आचार्य श्री गुणभद्र जी ने यही बात कही है-
धर्मारामतरूणां फलानि सवैन्द्रियार्थ सौख्यानि।
संरक्षतांस्तत स्तान्युच्चिनुयेस्तैरूपयिस्त्वम्।।१९।।
पंचेंद्रियों के सभी सुख जो भी जगत् में दिख रहे हैं वे सब धर्मरूपी बगीचे के ही फल हैं इसलिये उस बगीचे की रक्षा करते हुये जिस किसी भी उपाय से उसके फलों को प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि यदि बगीचे की रक्षा नहीं हुई तो उसके फल नहीं मिल सकेंगे।
कुछ अज्ञानी लोग ऐसा कह देते हैं कि यदि हम संभालेगें कुछ भी नियम, व्रत आदि ले लेंगे तो हमारी आजीविका नहीं चल सकेगी, पुन:हम अपना गृहस्थान्नम वैâसे चलाएंगे। ऐसे भोले या मूढ़ जीवों को समझाने के लिये आचार्यदेव कहते हैं-
धर्म सुखस्य हेतुहेतुनं विरोधकं: स्वकार्यस्य।
तस्मात् सुखभंगत्रिया माभूर्थर्मस्य विमुखस्त्वं।।
हे भव्यों ! जब धर्म सुख का कारण है तब वह अपने सुखरूप कार्य का विराधी कतई नहीं हो सकता है इसलिये सुख-आजीविका आदि नष्ट हो जायेंगे, इस भव से तुम धर्म से विमुख मत होवो।
इसी धर्म की महिमा बतलाते हुये श्री गौतमस्वामी ने कितने सुंदर शब्दों में कहा है-
धर्म: सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुद्धाश्चिन्वते।
धर्मेणव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मे नम:।।
धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद भवभृतों धर्मस्य मूलं दया।
धर्मे चित्तमहं दथे प्रतिदिनं हे धर्म ! मां पालय१।।
यह धर्म सर्व सुखों की खान है, सब प्रकार से हित को करने वाला है, बुद्धिमान लोग इस धर्म का ही संग्रह करते हैं, धर्म से ही मोक्ष सुख प्राप्त होता है, ऐसे धर्म के लिये मेरा नमस्कार होवे । धर्म से अतिरिक्त संसारी जीवों का और कोई भी दूसरा मित्र नहीं है। ऐसे धर्म का मूल दया है, इस धम्र को में अपने हृदय में धारण करता हूँ । हे धर्म! तुम प्रतिदिन मेरी रक्षा करो।
जो इस संसार के दु:खों से निकल कर जीवों को उत्तम सुख में पहुंचा देता है उसे ही धर्म कहते हैं। वह धर्म सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र अर्थात् रत्नत्रयमय है। या दया रूप है। अथवा दशधर्म स्वरूप है या वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। श्रीकुंदकुंददेव ने धर्म के ये चार लक्षण कहे हैं। इसमें से प्रत्येक लक्षण एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहता है। जहाँ रत्नत्रय है वहाँ दया, दशधर्म और वस्तुस्वभाव तीनों घटित हो जाते हैं। जहाँ सच्चा दया है वहाँ शेष तीनों हैं। जहाँ दशविध धर्म हैं वहाँ भी शेष तीनों रहते हैं और जहाँ वस्तुस्वभाव धर्म है वहाँ भी शेष तीनों सम्मिलित हैं।
प्रकारांतर से धर्म के मुनिधर्म और श्रावकधर्म की अपेक्षा भी दो भेद हैं। उसमें से श्रावकधर्म प्राचीन परंपरा में पूजा, दान, शील और उपवास इन चार रूप माना गया है। जो श्रावक जिनपूजा, गुरुओं को दान, शील और तप का पालन नहीं करते हैं उनका गृहस्थाश्रम पत्थर की नाव के समान माना गया है। वे उस घर में रहते हुये इस संसार समुद्र को भला वैâसे पार कर सकते हैं ? यह धर्म इस भव में भी सर्व सुखों को देने वाला है और अगले भव में भी स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है।
धर्म के मर्म को समझे बिना ही कलह, विसंवाद, परनिंदा,अवगति,हिंसकभाव, आदि दोष पनपते रहते हैं। इस धर्म की छत्रछाया में आने के बाद ये क्या, अशेष दोष पलायमान हो जाते हैं। उस धर्मनिष्ठ व्यक्ति का स्वयं ही अपना जीवन शांतिमय-सुखपूर्ण मन जाता है।
पोदनपुर के राजा श्री विजय के राजदरबार में एक बार एक ज्योतिषी ने प्रवेश कर सूचना दी-महाराज! आज से सातवें दिन आपके शिर पर वङ्कापात होकर आपकी मृत्यु हो जायेगी। राजा ने मंत्रियों से उपाय सोचने के लिये मंत्रणा की । अनेक सुझाव सामने आये, एक मंत्री ने कहा- राजन् ! आप सात दिन राज्य का त्याग कर जिनमंदिर में पूजन का अनुष्ठान कीजिये । यदि मृत्यु आ ही जाएगी तो भी आप नियम से स्वर्ग प्राप्त करेंगे और यदि बच गये तो पुन: राज्य सुख भोगेंगे । राजा को यह सुझाव अच्छा लगा, तदनुरूप किया। ठीक सातवें दिन वङ्कापात हुआ, राज्यसिंहासन पर एक पाषाण की मूर्ति रखी गई थी, वह तो चूर-चूर हो गई और राजा बच गये। जिनपूजा का ऐसा फल देखकर प्रत्यक्ष में ही लोगों को धम्र पर विशेष श्रद्धा हो गई।
वास्तव में अकालमृत्यु, कुष्ठरोग, महामारी, आदि बड़े-बड़े संकटों से बचाने वाला यदि कोई है तो एक धर्म ही है। जिनपूजा के प्रासाद से कुछ भी अशक्य या असंभव नहीं है। संसार में यह जिनपूजा भव्यों के सभी मनोरथोें को पूर्ण करने वाली है इसलिये यदि आपको सुख की इच्छा है तो प्रतिदिन भगवान् की पूजा करो। यदि कदाचित् पूजा नहीं कर सके तो जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का दर्शन अवश्य करो क्योंकि जिनपूजा से बढ़कर और कुछ भी उपाय ऐसा नहीं है जो कि उत्तम फलों को बिना मांगें, बिना सोचें ही तुम्हें दे सके अत: इस जिनपूजा को सबसे बड़ा धर्म स्वीकार करो। धर्म का माहात्म्य कहते हुये पुं.भूधरदास ने भी कहा है-
जांचे सुरतरू देय सुख चिंतित चिंता रैन।
बिन जांचे बिन चिंतये धम्र सकल सुख देन।।