४२६००-०० छपाई (प्रेस की मंजूरी) धवलाग्रंथ का आधा भाग बम्बई के निर्णयसागर प्रेस में, धवलाग्रंथ का आधा भाग और जयधवला का आधा भाग कल्याण प्रेस-सोलापुर में, जयधवला पृष्ठ ६६४ गुरुकुल प्रिंटिग प्रेस-ब्यावर में, महाधवला पूर्ण-सिवनी में, जयधवला संपूर्ण पृष्ठ १९६४ से २३०० सन्मति प्रेस-बाहुबली में। (शुरू में कई पृष्ठों का छपाई खर्च प्रतिपृष्ठ रु. १४ लगा)। २४५७५-०० कागज। ४१२००-०० ताम्रपत्र प्रोसेस का काम १ श्रीपाद प्रोसेस वर्क्स, मुंबई में धवला बहुभाग दर रु. ११, २ राऊ आणि कंपनी मुंंबई, धवला का अल्पभाग, ३ झारापकर ब्रदर्स, मुंबई धवला, जयधवला दर प्रति पृष्ठ. १० व ८। (ताम्रपत्रों पर दोनों बाजू पर अक्षरों को अंकित करने का काम क्रमश: प्रथम प्रतिष्ठा १४, ११, १० व ८ लगा) ग्रंथों के पृष्ठ ताम्रपत्र देशी लेने से उस पर एक बाजू पर ही अक्षरों को अंकित करना पड़ा, इसलिए ताम्रपत्रों की संख्या बढ़ गयी।
१८८७५-०० पंडितों का संशोधन वेतन, १०५५०-०० फोटो खर्च, ८७५-०० प्रवास, ४१००-०० किरकोळ कुल खर्च १,४२,७७५-००।
श्री धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों की प्रतियाँ प्रकाश में आने का संक्षिप्त इतिहास
श्रीमान सेठ माणिकचंद पानाचंद जे.पी. मुंबई ईसवी सन् १८८३ में ससंघ यात्रा करने मूडबिद्री गये थे। वहाँ उन्होंने रत्नों की प्रतिमाओं के दर्शन के साथ धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों का दर्शन किया। ताडपत्रीय सिद्धान्त ग्रंथ जीर्णशीर्ण अवस्था में हैं, यह बात सेठजी के सूक्ष्म दृष्टि में आयी। उन्होंने श्री माननीय भट्टारक जी तथा पंचों के साथ इस बाबत विचार-विमर्श किया। उनका ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। श्रवणबेलगोला के पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री ही वे ग्रंथ पढ़ सकते हैं, यह जानकारी भी प्राप्त की। उन सिद्धान्तग्रंथों के जीर्णोद्धार का उनके मन में विचार उठा। यात्रा से वापिस लौटते ही उन्होंने श्री सेठ हीराचंद नेमचंद, सोलापुर को इन सिद्धान्तग्रंथों के बारे में समाचार दिया। वे अगले वर्ष में ईसवी सन् १९४१ में ब्रह्मसूरि शास्त्री को साथ लेकर मूडबिद्री गये। शास्त्री जी द्वारा सिद्धान्त ग्रंथ पढ़कर श्रवण किया। उनका जीर्णोद्धार कराने के अभिप्राय से पं. ब्रह्मसूरि शास्त्रीजी को उनकी प्रतिलिपि करने का आग्रह किया। इस बीच अजमेर के सेठ मूलचंद जी सोनी, पं. गोपालदासजी बरैय्या के साथ मूडबिद्री गये। वहाँ के भट्टारक तथा पंचों के साथ विचारविनिमय करके ब्रह्मसूरि शास्त्री द्वारा प्रतिलिपि कराने का कार्य शुरू हुआ। करीब तीन सौ श्लोकों की प्रतिलिपि होने के पश्चात् कार्य स्थगित हुआ।
ईसवी सन् १८९५ में सेठ मणिकचंद जी पानाचंद, सेठ हीराचंद नेमचंद आदि महानुभावों ने उन गं्रथों की प्रतिलिपि कराने का निश्चय किया। इस कार्य के लिए १४०००रु. का चंदा इकट्ठा हुआ। पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री को मासिक १२५ रु. तनख्वाह देकर कार्य का आरंभ हुआ। उनकी मदद के लिए मिरज के पं. गजपती को भेजा गया। श्री जयधवला की १५०० श्लोक प्रमाण हिस्से की प्रतिलिपि होने के पश्चात् पं. ब्रह्मसूरि के स्वास्थ्य में बिगाड़ होकर उनका स्वर्गवास हो गया। प्रतिलिपि का कार्य चालू था। पं. गजपति शास्त्री को नागरी लिपि में धवला, जयधवला की प्रतिलिपि का कार्य पूरा करने में सोलह साल लगे। उसी समय मूडबिद्री के पं. देवराज सेठी, शांतप्पा उपाध्याय तथा ब्रह्मय्य इन्द्र द्वारा उक्त ग्रंथों की कानडी लिपि में प्रतिलिपि कराई गई। महाधवला की कानडी प्रतिलिपि पं. नेमीराजजी द्वारा कराने का प्रबंध किया गया। १९१८ में उसकी प्रतिलिपि पूर्ण हुई। सेठ हीराचंद नेमचंद ने पं. लोकनाथ शास्त्री द्वारा महाधवला की देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि करवाई। इस प्रकार सन् १८९६ से १९२२ तक यह कार्य चलता ही रहा। इस कार्य में करीब बीस हजार रुपये खर्च हुआ।
(शांतिसागर स्मृति ग्रंथ से साभार)