव की अभ्यन्तर परिषद् में जो आठ हजार देव रहते हैं, उनके िंसहासन स्वामी के िंसहासन से अग्निदिशा में स्थित रहते हैं।।२१९।। ८०००।
सात सेना महत्तरों के उत्तम सुवर्ण एवं रत्नों से रचित दिव्य पीठ मुख्य िंसहासन के पश्चिम में होते हैं।।ं२२०।। विजयदेव के जो अठारह हजार प्रमाण शरीररक्षक देव हैं, उन प्रत्येक के चन्द्रपीठ चारों दिशाओं में स्थित हैं।।२२१।। पूर्व १८०००।
दक्षिण १८०००। पश्चिम १८०००। उत्तर १८०००। वहाँ देव सात स्वरों से परिपूर्ण मधुर गीत को गाते और पटह एवं बांसुरी आदिक बाजों को बजाते व नाचते हुए विजयदेव का मनोरंजन करते हैं।।२२२।।
राजांगण से बाहर फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और उत्तम रत्नों की ज्योति से अधिक रमणीय परिवार देवों के प्रासाद हैं।।२२३।।
जो बहुत प्रकार की रति के करने में कुशल हैं, नित्य यौवन से युक्त हैं, नाना प्रकार की विक्रिया को करती हैं, माया एवं लोभादि से रहित हैं, उल्लासयुक्त विलास सहित हैं और स्वभाव से ही प्रेम करने वाली हैं ऐसी समस्त देवियाँ विजयदेव की सेवा करती हैं।।२२४-२२५।।
अपने नगरों में रहने वाले सब ही देव विनय से परिपूर्ण और अतिशय भक्ति में आसक्त होकर निरन्तर विजयदेव की सेवा करते हैं।।२२६।। उस नगरी के बाहर पच्चीस योजन जाकर चार वनखण्ड स्थित हैं, जो प्रत्येक चैत्यवृक्षों से संयुक्त हैं।।२२७।। अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक और आम्र वृक्षों के ये वन पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणक्रम से हैं।।२२८।।
बहुत प्रकार के वृक्षों से परिपूर्ण वे प्रत्येक वनखण्ड बारह हजार योजन लम्बे और पाँच सौ योजन चौड़े हैं।।२२९।। दीर्घ १२०००। विस्तीर्ण ५०० योजन।
इन वनों में भावनलोक के चैत्यवृक्षों के प्रमाण से सदृश जो चैत्यवृक्ष स्थित हैं उनकी चारों दिशाओं में चार-चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं।।२३०।।
देव व असुरों से पूजित, प्रातिहार्यों से सहित और पद्मासन से स्थित वे रत्नमय जिनेन्द्र प्रतिमाएँ जयवंत हैं।।२३१।। प्रत्येक चैत्यवृक्ष के ईशानदिशाभाग में एक कोश अधिक इकतीस योजन प्रमाण विस्तार वाला दिव्य प्रासाद स्थित है।।२३२।। योजन ३१, को. १।
विचित्र मणिमय खम्भों से संयुक्त इस प्रासाद की उँâचाई विस्तार से दुगुणी अर्थात् साढ़े बासठ योजन और अवगाह दो कोशप्रमाण है। उसके द्वार का विस्तार चार योजन और ऊँचाई आठ योजन है।।२३३।। उँâचाई योजन ६२, को. २। (अवगाह को. २)। विस्तार ४। उँâचाई ८ योजन।
उपर्युक्त प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपकों से सहित, विचित्र शय्याओं व आसनों से परिपूर्ण और शब्द-रस-गन्ध एवं स्पर्श से देवों के मन को आनन्दजनक, सुवर्णमय भीतों पर रचे गए विचित्र चित्रों के सम्बन्ध से रमणीय और आश्चर्यजनक स्वरूप से संयुक्त हैं। बहुत कहने से क्या ? वह प्रासाद अनुपम है।।२३४-२३५।।
उस प्रासाद में उत्तम रत्नमुकुट को धारण करने वाला और चमर-छत्रादि से सुशोभित वह अशोक देव हजारों देवियों से युक्त होकर रमण करता है।।२३६।।
शेष वैजयन्तादि तीन देवों का सम्पूर्ण वर्णन विजय देव के ही समान है। इनके भी नगर क्रमशः दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में स्थित हैं।।२३७।।
भावार्थ-इन नगरों के बाहर वनों में चारों दिशाओं में अशोक, सप्तपर्ण, चंपक व आम्रवनों में चैत्यवृक्ष हैं, जिनमें जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।