दिगम्बर मुनिधर्म की अविच्छिन्न धारा से सुशोभित, दक्षिण भारत के अन्तर्गत, वर्तमान महाराष्ट्र प्रान्तस्थ औरंगाबाद जिले के अड़गांव ग्राम में रांवका गोत्रीय खण्डेलवाल श्रेष्ठी श्री नेमीचन्द्र जी के गृहांगण में माता दगड़ाबाई की कुक्षि से वि.सं. १९५८ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम हीरालाल रखा गया था। आप दो भाई थे, दो बहिनें भी थीं। प्रतिभावान व कुशाग्रबुद्धि होते हुए भी साधारण आर्थिक स्थिति के कारण आप विशेष शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाए।
जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर भी सबको प्यारा लगता है तथा हवा उसकी सुगंध को सब दिशाओं में पैâला देती है, उसी प्रकार आचार्यश्री शिवसागर महाराज ने भी छोटे से गाँव में जन्म लेकर सम्यक् चारित्र की निष्ठता से, आचार्य के सम्पूर्ण गुणों से सुशोभित होते हुए उन गुणों तथा अपनी चर्या के द्वारा गाँव-गाँव को प्रभावित किया था। आप घोर तपस्वी व वाग्मी भी थे।
वर्तमान शताब्दी की दिगम्बर जैनाचार्य परम्परा के द्वितीय पट्टाधीश परमपूज्य प्रात:स्मरणीय परम तपस्वी, बाल ब्रह्मचारी आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज थे। आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के समय में भारत वर्ष में साधु संघ का आदर्श प्रस्तुत हुआ था। आपने आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज द्वारा आर्षमार्गानुसार प्रस्थापित परम्परा को अक्षुण्ण तो बनाये ही रखा, साथ ही संघ में अभिवृद्धि कर संघानुशासन का आदर्श भी उपस्थित किया। भारतवर्ष का सम्पूर्ण जैन जगत आपके आदर्श संघ के प्रति नतमस्तक था। साधु समुदाय में ज्ञान-जिज्ञासा एवं उसकी प्राप्ति की सतत लगन के साथ चारित्र का उच्चादर्श देखकर विद्वत्वर्ग भी संघ के प्रति आकृष्ट था और प्रबुद्ध साधुवर्ग से अपनी शंकाओं के समाधान प्राप्तकर आनन्द प्राप्त करता था।
औरंगाबाद जिले के ही ईरगाँववासी ब्र. हीरालाल जी गंगवाल (स्व. आचार्यश्री वीरसागर जी) आपके शिक्षागुरु रहे। निकटस्थ अतिशयक्षेत्र कचनेर के पार्श्वनाथ दि. जैन विद्यालय में आपका प्राथमिक विद्याध्ययन हुआ। धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ हिन्दी का तीसरी कक्षा तक ही आपका अध्ययन हो पाया था कि अचानक महाराष्ट्र प्रांत में पैâली प्लेग की भयंकर बीमारी की चपेट में आपके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। माता-पिता की वात्सल्यपूर्ण छत्रछाया में बालक अपना पूर्ण विकास कर पाता है, किन्तु आपके जीवन के तो प्राथमिक चरण में ही उसका अभाव हो गया। इसका प्रभाव आपके विद्याध्ययन पर पड़ा। आपके बड़े भाई का विवाह हो चुका था, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद ही उनका भी देहान्त हो जाने के कारण १३ वर्षीय अल्पवय में ही आप पर गृहस्थ संचालन का भार आ पड़ा। कुशलतापूर्वक आपने इस उत्तरदायित्व को भी निभाया।
माता-पिता एवं बड़े भाई के आकस्मिक वियोग के कारण संसार की क्षणभंगुर परिस्थितियों ने आपके मन को उद्वेलित कर दिया। फलस्वरूप, गृहस्थी बसाने के विचारों को मन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया। विवाह के प्रस्ताव प्राप्त होने पर भी आपने सदैव अपनी असहमति ही प्रकट की। आप आजीवन ब्रह्मचारी ही रहे। २८ वर्ष की युवावस्था में असीम पुण्योदय से आपको आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के दर्शन करने का मंगल अवसर मिला तथा उसी समय आपने यज्ञोपवीत धारण कर दो प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये। महामनस्वी चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री के द्वारा बोया यह व्रतरूप बीज आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के चरण सानिध्य में पल्लवित पुष्पित हुआ।
वि. सं. १९९९ की बात है, अब तक आपके आद्य विद्यागुरु ब्र. हीरालाल जी गंगवाल आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ग्रहण कर चुके थे और मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थे। आपने उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए तथा ब्रह्मचारी अवस्था में संघ में प्रवेश किया। बाल्यावस्था से ही आपकी स्वाध्याय में रुचि थी, वह अब और तीव्रतर होने लगी अत: आप विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। ‘‘ज्ञानं भार: क्रियां बिना’’ की उक्ति आपके मन को आन्दोलित करने लगी। आपके मन में चारित्र ग्रहण करने की उत्कट भावना ने जन्म लिया। आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का जब सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र पर ससंघ पहुँचना हुआ तब आपने वि.सं. २००० में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आपको क्षुल्लक शिवसागर नाम प्रदान किया गया। अद्भुत संयोग रहा हीरालाल जी का। गुरु और शिष्य दोनों ही हीरालाल थे। यह गुरु-शिष्य संयोग वीरसागर जी महाराज की सल्लेखना तक निर्बाधरूप से बना रहा।
निरन्तर ज्ञान-वैराग्य की अभिव्यक्ति ने आपको निर्ग्रन्थ-दिगम्बर दीक्षा धारण करने के लिए प्रेरित किया। फलस्वरूप वि.सं. २००६ में नागौर (राज.) में आषाढ़ शुक्ला ११ को आपने आचार्यश्री वीरसागर जी के पादमूल में मुनि दीक्षा ग्रहण की। वर्तमान पर्याय का यह आपका चरम विकास था। अब आप मुनि शिवसागर जी थे। मुनिदीक्षा के पश्चात् ८ वर्ष पर्यंत गुरु सन्निधि में आपकी योग्यता बढ़ती चली गई। आपने गुरुदेव के साथ श्री सम्मेदशिखर जी सिद्धक्षेत्र की यात्रा वि.सं. २००९ में की। जब वि.सं. २०१४ (सन् १९५७) में आपके गुरु का जयपुर खानियां में समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास हो गया तब आपको आचार्यपद प्रदान किया गया। इस अवधि में आपका ज्ञान भी परिष्कृत हो चुका था। आपने चारों अनुयोगसंबंधी ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था तथा अनेक स्तोत्र पाठ, समयसार कलश, स्वयंभूस्तोत्र, समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि संस्कृत रचनाएँ कण्ठस्थ भी कर ली थीं। मातृभाषा मराठी होते हुए भी आप हिन्दी अच्छी बोल लेते थे।
वि.सं. २०१४ में ही आचार्यपद ग्रहण के पश्चात् आपने ससंघ गिरनार क्षेत्र की यात्रा की। उसके बाद क्रमश: ब्यावर, अजमेर, सुजानगढ़, सीकर, लाडनूँ, खानिया (जयपुर), पपौरा, महावीर जी, कोटा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में चातुर्मास किए। इन वर्षों में आपके द्वारा संघ की अभिवृद्धि के साथ-साथ धर्म की प्रभावना भी हुई। ११ वर्षीय इसी आचार्यत्व काल में आपने अनेक भव्यजीवों को मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका पद की दीक्षाएँ प्रदान कीं तथा सैकड़ों श्रावकों को अनेक प्रकार के व्रत, प्रतिमा आदि ग्रहण कराकर मोक्षमार्ग में अग्रसर किया। आपके सर्व प्रथम दीक्षित शिष्य मुनि ज्ञानसागर जी महाराज थे। उसके अनन्तर आपने वृषभसागर जी, भव्यसागर जी, अजितसागर जी, सुपार्श्वसागर जी, श्रेयांससागर जी, सुबुद्धिसागर जी को मुनिदीक्षा प्रदान की। आपने सर्वप्रथम आर्यिका दीक्षा चन्द्रमती जी को प्रदान की। उसके बाद क्रमश: पद्मावती जी, नेमामती जी, विद्यामती जी, बुद्धिमती जी, जिनमती जी, राजुलमती जी, संभवमती जी, आदिमती जी, विशुद्धमती जी, अरहमती जी, श्रेयांसमती जी, कनकमती जी, भद्रमती जी, कल्याणमती जी, सुशीलमती जी, सन्मती जी, धन्यमती जी, विनयमती जी एवं श्रेष्ठमती जी आदि को आर्यिका दीक्षा दी। आपके द्वारा दीक्षित सर्वप्रथम क्षुल्लक शिष्य संभवसागर जी थे, साथ ही आपने शीतलसागर जी, यतीन्द्रसागर जी, धर्मेन्द्रसागर जी, भूपेन्द्रसागर जी व योगीन्द्रसागर जी को भी क्षुल्लक के व्रत दिये। क्षुल्लक धर्मेन्द्रसागर जी आपके द्वारा अंतिम दीक्षित भव्यप्राणी थे। सुव्रतमती क्षुल्लिका भी आपसे ही दीक्षित थीं। इसके अतिरिक्त तीन भव्य प्राणियों को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपसे मुनिदीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य मिला था। वे थे आनन्दसागर जी, ज्ञानानंदसागर जी तथा समाधिसागर जी। इन तीनों ही साधुओं की सल्लेखना आपकी सन्निधि में ही हुई थी।
आपकी पारखी दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म थी, आत्मकल्याण का इच्छुक कोई नवीन व्यक्ति संघ में आता और दीक्षा की याचना करता तो यदि वह आपकी पारखी दृष्टि में दीक्षा का पात्र सिद्ध हो जाता तो ही वह दीक्षा प्राप्त कर सकता था, अन्यथा नहीं। जिस व्यक्ति को जनसाधारण शीघ्र दीक्षा का पात्र नहीं समझता, वह व्यक्ति आचार्यश्री की दृष्टि से बच नहीं पाता था। उसकी क्षमता परीक्षण के पश्चात् ही उसे योग्यतानुसार क्षुल्लक, मुनि आदि दीक्षा आपने प्रदान की। विद्वानों का आकर्षण भी आपके एवं संघस्थ गहनतम स्वाध्यायी साधुओं के प्रति था इसीलिए प्राय: प्रत्येक चातुर्मास में संघ में कई-कई दिनों तक विद्वत्वर्ग आकर रहता था और सभी अनुयोगों की सूक्ष्म चर्चाओं का आनन्द लेता था। बातचीत के बीच सूत्ररूप वाक्यों के प्रयोग द्वारा बड़ी गहन बात कह जाना आचार्यश्री की प्रवृत्ति का अभिन्न अंग था। कुल मिलाकर आचार्यश्री अपूर्व गुणों के भण्डार थे। वि. सं. २०२५ (सन् १९६८) का अंतिम वर्षायोग आपने प्रतापगढ़ में किया था। वहाँ से फाल्गुन माह में होने वाली शांतिवीर नगर महावीर जी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए आप ससंघ श्री महावीर जी आये थे। यहाँ आने के कुछ ही दिन बाद आपको ज्वर आया और ६-७ दिन के अल्पकालीन ज्वर में ही आपका समस्त संघ की उपस्थिति में फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को दिन में लगभग ३ बजे समाधिमरण हो गया।
वस्तुत: आचार्यश्री ने अपने गुरु के परम्परागत इस संघ को चारित्र व ज्ञान की दृष्टि से परिष्कृत, परिवर्धित और संचालित किया था। उन जैसे महान् व्यक्तित्व का अभाव आज भी खटकता है।
परमपूज्य गुरुदेव श्री आचार्य शिवसागर जी महाराज के चरण युगलों में परोक्षरूप से कृति- कर्मपूर्वक नमोऽस्तु।
पुन: इन आचार्यश्री की समाधि के पश्चात् आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज को चतुर्विध संघ ने इस परम्परा का तृतीय पट्टाचार्य घोषित किया, इन्हीं आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज से पूज्य अभयमती माताजी ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण की, अब आप पढ़ें उन आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज का जीवन परिचय-