विचार एक बिन्दु संयमन है जिसे ध्यान कहते हैं। व्यक्ति जिस समय जिस विचार भाव का चिंतन करता है उस समय वह उन्हीं विचारों में तन्मय हो जाता है जैसे वह यदि किसी देवता मंत्र या आत्मा पर अपने विचारों को केन्द्रित करता है, अन्य मानसिक क्रियाओं को दूर रखता है, उस एक विषय में ही अपने केन्द्रित कर लेता है, इच्छाओं को पूर्ण रूप से रोककर किसी एक विषय का अवलंबन लेकर अन्य सभी से अपनी वृत्ति को हटा लेता है, वही ध्यान है। आचार्य देवसेन ने भावसंग्रह में ध्यान की निम्न परिभाषा की है ‘‘चित्त—णिरोहे झाणं अर्थात् चित्त के निरोध का नाम ध्यान है।
बुद्धि की चंचलता रोकना, योग, ध्यान, समाधि मन को वश में करना और आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचिक शब्द है जिस परिणाम से आत्मा पदार्थ का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने योग, समाधि, ध्यान, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चंचलता रोकना, स्वान्तग्रह अर्थात् मन को वश में करना और अंत: संलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के पर्यायवाची शब्द है।
‘‘ध्यैचिन्तायाम्’’ धातु से ध्यान शब्द बनता है। तथा जिसका अर्थ होता है चिन्तन/ एक विषय में चिन्तन का स्थिर करना ध्यान है। आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिन्तवन करता है। उस परिणाम को ध्यान कहते हैं यह कारण साधन की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है। आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। कृतवाच्य की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है, क्योंकि, जो परिणाम पहले आत्मास्वरूप कर्ता के परतंत्र होने के कारण कहलाता है वही अब स्वतन्त्र होने से कर्ता कहा जाता है। और भाववाच्य की अपेक्षा करने पर चिन्तवन करना ही ध्यान की निरूक्ति है। इस प्रकार शक्ति भेद से ज्ञानस्वरूप आत्मा के एक ही विषय के तीन भेद होना उचित ही है। व्याकरण में कितने ही शब्दों की निरुक्तिकरण साधन, कर्तृसाधन और भावसाधन की अपेक्षा तीन—तीन प्रकार से की जाती है। जहाँ करण मुख्यता होती है उसे करण साधन कहते हैं, जहाँ कर्ता की मुख्यतया होती है। उसे कर्तृसाधन कहते हैं और जहाँ क्रिया की मुख्यता होती है उसे भावसाधन कहते हैं जहाँ आचार्य ने आत्मा, आत्मा के परिणाम और चिन्तनरूप क्रिया में नय विवक्षा से भेदाभेद रूप की विवक्षा कर एक ही ध्यान शब्द की जीनों साधनों द्वारा निरुक्ति की है, जिस समय में आत्मा और परिणाम में भेद विवक्षा की जाती है। उस समय आत्मा जिस परिणाम से ध्यान करे वह परिणाम ध्यान कहलाता है। ऐसी करणसाधना से निरुक्ति होती है और जहाँ आत्मा तथा उसके प्रदेशों में होने वाली ध्यान रूप क्रिया में अभेद माना जाता है। उस समय ध्यान कहलाता है ऐसी भावना से निरुक्ति सिद्ध होती है।
आचार्य देवसेन ने भावसंग्रह आराधनासार आदि में ध्यान के विविध भेद किये हैं— उनमें सदभावशून्य और असदभावशून्य को ध्यान में विशेष महत्व दिया है— जो ध्याता भव्यात्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, इन अनंत चतुष्टय लक्षण कार्य समयसार के उत्पादक विशुद्धता समाधि परिणाम से परिणत कारण समयसार के द्वारा अपने अंत:करण को अंतरंग में लीन करता है मन को निर्वकल्प करता है, वह कर्मशत्रुओं का संहार करके केवलज्ञान रूपी विभूति का भोक्ता होता है। सद्भाव से शून्य वस्तु टंकोत्कीर्ण परमानंद अद्वितीय रूप स्वस्वभाव से जो ध्याता शून्य हो जाता है वह आकाश के कल के समान मिथ्यात्व रूप हो जाता है अर्थात उसका अभाव हो जाता है इसलिए अमंद चिदानंद आत्मा से उत्पन्न निरूपम सुखामृत रस के पिपासु क्षपक को विशुद्ध स्वआत्मा में सावधान होना स्वकीय मन को स्वस्वभाव में स्थिर करना सद्भाव से शून्य ध्यान की अवस्था है। शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी की अवस्था शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी रस—विरस हो जाते हैं वार्तालाप नष्ट हो जाता है अर्थ कथा—कौतुक—गोष्ठी—विघट जाती है। विषय वासना क्षीणा हो जाती है तथा उस योगी की शरीर में भी प्रीति नष्ट हो जाती है। वचन भी मौन धारण कर लेते हैं निरन्तर आनंद स्वरूप स्वात्मा की चिन्ता में अर्थात् स्वात्म चिन्तन में मन भी सर्वदोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त होना चाहता है अर्थात् निर्वकल्प ध्यान में मन, वचन, काय की सारी क्रियायें निश्चल हो जाती है।
आगमग्रंथों में ध्यान के चार प्रकारों का प्रमुखता से वर्णन मिलता है। आर्त ध्यान, रौद्र, ध्यान, धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ रूप होने से अप्रशस्त ध्यान है अप्रशस्त ध्यान संसार के कारण है और प्रशस्त ध्यान मोक्ष के कारण है। धवला टीका में ध्यान के दो भेदों का निर्देश किया गया है
ध्यान के एक भेद से लेकर कई भेद किये गये हैं। आचार्य देवसेन ने सर्व इन्द्रिय व्यापार के निग्रह को महत्त्व देते हुए कहा ध्यान वह प्रक्रिया है जिसमें एक ही पदार्थ का चिंतन होता है अन्य का नहीं। वहीं ध्यान नाना विकल्पों से युक्त होकर चतुर्विधरूप को प्राप्त करता है जिसे आचार्य ने पिंडस्थ, रूपस्थ पदस्थ और रूपातीत कहा है।
पिंड का तात्पर्य है शरीर उस शरीर के मध्य में विराजमान अपने आत्मा का ध्यान करना तथा वह अपना आत्मा अत्यन्त शुद्ध है उसमें से सफेद किरणें निकल रही है और वह अत्यन्त दैदीप्यमान हो रहा है इस प्रकार अपने आत्मा का चिन्तवन करना पिंडस्थ ध्यान है।
पिंडस्थ ध्यान में स्वशरीर में स्थित अपने ही शुद्ध निर्मल आत्मा के ध्यान को पिंडस्थ ध्यान कहा है। परन्तु रूपस्थ ध्यान में शरीर के बाहर स्वशुद्ध निर्मल अत्यन्त दैदीप्यमान और शुद्ध स्वभाव आत्मा का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। इस रूपस्थ ध्यान के दो भेद है। १. स्वागम आत्मा का ध्यान २. परगत आत्मा का ध्यान जहाँ पर पंचपरमेष्ठी का ध्यान किया जाता है वह ध्यान परगत रूपस्थ ध्यान है। अत्यंत दैदीप्यमान निर्मल आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा अपने ही शरीर के बाहर ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है।
भगवान जिनेन्द्र की पूजन करना समोसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्य सहित अन्नत चतुष्टय सहित भगवान अरिहंत परमेष्ठी का ध्यान करना वह पदस्थ ध्यान है। पंच परमेष्ठी के वाचक एक पद के मंत्र का जप करना पदस्थ ध्यान है। यह पदस्थ ध्यान कर्मों के नाश करने का साधन है। परमेष्ठीवाचक पैंतीस, सोलह, छप्पन, चवालीस, दो, एक अक्षर वाले मंत्रों के जाप को आचार्य नेमिचन्द्र ने ध्यान योग्य कहा है।
जहाँ न शरीर में स्थित शुद्धात्मा का चिंतन होता है, न शरीर के बाहर शुद्धात्मा का ध्यान होता है न स्वगत आत्मा का ध्यान, न परगत परमेष्ठी का ध्यान किन्तु आलम्बन के किसी पदार्थ का ध्यान होता है अपने चित्त को अन्य समस्त चिंतनो से हटकर किसी एक पदार्थ में लगता है वहाँ रूपातीत ध्यान होता है। रूपातीत ध्यान करने वाला योगी अपने आत्मा को अपने ही आत्मा में लीन कर लेता है। जहाँ ध्यान में इन्द्रियों के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं रागद्वेष का अभाव हो जाता है वहाँ रूपातीत ध्यान होता है। ध्यान वस्तु की एकाग्रता से होता है, जो चित्त का निरोध करता है, चंचलता हटाता है इसलिए उसे १ अनुप्रेक्षा ध्यान २ चिंताधयान ३ भावनाध्यान ४ चित्त ध्यान कहा है। चित्त के परिणामों की स्थिरता से व्यक्ति बारहवें गुणस्थान तक जा सकता है इसी अभिप्राय को आत्मतत्व कहा है। आवश्यक क्रियाएं भी चित्त की एकाग्रता से होती है, जो गुणों को बढ़ाता है प्रमाद नष्ट करता है तथा उसी से निसंग, निर्मोह, निर्गत, दृढ़काय स्थिर चित्त आदि होता है। शुभ पदार्थ से शुभ चिंतन होता है और अशुभ से अशुभ चिंतन होता है जिसे सत और असत् भी कहा जाता है इष्ट और अनिष्ट भी कहते हैं शुभ प्रशस्त होता है अशुभ अप्रषस्त होता है। उस दृष्टि से शुभ और अशुभ दो प्रकार का ध्यान कहा गया है। कर्म क्षय की प्रक्रिया यही है। देवपूजा गुरू उपासना आदि कायिक क्रियायें शुभ हैं। प्राणियों को मारना आदि अशुभ है। देव, शास्त्र, गुरु आदि के गुणों का स्मरण करना मानसिक शुभ क्रिया है और रागद्वेष के वशीभूत होकर किसी के वध आदि का चिंतन करना अशुभ क्रिया है। देव, शास्त्र, गुरू की स्तुति करना वाचनिक शुभ क्रिया है और मिथ्या भाषण, निन्दा आदि करना अशुभ वचन क्रिया है। इन क्रियाओं से ज्ञानधारा शून्य हो जाना निर्विकल्प ध्यान है।
मोहनीय कर्म का पूर्णरूप से उपशम करना अर्थात् मोहनीय कर्म को पूर्णत: दबा देना धर्मध्यान का फल है। धर्म ध्यान के माध्यम से सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम हो जाने पर उसमें स्थित रखना पृथकत्व वितर्क विचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान का कार्य है। क्षपकश्रेणी की अपेक्षा मोहनीय कर्म का संपूर्ण नाश करना धर्म ध्यान का फल है। तीनों घतियाँ कर्मों का समूल नाश करना एकत्व— वितर्क विचार शुक्ल ध्यान का फल हैं राग—द्बेष से रहित योगी पुरुषों ने ध्यान के तीन फल बताये हैं—