ध्यान
ध्यान का अर्थ है चस्तिष्क में कोई भी विचार होना, अर्थात शुन्य विचार की अवस्थाको कहा गया है। योग के आठ अंगों में से अंग ध्यान है। ध्यान के उपरांत समाधि की अवस्था आती है, जो कि योग की चरम अवस्था है। हालांकि ध्यान को स्थिति में स्वयं को स्थापित कर पाना नितांत मुश्किल कार्य है, क्योंकि मन-मस्तिष्क विचारविहीन केवल दो ही स्थितियों में हो सकता है, एक तो मृत्यु की अवस्था एवं दूसरी परम योग की अवस्था में।
मनुष्य एक सांसारिक प्राणी है एवं संसार में रहते हुए उसे अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों आंख, नाक, कान, जिह्ना एवं त्वचा के माध्यम से नित्य प्रति अनेकानेक विविध प्रकार के अनुभव होते रहते हैं। इन सभी अनुभवों से मन-मस्तिष्क में विचारों का सृजन होता है। अब यदि मस्तिष्क को विचारहीनता अर्थात ध्यान की अवस्था की ओर ले जाना है तो निश्चित रूप से ज्ञानेंद्रियों द्वारा होने वाले अनुभवों से स्वयं को दूर करना होगा। बाहरी संसार से खुद को दूर रखकर ही हम ध्यान की अवस्था की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। वस्तुतः ध्यान एक ऐसी कुंजी .. है, जो कि आत्मदर्शन का मार्ग खोलती है। यदि हम अपने भीतर झांकना चाहते हैं एवं स्वयं से साक्षात्कार करना चाहते हैं तो हमें निश्चित रूप से ध्यान का सहारा लेना होगा। ज्ञानेंद्रियां हमें बाह्य जगत के दर्शन कराती हैं, किंतु अपने आत्मा के दर्शन करने एवं उसकी आवाज सुनने के लिए हमें ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए आंख बंद करके किसी विचार पर एकाग्र होना आंख खोलकर वही कार्य करने की अपेक्षा कहीं अधिक सरल है। एकाग्रता का अर्थ है, मस्तिष्क में एक ही विचारविशेष का विद्यमान होना। हम जब तक एकाग्र नहीं होंगे, तब तक ध्यान से बहुत – दूर रहेंगे। बाह्य जगत में मन को भटकाने से कहीं बेहतर है कि ध्यान के माध्यम से अपनेआप को जानने का प्रयत्न किया जाए। यही आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्ग है।