मोक्ष: कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत्।
ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हिममात्मन:।।
—योगशास्त्र : ४-११३
कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है और ध्यान से आत्मज्ञान प्राप्त होता है। अत: ध्यान आत्मा के लिए अत्यन्त हितकारी माना गया है।
वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन्।
—योगशास्त्र : ९-१३
वीतराग का ध्यान करता हुआ योगी स्वयं वीतराग होकर कर्मों से या वासनाओं से मुक्त हो जाता है।
जो निजभाव को नहीं छोड़ता और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता तथा जो सबका ज्ञाता द्रष्टा है, वह (परम तत्त्व) ‘मैं’ ही हूँ। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है।
जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त र्नििवकल्प समाधि में लीन हो जाता है, उसकी चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करने वाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है।
स्थिरकृतयोगानां पुन:, मुनीनां ध्याने सुनिश्चलमनसाम्।
ग्रामे जनाकीर्णे, शून्येरण्ये वा न विशेष:।।
—समणसुत्त : ४९१
जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन—वचन—काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता।
ध्यानस्थितो खलु योगी, यदि नो संवेति निजात्मानम्।
स न लभते तं शुद्धं, भाग्यविहीनो यथा रत्नम्।।
—समणसुत्त : ४९७
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
मा चेष्टध्वम् मा जल्पत, मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिर:।
आत्मा आत्मनि रत:, इदमेव परं भवेद् ध्यानम्।।
—समणसुत्त : ५०१
हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा—तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम ध्यान है।
न कषाय—समुत्थैश्च, बाध्यते मानसैर्दु:खै:।
ईष्र्या—विषाद—शोकादिभि:, ध्यानोपगतचित्त:।।
—समणसुत्त : ५०२
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईष्र्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दु:खों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता।
लोक को नि:सार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते हैं।
राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शास्त्राभ्यास करता रहता है तो उसमें दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नितय ध्यानाभ्यास करता है, उसका चित्त वश में हो जाता है और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।
आरम्भ में जिस प्रकार व्यवहार भूत शुभ प्रकृतियों के द्वारा अशुभ संस्कारों का निरोध हो जाता है, उसी प्रकार चित्त—शुद्धि हो जाने पर शुद्धोपयोग रूप समता के द्वारा उन शुभ संस्कारों का भी निरोध हो जात है। इस क्रम से योगी धीरे—धीरे आरोहण करता हुआ निजात्मा के ध्यान में सफल हो जाता है।
जिस तरह धातु और पत्थर का एक साथ जन्म हुआ है। धातु के कीट को अग्नि द्वारा जलाकर शुद्ध किया जाता है, उसी तरह जीव और कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध है। ध्यानाग्नि द्वारा कर्म रूपी कीट को जलाकर जीव को निर्मल किया जाता है।
उत्तम अर्थात् केवल ज्ञान—दर्शन से परिपूर्ण पुरुषाकार आत्मा का ध्यान करने वाला योगी होता है और योगी जो होता है, वह अपने पापकर्मों को नष्ट कर निद्र्वन्द्व हो जाता है।
देहविविक्तं प्रेक्षते आत्मानं तथा च सर्वसंयोगान्।
देहोपधिव्युत्सर्गं, निस्संग: सर्वथा करोति।।
—समणसुत्त : ४९५
ध्यान करने वाला योगी अपनी आत्मा को शरीर और अन्य सभी संयोगों से अलग देखता है। वह शरीर और उपधि का त्याग करते हुए निस्संग हो जाया करता है।
नाहं भवामि परेषां, न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेक:।
इति यो ध्यायति ध्याने, स आत्मा भवति ध्याता।।
—समणसुत्त : ४९६
ध्याता वही आत्मा होती है, जो ध्यान से यह ध्यान किया करती है कि ‘न मैं किसी का हूँ, न कोई मेरा है। मैं एक हूँ। ज्ञानमय हूँ। शुद्ध—बुद्ध हूँ।’