प्रथमही धर्म कितने प्रकार का है ? इस बात को बतलाते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्द्विधा च त्रयं रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्तत:।
मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागङ्गसङ्गोज्झिता शुद्धानन्दमयात्मन: परिणतिर्धर्माख्यया गीयते।।७।।
अर्थ—समस्त जीवों पर दया करना इसी का नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थ का धर्म तथा सर्वदेश मुनियों का धर्म, इस प्रकार उस धर्म के दो भी भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र) ही धर्म है अथवा उत्तम क्षमा-मार्दव-आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोह से उत्पन्न हुवे समस्त विकल्पोंकर रहित तथा जिसको वचन से निरूपण नहीं कर सकते ऐसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्मा की परिणति, उसी का नाम उत्कृष्ट धर्म है इस प्रकार सामान्यतया धर्म का लक्षण तथा भेद इस श्लोक में बतलाये गये हैं।।७।।
अब आचार्य चार श्लोकों में दया धर्म का वर्णन करते हैं-
आद्या सद्व्रतसञ्चयस्य जननी सौख्यस्य सत्सम्पदां मूलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहैकनि:श्रेणिका।
कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिवैâ: धिङ्नामाऽप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिश:।।८।।
अर्थ—जो समस्त उत्तम व्रतों के समूह में मुख्य है तथा सच्चे सुख और श्रेष्ठ संपदाओं की उत्पन्न करने वाली है और जो धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है (अर्थात् जिस प्रकार जड़ बिना वृक्ष के नहीं ठहरता, उस ही प्रकार दया के बिना धर्म भी नहीं ठहर सकता) तथा जो मोक्षरूपी महल के अग्रभाग में चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान है ऐसी धर्मात्मा पुरुषों को ‘‘समस्त प्राणियों पर दया’’ अवश्य करनी चाहिये किन्तु जिस पुरुष के चित्त में लेशमात्र भी दया नहीं है उस पुरुष के लिये धिक्कार है तथा समस्त दिशा उसके लिये शून्य है अर्थात् जो निर्दयी है, उसका कोई भी मित्र नहीं होता।
संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृत: के के न पित्रादयो जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहता:।
नन्वात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेऽपि धु्रवं हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुश: संस्कारतो ना क्रुध:।।९।।
अर्थ—चिरकाल से संसार में भ्रमण करते हुवे इस दीन प्राणी के कौन—कौन माता-पिता-भाई आदिक नहीं हुवे ? अर्थात् सर्व ही हो चुके इसलिये यदि कोई प्राणी किसी जीव को मारे तो समझना चाहिये कि उसने अपने कुटुम्बी को ही मारा तथा अपनी आत्मा का भी उसने घात किया क्योंकि यह नियम है कि जो मनुष्य किसी दीन प्राणी को एक बार मारता है उस समय उस मरे हुवे जीव के क्रोधादि की उत्पत्ति होती है तथा जन्मान्तर में उसका संस्कार बैठा रहता है इसलिये जिस समय कारण पाकर उस मृतप्राणी का संस्कार प्रकट हो जाता है उस समय वह हिंसक को (अर्थात् पूर्वभव में अपने मारने वाले जीव को) अनेक बार मारता है इसलिये ऐसे दुष्ट हिंसक के लिये धिक्कार हो।।९।।
त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सहजोऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षत: प्राणिन:।
नि:शेषव्रतशीलनिर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं जन्तोर्जीवितदानतस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु।।१०।।
अर्थ—यदि किसी दरिद्री से भी यह बात कही जावे कि भाई! तू अपने प्राण दे दे तथा तीन लोक की संपदा ले ले, तब वह यही कहता है कि मैं ही मर जाऊँगा तो उस संपदा को कौन भोगेगा? अत: तीनलोक की संपदा से भी प्राणियों को अपने प्राण प्यारे हैं इसलिये समस्त व्रत तथा शीलादि निर्मलगुणों का स्थानभूत जो यह प्राणी का जीवितदान है, उसकी अपेक्षा संसार में सर्वदान छोटे हैं, यह बात भलीभांति निश्चित है।
भावार्थ—आहार, औषधि, अभय तथा शास्त्र इस प्रकार दान के चार भेद हैं उन सबमें अभयदान सबसे उत्कृष्ट दान माना गया है तथा अभयदान उस ही समय पल सकता है जब किसी जीव के प्राण न दुखाये जायें, इसलिये इस उत्तम अभयदान के आकांक्षी मनुष्यों को किसी भी जीव की िंहसा नहीं करनी चाहिए।।१०।।
-शार्दूलविक्रीडित-
स्वर्गायाऽव्रतिनोऽपि सार्द्रमनस: श्रेयस्करी केवला सर्वप्राणिदया तया तु रहित: पापस्तपस्थोऽपि च।
तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेत: स्थिरं धीयतां ध्यानञ्च क्रियतां जना न सफलं किञ्चिद्दयावर्जितम्।।११।।
अर्थ—चाहे मनुष्य अव्रती—व्रतरहित क्यों न होवे, यदि उसका चित्त समस्त प्राणियों के प्राणों को किसी प्रकार दु:ख न पहुँचानारूप दया से भीगा हुआ है तो समझना चाहिये कि उस पुरुष को वह दया स्वर्ग तथा मोक्षरूप कल्याण को देने वाली है किन्तु यदि किसी पुरुष के हृदय में दया का अंश न हो, तो चाहे वह वैâसा भी तपस्वी क्यों न होवे तथा वह चाहे इच्छानुसार ही दान क्यों न देता हो! अथवा वह कितना भी तप में चित्त को क्यों न स्थिर करता हो! तथा वह वैâसा भी ध्यानी क्यों न हो! पापी ही समझा जाता है क्योंकि दयारहित कोई भी कार्य सफल नहीं होता।।११।।
अब आचार्य श्रावकधर्म का वर्णन करते हैं-
सन्त: सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्ते: परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति।
वृत्तिस्तस्य यदन्नत: परमया भक्त्यार्पिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रिय:।।१२।।
अर्थ—जिस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक््âचारित्ररूपी रत्नत्रय की समस्त सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र भक्ति से पूजन करते हैं तथा जो मोक्ष का उत्कृष्ट कारण है अर्थात् जिसके बिना कदापि मुक्ति नहीं हो सकती तथा जो तीन लोक का प्रकाश करने वाला है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक््âचारित्ररूप रत्नत्रय को देह की स्थिरता रहते—सन्ते ही मुनिगण धारण करते हैं तथा श्रद्धा, तुष्टि आदि गुणों कर संयुक्त गृहस्थियों के द्वारा भक्ति से दिये हुए दान से उन उत्तम मुनियों के शरीर की स्थिति रहती है इसलिये ऐसे गृहस्थों का धर्म किसको प्रिय नहीं है अर्थात् सब ही उसको प्रिय मानते हैं।।१२।।
-स्रग्धरा-
आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धामिवैâ: प्रीतिरुच्चै: पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्ध्या।
तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतिरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।।१३।।
अर्थ—तथा जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र भगवान की पूजा उपासना की जाती है तथा निर्ग्रन्थ गुरुओं की भक्ति-सेवा आदि की जाती है और जिस गृहस्थाश्रम में धर्मात्मापुरुषों का परस्पर में स्नेह से बर्ताव होता है तथा मुनि आदि उत्तम पात्रों को दान दिया जाता है तथा दु:खी दरिद्रियों को जिस गृहस्थाश्रम में करुणा से दान दिया जाता है और जहाँ पर निरन्तर जीवादि तत्त्वों का अभ्यास होता रहता है तथा अपने-अपने व्रतों में प्रीति रहती है और जिस गृहस्थाश्रम में निर्मल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के द्वारा पूजनीक होता है किन्तु उससे विपरीत इस संसार में केवल दु:ख का देने वाला है तथा मोह का जाल है।।१३।।
अब आचार्य श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं के नाम बताते हैं-
आदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमित: सामायिकं प्रोषधस्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभक्तं तथा ब्रह्म च।
नारम्भो न परिग्रहोऽननुमतिर्नोद्दिष्टमेकादशस्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्य: स्मृत:।।१४।।
अर्थ—सबसे पहले जीवादिपदार्थों में शंकादिदोषरहित श्रद्धानरूपसम्यग्दर्शन का जिसमें धारण होवे, उसको दर्शन प्रतिमा कहते हैं तथा २. अहिंसादि पाँच अणुव्रत तथा दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत और देशावकाशिकादि चार शिक्षाव्रत इस प्रकार जिसमें बारह व्रत धारण किये जावें, वह दूसरी व्रत प्रतिमा कहलाती है तथा ३. तीनों कालों में समता धारण करना सामायिक प्रतिमा है और ४. अष्टमी आदि चारों पर्वों में आरंभ रहित उपवास करना चौथी प्रोषधप्रतिमा है तथा ५. जिस प्रतिमा में संचित वस्तुओं का भोग न किया जाये, उसको सचित्तत्याग नामक पाँचवीं प्रतिमा कहते हैं तथा ६. जिस प्रतिमा के धारण करने में रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है, उसको रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा कहते हैं तथा ७. जिस प्रतिमा के धारण करने से आजन्म स्वस्त्री तथा परस्त्री दोनों का त्याग करना पड़ता है वह ब्रह्मचर्य नामक सातवीं प्रतिमा है तथा ८. किसी प्रकार धनादि का उपार्जन न करना आरंभत्याग नामक आठवीं प्रतिमा है और ९. जिस प्रतिमा के धारण करते समय धनधान्य दासीदासादि का त्याग किया जाता है, वह नवमी परिग्रहत्यागनामक प्रतिमा है तथा १०. घर के कामों में और व्यापार में (ऐसा करना चाहिये, ऐसा नहीं करना चाहिये) इत्यादि अनुमति का न देना अनुमतित्याग नामक दशमीप्रतिमा है तथा ग्यारहवीं प्रतिमा उसको कहते हैं कि जहाँ पर अपने उद्देश्य से भोजन न तैयार किया गया हो ऐसे गृहस्थों के घर में मौन सहित भिक्षापूर्वक आहार करना —इस प्रकार ये ग्यारह व्रत (प्रतिमा) श्रावकों के हैं, इन सब व्रतों में भी प्रथम सप्तव्यसनों का त्याग अवश्य कर देना चाहिये क्योंकि व्यसनों के त्याग किये बिना एक भी प्रतिमा धारण नहीं की जा सकती।।१४।।
-शार्दूलविक्रीडित-
यत्प्रोक्तं प्रतिमाभिरेभिरभितो विस्तारिभि: सूरिभिर्ज्ञातव्यं तदुपासकाध्ययनतो गेहिव्रतं विस्तरात्।
तत्रापि व्यसनोज्झनं यदि तदप्यासूत्र्यतेऽत्रैवयत्तन्मूल: सकल: सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम्।।१५।।
अर्थ—समन्तभद्र आदि बड़े—बड़े आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमा तथा और भी गृहस्थों के व्रत अत्यन्त विस्तार के साथ अपने—अपने ग्रन्थों में वर्णन किये हैं इसलिये उपासकाध्ययन से इनका स्वरूप विस्तार से जानना चाहिये और उन्हीं आचार्यों ने जूआ खेलना, मद्यपीना, माँस खाना आदि सातों व्यसनों का भलीभांति स्वरूप दिखाकर उनके त्याग की अच्छी तरह विधि बतलाई है तथा इस ग्रन्थ में भी उन सप्तव्यसनों के त्याग का वर्णन किया जायगा क्योंकि सप्तव्यसनों के त्याग से ही सज्जनों की व्रतविधि अत्यन्त प्रतिष्ठा को प्राप्त करती है बिना, व्यसनों के त्याग के नहीं ।।१५।।
-अनुष्टुप-
द्यूतमाँससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गना:।
महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुध:।।१६।।
अर्थ—१. जूआ खेलना २. माँस खाना ३. मद्य पीना ४. वेश्या के साथ उपभोग करना ५. शिकार खेलना ६. चोरी करना ७. परस्त्री का सेवन करना—ये सात व्यसनों के नाम हैं तथा विद्वानों को इन व्यसनों का त्याग अवश्य करना चाहिये।।१६।।
आचार्य सप्तव्यसनों से उत्पन्न हुई हानि तथा सप्तव्यसनों के स्वरूप को पृथक्—पृथक् वर्णन करते हैं ।
प्रथम ही दो श्लोकों में द्यूतनामक व्यसन का निषेध करते हैं।
-मालिनी-
भुवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्वव्यसनपतिरशेषापन्निधि: पापबीजम्।
विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा क इह विशदबुद्धिर्द्यूतमङ्गीकरोति।।७।।
अर्थ—जो समस्त अपकीर्तिओं का घर है अर्थात् जिसके खेलने से संसार में अकीर्ति ही पैâलती है तथा जो चोरी, वेश्यागमन आदि बचे हुए व्यसनों का स्वामी है (अर्थात् जिस प्रकार राजा के आधीन मंत्री आदि हुआ करते हैं उस ही प्रकार जुआ के आधीन समस्त बचे हुवे व्यसन हैं) और जो समस्त आपत्तियों का घर है तथा जिसके संबन्ध से निरंतर पाप की ही उत्पत्ति होती रहती है तथा ज्ाो समस्त नरकादि खोटी गतियों का मार्ग बतलाने वाला है ऐसे सर्वथा निकृष्ट जुआ नामक व्यसन को कौन बुद्धिमान अंगीकार कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं।।१७।।
-शार्दूलविक्रीडित-
क्वाकीर्ति: क्व दरिद्रता क्व विपद: क्व क्रोधलोभादयश्चौर्यादिव्यसनं क्व च क्व नरके दु:खं मृतानां नृणाम्।
चेतश्चेद्गुरुमोहतो न रमते द्यूते वदन्त्युन्नतप्रज्ञा यद्भुवि दुर्नयेषु निखिलष्वेतद्धुरि स्मर्यते।।१८।।
अर्थ—इस जुआ के विषय में बड़े—बड़े गणधरादिकों का यह कथन है कि मोह के उदय में मनुष्य की जूआ में प्रवृत्ति होती है यदि मनुष्य के मोह के उपशम होने से जूआ में प्रवृत्ति न होवे तो कदापि संसार में इसकी अकीर्ति नहीं पैâल सकती है और न यह दरिद्री ही बन सकता है तथा न इसको कोई प्रकार की विपत्ति घेर सकती है और इस मनुष्य के क्रोध लोभादि की भी उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती तथा चोरी आदि व्यसन भी इसका कुछ नहीं कर सकते और मरने पर यह नरकादि गतियों की वेदना का भी अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि समस्तव्यसनों में जुआ ही मुख्य कहा गया है इसलिये सज्जनों को इस जुवे से अपनी प्रवृत्ति को अवश्य हटा लेना चाहिये।।१८।।
आगे दो श्लोकों में माँस व्यसन का निषेध किया जाता है।
-स्त्रग्धरा-
बीभत्सुप्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्पृष्टुमालोकितुं च।
तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्कागतिर्वा न विद्म :।।१९।।
अर्थ—देखते ही जो मनुष्यों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है तथा जिसकी उत्पत्ति दीन प्राणियों के मारने पर होती है और जो अपवित्र है तथा नाना प्रकार के दृष्टिगोचर जीवों का जो स्थान है और जिसकी समस्त सज्जन पुरुष निन्दा करते हैं तथा जिसको इस संसार में सज्जनपुरुष न हाथ से ही छू सकते हैं और न आँख से ही देख सकते हैं और ‘‘माँस खाने योग्य होता है’’ यह वचन भी सज्जनों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है ऐसे सर्वथा अपावन माँस को जो साक्षात् खाता है आचार्य कहते हैं हम नहीं जान सकते कि उस मनुष्य के कितने पापों का संसार में संचय होता है! तथा उसकी कौन सी गति होती है!।।१९।।
-शिखरिणी-
गतो ज्ञाते: कश्चिद्बहिरपि न यद्येति सहसा शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जन:।
परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरित्रै:।।२०।।
अर्थ—यदि कोई अपना भाई-पिता-पुत्र आदि दैवयोग से (मरना तो दूर रहे) बाहर भी चला जावे तथा वह जल्दी लौटकर न आवे तो मनुष्य सिर कूट—कूट कर रोता है तथा नाना प्रकार के मन में बुरे भावों का चिंतवन करता है किन्तु अपने कुटुम्बियों से भिन्न दूसरे जीवों के मांस को उपाट—उपाट कर खाता है तथा लेशमात्र भी लज्जा नहीं करता इसलिये आचार्य कहते हैं कि अरे कलिकाल! तेरे नानाप्रकार के चरित्रों से हम सर्वथा विरक्त हैं अर्थात् तेरे चरित्रों का हमको पता नहीं लग सकता।।२०।।
अब आचार्य दो श्लोकों में मदिरा का निषेध करते हैं।
-मालिनी-
सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्रजन्मन्यधिकमधिकमग्रे यत्परे दु:खहेतु:।
तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भि: स्वहितमिहकिमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ।।२१।।
अर्थ—यह मदिरा इस जन्म में समस्त पीने वाले प्राणियों के धर्म को मूल से खोने वाली है तथा परलोक में अत्यन्त तीव्र नाना प्रकार के नरकों के दु:खों की देने वाली है ऐसा होने पर भी यदि विद्वान् मद्य पीना न छोड़ें तो समझ लेना चाहिये कि उन मनुष्यों के द्वारा अपने हितकारी धर्म के लिये कोई भी उत्कृष्ट कार्य नहीं बन सका क्योंकि व्यसनी कुछ भी उत्तम कार्य नहीं कर सकते ।।२१।।
आस्तामेतद्यदिह जननीं वल्लभां मन्यमाना निन्द्याश्रेष्टा विदधति जना निस्त्रपा: पीतमद्या:।
तत्राधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयाद्वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणा: पिबन्ति।।२२।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि मदिरा के पीने वाले मनुष्य यदि निर्लज्ज होकर अपनी माता को स्त्री मानें तथा उसके साथ नाना प्रकार की खोटी चेष्टा करें तो यह बात तो कुछ बात नहीं किन्तु सबसे अधिक बात यह है कि मद्य के नशे में आकर जब मार्ग में गिर जाते हैं तथा जिस समय उनके मुख में कुत्ते मूतते हैं उस समय वे उसको मिष्ट—मिष्ट कहते हुवे तत्काल गटक जाते हैं।
भावार्थ—जो मनुष्य मद्यपान करते हैं वे समस्त खोटी चेष्टा करते हैं तथा उनकी बुरी हालत होती है और उनको किसी प्रकार हित का मार्ग भी नहीं सूझता, इसलिये विद्वानों को इस निकृष्ट मद्य से जुदा ही रहना चाहिये।।२२।।
अब आचार्य दो श्लोकों में वेश्या व्यसन का निषेध करते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
या: खादन्ति पलं पिबन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावच: स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम्।
नीचानामपि दूरवक्रमनस: पापात्मिका: कुर्वते लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम्।।२३।।
अर्थ—जो सदा माँस खाती हैं तथा जो निरन्तर मद्यपान करती हैं और जिनको झूठ बोलने में अंशमात्र भी संकोच नहीं होता तथा जिनका स्नेह विषयी मनुष्यों के साथ केवल धन के लिये है और जो द्रव्य तथा प्रतिष्ठा को मूल से उड़ाने वाली हैं अर्थात् वेश्या के साथ संयोग करने से धन तथा प्रतिष्ठा दोनों किनारा कर जाते हैं तथा जिनके चित्त में सदा छल-कपट, दगाबाजी ही रहती है और जो अत्यन्त पापिनी हैं तथ्ाा जो धन के लोभ से अत्यन्त नीच धीवर, चमार, चाण्डाल आदि की लार का भी निरन्तर पान करती हैं ऐसी वेश्याओं से दूसरा नरक संसार में है, यह बात सर्वथा झूठ है।
भावार्थ—वेश्या ही नरक है।।२३।।
रजकशिलासदृशीभि: कुक्कुरकर्परसमानचरिताभि:।
गणिकाभिर्यदि सङ्ग: कृतमिह परलोकवार्ताभि:।।२४।।
अर्थ—जो वेश्या धोबी की कपड़े पछीटने की शिला के समान है अर्थात् जिस प्रकार शिला पर समस्त प्रकार के कपड़े लाकर पछीटे जाते हैं उस ही प्रकार इस वेश्या के साथ भी समस्त निकृष्ट से निकृष्ट जाति के मनुष्य आकर रमण करते हैं अथवा दूसरा इसका आशय यह भी है कि जिस प्रकार शिला पर समस्त प्रकार के कपड़ों के मैल का संचय होता है उस ही प्रकार वेश्यारूपी शिला पर भी नाना जातियों के मनुष्य के वीर्यरूपी मैल का समूह इकट्ठा होता है तथा जो वेश्या कुलाओं के लिए कपाल के समान हैं अर्थात् जिस प्रकार मरे हुए मनुष्य के कपाल पर लड़ते-लड़ाते नाना प्रकार के कुत्ते इकट्ठे होते हैं, उस ही प्रकार इस वेश्या पर भी नाना जातियों के मनुष्य आकर टूटते हैं तथा नाना प्रकार के परस्पर में कलह करते हैं इसलिये ऐसी निकृष्ट वेश्याओं के साथ यदि कोई पुरुष संबंध करे तो समझ लेना चाहिये कि उसका परलोक उत्तम हो चुका।
भावार्थ—जो मनुष्य वेश्याओं के साथ संबंध करते हैं, उनके इहलोक तथा परलोक दोनों सर्वथा बिगड़ जाते हैं।।२४।।
अब आचार्य दो श्लोकों में शिकार व्यसन का निषेध करते हैं-
-स्रग्धरा-
fयादुर्देहैकवित्ता वनमधिवसति त्रातृसंबन्धहीना भीतिर्यस्या: स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति।
वध्यालं सापि यस्मिन्ननुमृगवनितामांसपिण्डस्यलोभादाखेटेऽस्मिन् रतानामिहकिमुनकिमन्यत्रनो यद्विरूपम्।।२५।।
अर्थ—जिस बिचारीमृगी के सिवाय देह के दूसरा कोई धन नहीं है तथा जो सदा वन में ही भ्रमण करती रहती है और जिसका कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है तथा जिसको स्वभाव से ही भय लगता है तथा जो केवल तृण की ही खाने वाली है और किसी का जो लेशमात्र भी अपराध नहीं करती, ऐसी भी दीन मृगी को केवल माँस टुकड़े के लोभी तथा शिकार के प्रेमी, जो दुष्टपुरुष बिना कारण मारते हैं उनको इस लोक में तथा परलोक में नाना प्रकार के विरुद्ध कार्यों का सामना करना पड़ता है अर्थात इस लोक में तो वे दुष्ट पुरुष रोग, शोक आदि दु:खों का अनुभव करते हैं तथा परलोक में उनको नरक जाना पड़ता है।।२५।।
-मालिनी-
तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे भवति तरलचक्षुर्व्याकुलो य: स लोक:।
कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रो मृगमकृतविकारं ज्ञातदु:खोऽपि हन्ति।।२६।।
अर्थ—आचार्य महाराज कहते हैं कि जो मनुष्य शरीर से किसी प्रकार कीड़ी आदि के संबन्ध हो जाने से ही अधीर होकर जहाँ- तहां देखने लग जाता है (अर्थात् उसको वह चिंउटी आदि का संबन्ध ही पीड़ा का पैदा करने वाला हो जाता है) तथा जो दु:ख का भली-भांति जानने वाला है वह मनुष्य भी शिकार में आनन्द मानकर निरपराध दीनमृग को हथियार उठाकर मारता है, यह बड़ा आश्चर्य है!
भावार्थ—बिना जाने किसी कार्य करने में आश्चर्य नहीं किन्तु जो भलीभांति अपने तथा पर के दु:ख को जानता है फिर ऐसा दुष्ट काम करता है, उसके लिये आश्चर्य है!।।२६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
यो येनैव हत: स हन्ति बहुशो हन्त्येव यैर्वञ्चितो नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेऽप्यत्र च।
स्त्रीवालादिजनादपि स्फुटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झनविधौ लोका: कुतो मुह्यते।।२७।।
अर्थ—स्त्री-बालक आदि से तथा शास्त्र से जब यह बात भलीभांति मालूम है कि जो प्राणी इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को मारता है वह दूसरे जन्म में उस मरे हुवे प्राणी से अनन्त बार मारा जाता है तथा जो मनुष्य इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को ठगता है वह दूसरे जन्म में अनन्त बार उसी पूर्वभव में ठगे हुवे प्राणी से ठगाया जाता है फिर भी हे लोक! तू दूसरे के ठगने में तथा मारने में, छोड़ने में रात-दिन लगा रहता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है इसलिए भव्यजीवों को चाहिये कि वे ऐसे अनर्थक कार्य करने वाले दूसरे के मारने-ठगने में अपने चित्त को न लगावे।।२७।।
और भी आचार्य चोरी-कपट करने का दोष दिखाते हैं-
अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरचनैर्ये वञ्चयन्ते परान्नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरत: पापिव्रजादन्यत:।
प्राणा: प्राणिषु तन्निबन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने यावान् दु:खभरो नरे न मरणे तावानिह प्रायश:।।२८।।
अर्थ—जो दुष्ट मनुष्य नाना प्रकार के छल-कपट-दगाबाजी से दूसरे मनुष्यों को धन आदि के लिये ठगते हैं, उनको दूसरे पापीजनों से पहले ही नरक जाना पड़ता है क्योंकि (धनं वै प्राणा:) इस नीति के अनुसार मनुष्यों के धन ही प्राण हैं, यदि किसी रीति से उनका धन नष्ट हो जावे तो उनको इतना प्रबल दु:ख होता है कि जितना उनको मरते समय भी नहीं होता इसलिये प्राणियों को चाहिये कि वे प्राणस्वरूप दूसरे के धन को कदापि हरण न करे तथा न हरण करने का प्रयत्न ही करे।।२८।।
परस्त्री सेवन में क्या—२ हानि है इस बात को आचार्य दो श्लोकों में दिखाते हैं-
चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशोऽतिदाहभ्रमक्षुत्तृष्णाहतिरोगदु:खमरणान्येतान्यहो आसताम्।
यान्यत्रैव पराङ्गनाहतमतेस्तद्भूरिदु:खं चिरं श्वभ्रे भावि यदग्निदीपितवपुर्लोहाङ्गनालिङ्गनात्।।२९।।
अर्थ—जो मनुष्य परस्त्री के सेवन करने वाले हैं उनको इसी लोव में जो चिंता, व्याकुलता, भय, द्वेष, बुद्धि का भ्रष्टपना, शरीर का दाह, भूख, प्यास,रोग, जन्म, मरण आदिक दु:ख होते हैं वे कोई अधिक दु:ख नहीं किन्तु जिस समय उन परस्त्रीसेवी मनुष्यों को नरक मेंं जाना पड़ता है तथा वहाँ पर जब उनको परस्त्री की जगह लोह की पुतली से आलिंगन करना पड़ता है, उस समय उनको अधिक दु:ख होता है।
भावार्थ—जो मनुष्य परस्त्री के सेवी हैं उनको निरंतर अनेक प्रकार की चिंता लगी रहती है, तथा उस स्त्री से मैं वैâसे मिलूं वैâसे उसको प्रसन्न करूँ ? इस प्रकार उनको निरंतर आकुलता भी रहती है, और कोई हमें संभोग करते देख न लेवे तथा कोई मार न देवे, इस प्रकार का उनको सदा भय भी लगा रहता है तथा परस्त्रीसेवन करने वाले मनुष्य की किसी के साथ प्रीति भी नहीं होती, सबके साथ द्वेष ही रहता है तथा परस्त्रीसेवन करने वाले मनुष्य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है क्योंकि उसको माता, बहिन, पुत्री आदि का कुछ भी ध्यान नहीं रहता तथा जो मनुष्य परस्त्री के विलासी हैं उनका शरीर सदा कामज्वर से संतप्त रहता है तथा परस्त्रीसेवी पुरुषों को भूख-प्यास आदि नाना प्रकार के दु:ख भी आकर सताते हैं और उनको अनेक प्रकार के गर्मी आदि प्राणघातक रोगों का भी सामना करना पड़ता है तथा अनेक प्रकार के दु:ख भी उन्हें भोगने पड़ते हैं और अंत में वे मर भी जाते हैं, ये तो इस भव के दु:ख हैं किन्तु जिस समय वे परभव में नरक जाते हैं तथा जिस समय उनको गरम की हुई लोह की पुतली से चिपका दिया जाता है तथा कहा जाता है कि जिस प्रकार तुमने पूर्वभव में परस्त्री के साथ संभोग किया था, वैसा ही यह स्त्री है इसके साथ भी वैसा ही संभोग करो, तब उनको और भी अधिक दु:ख होता है इसलिये उत्तमपुरुषों को चाहिये कि वे किसी भी परस्त्री के साथ संबंध न करें।।२९।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
धिक्तं पौरुषमासतामनुचितास्ताबुद्धयस्तेगुणा माभून्मित्रसहायसम्पदपि सा तज्जन्म यातु क्षयम्।
लोकानामिह येषु सत्सु भवति व्यामोहमुद्राज्र्तिं स्वप्नेऽपि स्थितिलङ्घनात्परधनस्त्रीषु प्रसक्तं मन:।।३०।।
अर्थ—जिन पौरुष आदि के होते सन्ते अपनी स्थिति को उल्लंघन कर मोह से स्वप्न में भी परस्त्री तथा परधन में मनुष्यों का मन आसक्त हो जावे, ऐसे उस पौरुष के लिये धिक्कार हो तथा वह अनुचित बुद्धि भी दूर रहो तथा वे गुण भी नहीं चाहिये और ऐसी मित्रों की सहायता तथा संपत्ति की भी आवश्यकता नहीं।
भावार्थ—जागृत अवस्था की तो क्या बात! जिन पौरुष आदि के होते संते मनुष्यों का चित्त स्वप्न में भी यदि परस्त्री में आसक्त हो जावे तो, ऐसे पौरुष आदि की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिये भव्यजीवों को कदापि परस्त्री में चित्त नहीं लगाना चाहिये।।३०।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि किन—किन को क्या—क्या जुवा आदि खेलने से हानि उठानी पड़ी ?
द्यूताद्धर्मसुत: पलादिह बको मद्याद्यदोर्नन्दनाश्चारु: कामुकया मृगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नृप:।
चौर्यत्वांच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठादेवैâकव्यसनोद्धता इति जना: सर्वैर्न को नश्यति।।३१।
अर्थ—जुवा से तो युधिष्ठिरनामक राजा राज्य से भ्रष्ट हुए तथा उनको नाना प्रकार के दु:ख उठाने पड़े तथा माँस भक्षण से वक नाम का राजा राज्य से भ्रष्ट हुआ तथा अंत में नरक गया और मद्य पीने से यदुवंशी राजा के पुत्र नष्ट हुवे तथा वेश्याव्यसन के सेवन से चारूदत्त सेठि दरिद्रावस्था को प्राप्त हुवे तथा और भी नाना प्रकार के दु;खों का उनको सामना करना पड़ा और शिकार की लोलुपता से ब्रह्मदत्त नाम का राजा राज्य से भ्रष्ट हुवा तथा उसे नरक जाना पड़ा तथा चोरी व्यसन से सत्यघोषनामक पुरोहित गोबर खाना, सर्वधनहरण हो जाना आदि नानाप्रकार के दु:खों को सहनकर अंत में मल्ल की मुष्टि से मरकर नरक को गया तथा परस्त्री सेवन से रावण को अनेक दु:ख भोगने पड़े तथा मरकर नरक गया। आचार्य कहते हैं कि एक—एक व्यसन के सेवन से जब इन मनुष्यों की ऐसी बुरी दशा हुई तथा ये नष्ट हुवे, तब जो मनुष्य सातों व्यसनों का सेवन करने वाला है वह क्यों नहीं नष्ट होगा ? इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे किसी भी व्यसन के फन्दे में न पड़े।।३१।।
नपरमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि।
त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तय: क्षुद्रबुद्धीनाम्।।३२।।
अर्थ—आचार्य महाराज और भी उपदेश देते हैं कि जिन व्यसनों का ऊपर कथन किया गया है वे ही व्यसन हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये किन्तु और भी व्यसन हैं वे यही हैं अल्पबुद्धी मिथ्यादृष्टियों की श्रेष्ठ मार्ग को छोड़कर निकृष्ट मार्ग में प्रवृत्ति हो जाना इसलिये जीवों को चाहिये कि वे व्यसनों की रक्षा के लिये निकृष्ट मार्गों में प्रवृत्ति न करें।।३२।।
और भी आचार्य व्यसनों का दोष दिखाकर निषेध करते हैं-
सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथा स्वर्गापवर्गार्गला वङ्कााणि व्रतपर्वतेषु विषमा: संसारिणां शत्रव:।
प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेष्वेतेषु सद्धीधनै: कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मन:।।३३।।
अर्थ—जिन मनुष्यों की बुद्धि निर्मल है तथा जो अपनी आत्मा का हित चाहते हैं उनको कदापि व्यसनों की ओर नहीं झुकना चाहिये क्योंकि ये समस्तव्यसन दुर्गति को ले जाने वाले हैं तथा स्वर्ग-मोक्ष के प्रतिबंधक हैं और समस्तव्रतों के नाश करने वाले हैं तथा प्राणियों के ये परम शत्रु हैं तथा प्रारंभ में मधुर होने पर भी अंत में कटुवâ हैं, इसलिये इनसे स्वप्न में भी हित की आशा नहीं होती।।३३।।
आचार्य और भी उपदेश देते हैं-
मिथ्यादृशां विसदृशां च पथच्युतानां मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च।
सङ्गं विमुञ्चत बुधा: कुरुतोत्तमानां गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव।।३४।।
अर्थ—हे भव्यजीवों! यदि तुम उत्तममार्ग में जाना चाहते हो तो तुम कदापि मिथ्यादृष्टि, विपरीतबुद्धि, मार्गभ्रष्ट, छली, व्यसनी, दुष्टजीवों के साथ संबंध मत करो, यदि तुमको संबंध ही करना है तो उत्तम मनुष्यों के साथ ही संबंध करो।
भावार्थ—जैसी संगति की जाती है उसी प्रकार के फल की प्राप्ति होती है यदि तुम मिथ्यादृष्टि आदि दुष्ट पुरुषों के साथ संगति करोगे तो तुमको कदापि उत्तममार्ग आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि तुम उत्तम मनुष्यों की संगति करोगे तो तुमको नाना प्रकार के गुणों की तथा उत्तममार्ग की प्राप्ति होगी इसलिये यदि तुम उत्तममार्ग की प्राप्ति करना चाहते हो तो तुमको उत्तम मनुष्यों की ही संगति करना चाहिये।।३४।।
स्निग्धैरपि व्रजत मा सह सङ्गमेभि: क्षुद्रै: कदाचिदपि पश्यत सर्षपाणाम्।
स्नेहोऽपि सङ्गतिकृत: खलताश्रितानां लोकस्य पातयति निश्चितमश्रु नेत्रात्।।३५।।
अर्थ—यह नियम है कि दुष्टपुरुष जब अपना काम निकालना चाहते हैं तब मीठे वचनों से ही निकालते हैं किन्तु आचार्य इस बात का उपदेश देते हैं कि दुष्टपुरुष चाहे जैसे सरल तथा मिष्टवादी क्यों न हों ? तो भी उनके साथ कदापि सज्जनों को संबंध नहीं करना चाहिये क्योंकि इस बात को प्रत्यक्ष देखो कि जब सरसों खलरूप में परिणत हो जाती है उस समय उससे निकला हुवा तेल आँखों में लगाते ही मनुष्यों को अश्रुपात करा देता है।
भावार्थ—खल का अर्थ खल भी होता है तथा दुष्ट भी होता है उसी प्रकार स्नेह का अर्थ प्रीति भी होता है तथा तेल भी होता है। जब तक सरसों अपने रूप में रहती है तब तक वह किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं करती किन्तु जिस समय उसकी खलस्वरूप पर्याय पलट जाती है उस समय उससे उत्पन्न हुवा तेल आँखों में लगाते ही मनुष्यों को अश्रुपात करा देता है। उसी प्रकार जब तक मनुष्य सज्जन रहते हैं तब तक तो वे किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं करते किन्तु जिस समय वे दुष्ट हो जाते हैं उस समय उनसे उत्पन्न हुई प्रीति मनुष्यों को नाना प्रकार के दु:खों का अनुभव कराती है इसलिये सज्जनों को चाहिये कि वे किसी भी दुष्ट के साथ संबंध न करें।।३५।।
कलावेक: साधुर्भवति कथमप्यत्र भवने सचाघात: क्षुद्रै: कथमकरुणैर्जीवति चिरम्।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुरतया वकोटानांगे्र तरलशफरी गच्छति कियत्।।३६।।
अर्थ—जिस समय ग्रीष्मऋतु में तालाबों का पानी सूख जाता है उस समय पानी के अभाव से ही बिचारी मछलियाँ मर जाती हैं यदि दैवयोग से दश-पाँच बच भी रहें तो लंबी चोंचों के धारी बुगले उनको बात की बात में गटक जाते हैं इसलिये ग्रीष्मऋतु में मछलियों का नामनिशान दृष्टिगोचर नहीं होता उसी प्रकार प्रथम तो इस कलिकाल में सज्जन उत्पन्न ही नहीं होते, यदि दैवयोग से एक-दो उत्पन्न भी होते हैं तो दयारहित दुष्टपुरुषोें के फन्दे में फंसकर अधिक समय तक जीने नहीं पाते इसलिये इस कलिकाल में प्राय: सज्जनों का अभाव सा ही है।।३६।।
इह वरमनुभूतं भूरि दारिद्र्यदु:खं वरमतिविकराले कालवक्त्रे प्रवेश:।
भवतु वरमितोऽपि क्लेशजालं विशालं न च खलजनयोगाज्जीवितं वा धनं वा।।३७।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि संसार में दरिद्रता का दु:ख भोगना अच्छा है अथवा मर जाना अच्छा है वा और भी सांसारिक नाना प्रकार की पीड़ाओं का सहन करना उत्तम है किन्तु दुष्टजन के संबंध से जीना तथा दुष्टजन के साथ धन कमाना उत्तम नहीं।।३७।।