अगाध निष्ठा, व्यापक ज्ञान एवं निष्कलंक चारित्र के धनी—
समस्त दिगम्बर जैन समाज का यह परम सौभाग्य है कि हमें परम पूज्य, जिनशासन शिरोमणि, आचार्य शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के तृतीय पट्टाचार्य १०८ श्री धर्मसागर जी महाराज की पावन जन्म शताब्दी मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रात: स्मरणीय आचार्य कुन्द कुन्द ने कहा है कि इस अवर्सिपणिकाल में भरत क्षेत्र में जैन मुनि होते हैं।
पंडित प्रवर आशाधर जी ने कहा है कि इस दु:षम काल में, जब देह अन्न का कीड़ा बन हुआ है, यह आश्चर्य की बात है कि इस काल में भी जिनमुद्राधारी मनुष्य (मुनि) विद्यमान हैं। कविवर बनारसी दास ने जिन मुनियों को जिनेन्द्र देव के लघुनन्दन कहा है, जिनके हृदय में भेद विज्ञान का प्रकाश है और जो मोक्ष मार्ग में निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं।
जिनेन्द्र देव के लघुनन्दनों में एक अन्यतम चारित्र शिरोमणि आचार्य प्रवर धर्मसागर जी महाराज थे। वे भगवान महावीर की अविच्छित्र आचार्य परम्पर के एक जाज्वल्यमाल मुनि थे। वे चारित्र के मूर्तिमान रूप थे। वे एक निस्पृह वीतरागी निर्गंथ श्रमण थे। आचार्यश्री की अगाध निष्ठा, व्यापक ज्ञान और निष्कलंक चारित्र की त्रिवेणी में एक सच्चे जैन मुनि के दर्शन होते हैं।
उन्हें देखकर हम कल्पना कर सकते हैं कि चतुर्थ काल में जैन मुनि कितने तपस्वी, ज्ञान और चारित्रधारी होते होंगे। हमारा सौभाग्य है कि हमारे मध्य में आचार्य धर्मसागर जी महाराज जैसे अजातशत्रु, जितेन्द्रिय मुनि विद्यमान थे जिनका दर्शन करने का सौभाग्य हमारे जैसे अनेकों भक्तों को प्राप्त हुआ था। उनसे शिवमार्ग की शोभा थी, वे तीर्थंकरों के शासन प्रभावक मुनियों में श्रेष्ठ मुनि थे। वे सही अर्थों में एक अपरिग्राही साधु थे।
जन्म एवं बाल्यकाल
जिस दिन चन्द्रमा षोडश कलाओं से पूर्ण होकर अपनी शुभ ज्योत्सना से जगत् को आलोकित कर रहा था, जिस दिन धर्मनाथ भगवान ने केवलज्ञान को प्राप्त कर समस्त लोक को आलोकित किया था इसी पौषी र्पूिणमा के दिन एक महान आत्मा ने जन्म लेकर ६३ वर्ष पूर्व इस पृथ्वीतल को कृतार्थ किया था।
राजस्थान प्रान्तस्थ गंभीरा ग्राम धन्य हो उठा, जिस दिन माता उमराबाई की पवित्र कुक्षि से बालक ने जन्म धारण किया। पिता भी अपने को धन्य समझने लगे। जब उनके गृहागंण में पुत्ररत्न बालसुलभ क्रीड़ाओं से परिवारजनों को आनन्दित करने लगा। चिरंजीवन अभीष्ट होने से ही मानो माता पिता ने चिरंजीलाल नाम रखा।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई। बाल्यावस्था में ही आपके माता—पिता आपको छोड़कर इहलोक यात्रा समाप्त कर स्वर्ग सिधार गये। कष्टप्रद इस इष्ट वियोग के पश्चात् आप किशोरवय में ही मध्य प्रदेश प्रान्त के अन्तर्गत इन्दौर में व्यापारार्थ चले आये और कपड़े का व्यापार करने लगे।
संयम की ओर
परम पूज्य मुनि श्री वीरसागर जी महाराज के समुज्वल सानिध्य में आपके जीवन में संयम की सर्वप्रथम स्वर्ण रश्मि प्रदान की। आपने पूज्य श्री से दूसरी प्रतिमा के व्रत धारण किये। कुछ समय पश्चात इन्दौर नगर में परम पूज्य मुनि चन्द्रसागर जी महाराज के शुभ चारित्र रूपी चन्द्रमा के शीतल प्रकाश ने संसार की नश्वरता से संतप्त आपके हृदय को शीतलता प्रदान की।
फलस्वरूप आपने मुनिश्री से आजीवन ब्रह्मचर्य एवं सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण किये और पूज्यश्री के साथ ही गृह परित्याग कर विहार करने लगे।
मंगलमय प्रभाव
जैसे र्पूिणमा की चन्द्र किरणों को प्राप्त करके लवणोदधि प्रमुदित हो वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार पूज्य श्री चन्द्रसागर जी महाराज को प्राप्त कर आपका वैराग्योदधि वृद्धिंगत होने लगा।
तदनुसार सं. २००० में चैत्र शुक्ला सप्तमी का दिन आपके जीवन का मंगलमय प्रभात था। जिस दिन आपने उत्कृष्ट श्रावक के व्रत स्वरूप क्षुल्लक दीक्षा को धारण कर ब्र. चिरंजीलाल से क्षुल्लक भद्रसागर नाम को प्राप्त किया। पूज्य गुरुवर्य का चरण सानिध्य आपको बहुत अल्पकालीन रहा। गुरुवर्य का चरण सानिध्य आपको बहुत अल्पकालीन रहा। गुरुवर्य की समाधि हो जाने पर आप अपने आद्य गुरु पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज के सानिध्य में चले आए।
दिगम्बरत्व की ओर
आद्य गुरु के सानिध्य में रहते हुए ज्ञानाभ्यास किया। मुक्ति प्राप्ति अल्प परिग्रह भी बाधक है। इस बात ने आपको निग्र्रंथ मुनि बनने की प्रेरणा दी और आपने गुरुचरणों में सर्वस्व त्यागकर मुनि दीक्षा ग्रहण करने की भावना व्यक्त की। गुरुवर्य ने १४ गुणस्थानों से अतीत सिद्धावस्था प्राप्त करने हेतु ही मानो सं. २००८ में र्काितक शुक्ला चतुर्दशी के मंगलमय दिवस में बाह्यभ्यन्तर परिग्रह के त्याग रूप निग्र्रंथ श्रमण दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के पश्चात् संघ के साथ आपने अनेक ग्रामों एवं नगरों में विहार किया और गुरु सानिध्य में तीर्थराज सम्मेदाचल की यात्रा का सौभाग्य प्राप्त किया।
लगभग ६ वर्ष गुरुचरणों में रहने का पुण्य अवसर मिला और सं. २०१४ में पू. आ. श्री शान्तिसागर जी महाराज के पट्टशिष्य आ. श्री वीरसागर जी महाराज का समाधिमरण हो जाने के पश्चात् आपने संघ से २ और मुनिराजों को साथ लेकर पृथक विहार किया एवं धर्म प्रभावना करते हुए अनेक भव्य जीवों को संयम मार्ग में लगाकर उनके आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया।
संघ अधिनायकत्व
मुनि अवस्था में भारत के कोने—कोने में पद विहार द्वारा धर्म प्रभावना करते हुए सं. २०२५ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने हेतु अतिशय क्षेत्र री महावीर जी ससंघ पधारे जहाँ आपके गुरु भ्राता, (आ. शिवसागर जी, आ. श्री वीरसागर जी) के पट्टशिष्य वहां पहले से ही ससंघ विराजमान थे। गुरु भ्राताओं का सम्मिलन विहंगावलोकनीय था। संयोगत: अल्पकालीन रुग्णावस्था के कारण आ. शिवसागर जी महाराज का समाधिमरण फाल्गुन कृष्णा अमावस्या सं. २०२५ में हो गया।
उनके स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् संघ अधिनायक कौन होगा ? इस प्रश्न ने सभी के मन को आंदोलित कर दिया। अन्तत: चतुर्विध संघ ने विशाल संघ अधिनायकत्व पद पर आपको आसीन करने का निर्णय किया। फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तप कल्याणक के दिन समस्त संघ ने विशाल जनसमुदाय के मध्य आपको आचार्य पद प्रदान किया। आचार्य पद प्राप्त होने के १ घंटे पश्चात् ही आपके कर—कमलों से ११ मुनियों ने यथाशक्ति मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका की दीक्षायें धारण की।
आचार्यत्व के पश्चात् पूज्यश्री के मंगल वर्षायोग
विक्रम संवत् २०१६ ( सन् १९६९ ) में प्रथम चातुर्मास जयपुर, संवत् २०२७ ( सन् १९७० ) में द्वितीय चातुर्मास टोंक (राज.) संवत् २०१८ ( सन् १९७१ ) में तृतीय चातुर्मास अजमेर (राज.) सं. २०२९ ( सन् १९७२ )में चतुर्थ चातुर्मास लाडनूँ , सं. २०३९ ( सन् १९७३ ) में पंचम चातुर्मास सीकर, सं. २०३१( सन् १९७४ ) में छठा चातुर्मास देहली ( निर्वाणोत्सव वर्ष )में , सं. २०३२ ( सन् १९७५ ) में सप्तम चातुर्मास सहारनपुर (उ. प्र.) सं. २०३३ ( सन् १९७६ ) में अष्टम् चातुर्मास बड़ौत (उ. प्र.) में सम्पन्न हुआ।
आचार्य श्री के द्वारा अभििंसचित चारित्र उपवन के िंकचित प्रसून मुनि—मुनि श्री पुष्पदंतसागर, मुनि श्री बुद्धिसागर मुनि श्री बोधिसागर (स्वर्गस्थ), मुनि श्री भूपेन्द्रसागर, मुनिश्री अभिनन्दन सागर, मुनिश्री भद्रसागर, मुनिश्री निर्मलसागर , मुनिश्री चारित्रसागर, मुनिश्री संभवसागर, मुनिश्री निर्वाणसागर, मुनिश्री श्र संयमसागर, मुनिश्री सुदर्शन सागर, (स्वर्गस्थ), मुनि श्री शीतलसागर (स्वर्गस्थ) मुनिश्री विपुल सागर, मुनिश्री यवीन्द्र सागर, मुनिश्री पूर्णसागर, मुनिश्री दयासागर,मुनिश्री र्कीितसागर, मुनिश्री वर्धमानसागर, मुनिश्री मल्लिसागर, मुनिश्री महेन्द्रसागर, मुनिश्री गुणसागर, मुनिश्री योगीन्द्रसागर (स्वर्गस्थ), मुनिश्री
क्षुल्लक पूर्णसागरजी, क्षुल्लक वैराग्यसागर (ऐलक अवस्था में स्वर्गवास), क्षुल्लक सिद्धसागर। इन दीक्षित शिष्यों के अतिरिक्त और भी अनेक साधुगण आपके विशाल संघ में थे जो भगवान महावीर के शासन की प्रभावना करते हुए देश के विभिन्न भागों में यत्र—तत्र विहार करते हुए स्व—पर कल्याण करने में निरत थे।
हितमितभाषी स्पष्ट वक्ता
पूज्य श्री हितमित एवं स्पष्ट वक्तृत्व गुण को आत्मसात किये हुए थे। आपकी मित, किन्तु स्पष्ट एवं लोक कल्याणी वाणी के द्वारा लाखों व्यक्ति यथाशक्य आत्मसाधना में रत थे। चाहे कैसा भी व्यक्ति हो आपकी प्रसन्न मुद्रा गंभीर वाणी से प्रभावित होकर जीवन में कुछ न कुछ आहिसा रूप व्रतों को धारण अवश्य करता था। अनेक भव्य प्राणियों ने महाव्रत एवं देशव्रत रूप चारित्र को धारण कर आत्मकल्याण मार्ग प्रशस्त किया था।
लोकैषणा से निस्पृह व्यक्तित्व
आचार्यश्री का जीवन लोवैषणा से निस्पृह जीवन था। इतने बड़े संघ के अधिनायक, सर्वमान्यनिविवाद आचार्य पद पर आसीन होते हुए भी आप किसी भी लौकिक प्रतिष्ठा रूपी गृह पिशाच से सर्वथा दूर रहते थे। इतने लब्ध प्रतिष्ठित पद पर आसीन थे फिर भी अभिमान आपको छू तक नहीं गया था क्योंकि आप मार्दव धर्म को आत्मसात किये हुए थे।
आपकी ख्याति से निस्पृहता एवं निरभिमानता ही आपकी प्रतिष्ठा का सबसे प्रबल निमित्त था। यहाँ कारण है कि आप प्रशंसकों से सदैव दूर रहना एवं निदकों को अपने निकट रखना श्रेष्ठ समझते थे और इसी प्रकार के मंगल उद्बोधन से अपने शिष्योपवन को अभिसिचित करते रहते थे।
आपकी तीव्रतम प्रेरणों से जैन गुरुकुल एवं छात्रावासों की स्थापना हुई है और वहाँ पर लौकिक अध्ययन के साथ—साथ र्धािमक अध्ययन की भी व्यवस्था की गई है। इस प्रकार समाज के ज्ञान एवं चारित्र की अभिवृद्धि स्वरूप आपने अनेक कार्य कलापों में अपनी लोकवाणी के द्वारा मार्गदर्शन किया। चालीस वर्ष की दीर्घ संयम साधना के अनन्तर सीमर नगरी में बैसाख कृष्ण नवमी सन् १९८७ को अत्यन्त शांति भाव से आचार्यश्री ने समाधि को प्राप्त किया।
उनकी तप:पूत आराधना पूर्ण हुई। जैन जगत ने एक महान ज्योति व धर्मनायक खो दिया। ऐसे महान आचार्य शिरोमणि श्री धर्मसागर जी महाराज को मेरा कोटिश: नमोस्तु ! नमोस्तु !