ध्यान का लक्षण-एकाग्रचिन्तानिरोध होना अर्थात् किसी एक विषय पर मन का स्थिर हो जाना ध्यान कहलाता है। यह ध्यान उत्तम संहनन वाले महामुनियों के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) तक ही हो सकता है। जैन ग्रंथों में ध्यान के चार भेद माने हैं-आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान। जिनके लिए कहा भी है-
आर्तं रौद्रं च दुधर््यानं, निर्मूल्य त्वत्प्रसादत:।
धर्मध्यानं प्रपद्याहं, लप्स्ये नि:श्रेयसं क्रमात्।।
अर्थात् हे भगवन्! आर्त-रौद्र इन दो दुर्ध्यानों को आपके प्रसाद से निर्मूल करके मैं धर्मध्यान को प्राप्त करके क्रम से मोक्ष को प्राप्त करूँगा।
सारांश यह है कि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार प्रकार के जो ध्यान हैं, वे चारों गतियों को प्राप्त कराने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं अर्थात् आर्तध्यान से तिर्यंच-पशुगति, रौद्रध्यान से नरकगति, धर्मध्यान से देव और मनुष्य गति तथा शुक्लध्यान से सिद्धगति की प्राप्ति होती है।
पूर्ण ध्यान किसे हो सकता है?-उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार तो संसार के प्रत्येक प्राणी को हर समय कोई न कोई ध्यान रहता ही है, तथापि इनमें प्रारंभ के दो (आर्त-रौद्र) ध्यान संसार के कारण हैं और ‘‘परे मोक्ष हेतू’’ सूत्र से धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। धवला ग्रंथ में दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान माना है और शुक्लध्यान तो उत्तम संहननधारी महामुनियों के तथा केवली भगवान के ही होता है।
गृहस्थजन भी ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं!–ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि ‘‘आकाश में पुष्प खिल सकते हैं और गधे के सींग हो सकते हैं किन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में शुक्लध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।’’ फिर भी धर्मध्यान की सिद्धि के लिए गृहस्थाश्रम में भी ध्यान का अभ्यास और भावना तो करनी ही चाहिए।
संसार में अनेक प्रकार की भौतिक चिन्ताओं में उलझे मन को कुछ विश्रान्ति देने के लिए श्रावकों को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन ध्यानों का अभ्यास करना चाहिए। यद्यपि इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों की सिद्धि तो कठिन है फिर भी प्रतिदिन किया गया अभ्यास, भावना, संतति और चिन्तन इन नामों की सार्थकता को तो प्राप्त कर ही लेता है और कालान्तर में वही अभ्यास ध्यान की सिद्धि में सहायक बन जाता है।
ऊपर कहे गये धर्मध्यान के अंतिम भेद संस्थान-विचय के ही ये पिण्डस्थ आदि चार भेद माने गये हैं, सो यहाँ क्रमानुसार पिण्डस्थ ध्यान के बारे में ही बताया जा रहा है।
कहाँ बैठकर ध्यानाभ्यास करें?-मन चूँकि अत्यन्त चंचल है अत: उसे नियंत्रित करने एवं ध्यान की ओर उन्मुख करने के लिए जिनमंदिर पूर्ण उपयुक्त स्थान होते हैं। यदि मंदिर की सुुविधा उपलब्ध नहीं है, तो घर के किसी एकांत स्थान (पूजाघर-चैत्यालय) में बैठ सकते हैं अन्यथा किसी पार्क आदि खुले स्थान का कोई हिस्सा भी ध्यान करने के लिए उचित रहेगा। जहाँ आप ५ मिनट से लेकर शक्ति अनुसार १ घंटे तक भी बैठने में स्वाधीनता और निर्विकल्पता का अनुभव कर सकें उस स्थान का चयन कर लें तथा भूमि पर चटाई या दर्भासन (डाभ या शुद्ध आसन) बिछाकर ध्यान करने हेतु बैठ जावें। केवल भूमि पर बैठकर ध्यान न करें।
ध्यान के समय मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर करें क्योंकि पूर्व से निकलने वाले सूर्य की तेजस्वी किरणों की तरंगें प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों प्रकार से मन-मस्तिष्क को और ऊर्जा प्रदान करती हैं जो आत्मा में तेजस्विता के साथ-साथ शारीरिक स्वस्थता को भी देने वाली हैं। इसी प्रकार उत्तर दिशा मनोरथसिद्धि में सहायक मानी गई है जो अपनी ओर अभिमुख हुए मानव की समस्त समस्याओं का समाधान करके उसमें नवजीवन का संचार करती है।
किस मुद्रा में बैठें?-ध्यान के लिए पद्मासन मुद्रा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, वह ब्रह्मचर्यसिद्धि के लिए रामबाण औषधि के समान है। इसके लिए पहले बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर रखते हैं पुन: दाहिना पैर बायीं जाँघ पर रखकर, बाएँ हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखकर भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठकर आँखों को कोमलता से बंद करें।
यदि इस पद्मासन से बैठने में अधिक तकलीफ महसूस हो तो अर्धपद्मासन (बायाँ पैर नीचे और दाहिना पैर उसकी जाँघ पर रखकर) से बैठें अथवा सुखासन से भी बैठकर ध्यानाभ्यास किया जा सकता है।
ध्यान का शुभारंभ ॐ की ध्वनि से करें-शरीर की सुषुम्ना नाड़ी एवं मस्तक के ब्रह्म भाग को जागृत करने हेतु ‘‘ॐ’’ बीजाक्षर का नाद परम आवश्यक है। ध्यान को प्रारंभ करने हेतु सर्वप्रथम स्थिरतापूर्वक नौ बार इस ॐकार की ध्वनि करें। ध्वनि के उच्चारण में जहाँ कंठ, तालु, होंठ, नासिका आदि इन्द्रिय एवं उपांगों का अवलम्बन लेना होता है, वहीं ध्वनि के उन क्षणों में अपनी अन्तर्दृष्टि नाभिस्थान पर होनी चाहिए। उस समय अनुभव में नाभिस्थान से उठते हुए आध्यात्मिक तेजपुंज की एक लकीर ऊपर उठती हुई धीरे-धीरे ॐ के साथ मस्तक के रन्ध्र (ब्रह्म) भाग तक जाएगी, यही आध्यात्मिक ऊर्जा आत्मिक शक्ति को प्रदान करती है।
ॐ की यह ध्वनि यदि दिन में तीन बार (प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल) पूर्ण विधि के साथ की जाए तो माइगे्रन, साइनस, ब्लडप्रेशर आदि अनेक बीमारियों का इलाज बिना दवाई लिए हो जाता है। इसके कई साक्षात् उदाहरण भी देखने को मिले हैं। इस ध्वनि के पश्चात् आत्मिक शान्ति हेतु ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण करें-
(१) ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं (शक्तिरूप में मेरी आत्मा अनन्तज्ञानरूप है)
(२) परमानन्दस्वरूपोऽहं (मेरी आत्मा में परम आनंद का स्रोत प्रवाहित हो रहा है)
(३) चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहं (शुद्ध चैतन्य स्वभाव से युक्त मेरी आत्मा है)
(४) चिन्मयज्योतिस्वरूपोऽहं (चैतन्य की परमज्योति से मैं समन्वित हूँ)
(५) चिच्चिंतामणिरूपोऽहं (चैतन्यरूप चिन्तामणिरत्न से युक्त मेरी आत्मा है)
(६) शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहं (शुद्धबुद्ध स्वभाव से मैं समन्वित हूँ)
(७) नित्यनिरंजनरूपोऽहं (निश्चयनय से समस्त कर्मरूपी अंजन-कालिमा से मैं रहित हूँ)
पुन: अपने मन में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करते हुए पिण्डस्थ ध्यान के लिए तैयार हो जाएँ अर्थात् पिण्ड-शरीर में स्थित आत्मा का चिन्तन करना, पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। इसमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ होती हैं।
(१) पार्थिवी धारणा (चित्त की चंचलता में रुकावट)-शरीर पर कम से कम परिग्रह हो और निराकुल चित्त होकर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से चटाई पर बैठकर इस धारणा के अन्तर्गत विचार कीजिए-
मध्यलोकप्रमाण एक राजू (असंख्यातों मील का) विस्तृत बहुत बड़ा गोल क्षीरसमुद्र है अर्थात् जम्बूद्वीप से लेकर अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्त असंख्यात योजन का क्षीरसागर ध्यान में देखें। दूध के समान सफेद जल से वह समुद्र लहरा रहा है और समुद्र के बीचोंबीच में एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला खिला हुआ एक दिव्य कमल है जिसमें एक हजार पत्ते हैं, वे सब पत्ते सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। कमल के बीच की कर्णिका सुमेरुपर्वत के समान ऊँची उठी हुई है, वह पीले रंग की है और अपनी पराग से दशों दिशाओं को पीत प्रभा से सुशोभित कर रही है।
भव्यात्माओं! जैन आगम की भाषा में ऊपर समुद्र और कमल आदि का प्रमाण बताया है, इसका सारांश यह है कि आप अपने चिन्तन में जितना बड़ा से बड़ा समुद्र देख सकें, देखें और उसके बीच में एक हजार आठ पंखुड़ियों का कमल देखें। मन को सुमेरु के समान ऊँचा मानकर कमल की कर्णिका को ऊँची उठी हुई देखें।
पुन: आप देखिए कि उस कर्णिका पर एक श्वेत वर्ण का ऊँचा सिंहासन है, उस पर मैं भगवान आत्मा के रूप में विराजमान होकर ध्यान में तल्लीन हूँ। यहाँ भावों की उच्चता ही कर्मों की निर्जरा कराएगी, आध्यात्मिक ज्योति से आत्मा प्रकाशित हो जाएगी। यही आध्यात्मिक ऊर्जा है जिससे शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है।
इस समय आप मन ही मन निम्न पंक्तियाँ पढ़ें-
मेरा तनु जिनमंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर।
उस पर मैं ही भगवान स्वयं, राजित हूँ चिन्मय ज्योतिप्रवर।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, कर्मांजन का कुछ लेप नहीं।
मैं नमूँ उसी शुद्धात्मा को, मेरा पर से संश्लेष नहीं।।
(इसके साथ ही शांति और शिथिलता का सुझाव दीजिए। शान्त…….. शिथिल……)
अनंतर आप ऐसा चिंतवन कीजिए कि मेरी आत्मा सम्पूर्ण राग-द्वेषमय संसार को और समस्त कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। ऐसा बार-बार विचार करते हुए अपने उपयोग को उसी में तन्मय कर दीजिए। यहाँ ध्यान के निम्न सूत्र पदों को पढ़ लीजिए-
‘‘ज्ञानपुंजस्वरूपोऽहं, नित्यानंदस्वरूपोऽहं, सहजानंदस्वरूपोऽहं, परमसमाधि-स्वरूपोऽहं, परमस्वास्थ्यस्वरूपोऽहं।’’
इस चिन्तनधारा के साथ प्रथम पार्थिवी धारणा समाप्त हुई और अब द्वितीय धारणा के लिए अगला दिन निर्धारित कीजिए ताकि एक दिन का अभ्यास दीर्घकालीन न होने पाए, अन्यथा मस्तिष्क पर भार अनुभव होने लगेगा।
(२) ‘‘आग्नेयी धारणा’’ (कर्मों को जलाने की एक प्रक्रिया)-इस धारणा के अन्तर्गत चिन्तन कीजिए कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दलों वाला खिला हुआ एक सफेद कमल है। उस कमल की कर्णिका पर ‘‘र्हं’’ बीजाक्षर पीली केशर से लिखा हुआ देखिए पुन: दिशा के क्रम से प्रत्येक दलों (पत्तों) पर केशर से ही अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, ऌ, ल¸, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, इन सोलहों स्वरों को लिख लें। पुन: इन सोलहों स्वर एवं र्हं बीजाक्षर पर अपने मन को केन्द्रित करके इनका ध्यान कीजिए।
मन को अशुभ से शुभ की ओर ले जाने की यह एक उत्तम प्रक्रिया है, इस समय शारीरिक और मानसिक स्थिरता की परम आवश्यकता है अत: चंचल चित्तरूपी बंदर को एकदम अनुशासित रखिए, तब आपको ये अक्षर और कर्णिका का महामंत्र स्पष्ट दिखने लगेगा। इसके आगे आप देखें कि इसी कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान पर औंधा मुँह करके (नीचे को लटकता हुआ) एक मटमैले रंग का आठ दल का कमल बना हुआ है, उसके आठों दल पर क्रम से ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय कर्म इन आठों कर्मों के नाम काले रंग से लिखे हुए हैं।
पुनश्च ध्यान की अगली शृँखला में देखें और अनुभव करें कि नाभिकमल की कर्णिका के ‘‘र्हं’’ महामंत्र के रेफ से धुँआ निकल रहा है, कुछ ही क्षणों में उस धुँए में से अग्नि के स्फुलिंगे (चिंगारियाँ) निकलने लगीं, तब अग्नि की लौ ऊपर को उठकर आठ कर्म वाले कमल को जलाने लगी और धीरे-धीरे वही अग्नि ज्वाला बनकर मस्तक के ऊपर पहुँच गई, पुन: वह अग्नि त्रिकोणाकार मण्डल के आकार में परिवर्तित हो गई अर्थात् अग्नि की एक लकीर मस्तक के दाईं ओर, एक बाईं ओर गई और नीचे दोनों लकीरों के मिल जाने से शरीर का त्रिकोणाकार अग्निमंडल बन जाता है। इस समय यह चिन्तन करें कि धधकती हुई यह अग्नि अंदर में तो कमलपत्रों को जला रही है और बाहर में औदारिक शरीर को भस्म कर रही है।
चिन्तन के इन क्षणों में घबड़ाहट बिल्कुल नहीं होना चाहिए क्योंकि इस ध्यान के माध्यम से अनेक भवों में संचित पापकर्म तो नष्ट होंगे ही, साथ में तमाम शारीरिक रोगों का विनाश होकर स्वस्थता का अनुभव भी होगा।
अब आगे देखें कि अग्नि मंडल के त्रिकोणाकार की तीनों लकीरों में ‘‘रं रं रं’’ ऐसे अग्निबीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बने हैं तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘‘ॐ र्रं’’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। पुन: चेतावनी दी जा रही है कि जलती हुई अग्नि को देखकर मन को विचलित नहीं करना है क्योंकि आत्मा चिच्चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक है अत: अग्नि के द्वारा वह कभी जल नहीं सकती है, यह तो अशुभ कर्मों को जलाने का एक तरीका है और इसमें सफलता प्राप्त करते ही आपको परमस्वस्थता की अनुभूति होगी।
इस धारणा में ध्यान की समापन बेला में अब पुन: देखिए कि वह अग्नि धीरे-धीरे शांत हो गई है, जिससे हमारी आत्मा पर राख का पुंज इकट्ठा हो गया है पुन: पाँच दीर्घ श्वास लेते हुए आज के ध्यान को निम्न वाक्य बोलते हुए समाप्त कीजिए-
‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है।’’ (तीन बार बोलें)
इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के प्रकरण में दो धारणाओं का यहाँ वर्णन किया गया है। आगे की धारणाएँ अगले दिन के ध्यान में करें।
नोट-उपर्युक्त ध्यान के प्रयोग से अनेक भाइयों को ब्लडप्रेशर, शुगर एवं हार्ट की बीमारियों में आशातीत लाभ मिला है एवं कई बहनों ने माइग्रेन, सिरदर्द, साइनस एवं शरीर के दर्दों में काफी आराम का अनुभव किया है अत: पाठकगण भी इसे दिन में एक, दो अथवा तीन समय प्रयोग करके अपने अनुभव से हमें अवगत करावें तो ध्यान की सार्थकता का परिचय अन्य लोगों को भी प्राप्त हो सकेगा।
अब इसी शृँखला में प्रस्तुत हैं पिण्डस्थ ध्यान की अगली धारणाएँ-
१. सर्वप्रथम आप मंदिर जी की स्वाध्यायशाला में अथवा घर के किसी एकांत स्थान में स्थिरचित्त होकर ध्यान के लिए पद्मासन, अर्धपद्मासन या सुखासन से बैठकर आँखें कोमलता से बंद करें।
२. बाएँ हाथ की हथेली पर दाएँ हाथ की हथेली रखकर शरीर को तनावमुक्त करें। पृष्ठ रज्जु बिल्कुल सीधी हो, न अधिक अकड़न न अधिक झुकाव हो, किन्तु निराकुल, शान्तचित्त होकर बैठें।
३. इसके पश्चात् ॐ की नव बार ध्वनि निकालते हुए दीर्घ श्वांस का अभ्यास करें। पुन: मानसिक स्थिरता के लिए ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण कीजिए-
अनन्तज्ञानस्वरूपोहं, अनन्तदर्शनस्वरूपोहं, अनन्तवीर्यस्वरूपोहं, सहजानन्दस्वरूपोहं।
अब ध्यान की धारा में अपने चित्त को प्रवाहित कीजिए और पार्थिवी तथा आग्नेयी धारणा के अन्तर्गत जो-जो आपने चिन्तन किया था कि क्षीरसागर के मध्य ऊँचे कमल की कर्णिका पर एक सिंहासन के ऊपर मैं एक स्वच्छ अन्तरात्मा के रूप में विराजमान हूँ और चिन्तन के आधार पर मुझे अपने को परमात्मा बनाना है।
(३) श्वसना (वायवी) धारणा–अब आप देखिए कि आकाश में चारों तरफ से प्रलयकारी तेज हवा चलने लगी। यह हवा मेरूपर्वत को भी प्रकम्पित कर देने को आतुर है किन्तु आप चिन्ता मत कीजिए क्योंकि आपकी ध्यानस्थ आत्मा को यह वायु अणुमात्र भी हिला नहीं सकती है। वायुमण्डल गोल आकाररूप से परिणत हो गया है, इस मण्डल में जगह-जगह ‘स्वाय-स्वाय’ ये वायु के बीजाक्षर सफेद रंग से लिखे हैं।
आगे देखें कि वह प्रलयंकारी वायु मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और वह त्रिकोणाकार शरीर पर ढकी हुई भस्म को उड़ा रही है अर्थात् इस हवा से कर्मों की रज उड़ गई और आत्मा स्वच्छ हो गई है। इस वायवी धारणा के समय निम्न मंत्र का चिन्तन कीजिए।
‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनप्रभंजनाय कर्मभस्मविधूननं कुरु कुरु स्वाहा।’’
पुन: अनुभव करें कि यह वायु रुक गई है और हवा की हलचल समाप्त हो गई है। मैं अब ज्ञान का पुंज बन गया हूँ, सम्पूर्ण अज्ञानता मेरे हृदय से दूर हट गई है।
इतना चिन्तन भी आपको बहुत शांति तथा सुख प्रदान करेगा अत: मात्र यह अनुभव कीजिए कि-मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है। तीन बार पुन: महामंत्र का स्मरण करते हुए तीन बार दीर्घ स्वासोच्छ्वास लें और आँख खोलकर, हाथ जोड़कर, पंचपरमेष्ठियों को नमन करते हुए निम्न पद्य बोलें-
संसार के भ्रमण से अतिदूर हैं जो,
ऐसे जिनेन्द्रपद को नित ही नमूँ मैं।
सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को,
वंदूँ सदा सकल कर्म विनाश हेतू।।१।।
पुन: अगली वारूणी धारणा में प्रवेश करें।
(४) वारूणी धारणा-अब चिंतन करें कि आकाश में बादल छा गए हैं, बिजली चमक रही है और देखते ही देखते मूसलाधार बरसात शुरू हो गई है। आकाशमण्डल में चारों ओर ‘‘पं पं पं’’ बीजाक्षर लिखे हुए हैं।
वर्षा की अमृत सदृश बूँदें मेरी आत्मा का प्रक्षालन कर रही हैं। इस दृश्य का चिन्तन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें-
‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनपर्जन्याय कर्ममलप्रक्षालनं कुरु कुरु स्वाहा।’’
इस प्रकार वर्षा से शुद्ध होकर मेरी आत्मा स्फटिक के समान शुद्ध हो रही है। मंत्र पढ़िए-ॐ ह्रीं शुद्धात्मने नम:, ॐ ह्रीं विश्व-रूपात्मने नम:, ॐ ह्रीं परमात्मने नम:। अब आगे पंचम तत्त्वरूपवती धारणा का अवलम्बन लीजिए-
(५) तत्त्वरूपवती धारणा-उपर्युक्त मंत्रों के उच्चारण के पश्चात् शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव देते हुए मन को स्थिर करें पुन: चिन्तन करें कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाली सर्वज्ञ के सदृश बन गई है। अब मैं अतिशय से युक्त, पंचकल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ। अनन्तर मैं आठ कर्मों से रहित निर्मल पुरुषाकार नित्य निरंजन परमात्मा बन गया हूँ। यह चिन्तन करते-करते आप पिण्डस्थ ध्यान की चरम सीमा तक पहुँच गये हैं।
अपने पिण्ड-शरीर के अंदर स्थित आत्मा का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है। इसका निश्चल ध्यान करने वाले योगीजन अन्य लोगों से दु:साध्य ऐसे मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेते हैं तो अन्य शारीरिक सुखों की तो बात ही क्या है। जिस प्रकार से सूर्य के उदित होते ही उल्लू पलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार से इस पिण्डस्थ ध्यानरूपी धन के समीप होने पर विद्या, मण्डल, मंत्र, यंत्र, इंद्रजाल के आश्चर्य, सिंह, सर्प तथा दैत्य आदि नि:सारता को प्राप्त हो जाते हैं एवं भूत, पिशाच, ग्रह, राक्षस आदि कुछ भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा इस ध्यान का अचिन्त्य प्रभाव जानना चाहिए।
मेरे हृदयाम्बुज में नितप्रति, चिन्मय ज्योती भगवान रहे।
मेरे अन्तर में आनंदघन, अमृतमय पूर्ण प्रवाह बहे।।
वह ही आनन्द घनाघन हो, कलिमल को दूर करे क्षण में।
सब दूरित सूर्य का ताप शमन, कर शाश्वत शांति भरे मुझमें।।
पुन: आँखें खोलकर हाथ जोड़कर परमात्मा को नमन करते हुए ध्यान को सम्पन्न कीजिए।
अब पदस्थ ध्यान का वर्णन प्रारंभ किया जाता है
पदस्थ ध्यान क्या है?-पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलम्बन लेकर उसमें तल्लीन हो जाना पदस्थ ध्यान कहलाता है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं जो कि विभिन्न मंत्रों पर आधारित हैं।
पिण्डस्थ ध्यान को पदस्थ से पूर्व क्यों बतलाया है?-गृहस्थाश्रम के अनेकों प्रपंचों में उलझे हुए मन को कोई भी एक मंत्र पर किंचित् क्षण के लिए भी टिका नहीं सकता है और मन को खाली बैठना भी आता नहीं, अत: वह इधर-उधर के चक्कर में ही पुन: घूमने लगता है। अत: उसके लिए जितनी भी सामग्री दी जाएगी, उतना ही अच्छा है क्योंकि उतनी देर तक तो कम से कम वह बाहर के विषयों से अपने को हटाकर इन धारणाओं के चिन्तन में ही उलझेगा, जो अच्छा ही है। यदि एक पद पर ही मन को स्थिर करना सरल होता तो आचार्य पहले पदस्थ ध्यान को कहकर फिर पिण्डस्थ को कहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पिण्डस्थ ध्यान का ही पहले अभ्यास करना चाहिए। अनन्तर उसमें परिपक्व हो जाने के बाद पदस्थ ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
पदस्थ ध्यान कैसेप्रारंभ करें?-सर्वप्रथम आप शुद्धमन से शुद्धवस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएँ। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्यागकर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-
‘हे प्रभु! मैं अपने आतम, में ऐसा रम जाऊँ।
संसार के बंधन से, मैं मुक्त हो जाऊँ।। हे प्रभु.।।
संकल्प विकल्पों का यह, सागर संसार है।
सागर की तरंगों से अब, मैं ऊपर उठ जाऊँ।। हे प्रभु.।।१।।
दु:खों की पर्वतमाला, कब टूट पड़ेगी मुझ पर।
उस पर्वत पर हे भगवन्! मैं वैâसे चढ़ पाऊँ।। हे प्रभु.।।२।।
आतम सुख के अमृत में, मैं डूब गया अब स्वामी।
उसका आस्वादन लेकर, ‘‘चन्दनामती’’ सहज सुख पाऊँ।। हे प्रभु.।।३।।
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर, आँखें कोमलता से बंद करके भगवान के समान शान्तमुद्रा में बैठ जाएं और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्मशांति का अनुभव करें-
१. ॐ अर्हत्स्वरूपोऽहं २. ॐ तीर्थस्वरूपोऽहं ३. ॐ जिनस्वरूपोऽहं
४. ॐ सिद्धस्वरूपोऽहं ५. ॐ आत्मस्वरूपोऽहं।
पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ॐ बीजाक्षर। कल्पना कीजिए कि मेरे ठीक सामने केशरिया वर्ण का एक ‘‘ॐ’’ मंत्र विराजमान है। इसी ॐ पर मन को केन्द्रित करें, ॐ के प्रत्येक अवयव में केशरिया रंग भरा हुआ देखें। अनुभव करें…..मन को बाहर न जाने दें…..शिथिलता का सुझाव देते हुए ध्यान की अगली शृँखला में प्रवेश करें और चिन्तन करें कि-
‘‘ॐ’’ यह प्रणवमंत्र है, यह पंचपरमेष्ठीवाचक मंत्र समस्त द्वादशांग का वाचक है। इसमें यथास्थान पाँचों परमेष्ठियों को विराजमान करते हुए उनके दर्शन करें-ॐ के अंदर प्रथम सिरे पर ‘‘अरिहंत’’ भगवान को देखें और ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पद का स्मरण करते हुए भावों से ही अरिहंत परमेष्ठी को नमन करें और आगे चलें अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला पर, जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान हैं। आठों कर्मों से रहित, निराकार-अशरीरी सिद्ध भगवान की प्रतिमा पर मन को एकाग्र करते हुए आप ‘‘णमो सिद्धाणं’’ पद का स्मरण करें और उन्हें नमन करते हुए अपने मनवांछित कार्य की सिद्धि करें।
पुनश्च तीसरे परमेष्ठी आचार्य देव हैं, उनके दर्शन करने के लिए ॐ के मध्यभाग पर मन को लाएं और चिन्तन करें कि पिच्छी-कमण्डलु से सहित एक दिगम्बर मुनिराज यहाँ विराजमान हैं, ये ही चतुर्विध संघ के नायक आचार्यपरमेष्ठी कहलाते हैं। इनके चरणों में श्रद्धापूर्वक नमन (भावों से ही) करें और ‘‘णमो आइरियाणं’’ पद का मानिसक उच्चारण करते हुए ‘‘ॐ’’ की मात्रा चतुर्थ उपाध्याय परमेष्ठी को दिगम्बर मुनि मुद्रा में अध्ययन-अध्यापन करते हुए देखें। इनके दर्शन से अज्ञान का नाश एवं ज्ञान का विकास होगा, ‘‘णमो उवज्झायाणं’’ के उच्चारणपूर्वक उनके चरणों में भाव नमस्कार करें और अंतिम परमेष्ठी सर्वसाधुओं के दर्शन करने हेतु ‘‘ॐ’’ के निचले भाग में अपनी यात्रा का पड़ाव डालें। पुन: चिन्तन करें कि यहाँ सामायिक अवस्था में लीन महान सन्त-साधु विराजमान हैं, जो संसार-शरीर-भोगों से पूर्ण विरक्त हैं। उनके दर्शन करते हुए मन को केन्द्रित कर दें उनकी वीतरागी मुद्रा पर और निम्न पंक्तियाँ पढ़ते हुए तल्लीन हो जायें ताकि मन कहीं बाहर न जाने पावे-
हे गुरुवर! तेरी प्रतिमा ही, तेरा अन्तर दर्शाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दर्शाती है।।
अर्थात् जिनकी काया से ही बिना कुछ बोले भी मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन हो रहा है ऐसे साधुपरमेष्ठी के चरणों में नतमस्तक होकर ‘‘णमो लोए सव्वसाहूणं’’ का उच्चारण करें और अपनी आत्मा में विलक्षण आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति का अनुभव करें। दो मिनट के लिए मन को यहीं स्थिर कर दें, शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव दें, पुनश्च-
परमेष्ठियों की शक्ति से समन्वित अनन्तशक्तिमान् ॐ मंत्र के चारों ओर एक गोलाकार से निकलती हुई सूर्य की किरणों का दर्शन करें अर्थात् एक सूर्य बिम्ब में विराजमान ॐ बीजाक्षर पर चित्त को केन्द्रित करें, तब सूर्य जैसा प्रकाश मन-मस्तिष्क में भरता महसूस होगा एवं उस समय अनुभव करें-
‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है’’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें और आँखों को अभी बंद रखते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्र्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ॐ बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है। आगे इसी तरह से ह्रीं, क्लीं, अर्हं, असिआउसा आदि बीजाक्षरों को भी अपने उत्तमांगों में स्थापित करके इनका ध्यान भी किया जा सकता है।
ध्यान की उपयोगिता-स्वास्थ्य का पहला लक्षण मेरुदण्ड लचीला और स्वस्थ रहे। मेरुदण्ड को लचीला रखने के लिए मेरुदण्ड की क्रियाएँ और सीधा बैठना आवश्यक है। मेरुदण्ड के मात्र सीधा रहने से प्राण-धारा का सन्तुलन होने लगता है, जिससे व्यक्ति शक्तिशाली और प्राणवान बनता है। दीर्घश्वास से एकाग्रता आती है और गुस्सा शांत होता है। योगनिद्रा से तनाव में कमी और शांति मिलती है। सकारात्मक सोच और मंगल भावना से मैत्री का विकास होता है। योग और मुद्राओं से स्वभाव बदलता है।
ह्रीं क्या है? ह्री ँ एक बीजाक्षर वर्ण है। इस एक ह्री ँ के अन्दर चौबीस तीर्थंकर समाहित हैं जो कि भिन्न-भिन्न वर्ण के हैं-
वरनाद दुतीया चंद्र सदृश, बिंदू नीली है कला लाल।
ईकार हरित ह्र पीत इन्हीं में, उन-उन वर्णी जिन कृपालु।।
चंदाप्रभु पुष्पदंत शशि में, विन्दू में नेमी मुनिसुव्रत।
श्री पद्मप्रभु जिन वासुपूज्य हैं, कमलवर्ण सम कलामध्य।।१।।
ई मात्रा मध्य सुपार्श्व पार्श्व, ह्र बीज में सोलह तीर्थंकर।
ऋषभाजित संभव अभिनंदन, सुमती शीतल श्रेयोजिनवर।।
श्री विमल अनंत धर्म शांती, कुंथू अर मल्लि नमी सन्मति।
ये ह्री ँ मध्य चौबिस जिनवर, इनको वंदूँ ध्याऊँ नितप्रति।।२।।
ध्यान प्रारंभ करें, सर्वप्रथम आप शुद्धमन से शुद्धवस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएं। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्यागकर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-
चलो मन को अन्तर की यात्रा कराएं।
भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।
मेरी आतमा सत्य शिव सुन्दरम् है।
कुसंगति से उसमें हुआ मति भरम है।।
पुरुषार्थ कर शुद्ध आतम को ध्याएँ।
भटकते विचारों को मन से हटाएं।।१।। चलो……
न हम हैं किसी के न कोई हमारा।
सभी से जुदा आतमा है निराला।।
उसे ‘‘चन्दनामति’’ स्वयं निज में पाएँ।
भटकते विचारों को मन से हटाएं।।२।। चलो…….
इसके पश्चात् बाएं हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर आँखें कोमलता से बंद करके भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठ जाएं और ऊँकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्म शांति का अनुभव करें-
१. श्री सुखसम्पन्नोऽहं २. ह्री गुणसम्पन्नोऽहं ३. धृतिगुणसम्पन्नोऽहं ४. श्रुतगुणसम्पन्नोऽहं ५. कीर्तिसम्पन्नोऽहं।
पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ह्री ँ बीजाक्षर। चौबीस तीर्थंकरों को नमन करते हुए ध्यान का प्रथम चरण प्रारंभ करें-
१. ध्यान का प्रथम चरण-सबसे पहले चित्त के द्वारा ‘ह्री ँ’ पद लिखें। ह्र, ई की मात्रा, कला (लाइन) अर्ध चन्द्राकार, बिन्दु। पूरा ह्री ँ देखें…. अनुभव करें…दिख रहा है। शांत…दर्शन करें। (१-२ मिनट)
२. ध्यान का द्वितीय चरण-यह ह्री ँ पद पाँच रंगों से युक्त है। कहाँ कौन सा वर्ण है, देखें……लाल वर्ण की कला देखकर पुन: सर्वप्रथम पीत वर्ण का ह्र देखें। दो लाइनों में लिखे गए ह्र के अन्दर तपाए हुए स्वर्ण के समान पीला-पीला रंग भरा हुआ है। देखें…..अनुभव करें….दिख रहा है। शांत……दर्शन (१ मिनट)।
पुन: ईकार की मात्रा ( ी ) हरे रंग की देखें। दो लाइनों में खींची हुई इस मात्रा के अंदर मरकत मणि के समान हरा रंग भरा हुआ है। देखें…..दिख रहा है…..अनुभव करें…..शांत….दर्शन (१ मिनट)
इसके पश्चात् लाइन (कला-) लाल वर्ण की देखें। दो लाइनों से युक्त इस कला के अंदर मूँगे के समान लाल-लाल रंग भरा हुआ है। देखें…अनुभव करें…दिख रहा है…शांत..दर्शन (१ मिनट)
अब आगे चित्त को सभी बाह्य विकल्पों से खींचकर अंदर की ओर ले आएं और ह्रीं के दाईं ओर ऊपर श्वेत वर्ण का अर्ध चन्द्र देखें। चमकता हुआ अर्ध चन्द्रमा बिल्कुल दूध जैसा सफेद। अनुभव करते हुए देखें……दिख रहा है। इस चन्द्रमा को देखने से चित्त-हृदय धवल चाँदनी के सदृश स्वच्छ-निर्मल हो जाएगा। शांत…..दर्शन (१ मिनट)
अब श्वेत चन्द्रमा के ऊपर गोल नीली बिन्दु देखें जिसके अंदर नीलमणि के समान नीला रंग भरा हुआ है। म् का उच्चारण कराने वाली गोल बिन्दी (०) पूर्ण मनोयोग से देखने का प्रयास करें। देखें……दिख रहा है। शांत…..दर्शन (१ मिनट)
यह पूरी पंचवर्णी ह्री ँ एक बार पूरी तौर से देख जाएं। शांत…..दर्शन।
३. ध्यान का तृतीय चरण-पंचवर्णी ह्री ँ में क्रम-क्रम से चौबीसों तीर्थंकर पद्मासन मुद्रा में विराजमान करें। सर्वप्रथम पीले ‘ह्र’ के अंदर पीतवर्ण के सोलह तीर्थंकर हैं। देखें….ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, शीतल, श्रेयांस, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अरह, मल्लि, नमि और वर्धमान। चित्त को एकाग्र करके सोलह तीर्थंकरों को पद्मासन मुद्रा में देखने का प्रयास करें। देखें…..दिख रहे हैं….शांत…..।
पुन: हरी ईकार मात्रा के अंदर हरितवर्ण के २ तीर्थंकर-सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ को विराजमान करें। देखें….अनुुभव करें। दिख रहा है…..शांत…..दर्शन।
इसके पश्चात् क्रमानुसार लालवर्ण की कला (लाइन) के अंदर लाल वर्ण के दो तीर्थंकर-पद्मप्रभु और वासुपूज्य भगवान को विराजमान करें। देखें…..अनुभव करें……शांत……दिख रहा है।
अब श्वेत वर्ण के अर्ध चन्द्र में चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत इन दो तीर्थंकरों को विराजमान करके देखें। शांत…..देखें……दिख रहा है।
अन्त में नीली बिन्दु में नीलवर्ण के तीर्थंकर नेमिनाथ, मुनिसुव्रत को विराजमान करें। देखें……दिख रहा है।
इस प्रकार क्रम से पूरी पंचवर्णी ह्री ँ के अंदर क्रम-क्रम से विराजमान समस्त तीर्थंकरों को एक बार देख जाएं। शांत…..शांत…..। चित्त की यात्रा पूरी होने वाली है। देखें….अनुभव करें…..पूरा ह्री ँ दिख रहा है।
ध्यान का अंतिम चरण-‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है’’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घश्वासोच्छ्वास लें। श्वास छोड़ते समय पेट अंदर और श्वांस भरते समय पेट बाहर और आँखों को अभी बंद रखते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें-)
शाम सबेरे दो घड़ी तू, ह्रीं का ध्यान लगाया कर।
चौबीसों तीर्थंकर को तू, मन मंदिर में ध्याया कर।।टेक.।।
स्वर्णाक्षर ह्र के अन्दर, वृषभाजित संभव अभिनन्दन।
सुमती शीतल श्रेयो जिनवर, विमल अनंत धर्म वंदन।।
शांति कुंथु अर मल्लि जिनेश्वर, नमिप्रभ वर्धमान स्वामी।
हरित वर्ण ईकार सुपारस, पारस-चिन्तामणि नामी।।
लालकला में पद्मप्रभ अरु, वासुपूज्य मन लाया कर।
चौबीसों तीर्थंकर को तू, मन मंदिर में ध्याया कर।।१।।
ह्रीं के बायीं ओर श्वेत है, अर्धचन्द्र आकार शिला।
श्वेत चन्द्रप्रभु पुष्पदन्त की, वाणी से मन कमल खिला।।
नीली गोल बिन्दु है ऊपर, उसमें नेमी मुनिसुव्रत।
आत्मशांति दाता चौबीसों, प्रभू ‘चंदनामति’ सुखप्रद।।
ह्रीं पंचवर्णी को प्रतिदिन, हृदय कमल में लाया कर।
चौबीसों तीर्थंकर को तू, मन मंदिर में ध्याया कर।।२।।
इस गीत के अनन्तर हाथ जोड़कर चौबीसों भगवन्तों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ह्री ँ बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है।
आप उपर्युक्त ध्यान प्रक्रिया से शारीरिक एवं आत्मिक लाभ प्राप्त करें, यही हार्दिक भावना है।
इस पदस्थ ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करना ही कहा है अर्थात् इन मंत्रों को हृदय, ललाट, नाभि, मस्तक, कंठ आदि स्थानों में स्थापित करके उस पर उपयोग को स्थिर करना चाहिए।
जाप्य-यदि आप ऐसा ध्यान करने में असमर्थ हैं तो आप इन मंत्रों की जाप्य भी कर सकते हैं। जाप्य करने के वाचक, उपांशु और मानस ऐसे तीन भेद हैं। वाचक जाप में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट होता है। उपांशु में भीतर ही भीतर शब्द कंठ स्थान में गूंजते रहते हैं, बाहर नहीं निकल पाते हैं किन्तु मानस जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रुक जाता है, हृदय में ही मंत्राक्षरों का चिंतवन चलता रहता है। यही क्रिया ध्यान का रूप धारण करती है। वाचक जाप से सौ गुणा अधिक पुण्य उपांशु जाप से होता है और उससे हजार गुणा अधिक पुण्य मानस जाप से होता है।
महामंत्र के जाप में प्राणायाम विधि का विधान है। अर्थात् णमोकार मंत्र के तीन अंश करिये ‘‘णमो अरहंताणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ नाक से श्वासवायु को ऊपर ले जाइये (पेट फुलाते हुए) और ‘णमो सिद्धाणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वास वायु को बाहर निकालिये। इसी तरह ‘णमो आइरियाणं’ में श्वास खींचना और ‘णमो उवज्झायाणं’ में श्वास को छोड़ना तथा ‘णमो लोए’ में श्वास भरना और ‘सव्व साहूणं’ पद में छोड़ना। इस तरह एक णमोकार महामंत्र के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं।
मुनि-आर्यिकाओं व्ाâी देववंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि प्रत्येक क्रियाओं में स्वासोच्छ्वास की गणना से ही महामंत्रपूर्वक कायोत्सर्ग करने का विधान है तथा श्रावकों के लिए भी ऐसा ही विधान है अत: इस महामंत्र का नव बार जाप करने से २७ बार उच्छ्वास होते हैं एवं १०८ जाप करने से ३०० उच्छ्वास हो जाते हैं। यह महामंत्र सर्वश्रेष्ठ अपराजित मंत्र है। ऐसे ही ‘अरहंत सिद्ध’ ‘अ सि आ उ सा’ ‘नम: सिद्धेभ्य:’ आदि अनेकों मंत्र हैं।
शांतिमंत्र-ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत् शांतिकराय सर्वोपद्रव शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
शांति की इच्छा करते हुए सदैव इस मंत्र का जाप करना चाहिए। अंगुलियों पर जाप करना या मणियों की अथवा सूत की माला से भी जाप कर सकते हैं। प्लास्टिक या लकड़ी की माला से जाप नहीं करना चाहिए। जाप करना पदस्थ ध्यान नहीं है किन्तु उस ध्यान के लिए प्रारंभिक साधन मंत्र हैं।
रूपस्थध्यान-अरिहंत भगवान के स्वरूप का विचार करना, अर्थात् भगवान समवसरण में द्वादश सभाओं के मध्य विराजमान हैं। उनका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
रूपातीत-सिद्धों के गुणों का चिंतन करना, अर्थात् सिद्ध भगवान अमूर्तिक, चैतन्यस्वरूप, पुरुषाकार निरंजन परमात्मा हैं, वे लोकाग्र में सिद्ध शिला पर विराजमान हैं। तत्पश्चात् अपने आपको सिद्धस्वरूप समझकर उसी में लीन हो जाना, सो यह रूपातीत ध्यान है।
इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानों का अभ्यास करने से शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है।]
प्रस्तुति-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
ध्यानमेकाग्र्यचित्तं स्याद्, ध्याता प्रसन्नचित्तभाक्।
तीर्थकृद्भगवान् ध्येय:, फलं सौख्यमतीन्द्रियम्।।१।।
ध्यान का लक्षण है चित्त का एकाग्र होना, प्रसन्नमना भव्यात्मा ध्याता-ध्यान करने वाला है। तीर्थंकर भगवान ध्येय-ध्यान करने योग्य-ध्यान के विषय हैं और अतीन्द्रिय सुख-मोक्षसुख प्राप्त होना यह ध्यान का फल है।
इस प्रकार ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल इन चारों विषय को समझना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ ध्येय में तीर्थंकर भगवान को लिया है। इसमें उनसे संबंधित उनकी प्रतिमाएं, जिनमंदिर, पंचपरमेष्ठी आदि तथा ॐ, ह्रीं, अर्हं आदि बीजाक्षर सभी आ जाते हैं। यहाँ तीनलोक का ध्यान विवक्षित है उसमें सभी पूज्य-तीनलोक के नवदेवता आदि आ जायेंगे।
तीनलोक का आकार बनाकर अर्थात् खड़े होकर दोनों पैर पैâलाकर कमर पर हाथ रखकर खड़े आकार में तीनलोक का आकार बना लेवें। पुन: चिंतन करना प्रारंभ करें-
(१)
रज्जुश्चतुर्दशोत्तुंग:, पुरुषाकृतिवानयम्।
अस्मिन् लोके बिना ज्ञानात्, जीवा भ्राम्यन्त्यनादित:।।१।।
-दोहा-
चौदह राजु उत्तुंग नभ, लोक पुरुष संठान।
तामें जीव अनादि तें, भरमत है बिन ज्ञान।।
यह लोक-तीनलोक चौदह राजु ऊँचा है, सर्वत्र चौदह राजु मोटा है तथा नीचे चौदह राजु चौड़ा है और घटते-घटते मध्यलोक सात राजु के पास एक राजु चौड़ा रह गया है। पुन: बढ़ते हुए साढ़े तीन राजु तक ऊपर जाकर कुहनी के पास पाँच राजु हो गया है पुन: घटते-घटते ऊपर साढ़े तीन राजु ऊपर सिद्धशिला के पास एक राजु रह गया है। इसमें बीच-बीच में एक राजु चौड़ी व मोटी त्रसनाड़ी है।
अब इसमें सुविधा से समझने के लिए मध्यलोक से नीचे सात राजु में इस त्रसनाड़ी में दश भाग-हिस्से कर दीजिए।
नीचे एक भाग में निगोद पुन: सातवें नरक से लेकर प्रथम नरक तक सात भाग हुए, ऐसे आठ भाग हो गये। पुन: अपने शरीर में नाभि से नीचे लगभग चार-पाँच अंगुल में दो भाग कीजिए। ये खरभाग व पंकभाग हैं। अर्थात् शास्त्रीय भाषा में प्रथम पृथ्वी के तीन भाग होते हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुलभाग। इसमें से तृतीय भाग में तो प्रथम नरक हैं। ऊपर के दो भागों में भवनवासी व व्यंतर देवों के भवन बने हैं।
इसमें खरभाग में भवनवासी देवों के असुरकुमार को छोड़कर शेष नव प्रकार के देवों के सात करोड़ आठ लाख भवन हैं तथा पंकभाग में असुरकुमार देवों के चौंसठ लाख भवन हैं, ऐसे सभी में मंदिर होने से ये दोनों भागों में सात करोड़ बहत्तर लाख (७,७२,०००००) जिनमंदिर हैं। इन सभी मंदिरों को अपने शरीर में स्थापित कर ध्यान करो।
ऊपर के ऊर्ध्वलोक के सात राजु में इक्कीस (२१) भाग कीजिए। अपने शरीर में कटि-कमर के पास का प्रथम भाग मध्यलोक है। यह सुमेरुपर्वत की ऊँचाई-एक लाख योजन प्रमाण ऊँचा है व एक राजु चौड़ा है। इसमें थाली के समान आकार वाले असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। प्रथम जम्बूद्वीप से लेकर तेरहवें रुचकवर द्वीप तक मध्यलोक के अकृत्रिम जिनमंदिर चार सौ अट्ठावन (४५८) हैं। यथायोग्य-यथास्थान इनका चिंतन करते हुए ध्यान करें।
पुनश्च ऊपर के आठ भागों में दो-दो ऐसे सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्गों की स्थापना करें। ऊपर क्रम से नव भागों में नवग्रैवेयक की कल्पना-स्थापना करें। इसके ऊपर एक भाग में एक बीच में चार दिशा व चार विदिशा में ऐसे नव स्थानों में नव अनुदिश की स्थापना करें तथा इसके ऊपर एक भाग में चारों दिशाओं में एक-एक व बीच में एक, ऐसे पाँच अनुत्तर-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि को स्थापित करें। इन सबके नाम तीनलोक जिनमंदिर पुस्तक के पृ. ४३-४४ से कंठाग्र कर लें। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में १६ स्वर्गों के ८ भाग, नवग्रैवेयक के ९ भाग, नव अनुदिश का १ भाग व पंच अनुत्तर का एक भाग ऐसे ८±९±१±१·१९ भाग हो गये। ऊर्ध्वलोक वेâ इक्कीस भाग में १ भाग मध्यलोक, १९ भाग ऊर्ध्वलोक के ऐसे २० भाग हो गये। अब इक्कीसवें (२१वें) भाग में सिद्धशिला बनाना है। ऊर्ध्वलोक के चौरासी लाख सत्तानवें हजार तेईस जिनमंदिर हैं। अधोलोक में भवनवासी के जिनमंदिर ७,७२०००००, मध्यलोक के ४५८ एवं ऊर्ध्वलोक के ८४,९७०२३, ये सर्व तीनलोक के अकृत्रिम जिनमंदिर आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवें हजार, चार सौ इक्यासी (८,५६,९७,४८१) हैं। इनको नमस्कार कीजिए। इन सबमें १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं अत: नव सौ पचीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार, नव सौ अड़तालिस (९२५,५३,२७,९४८) जिनप्रतिमाएं हो जाती हैं। इन सभी जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं का ध्यान करें। प्रथम चरण में यह ध्यान होता है।
अधोलोक में व्यंतर देवों के असंख्यात जिनमंदिर हैं।
व्यंतर देवों के खरभाग में किन्नर, किंपुरुष आदि आठ भेदों में राक्षसजाति के व्यंतरों को छोड़कर शेष सात भेदों के असंख्यातों भवन हैंं तथा पंकभाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों के असंख्यातों भवन हैं। इन सबको अपने शरीर में स्थापित कर जिनमंदिर का चिंतन कर ध्यान करो। चूँकि सभी में जिनमंदिर हैं।
व्यंतरदेवों के भवन, भवनपुर और आवास ये तीन प्रकार के स्थान हैं। उनमें से ये भवन अधोलोक में हैं तथा भवनपुर व आवास ये मध्यलोक में असंख्यातों द्वीप-समुद्रों तक हैं। इन सभी में उतने ही जिनमंदिर हैं।
तथा भवनवासी देवों के भी असुरकुमार को छोड़कर शेष नव भेदों के भवनवासी के मध्यलोक में असंख्यातों द्वीप-समुद्रों तक असंख्यातों भवनपुर, आवास होने से इनके भी मध्यलोक में असंख्यात जिनमंदिर हो जाते हैं।
इस मध्यलोक में पृथ्वी से ७९० योजन की ऊँचाई से ज्योतिर्वासी देवों के ताराओं के विमान आदि ऐसे ९०० योजन तक ऊपर में आकाश में अधर सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के विमान असंख्यातों द्वीप-समुद्रों तक असंख्यातों हैं। उन सभी में १-१ जिनमंदिर होने से ज्योतिर्वासी देवों के असंख्यातों जिनमंदिर हो जाते हैं। इन सभी अकृत्रिम जिनमंदिर व उनमें विराजमान १०८-१०८ जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करें-इनका ध्यान करें।
इस प्रकार चारों प्रकार के देवों के जिनमंदिर व जिनप्रतिमाएं असंख्यातों हो गई हैं। तथा च-
मध्यलोक में ढाईद्वीप तक कृत्रिम जिनमंदिर व जिनप्रतिमाएं तीनों कालों की अपेक्षा अनंतानंत हो जाती हैं।
त्रैकालिक कृत्रिम सभी, जिनप्रतिमा जिनधाम।
कहे अनंतानंत ही, तिन्हें अनंत प्रणाम।।१।।
इन सभी का व अपने-अपने मंदिर व प्रतिमाओं का भी ध्यान करें। यहाँ तक ध्यान का द्वितीय चरण होता है।
मध्यलोक के प्रथम जम्बूद्वीप में १ भरत, १ ऐरावत व ३२ विदेह क्षेत्रों में ऐसी ३४ कर्मभूमियाँ हैं। ऐसे पूर्वधातकी खण्ड, पश्चिम धातकीखण्ड, पूर्वपुष्करार्धद्वीप व पश्चिम पुष्करार्धद्वीप इन चारों जगह भी ३४-३४ ऐसे ३४²५·१७० कर्मभूमियाँ इन ढाई द्वीपों तक हैं। इन सभी १७० कर्मभूमियों में भूत, वर्तमान व भविष्यकाल की अपेक्षा अनंतानंत अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नवदेवता हुए हैं, होते हैं व होवेंगे। उन सभी को मध्यलोक में स्थापित कर नमस्कार करें।
ऐसे ही इन १७० कर्मभूमियों में त्रिकाल की अपेक्षा अनंतानंत तीर्थंकर हो जाते हैं। उन सभी का ध्यान करें। अनंतानंत गणधरदेव त्रिकालापेक्षा होते हैं। उन सभी को एवं वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों, त्रैकालिक गणधरों को तथा चौबीस तीर्थंकरों के १४५९ गणधर देवों का ध्यान करते हुए नमस्कार करें। १७० कर्मभूमि के दिगम्बर जैन मुनिगण त्रिकाल की अपेक्षा अनंतानंत हो जाते हैं। इनमें अंतकृत्केवली होने वाले उपसर्ग विजयी आदि सभी मुनियों को एवं चौबीस तीर्थंकर के समवसरण के २८४८००० मुनियों को नमस्कार होवे।
पुन: आर्यिका माताएं सर्वकर्मभूमि में त्रिकाल की अपेक्षा अनंतानंत एवं चौबीस तीर्थंकर के समवसरण की गणिनी ब्राह्मी आदि सभी आर्यिकाएं ५० लाख, ५६ हजार दो सौ पचास हैं उनको वंदामि करते हुए ध्यान करें। पुन: एक सौ सत्तर कर्मभूमियों की सर्व पंचकल्याणकभूमि, निर्वाणभूमि व अतिशय क्षेत्रों को नमस्कार कर उनका ध्यान करते हुए वर्तमान में इस भरतक्षेत्र के आर्यखंड में १६ तीर्थंकर जन्मभूमि, प्रयाग, अहिच्छत्र, जृंभिका, केवलज्ञानभूमि एवं वैâलाशपर्वत, चंपापुरी, गिरनार, पावापुरी व सम्मेदशिखर निर्वाणभूमियों की वंदना करते हुए इनका ध्यान करें। यहाँ तक ध्यान का तृतीय चरण होता है।
अब चिंतन करें-मेरे मस्तक के अंदर ही अंतिम भाग में (पहले कहे हुए
२१ भाग में से २१वें भाग में) सिद्धशिला है जो कि पैंतालिस लाख योजन (४५००००० योजन) विस्तृत अर्धचंद्राकार है। यह बीच में ८ योजन मोटी है। ढाईद्वीप प्रमाण इस सिद्धशिला पर अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं। ये सिद्धशिला के ऊपर घनोदधिवातवलय, घनवातवलय के ऊपर तथा तनुवातवलय के अंत में विराजमान हैं। (‘‘तीन लोक के जिनमंदिर’’ ग्रंथ में पृ. ३४१-३४२ तक पहले पढ़कर समझ लेना चाहिए।)
ये सिद्ध भगवान सिद्धशिला से ३७ लाख ८६ हजार ९७५ धनुष ऊपर जाकर, ५२५ धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध हैं। पुनश्च ३७,८७,२५० धनुष ऊपर जाकर, भगवान ऋषभदेव ५०० धनुष की अवगाहना वाले पद्मासनमुद्रा में सिद्धशिला से ऊपर विराजमान हैं।
भगवान शांतिनाथ ३७ लाख, ८७ हजार ४६० धनुष ऊपर जाकर ४० धनुष की अवगाहना में खड्गासन मुद्रा में विराजमान हैं। ऐसे सभी उत्कृष्ट व मध्यम अवगाहना के त्रैकालिक अनंतानंत सिद्धों का ध्यान करें।
पुन: सिद्धशिला से ३७ लाख, ८७ हजार ४९९ धनुष अर्ध हाथ ऊपर जाकर जघन्य अवगाहना-साढ़े तीन हाथ की अवगाहना वाले सिद्ध भगवान विराजमान हैं, इन अनंतानंत त्रैकालिक सिद्धों को नमस्कार करते हुए सभी सिद्धों का ध्यान करें।
पुन: अंत में चिंतन करें-
इन सभी अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक के असंख्यातों अकृत्रिम जिनचैत्य, चैत्यालयों को, कृत्रिम अनंतानंत जिनचैत्य, चैत्यालयों को व मध्यलोक में ढाईद्वीप में स्थित अनंतानंत नवदेवताओं को अपने शरीर में विराजमान कर नमस्कार करके ध्यान में चिंतन करें-
इन सबका इस तीनलोक के आकार से बनाये हुए शरीर में ध्यान करते हुए मेरा मन पवित्र हो गया, मेरे वचन पवित्र हो गये। मेरा शरीर पवित्र हो गया एवं मेरी आत्मा पवित्र हो गई।
अब अपनी आत्मा को ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने से लोक के अग्रभाग में सिद्धों के मध्य सिद्धशिला पर विराजमान कर चिंतन करें-
सिद्धोऽहं, शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, निरंजनोऽहं, निर्विकारोऽहं, निराकारोऽहं, लोकाग्र-स्थितोऽहं, अनंतसिद्ध-मध्यविराजितोऽहं।
पुन: अंत में आँख खोलकर दोनों पैर समेट कर दोनों हाथ की हथेली खोलकर हाथ की रेखाओं में सिद्धशिला का आकार देखें और आगे लिखा श्लोक पढ़कर दोनों हाथ को मुकुलित जोड़कर नमस्कार करें-
देहदेवालये भान्ति, त्रैलोक्ये नवदेवता:।
स्वात्मायं तन्मयो भूत्वा, लोकस्योपरि राजते।।१।।
पुनश्च-
त्रिभुवन के मस्तक पर, सिद्धशिला पर सिद्ध अनंतानंत।
नमूँ नमूँ त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अन्त।।२।।
इस प्रकार यह तीन लोक का ध्यान चार चरण में अर्थात् चार बार में किया जा सकता है और जब अभ्यास परिपक्व हो जावे, तब एक बार में भी किया जा सकता है।
१. तीन लोक रचना बनाकर अर्थात् दोनों पैरों को पैâलाकर दोनों हाथों को कमर पर रखकर खड़े होने से तीन लोक का आकार बन जाता है।
ऐसा आकार बनाकर खड़े होकर कम से कम पाँच मिनट तक तीन लोक के जिनमंदिरों की वंदना करना चाहिए।
२. इसमें नाभि के नीचे अधोलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
३. नाभि के पास मध्यलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
४. नाभि के ऊपर से लेकर मस्तक तक ऊर्ध्वलोक के जिनमंदिरों की वंदना करें।
५. पुन: तीनलोक के सामूहिक जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं को नमस्कार करके वन्दना करें।
६. अनन्तर सिद्धशिला के अनन्त सिद्धों को नमस्कार करें।
इस तीन लोक के ध्यान की विधि संक्षेप में दिखाई जा रही है-
तीन लोक के अकृत्रिम-शाश्वत जिनमंदिरों की वंदना
१. अधोलोक में भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं।
२. मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन शाश्वत जिनमंदिर हैं।
३. ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस जिनमंदिर हैं।
४. तीनों लोक में आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवे हजार, चार सौ इक्यासी, ऐसे शाश्वत जिनमंदिर हैं।
५. इन तीनों लोकों के जिनमंदिर में प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं, जिनकी संख्या-९२५ करोड़, ५३ लाख, २७ हजार, ९ सौ ४८ है।
इन सब जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होवे।
६. व्यन्तर देवों के एवं ज्योतिषी देवों के असंख्यात जिनमंदिर हैं, उन सबमें १०८-१०८ ऐसी असंख्यात जिनप्रतिमाएँ हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
७. मध्यलोक में, ढाई द्वीप के अंदर १७० कर्मभूमियाँ हैं। इनमें जितने भी अर्हंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य एवं चैत्यालय हैं, जितने भी कृत्रिम जिनमंदिर हैं, जितनी भी पंचकल्याणक भूमि, निर्वाणभूमि एवं अतिशय क्षेत्र हैं उन सबको मेरा नमस्कार होवे।
८. पुन: मस्तक के अग्रभाग पर अर्द्धचन्द्राकार सिद्धशिला बनाकर-बुद्धि से चिन्तन करते हुए सिद्धशिला पर विराजमान अनन्तानन्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करते हुए नीचे लिखे पद्य को पढ़ें।
-पद्य-
त्रिभुवन के मस्तक पर सिद्धशिला पर सिद्ध अनन्तानन्त।
नमों नमों त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अन्त।।१।।