यद्यपि किसी शुभ अथवा अशुभ ध्येय में मन का केन्द्रित हो जाना तन्मय हो जाना यह ध्यान का लक्षण है। वह गंभीर चिन्ताओं मे भी गर्भित है। फिर भी आप स्थिर मुद्रा से स्थित होकर अपने इष्टदेव का चिन्तवन करने में तन्मय होने को ही ध्यान समझते हैं। सो ठीक ही है क्योंकि यही शुभ ध्यान है। इसके विषय में हमें चार बातें समझनी होंगी। ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान का फल।
यहां अपने को पिण्डस्थ, पदस्थ आदि ध्यानों से प्रयोजन है। अत: उसी के लिये इन चारों को समझना है क्योंकि निर्विकल्परूप शुद्ध आत्मा का ध्यान करना आजकल शक्य नहीं है तथा वह श्रावकों के लिये तो सदा ही असंभव है।
१. रत्नत्रय से सम्पन्न जितेन्द्रिय प्रमत्त गुणस्थानवर्ती और अप्रमत्त गुणस्थानी महामुनि ही इस ध्यान को करने वाले ध्याता है क्योंकि श्री शुभचन्द्राचार्य गृहस्थाश्रम में ध्यान का पूर्णतया निषेध कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘आकाश में पुष्प अथवा गधे के सींग हो सकते हैं किन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान सिद्धि नहीं हो सकती है।’ तथा आगे चलकर वे यह भी कहते हैं कि ‘कितने ही आचार्यों ने धर्मध्यान के स्वामी अधिकारी चार भी कहे हैं—असंयत—सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक, प्रमत्त और अप्रमत्तमुनि। ये चारों भी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार धर्मध्यान कर सकते हैं। इस कथनानुसार सम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावक भी धर्मध्यान को कर सकते हैं। फिर भी अपने को यह मानना चाहिये कि हम लोग ध्यान का अभ्यास अथवा उसकी भावना या चिन्ता करते हैं। इससे एक न एक दिन अवश्य ही हम ध्यान के अधिकारी बन जायेंगे। इसलिये वे अणुव्रती या सम्यग्दृष्टि अथवा मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि जो भी भव्यजीव प्रसन्नमना होकर ध्यान करते हैं वे ध्याता कहलाते हैं।
२. पंचपरमेष्ठी और अपनी शुद्धात्मा ही ध्येय है तथा संपूर्ण द्वादशांग श्रुत या उसके कोई भी पद, अक्षर, वाक्य ध्येय हैं, रत्नत्रय ध्येय है, दश धर्म, सोलहकारण भावना जिनेन्द्रदेव के चौंतीस अतिशय आदि सब ध्येय हैं अर्थात् इनमें से किसी का भी ध्यान किया जाता है।
३. एक विषय में मन का एकाग्र करना ध्यान हैं ‘इस ध्यान में जिनमुद्रा से खड़े होकर दोनों हाथ लटका कर या योगमुद्रा से बैठकर बायें हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रख दो, आंखों को अधिक न खोलो न बन्द रखो, धीरे—धीरे उच्छ्वास लो और दोनों दांतों की पंक्तियों को मिलाकर रखो पुन: मन की स्वच्छंद गति को रोककर उसे अपने ध्येय में स्थिर करो। उस समय परीषह उपसर्ग आदि बाधायें आ जावें तो सहन करो। पहले तो निर्जंतुक, निर्बाध, पवित्र उत्तम स्थान में बैठना चाहिये फिर भी यदि विघ्न आ जावें तो उनसे घबड़ाओं मत। ध्यान के समय सुखासन ही अच्छा रहता है। िंपडस्थ आदि का अवलबंन लेना या पदस्थ ध्यान को करना ये सब ध्यान है।
४. इस ध्यान का फल स्वर्ग है व परम्परा से मोक्ष है तथा साक्षात् फल है शारीरिक व मानसिक क्लेशों का, दु:खों का दूर हो जाना। तथा अनेक प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ भी ध्यान के प्रभाव से प्राप्त हो जाती है और मन वश में हो जाता है। ध्यान के निमित्त से अंत समय में समाधि की सिद्धि निर्विघ्नतया होती है।
ध्यान की सिद्धि के लिये मन की शुद्धि आवश्यक है और मन को पवित्र बनाने के लिये विधिवत् ‘देववंदना’ (सामायिक) करना चाहिये उस देववंदना के छह कृति कर्म होते हैं—‘स्वाधीनता, तीन प्रदक्षिणा, तीन कायोत्सर्ग, तीन निषद्या, चार शिरोनति ओर बारह आवर्त।’ अर्थात् वंदना करने वाला स्वाधीन हो। मंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे। आगे कही विधि में तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग होते हैं। बैठकर ईर्यापथ आलोचना चैत्यभक्ति की आलोचना और पंचगुरुभक्ति की आलोचना करके पुन: अगली भक्ति संबंधी विज्ञापना करना ये तीन निषद्या है। सामायिक दंडक और थोस्सामिस्तव इन दोनों के आदि और अंत में एक-एक शिरोनति करने से चार शिरोनति होती हैं और इन्हीं के आदि अंत में तीन-तीन आवर्त करने से बारह आवर्त हो जाते हैं।
इस देववंदना में चार मुद्राओं का प्रयोग होता है-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वंदनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा। जिनप्रतिमा के समान हाथ लटका कर और पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर स्थिर खड़े होना जिनमुद्रा हैं। पद्मासन, पर्यंकासन या वीरासन से बैठकर बायें हाथ की हथेली पर दायीं हथेली रखना योगमुद्रा है। दोनों हाथों को मुकुलित जोड़ना वंदनामुद्रा है। और दोनों हाथों को मिलाकर जोड़ना मुक्ताशुक्ति मुद्रा है।
वंदना का इच्छुक व्यक्ति मंदिर में या बगीची आदि किसी भी पवित्र स्थान में वंदना कर सकता है। यदि मंदिर में करना है तो मंदिर में पहुंच कर पहले पैर धोकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देवे, नंतर नि:सही नि:सही नि:सही, ऐसा उच्चारण करते हुये अन्दर प्रवेश कर णमोकार मंत्र पढ़कर नि:संगोहं जिनानां इत्यादि दर्शनस्तोत्र पढ़कर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को नमस्कार करके ‘देववंदना प्रारम्भ कर देवे।
वंदना करने वाले को पूर्व या उत्तर में ही मुख करके बैठना या खड़े होना चाहिये तथा आसन में दाभ का आसन ही उत्तम माना गया है। पुन: यदि संस्कृत आती है तो पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत भक्तियों का ही प्रयोग करें अन्यथा उसी के अनुवादरूप हिंदी भाषा में रचित भक्तियों का पाठ करते हुये विधिवत् वंदना करें।
इस पिंडस्थ ध्यान में अनेक प्रकार के विषय का ध्यान होने से मन को बहुत ही बवाल मालूम पड़ता है। अत: कोई एक पद या अक्षर का ध्यान करना बताइये ?
एक ध्येय में किसी मंत्र या पद में कुछ क्षण तक मन को केन्द्रित करना प्रारंभ में बहुत ही कठिन है। हाँ ! अभ्यास के बाद अवश्य ही आप एक विषय पर मन को कुछ देर तक रोक सकते हैंं। इस िंपडस्थ ध्यान में मन को स्थिर करने का सुन्दर और व्यवस्थित मार्ग बतलाया गया है क्योंकि निकम्मा मन प्रमाद करता है। जब तक यह किसी दायित्वपूर्ण कार्य में लगा रहता है, तब तक इसे व्यर्थ की अनावश्यक एवं न करने योग्य बातों के सोचने का अवसर ही नहीं मिलता है। पर जहाँ इसे दायित्व से छुटकारा मिला, स्वच्छन्द हुआ कि यह उन विषयों को सोचने लगता है जिन का स्मरण भी कभी कार्य करते समय नहीं होता था। मन की गति बड़ी विचित्र है। नया साधक जब ध्यान का अभ्यास प्रारंभ करता है, तब उसके सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह आती है कि अन्य समय जिन सड़ी, गली, गंदी एवं घिनौनी बातों की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी, वे ही उस समय उसे याद आने लगती हैं और वह घबड़ा जाता है। इसलिये उस मन को ऐसी ही वृहत् सामग्री देनी चाहिये कि जिसमें उलझ कर सांसारिक उलझनों से बचा रहे।
मन को एक ही ‘पद’ देने से वह अधिक देर उस पर टिक न सकने के कारण उससे हटकर निकम्मा हो जाता है। किन्तु उसे निकम्मा रहना भी तो आता नहीं, अत: वह उन पुराने चित्रों को उधेड़ने लगता है कि जिनका संस्कार उस पर पहले से पड़ा हुआ है। अत: आचार्यों ने इस ध्यान में धारणाओं के द्वारा क्रम से मन को रिझाने का उपाय बतलाया है। इन धारणाओं के चिंतवन से मन को अन्य विचार का अवसर नहीं मिल पाता है अन्यथा यह मन संसार के विषयों में ही पड़कर धर्म की जगह भी मारधाड़ कर बैठता है। किन्तु क्रम से इस ध्यान में चिंतन का विषय अधिक होने से आत्मा को बहुत ही शांति मिलती है। इसलिये अपने मन को यदि आप एकाग्र करना चाहते हैं और ध्यान के इच्छुक हैं तो पहले इस िंपडस्थ ध्यान का भी अभ्यास कीजिये।
पिंड—शरीर में स्थित आत्मा का ध्यान पिंडस्थ ध्यान है। इसके लिये आचार्यों ने पांच धारणायें बतलाई हैं। पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्वरूपवती। ये धारणायें क्रम से होती हैं।
(१) पार्थिवी धारणा—आप स्थिर योगमुद्रा से बैठकर चिंतवन कीजिये कि स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत इस मध्यलोक प्रमाण एक क्षीर समुद्र है अर्थात् यह मध्यलोक क्षीरसमुद्र सदृश निर्मल जल से भरा हुआ है। यह नि:शब्द है और कल्लोल रहित है। कुछ क्षण तक अपने चारों तरफ आप दुग्ध समुद्र को ही देखने का प्रयत्न कीजिये जब आपको क्षीर के सिवाय अन्य कुछ भी न दिखे तब आप आगे सोचिये कि इस क्षीर समुद्र के मध्य एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप प्रमाण ऊपर उठा हुआ और खिला हुआ एक दिव्य कमल है उसके हजार दल है वे सभी सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। उसकी कर्णिका सुमेरु के समान उठी हुई है और वह अपनी पराग से दशों दिशाओं को पीली करती हुई पीत वर्ण की है।
पुन: आप देखिये कि उस कर्णिका पर एक श्वेतवर्ण का ऊंचा सिंहासन है। उस पर आप अपनी आत्मा को क्षोभ रहित, शांत विराजमान हुई चिंतवन कीजिये। अनन्तर आप ऐसा चिंतवन कीजिये कि मेरी आत्मा संपूर्ण राग-द्वेषमय संसार को और संपूर्ण कर्मजाल को नष्ट करने में समर्थ है। ऐसा बार बार िंचतवन करते हुए अपने उपयोग को उसी में तन्मय कर दीजिये। यह पार्थिवी धारणा का स्वरूप है।
(२) आग्नेयी धारणा (कर्मरूपी कमल)— फिर उसी सुमेरु पर्वत पर बैठे हुये आप ध्यान में सोचिये कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दलों वाला खिला हुआ एक सफेद कमल है। उस कमल की कर्णिका पर ‘र्हं’ ऐसे बीजाक्षर को पीत वर्ण से लिखा हुआ देखिये। पुन: पूर्व दिशा के क्रम से प्रत्येक दलों पर पीतृवर्ण से लिखे हुए अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ¸, ऌ, ल¸, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: इन सोलह अक्षरों का ध्यान कीजिए। आपको ये अक्षर और कर्णिका का महामंत्र स्पष्ट दिखना चाहिये। पुन: आप देखें कि इसी कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान पर औंधा मुँह करके एक आठ दल का कमल बना हुआ है वह मटमैले रंग का है उसके दलों पर क्रम से ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयु कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म, अन्तराय कर्म, ये कर्म लिखे हुये हैं।
पुन: आप देखिये कि नाभि—कमल की कर्णिका के ‘र्हं ’ महामंत्र के रेफ से धुआं निकल रहा है, पुन: उसमें से अग्नि के स्फुिंलगे निकलने लगे। अग्नि की लौ ऊपर को उठने लगी और उसमें से लपटें निकलने लगी। फिर उन लपटों ने ऊपर के कमल को जलाना प्रारम्भ कर दिया। धीरे—धीरे वह अग्नि मस्तक के ऊपर पहुँच गई और ऊपर से उसकी एक लकीर दाईं ओर को और एक बाईं ओर को निकल कर आ गई। उन दोनों लकीरों ने नीचे आकर दोनों कोनों को मिलाकर त्रिकोणाकार अग्नि मण्डल बना दिया। अब अन्दर में धधगती हुई अग्नि अन्दर के कमल आदि को जला रही है और बाहर में औदारिक शरीर को भस्म कर रही है। इस त्रिकोणाकार में तीनों लकीरों में ‘ रं रं रं रं’ ऐसे अग्नि बीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बना हुआ है तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘ऊँ र्रं’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुये हैं। यह अग्निमण्डल भीतर में आठों कर्मों को और बाहर में शरीर को जलाकर भस्मसात कर रहा है। आप घबड़ाइये मत, आपकी आत्मा अग्नि से कभी भी जल नहीं सकती ऐसा पूर्ण विश्वास रखिये, क्योंकि वह तो चिच्चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक है। पुन: देखिये कि वह अग्नि अब जलाने योग्य कुछ भी न रह जाने से धीरे—धीरे शांत हो गई है और हमारी आत्मा के ऊपर राख का पुंज इकट्ठा हो गया है। यह आग्नेयी धारणा हुई।
(३) श्वसना धारणा (वायु धारणा)—अब आप देखिये कि आकाश में चारों तरफ से बहुत जोरों से हवा चलने लगी। यह हवा मेरु को भी कंपाने में समर्थ है किन्तु आप िंचता न कीजिये आपकी आत्मा को यह अणुमात्र भी हिला नहीं सकती। यह वायुमण्डल गोलाकार बन गया है। इस मण्डल में आठ जगह घेरे में ‘स्वाय—स्वाय’ ऐसे वायु बीजाक्षर सफेद वर्ण से लिखे हुए हैं। यह वायुमण्डल हमारी आत्मा के ऊपर लगे हुये सारे कर्मरजों को उड़ाकर साफ कर रहा है। तत्पश्चात् यह वायु स्थिर हो गई है। ऐसा िंचतवन करना श्वसना धारणा है इसे वायवी या मारुती धारणा भी कहते हैं।
(४) वारुणी धारणा—पुन: आप देखिये कि आकाश में चारों तरफ मेघ छा गये हैं बिजली चमक रही है इन्द्र- धनुष दिख रहा है अब बादल गरजने लगे। देखते—देखते मूसलाधार वर्षा चालू हो गई। आप घबड़ाइये मत आपकी आत्मा भीगेगी नहीं। पुन: देखिये अपने ऊपर अर्ध चन्द्राकार मंडल बन गया है और उससे अमृतमय जल की सहस्र धारायें बरसती हुई मेरी आत्मा के कर्म की भस्म को प्रक्षालित कर रही है। इस वरुणमण्डल में ‘पं पं पं’ इत्यादि बीजाक्षर लिखे हुये हैं। यह वारुणी धारणा हुई।
(५) तत्वरूपवती धारणा (शुद्ध भावना)—तत्पश्चात् आप देखिये कि मेरी आत्मा सप्त धातु से रहित पूर्णचन्द्र के सदृश प्रभावशाली सर्वज्ञ—समान हो गई हैं अब मैं अतिशय से युक्त, कल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव, दानव धरणेन्द्रादि से पूजित हो गया हूँ। अनंतर मैं आठ कर्मों से रहित निर्मल पुरुषाकार नित्य निरंजन परमात्मा हो गया हूँ। ऐसा ध्यान करना यह तत्वरूपवती धारणा है।
इस पिंडस्थ ध्यान का निश्चल अभ्यास करने वाले योगीजन अन्य प्रकार से साधने में कठिन ऐसे मोक्षमुख को भी प्राप्त कर लेते हैं तो अन्य सुखों की बात ही क्या है ? जिस प्रकार से सूर्य के उदित होते ही उल्लू पलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार से इस पिंडस्थ ध्यानरूपी धन के समीप होने पर विद्या, मंडल, मन्त्र, यन्त्र, इन्द्रजाल के आश्चर्य, क्रूर अभिचार स्वरूप क्रिया, तथा सिंह, सर्प, दैत्य आदि नि:सारता को प्राप्त हो जाते हैं तथा शाकिनी , ग्रह, राक्षस, भूत, पिशाच आदि कुछ भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा इस ध्यान का प्रभाव है।
पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलंबन लेने वाला ध्यान पदस्थ कहलाता है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं।
(१) ‘ॐ’ इस मंत्र को प्रणव मंत्र कहते हैं। यह पंचपरमेष्ठी वाचक मंत्र समस्त वाङ्मय द्वादशांग श्रुत को प्रकाशित करने के लिये दीपक के समान है। इसको हृदय कमल की कर्णिका पर या ललाट आदि पवित्र स्थान में चन्द्रमा के समान श्वेत चिन्तवन करो।
(२) हृदय में आठ दल के कमल की कर्णिका पर ‘णमो अरहंताणं’ पूर्वादि दिशाओं के दलों पर क्रम से ‘णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’ इन चार पदों को तथा विदिशा के दलों पर क्रम से ‘सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यक्चारित्राय नम:, सम्यक्तपसे नम:, इन चार मंत्र पदों को स्थापित करके इन नव मंत्रपदों का ध्यान कीजिये।
अथवा पंचवर्णी ह्री ँ बीजाक्षर में चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों को विराजमान करके उसका ध्यान निम्न प्रकार करें-
‘ह्री ॐ’ बीजाक्षर में ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर स्थित हैं, वे अपने अपने वर्णों से युक्त हैं उनका ध्यान करें अर्थात् इस ह्री ॐ में जो नाद है वह चंद्र के समान आकार व वर्ण वाला है, जो बिंदु (०) है वह नीलमणि की प्रभा वाली है। जो कला (—) है वह लाल वर्ण की है और जो ‘ह’ वर्ण है वह स्वर्ण के समान आभा वाला है। शिर के ऊपर जो (ह्रीं) ईकार है वह हरित वर्ण की है। इस तरह उन—उन वर्ण वाले तीर्थंकर देव उन-उन वर्ण के स्थानों में स्थित हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत श्वेत वर्ण वाले होने से ये दोनों नाद में स्थित हैं। नेमिनाथ और मुनिसुव्रत भगवान् नील वर्ण वाले हैं अत: वे बिन्दु (०) में विराजमान हैं। पद्मप्रभ तथा वासुपूज्य देव लाल वर्ण वाले होने से वे कला (-) में विराजमान हैं। तथा सुपार्श्व और पार्श्वनाथ भगवान हरित वर्ण के हैं अत: वे शिर के ऊपर स्थित ईकार (ह्रीं ) में स्थित हैं। तथा शेष सोलह तीर्थंकर सुवर्ण के समान छवि वाले होने से र् और ह् (ह्र) में स्थापित किये गये हैं। इस प्रकार ये चौबीसों ही तीर्थंकर इस माया बीजाक्षर (ह्री ॐ) को प्राप्त हो गए हैं। अर्थात् चौबीसों ही तीर्थंकर इस बीजाक्षररूप को प्राप्त हो गए हैं। इस प्रकार से इन पाँचों वर्ण वाले चौबीसों तीर्थंकरों के इस प्रकार से इन पाँचों वार्ण वाले चौबीसों तीर्थंकरों के नाम मंत्रों को इस (ह्रीं) मंत्र में स्थापित करके आप लोग इसका ध्यान कीजिये। तथा ‘ऊँ ह्रीं नम:’ इस त्रैलोक्य वशंकरी विद्या की आराधना कीजिये।
इस पदस्थ ध्यान में इस मंत्रों का ध्यान करना ही कहा है। अर्थात् इन मंत्रों को हृदय, ललाट, नाभि, मस्तक, कंठ आदि स्थानों में स्थापित करके उस पर उपयोग को स्थिर करना चाहिये।
जाप्य—यदि आप ऐसा ध्यान करने में असमर्थ हैं तो आप इन मंत्रों की जाप्य भी कर सकते हैं। जाप्य करने के वाचक, उपांशु और मानस ऐसे तीन भेद हैं। वाचक जाप में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट होता है। उपांशु में भीतर ही भीतर शब्द कंठस्थान में गूंजते रहते हैं बाहर नहीं निकल पाते हैं। किन्तु मानस जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रुक जाता है, हृदय में ही मंत्राक्षरों का चिंतवन चलता रहता है। यही क्रिया ध्यान का रूप धारण करती है। वाचिक जाप से सौगुणा अधिक पुण्य उपांशु जाप से होता है और उससे हजार गुणा अधिक पुण्य मानस जाप से होता है।
महामंत्र के जाप में प्राणायाम विधि का विधान है। अर्थात् णमोकार मंत्र के तीन अंश करिये ‘णमो अरहंताणं’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वासवायु को अंदर ले जाइये और ‘णमो सिद्धाणं’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वास वायु को बाहर निकालिये। इसी तरह ‘णमो आइरियाणं’ में श्वास खींचना और ‘णमो उवज्झायाणं’ में श्वास को छोड़ना तथा ‘णमो लोए’ में श्वास लेना और ‘‘सव्व साहूणं’ पद में छोड़ना। इस तरह एक गाथा महामंत्र के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं।
मुनियों की देववंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि प्रत्येक क्रियाओं में श्वासोच्छ्वास की गणना से ही महामंत्र पूर्वक कायोत्सर्ग करने का विधान है तथा श्रावकों के लिये भी ऐसा ही विधान है। अत: इस महामंत्र का नव बार जाप करने से २७ उच्छ्वास होते हैं एवं १०८ जाप करने से ३०० उच्छ्वास हो जाते हैं। यह महामंत्र सर्वश्रेष्ठ अपराजित मंत्र है। ऐसे ही ‘अरहंत सिद्ध’ ‘अ सि आ उ सा’ नम: सिद्धेभ्य:’ आदि अनेकों मंत्र हैं।
शांतिमंत्र—
ॐ ह्री श्री शांतिनाथाय जगत्शांतिकराय सर्वोपद्रवशांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
शांति की इच्छा करते हुये सदैव इस मंत्र का जाप करना चाहिये। अंगुलियों पर जाप करना या मणियों को अथवा सूत की माला पर भी जाप करना चाहिये। प्लास्टिक या लकड़ी की माला से जाप नहीं करना चाहिये यह जाप पदस्थ ध्यान नहीं है किन्तु उस ध्यान के लिये प्रारम्भिक साधन मात्र है।
अरिहंत भगवान् के स्वरूप का विचार करना, अर्थात् भगवान् समवसरण में द्वादश सभाओं के मध्य विराजमान हैं। उनका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
सिद्धों के गुणों का चिंतवन करना अर्थात् सिद्ध भगवान् अमूर्तिक, चैतन्य स्वरूप, पुरुषाकार, निरंजन परमात्मा हैं, वे लोकाग्र में विराजमान हैं। तत्पश्चात् अपने आपको सिद्ध स्वरूप समझकर उसी में लीन हो जाना सो यह रूपातीत ध्यान है।
(सामायिक में ध्यान के पूर्व इन सूत्रों का भी िंचतवन किया जाता है। ये सूत्र मंत्र निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्धात्मा की भावना स्वरूप हैं।)
१. रागद्वेष-मोहरहितोऽहं। | ५२. स्वात्मोपलब्धिस्वरूपोऽहं। |
२. क्रोधमानमायालोभरहितोऽहं। | ५३. शुद्धात्मसंवित्तिस्वरूपोऽहं। |
३. पंचेन्द्रियविषयव्यापारशून्योऽहं। | ५४. भूतार्थस्वरूपोऽहं। |
४. मनोवचनकायक्रियारहितोऽहं। | ५५. परमार्थस्वरूपोऽहं। |
५. द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितोऽहं। | ५६. समयसारसमूहस्वरूपोऽहं। |
६. ख्याति-पूजा-लाभादिविभावभावरहितोऽहं। | ५७. अध्यात्मसारस्वरूपोऽहं। |
७. दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारहितोऽहं। | ५८. परममंगलस्वरूपोऽहं। |
८. शल्यत्रयरहितोऽहं। | ५९. परमोत्तमस्वरूपोऽहं। |
९. गारवत्रयरहितोऽहं। | ६०. सकलकर्मक्षयकारणस्वरूपोऽहं। |
१०. दंडत्रयरहितोऽहं। | ६१. परमाद्वैतस्वरूपोऽहं। |
११. विभावपरिणामशून्योऽहं। | ६२. शुद्धोपयोगस्वरूपोऽहं। |
१२. निजनिरंजनस्वरूपोऽहं। | ६३. निश्चयषडावयश्कस्वरूपोऽहं। |
१३. स्वशुद्धात्मसम्यक् श्रद्धानपरिणतोऽहं। | ६४. परमसमाधिस्वरूपोऽहं। |
१४. भेदज्ञानानुष्ठानपरिणतोऽहं। | ६५. परमस्वास्थ्यस्वरूपोऽहं। |
१५. अभेदरत्नत्रयस्वरूपोऽहं। | ६६. परमस्वाध्यायस्वरूपोऽहं। |
१६. निर्विकल्पसमाधिसंजातोऽहं। | ६७. परमभेदज्ञानस्वरूपोऽहं। |
१७. वीतरागसहजानन्दस्वरूपोऽहं। | ६८. परमसंवेदनस्वरूपोऽहं। |
१८. अत्यानंदस्वरूपोऽहं। | ६९. परमसमरसीभावस्वरूपोऽहं। |
१९. स्वसंवेदनज्ञानामृतभरितोऽहं। | ७०. केवलज्ञानस्वरूपोऽहं। |
२०. ज्ञायकैकस्वभावोऽहं। | ७१. केवलदर्शनस्वरूपोऽहं। |
२१. सहजशुद्धपारिणामिकस्वभावरूपोऽहं। | ७२. अनंतवीर्यस्वरूपोऽहं। |
२२. सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं। | ७३. परमसूक्ष्मस्वरूपोऽहं। |
२३. महाचलननिर्भरानंदस्वरूपोऽहं। | ७४. अवगाहनस्वरूपोऽहं। |
२४. चिन्मात्रमूर्तिस्वरूपोऽहं। | ७५. अगुरुलघुस्वरूपोऽहं। |
२५. चैतन्यरत्नाकरस्वरूपोऽहं। | ७६. अव्याबाधस्वरूपोऽहं। |
२६. चैतन्यामरद्रुमस्वरूपोऽहं। | ७७. अष्टविधकर्मरहितोऽहं। |
२७. चैतन्यामृताहारस्वरूपोऽहं। | ७८. निरंजनस्वरूपोऽहं। |
२८. ज्ञानपुंजप्रवाहस्वरूपोऽहं। | ७९. नित्योऽहं। |
२९. ज्ञानामृतप्रवाहस्वरूपोऽहं। | ८०. अष्टगुणसहितोऽहं। |
३०. चैतन्यरसरसायनस्वरूपोऽहं। | ८१. कृतकृत्योऽहं। |
३१. चैतन्यचिन्मयस्वरूपोऽहं। | ८२. लोकाग्रनिवास्यऽहं। |
३२. चैतन्यकल्याणवृक्षस्वरूपोऽहं। | ८३. अनुपमोऽहं। |
३३. ज्ञानज्योति:स्वरूपोऽहं। | ८४. अचिन्त्योऽहं। |
३४. ज्ञानार्णवस्वरूपोऽहं। | ८५. अतर्क्योऽहं। |
३५. निरूपमनिर्लेपस्वरूपोऽहं। | ८६. प्रमेयस्वरूपोऽहं। |
३६. निरवद्यस्वरूपोऽहं। | ८७. अतिशयस्वरूपोऽहं। |
३७. शुद्धचिन्मात्रस्वरूपोऽहं। | ८८. अक्षयस्वरूपोऽहं। |
३८. अनंतज्ञानस्वरूपोऽहं। | ८९. शाश्वतोऽहं |
३९. अनंतदर्शनस्वरूपोऽहं। | ९०. शुद्धस्वरूपोऽहं। |
४०. अनंतवीर्यस्वरुपोऽहं। | ९१. सिद्धस्वरूपोऽहं। |
४१. अनंतसुखस्वरूपोऽहं। | ९२. सत्तात्मकसिद्धस्वरूपोऽहं। |
४२. सहजानंदस्वरूपोऽहं। | ९३. अनुभवात्मकसिद्धस्वरूपोऽहं। |
४३. परमानंदस्वरूपोऽहं। | ९४. सोऽहं। |
४४. परमाक्षानंदस्वरूपोऽहं। | ९५. शुद्धोऽहं। |
४५. सदानंदस्वरूपोऽहं। | ९६. चित्कलास्वरूपोऽहं। |
४६. चिदानंदस्वरूपोऽहं। | ९७. चैतन्यपुञ्जस्वरूपोऽहं। |
४७. नित्यानंदस्वरूपोऽहं। | ९८. सदानंदस्वरूपोऽहं। |
४८. सहजसुखानंदस्वरूपोऽहं। | ९९. परमशरण्योऽहं। |
४९. निजानंदस्वरूपोऽहं। | १००. स्वयंभूरऽहं। |
५०. शुद्धात्मस्वरूपोऽहं। | १०१. अतिशयातिशयातीतअभूतानंतसुखस्वरूपोऽहं। |
५१. परमज्योति:स्वरूपोऽहं। |