एक ब्रह्माद्वैतवादी जनों का सम्प्रदाय है ये लोग कहते हैं कि ‘सर्वं वै खलु इदं ब्रह्म नेह नानास्ति कश्चन’। यह सारा जगत् एक ब्रह्म स्वरूप है, यहाँ भिन्न वस्तुएँ कुछ नहीं हैं। ये चेतन-अचेतन जितने भी पदार्थ दिख रहे हैं वे सब एक ब्रह्म की ही पर्याय हैं। ऐसे ही शब्दाद्वैतवादी सारे जगत को एक शब्द ब्रह्म स्वरूप ही मानते हैं। विज्ञानाद्वैतवादी सारे जगत को एक ज्ञान मात्र ही मानते हैं, चित्राद्वैतवादी सारे जगत को चित्रज्ञान रूप कहते हैं और शून्याद्वैतवादी सब कुछ शून्य रूप ही मानते हैं। ऐसे ये पाँच अद्वैतवादी हैं, ये लोग एक अद्वैत के सिवाय द्वैतरूप (दो रूप) कोई चीज नहीं मानते हैं, इनका कहना है कि जो भी द्वैतरूप संसार दिख रहा है वह सब अविद्या या कल्पना से ही है, वास्तविक नहीं है।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, सुख-दु:ख, विद्या-अविद्या आदि रूप से सर्वत्र दो चीजें ही उपलब्ध होती हैं। इसमें एक को काल्पनिक कहने पर दूसरी भी काल्पनिक होने से कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तथा आपने आगम से ब्रह्म तत्त्व को सिद्ध किया, तो आगम और ब्रह्म दो हो गये। यदि आगम को ब्रह्मा का स्वभाव कहो तो भी स्वभाव और स्वभाव वाले की अपेक्षा दो हो गये। दूसरी बात यह है कि जैसे-जैन के बिना अजैन नहीं बनता, वैसे ही द्वैत के बिना अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है तथा जिस अविद्या से ये भेद दिख रहे हैं वह अविद्या परमब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न कहो तो द्वैत हो गया और यदि अभिन्न कहो तो तुम्हारा ब्रह्म अविद्या से अभिन्न होने से अविद्या रूप हो गया, इसलिए आपका ब्रह्म अविद्यारूप हो जाने से हमारा विद्यारूप द्वैत तत्त्व ही सिद्ध हो गया।
यौग के दो भेद हैं-नैयायिक और वैशेषिक। ये लोग द्रव्य से गुण को सर्वथा भिन्न मानते हैं। उनके मत से अग्नि से उष्णता सर्वथा भिन्न है किन्तु जैनाचार्य पूंछते हैं कि उष्णता के संबंध के पहले अग्नि उष्ण थी या ठंडी ? यदि उष्ण थी, तो उष्णता के संबंध ने क्या किया, यदि अग्नि ठंडी थी और उष्णता ने उष्ण किया, तो वह पूर्व में उष्ण गुण और ठंडी अग्नि उपलब्ध नहीं होते हैं। वास्तव में उष्णता के बिना अग्नि का अस्तित्व ही असंभव है इसलिए जैन मत में द्रव्य से गुण को अभिन्न माना है और संज्ञा आदि के भेद से ही भिन्न माना है।बौद्ध ने कार्य-कारण को परस्पर में सर्वथा भिन्न माना है, उसका कहना है कि मिट्टी का सर्वथा नाश होकर घड़ा बना है परन्तु यह बात किसी के गले नहीं उतरती है तथा इन्होंने कार्य (घड़े) के अणु-अणु को भी सर्वथा भिन्न-भिन्न माना है किन्तु ऐसा मानने से तो घड़े में पानी वैâसे भरा जा सकेगा ? अभिप्राय यह हुआ कि ब्रह्माद्वैतवादी चेतन, अचेतन, संसारी, मुक्त कार्य कारण आदि सभी में अद्वैत-एकरूपता सिद्ध करते हैं। योग और सभी द्रव्य गुण आदि में और कार्य कारण आदि में द्वैत यानी पृथक्-पृथक्पना सिद्ध करते हैं। मीमांसक सर्वथा अद्वैत और पृथक् रूप उभय का एकान्त मानता है। बौद्ध भेदाभेद को सर्वथा अवाच्य-अवक्तव्य कहते हैं। इन चारों की मान्यताएं कथमपि संभव नहीं हैं।जैनसिद्धान्त के अनुसार सभी चेतन-अचेतन वस्तु रूप जगत अद्वैत एक रूप है, क्योंकि सभी वस्तुएँ सत् सामान्य की अपेक्षा अस्तिरूप हैं।
सभी वस्तुएँ पृथक्त्वरूप हैं क्योंकि संज्ञा संख्या, लक्षण आदि से सभी में भेद हैं।
सभी वस्तुएँ उभयरूप हैं क्योंकि क्रम से अद्वैत और भेदरूप द्वैत की अपेक्षा है।
सभी वस्तुएँ अवक्तव्य हैं क्योंकि एक साथ अद्वैत और द्वैत दोनों धर्म को कह नहीं सकते।
सभी वस्तुएँ अद्वैत अवक्तव्य रूप हैं क्योंकि क्रम से अद्वैत की और युगपत् उभय की विवक्षा है।
सभी वस्तुएँ द्वैत अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम से द्वैत की और युगपत् दोनों धर्मों की विवक्षा है।
इस प्रकार सभी वस्तुएँ कथंचित् भेदाभेदात्मक होकर ही प्रमाण का विषय हैं क्योंकि मुख्य और गौण की विवक्षा पाई जाती है। जब वस्तुओं में अभेद धर्म विवक्षित होता है, तब वह प्रधान हो जाता है और द्वैत धर्म गौण हो जाता है। जब द्वैत प्रधान होता है, तब अद्वैत गौण हो जाता है, यही स्याद्वाद प्रक्रिया है।