इस भरतक्षेत्र के बंगदेश में मिथिलानगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी ‘कुंभ’ महाराज धर्मनीतिपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनकी रानी का नाम ‘प्रजावती’ था।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन सोलहस्वप्नविलोकनपूर्वक रानी प्रजावती ने अहमिन्द्र देव को गर्भ में धारण किया और मगसिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में पूर्ण चन्द्र सदृश पुत्र रत्न को जन्म दिया। सौधर्म इन्द्र ने समस्त देवों सहित महावैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक किया, अनन्तर ‘मल्लिनाथ’ नामकरण करके मिथिलानगरी में जाकर महामहोत्सवपूर्वक माता-पिता को सौंप दिया।
मल्लिनाथ तीर्थंकर की पचपन हजार वर्ष की आयु थी एवं पच्चीस धनुष ऊँचा सुवर्ण वर्णमय शरीर था। कुमार काल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है। सर्वत्र मनोहर वाद्य बज रहे हैं। उसे देखते ही उन्हें पूर्व जन्म के सुन्दर अपराजित विमान का स्मरण आ गया। वे विचार करने लगे कि कहाँ तो वीतरागता से उत्पन्न हुआ प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा और कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करने वाला यह विवाह ? उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर भगवान की स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्रों ने देवों सहित आकर ‘जयन्त’ नामक पालकी पर भगवान को विराजमान किया और श्वेतवन के उद्यान में पहुँचे।वहाँ पर भगवान ने मगसिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सिद्ध साक्षीपूर्वक बेला का नियम लेकर तीन सौ राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया एवं अन्तर्मुहूर्त में ही मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया। तीसरे दिन पारणा के लिए आये, तब मिथिलानगरी के नंदिषेण राजा ने आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिए।
छद्मस्थ अवस्था के छह दिन व्यतीत हो जाने पर भगवान ने बेला का नियम लेकर उसी श्वेतवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया। पौष वदी दूज के दिन अश्विनी नक्षत्र में प्रात:काल चार घातिया कर्मों का नाश करके भगवान केवलज्ञानी हो गये। भगवान ने बहुत काल तक आर्यखंड में विहार किया।
एक मास की आयु के अवशेष रह जाने पर वे भगवान सम्मेदाचल पर पहुँचे। वहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ योग निरोध किया और फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो गये। उसी समय देवों ने आकर भगवान का निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया।
ऐसे उन्निसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ भगवान की भक्ति नितप्रति हमारे रत्नत्रय की वृद्धि करे।