१मालव देश के अंतर्गत एक घटगांव में एक देविल नाम का धनी कुंभकार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। ये दोनों आपस में परम मित्र थे। एक बार इन दोनों ने मिलकर यात्रियों के ठहरने के लिए एक धर्मशाला बनवाई। एक दिन देविल ने एक मुनि को उस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को मालूम होते ही उसने आकर मुनि को वहाँ से निकाल दिया और संन्यासी को लाकर वहाँ ठहरा दिया। मुनिराज ने धर्मशाला से निकलकर एक वृक्ष के नीचे ठहर कर रात्रि वहीं व्यतीत की और शांतभाव से डांस-मच्छर वगैरह का परिषह सहन किया। देविल ने प्रात: आकर धर्मशाला में मुनि को न पाकर जब बाहर एक वृक्ष के नीचे देखा तब उसे धर्मिल मित्र पर अत्यंत क्रोध हो आया। यहाँ तक कि दोनों में आपस में खूब घमासान मारा-मारी हो गयी। दोनोें ही मरकर क्रम से सूकर और व्याघ्र हो गये।
किसी समय दो मुनिराज वन के मध्य गुफा में विराजे थे। देविल के जीव सूकर ने उनके दर्शन करके जातिस्मरण को प्राप्त होकर मुनिराज के उपदेश को सुना और उनसे कुछ व्रत ग्रहण कर लिया। इधर धर्मिल के जीव व्याघ्र ने भी अकस्मात् वहाँ आकर मुनियों को भक्षण करना चाहा, किन्तु गुफा के द्वार पर ही सूकर ने उसके साथ युद्ध करना शुरू कर दिया। दोनों खून से लथपथ होकर अंत में मर गये। सूकर मुनिरक्षा के अभिप्राय से मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र नरक चला गया।
कहने का अभिप्राय इतना ही है कि उस समय मुनियों को धर्मशाला में भी ठहराया जाता था। जैसा कि देविल कुंभार ने ठहराया था। पुन: आज भी मुनियों को धर्मशाला, वसतिका आदि में ठहराया जाता है।मुनियों को वसतिका में ठहरने के लिए विधान तो मूलाचार, मूलाराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों में स्पष्टतया किये गये है।