जीव व पुद्गल दोनों द्रव्य क्रियाशील हैं, हलन-चलन करते हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं। यदि कोई द्रव्य हलन-चलन करता है या एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, तो इस हेतु का कोई माध्यम होना चाहिए। यह माध्यम ही धर्म द्रव्य है। धर्म द्रव्य जीव व पुद्गल के गमन में उदासीन रूप से सहायक होता है। जीव व पुद्गल को चलने की प्रेरणा धर्म द्रव्य नहीं देता है, अपितु जब वे चलते हैं तो उदासीन रूप से मदद अवश्य करता है। जैसे जल मछलियों के तैरने में सहायक है अथवा पतंग को उड़ने में हवा सहायक है। यदि यह द्रव्य नहीं हो तो हम चल नहीं सकेंगे। कोई भी पदार्थ शून्य में गमन नहीं कर सकता है। किसी भी क्रिया के लिए माध्यम की आवश्यकता होती है। जैन धर्म के अुनसार इस माध्यम को धर्म द्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य अन्य किसी द्रव्य से प्रभावित नहीं होता है। केवल जीव व पुद्गल द्रव्य ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
यह धर्म द्रव्य समूचे लोक में तिल में तेल की तरह व्याप्त है, मगर आँखों से दिखाई नहीं देता है। यह अचेतन है और इसका कोई रूप भी नहीं है अर्थात् अरूपी है। यह न तो चलता है और न ही फैलता या सिकुड़ता है। इसका आकार जीव पदार्थ की भांति लोकाकाश जितना है और इसके प्रदेशों की संख्या भी लोकाकाश के समान असंख्यात है। लोकाकाश के बाहर यह द्रव्य नहीं है। इसी वजह से कोई जीव लोकाकाश के बाहर नहीं जा सकता है।
आज के वैज्ञानिकों ने जिस पदार्थ को ईथर नाम दिया है, वह जैन आगम का धर्म द्रव्य है। (यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग पुण्य के अर्थ में नहीं है, अपितु यह एक द्रव्य है।)
जो द्रव्य स्वयं ठहरते हुए अन्य जीव या पुद्गल को ठहरने में उदासीन रूप से सहायक है, वह अधर्म द्रव्य है। अन्य जीव व पुद्गल को ठहरने की प्रेरणा अधर्म द्रव्य नहीं देता है, अपितु जब वे ठहरते हैं तो उनकी सहायता अवश्य करता है। जैसे वृक्ष की छाया यात्री को ठहरने में सहायक होती है। यदि यह द्रव्य नहीं हो तो हम ठहर नहीं सकेंगे।
यह अधर्म द्रव्य समस्त लोक में तिल में तेल की तरह व्याप्त है, मगर आँखों से दिखाई नहीं देता है। यह भी अचेतन और अरूपी है। यह न तो चलता है, न सिकुड़ता है और न ही फैलता है। इसका आकार जीव की भांति लोकाकाश जितना है और प्रदेशों की संख्या भी लोकाकाश के समान असंख्यात है। (यहाँ अधर्म शब्द का उपयोग पाप के अर्थ में नहीं है, अपितु यह एक द्रव्य है।)
आकाश का अर्थ है अवकाश (स्थान) देना। सामान्य भाषा में ऊपर जो नीला-नीला दिखाई देता है, उसे आकाश कहते हैं। मगर जैन आगम में आकाश का अर्थ वह द्रव्य है जो अन्य द्रव्यों को अवकाश (अवगाहन या स्थान) देता है।
जो नीला आकाश हमें दिखाई देता है, वह आकाश नहीं होकर क्षुद्र अणुओं का रंग समझो जो कि इस वायुमण्डल में नित तैरते हैं और सूर्य की किरणों को प्राप्त कर नीले रंग में नजर आते हैं। जो हमें नजर आता है वह पुद्गल होना चाहिए। मगर आकाश द्रव्य पुद्गल नहीं है। वस्तुत:आकाश द्रव्य अमूर्तिक व रंगहीन है और इसे इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता है। यहां अपने चारों ओर जो खाली स्थान दिखाई देता है, वह खाली जगह ही वस्तुत: आकाश द्रव्य है। जहां तक दृष्टि फैलाये वहां तक सर्वत्र आकाश ही आकाश है। हमारी दृष्टि तो क्षितिज तक ही जा सकती है। मगर क्षितिज का कहीं अन्त है ही नहीं। क्षितिज की ओर हम चाहे कितनी भी दूरी तक चले जावे, क्षितिज हमसे दूर ही रहता है। वस्तुतः हमारी दृष्टि सीमित दूरी तक ही देख सकती है जबकि आकाश का कोई अन्त नहीं है। इस प्रकार आकाश द्रव्य सब दिशाओं में अनन्त तक व्याप्त है। इसका कहीं अन्त नहीं है, अतः इसे व्यापक कहा जाता है। इस आकाश द्रव्य में ही जीव, पुद्गल, वायु, अग्नि, पृथ्वी आदि सभी द्रव्य रहते हैं। यह स्पर्श रहित और क्रिया रहित है। यदि यह द्रव्य नहीं हो तो किसी भी वस्तु आदि को ठहरने हेतु जगह नहीं मिलती। आकाश में असंख्यात सूर्य, चन्द्रमा व पृथ्वी आदि अधर स्थित हैं। यह आकाश द्रव्य की विचित्र अवगाहना शक्ति का चमत्कार है।
आकाश द्रव्य स्वयं प्रतिष्ठित है, नित्य है और सदैव ऐसे का ऐसा ही रहा है और भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा।
यह दो प्रकार का होता है-लोकाकाश और अलोकाकाश।
(१) लोकाकाश-लोक के जितने भाग में छहों द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है।
(२) अलोकाकाश-लोक के जितने भाग में केवल एक आकाश द्रव्य पाया जाता है, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश के बाहर जो अनन्त आकाश है, वही अलोकाकाश है।
जो स्वयं परिणमते हुए अन्य सभी द्रव्यों के परिणमन (परिवर्तन) में सहकारी है, वह कालद्रव्य है। वस्तु मात्र के परिवर्तन में यह द्रव्य सहायक है। यह परिवर्तन स्वाभाविक है और रोका नहीं जा सकता है। सभी पदार्थ अपने-अपने गुण पर्यायों द्वारा स्वयं प्रतिक्षण परिणमन को प्राप्त होते हैं, किन्तु बाह्य निमित्त के बिना यह परिणमन शक्ति व्यक्त नहीं होती है। जिस प्रकार कुम्हार के चक्र के फिरने में उसके नीचे लगी ‘‘कील’’ सहायक होती है उसी प्रकार काल द्रव्य सहायक है, बिना कील के चक्र का घूमना संभव नहीं है। इसी प्रकार काल द्रव्य के बिना पदार्थों का परिणमन सम्भव नहीं है। अतः काल द्रव्य पदार्थ के परिणमन में सहायक है। काल द्रव्य उनका परिणमन बलात् नहीं करता है, अपितु मात्र सहकारी निमित्त है। यह अनादि अनन्त है, वर्तना ही इसका लक्षण है। काल द्रव्य को निज परिणमन हेतु अन्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि परिणमन ही इसका स्वभाव है। काल द्रव्य सूक्ष्म परमाणु बराबर है।
हम प्रायः देखते हैं कि जो व्यक्ति जवानी में सुन्दर था, बुढ़ापे में उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं और उसकी सुन्दरता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार नया मकान १००-१५० वर्षों में जीर्ण-शीर्ण हो जाता है। जब किसी ने कुछ नहीं किया तो ऐसा क्यों होता है? यह जो परिवर्तन होता है वह काल द्रव्य का ही कार्य है। काल द्रव्य के कालाणु सम्पूर्ण लोक के एक-एक प्रदेश पर अवस्थित हैं। ये कालाणु एक दूसरे से बंध को प्राप्त नहीं होते हैं और अपनी स्वतंत्र सत्ता में बने रहते हैं। जैसे रत्नों के ढेर में रत्न परस्पर मिले हुए तो रहते हैं मगर परस्पर बंध को प्राप्त नहीं होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक कालाणु रत्नों की मणियों की तरह आकाश में अलग-अलग प्रदेशों पर स्थित है। कालाणुओं का परस्पर न मिलने के कारण यह काल द्रव्य अकाय या अप्रदेशी कहलाता है। परन्तु ये अदृश्य, निराकार, निष्क्रिय और असंख्यात होते हैं।
काल द्रव्य के भेद दो हैं-
(१) निश्चय काल-लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर अलग-अलग काल के अणु स्थित हैं। इन कालाणुओं को ही निश्चय काल कहते हैं। इन कालाणुओं के निमित्त से ही संसार में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। ये कालाणु स्वयं पलटते हैं और अन्य द्रव्यों को पलटने में सहायक होते हैं। इन्हीं के निमित्त से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व कायम है।
(२) व्यवहार काल-आकाश में एक प्रदेश में स्थित पुद्गल का एक परमाणु मन्द गति से जितनी देर में उस प्रदेश से लगे हुए दूसरे प्रदेश में पहुँचता है, उसे, ‘‘समय’’ कहते हैं। यह काल की सबसे छोटी इकाई है। समयों के समूह को ही आवली, श्वासोच्छ्वास कहते हैं और इसी से घड़ी, दिन, सप्ताह, पक्ष, माह, वर्ष बनते हैं। यह सब व्यवहार काल है।
जीव द्रव्य अनन्त हैं। उससे अनन्तगुणे पुद्गल द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं क्योंकि ये द्रव्य अखण्ड हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं। लोकाकाश में जितने भी प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं क्योंकि एक-एक प्रदेश पर एक-एक काल द्रव्य स्थित है। इन छहों द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य की संख्या ज्यों की त्यों रहती है व घटती-बढ़ती नहीं है।
गमन करने, ठहरने तथा हलन-चलन की क्रिया जीव व पुद्गल द्रव्यों की ही होती है, अत: ये सक्रिय हैं। शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं अर्थात् एक स्थान पर अचल रूप से स्थित हैं। निष्क्रिय का अर्थ केवल गति रहित है, न कि परिणमन रहित । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूपी अवस्थाएं सभी छः द्रव्यों में होती हैं किन्तु क्रिया संसारी जीव और पुद्गल में ही होती है। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों में यद्यपि ये क्रियाएं नहीं होती हैं, किन्तु ये जीव व पुद्गल की उक्त क्रियाओं (चलने, ठहरने और अवगाहन देने) में सहकारी हैं।
मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्य-
जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा सूंघकर, चखकर, देखकर, सुनकर या छूकर जाना जा सके वह मूर्तिक है और जो नहीं जाना जा सके वह अमूर्तिक है।
छः द्रव्यों में से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को हम इन्द्रियों से नहीं जान सकते हैं। अतः वे अमूर्तिक हैं। पुद्गल द्रव्य को हम इन्द्रियों से जान सकते हैं, अतः यह मूर्तिक है। लोक में दिखाई देने वाले समस्त पदार्थ मूर्तिक हैं। जैसे भूमि, पत्थर, ईंट, अग्नि, शरीर, वनस्पति आदि।
जीव अपने स्वभाव की अपेक्षा अमूर्त है तथापि संसारी जीव अनादि काल से कर्मों से बद्ध होने के कारण कथंचित् मूर्त भी है। इसी कारण जीव को स्वभावत: अमूर्तिक होने के बाद भी कर्म-संयुक्त अर्थात् कथंचित् मूर्तिक भी कहा गया है।
द्रव्यों का आकार-
द्रव्य का सबसे छोटा आकार अणुरूप है और सबसे बड़ा आकार आकाशरूप है।