एकाग्रचिन्तानिरोध होना अर्थात् किसी एक विषय पर मन का स्थिर हो जाना ध्यान कहलाता है। यह ध्यान उत्तम संहनन वाले मनुष्य के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) तक ही हो सकता है। ध्यान के चार भेद माने हैं। जिनके लिए कहा भी है-
अर्थात् हे भगवन्! आर्त-रौद्र इन दो दुधर्यानों को आपके प्रसाद से निर्मूल करके मैं धर्मध्यान को प्राप्त करके क्रम से मोक्ष को प्राप्त करूँगा। सारांश यह है कि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार प्रकार के जो ध्यान हैं, वे चारों गतियों को प्राप्त कराने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं अर्थात् आर्तध्यान से तिर्यंच-पशुगति, रौद्रध्यान से नरकगति, धर्मध्यान से देव और मनुष्य गति तथा शुक्लध्यान से सिद्धगति की प्राप्ति होती है।
पूर्ण ध्यान किसे हो सकता है?
उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार तो संसार के प्रत्येक प्राणी को हर समय कोई न कोई ध्यान रहता ही है, तथापि इनमें प्रारंभ के दो (आर्त-रौद्र) ध्यान संसार के कारण हैं और ‘‘परे मोक्ष हेतू’’ सूत्र से धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। धवला ग्रंथ में दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान माना है और शुक्लध्यान तो उत्तम संहननधारी महामुनियों के तथा केवली भगवान के ही होता है। गृहस्थजन भी ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं! ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि ‘‘आकाश में पुष्प खिल सकते हैं और गधे के सींग हो सकते हैं किन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।’’ फिर भी धर्मध्यान की सिद्धि के लिए गृहस्थाश्रम में भी ध्यान का अभ्यास और भावना तो करनी ही चाहिए। संसार में अनेक प्रकार की भौतिक चिन्ताओं में उलझे मन को कुछ विश्रान्ति देने के लिए श्रावकों को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन ध्यानों का अभ्यास करना चाहिए। यद्यपि इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों की सिद्धि तो कठिन है फिर भी प्रतिदिन किया गया अभ्यास, भावना, संतति और चिन्तन इन नामों की सार्थकता को तो प्राप्त कर ही लेता है और कालान्तर में वही अभ्यास ध्यान की सिद्धि में सहायक बन जाता है। ऊपर कहे गये धर्मध्यान के अंतिम भेद संस्थान-विचय के ही ये पिण्डस्थ आदि चार भेद माने गये हैं सो यहाँ क्रमानुसार पिण्डस्थ ध्यान के बारे में ही बताया जा रहा है।
कहाँ बैठकर ध्यानाभ्यास करें?
मन चूँकि अत्यन्त चंचल है अत: उसे नियंत्रित करने एवं ध्यान की ओर उन्मुख करने के लिए जिनमंदिर पूर्ण उपयुक्त स्थान होते हैं। यदि मंदिर की सुविधा उपलब्ध नहीं है, तो घर के किसी एकांत स्थान (पूजाघर-चैत्यालय) में बैठ सकते हैं अन्यथा किसी पार्व आदि खुले स्थान का कोई हिस्सा भी ध्यान करने के लिए उचित रहेगा। जहाँ आप ५ मिनट से लेकर शक्ति अनुसार १ घंटे तक भी बैठने में स्वाधीनता और निर्विकल्पता का अनुभव कर सवें उस स्थान का चयन कर लें तथा भूमि पर चटाई या दर्भासन (डाभ या शुद्ध आसन) बिछाकर ध्यान करने हेतु बैठ जावें। केवल भूमि पर बैठकर ध्यान न करें। ध्यान के समय मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर करें क्योंकि पूर्व से निकलने वाले सूर्य की तेजस्वी किरणों की तरंगें प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों प्रकार से मन-मस्तिष्क को और ऊर्जा प्रदान करती हैं जो आत्मा में तेजस्विता के साथ-साथ शारीरिक स्वस्थता को भी देने वाली हैं। इसी प्रकार उत्तर दिशा मनोरथसिद्धि में सहायक मानी गई है जो अपनी ओर अभिमुख हुए मानव की समस्त समस्याओं का समाधान करके उसमें नवजीवन का संचार करती है।
किस मुद्रा में बैठें? ध्यान के लिए पद्मासन मुद्रा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, वह ब्रह्मचर्यसिद्धि के लिए रामबाण औषधि के समान है। इसके लिए पहले बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर रखते हैं पुन: दाहिना पैर बायीं जाँघ पर रखकर, बाएँ हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखकर भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठकर आँखों को कोमलता से बंद करें। यदि इस पद्मासन से बैठने में अधिक तकलीफ महसूस हो तो अर्धपद्मासन (बायाँ पैर नीचे और दाहिना पैर उसकी जाँघ पर रखकर) से बैठें अथवा सुखासन से भी बैठकर ध्यानाभ्यास किया जा सकता है।
ध्यान का शुभारंभ ॐ की ध्वनि से करें शरीर की सुषुम्ना नाड़ी एवं मस्तक के ब्रह्म भाग को जागृत करने हेतु ‘‘ॐ’’बीजाक्षर का नाद परम आवश्यक है। ध्यान को प्रारंभ करने हेतु सर्वप्रथम स्थिरतापूर्वक नौ बार इस ॐकार की ध्वनि करें।ध्वनि के उच्चारण में जहाँ वंठ, तालु, होंठ, नासिका आदि इन्द्रिय एवं उपांगों का अवलम्बन लेना होता है, वहीं ध्वनि के उन क्षणों में अपनी अन्तर्दृष्टि नाभिस्थान पर होनी चाहिए। उस समय अनुभव में नाभिस्थान से उठते हुए आध्यात्मिक तेजपुंज की एक लकीर ऊपर उठती हुई धीरे-धीरे ॐ के साथ मस्तक के रन्ध्र (ब्रह्म) भाग तक जाएगी, यही आध्यात्मिक ऊर्जा आत्मिक शक्ति को प्रदान करती है। ॐकी यह ध्वनि यदि दिन में तीन बार पूर्ण विधि के साथ की जाए तो माइगे्रन, साइनस, ब्लडप्रेशर आदि अनेक बीमारियों का इलाज बिना दवाई लिए हो जाता है। इसके कई साक्षात् उदाहरण भी देखने को मिले हैं। इस ध्वनि के पश्चात् आत्मिक शान्ति हेतु ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण करें- ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं (शक्तिरूप में मेरी आत्मा अनन्तज्ञानरूप है) परमानन्दस्वरूपोऽहं (मेरी आत्मा में परम आनंद का स्रोत प्रवाहित हो रहा है) चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहं (शुद्ध चैतन्य स्वभाव से युक्त मेरी आत्मा है) चिन्मयज्योतिस्वरूपोऽहं (चैतन्य की परमज्योति से मैं समन्वित हूँ) चिच्चिंतामणिरूपोऽहं (चैतन्यरूप चिन्तामणिरत्न से युक्त मेरी आत्मा है) शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहं (शुद्धबुद्ध स्वभाव से मैं समन्वित हूँ) नित्यनिरंजनरूपोऽहं (निश्चयनय से समस्त कर्मरूपी अंजन-कालिमा से मैं रहित हूँ) पुन: अपने मन में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करते हुए पिण्डस्थ ध्यान के लिए तैयार हो जाएँ अर्थात् पिण्ड-शरीर में स्थित आत्मा का चिन्तन करना, पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। इसमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ होती हैं।
पार्थिवी धारणा (चित्त की चंचलता में रुकावट) शरीर पर कम से कम परिग्रह हो और निराकुल चित्त होकर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से चटाई पर बैठकर इस धारणा के अन्तर्गत विचार कीजिए- मध्यलोकप्रमाण एक राजु (असंख्यातों मील का) विस्तृत बहुत बड़ा गोल क्षीरसमुद्र है अर्थात् जम्बूद्वीप से लेकर अंतिम स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्त असंख्यात योजन का क्षीरसागर ध्यान में देखें। दूध के समान सपेद जल से वह समुद्र लहरा रहा है और समुद्र के बीचोंबीच में एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला खिला हुआ एक दिव्य कमल है जिसमें एक हजार पत्ते हैं, वे सब पत्ते सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। कमल के बीच की कर्णिका सुमेरुपर्वत के समान ऊँची उठी हुई है, वह पीले रंग की है और अपनी पराग से दशों दिशाओं को पीत प्रभा से सुशोभित कर रही है। भव्यात्माओं! जैन आगम की भाषा में ऊपर समुद्र और कमल आदि का प्रमाण बताया है, इसका सारांश यह है कि आप अपने चिन्तन में जितना बड़ा से बड़ा समुद्र देख सवें, देखें और उसके बीच में एक हजार आठ पंखुड़ियों का कमल देखें। मन को सुमेरु के समान ऊँचा मानकर कमल की कर्णिका को ऊँची उठी हुई देखें। पुन: आप देखिए कि उस कर्णिका पर एक श्वेत वर्ण का ऊँचा सिंहासन है, उस पर मैं भगवान आत्मा के रूप में विराजमान होकर ध्यान में तल्लीन हूँ। यहाँ भावों की उच्चता ही कर्मों की निर्जरा कराएगी, आध्यात्मिक ज्योति से आत्मा प्रकाशित हो जाएगी। यही आध्यात्मिक ऊर्जा है जिससे शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। इस समय आप मन ही मन निम्न पंक्तियाँ पढ़ें-
मेरा तनु जिनमंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर। उस पर मैं ही भगवान स्वयं, राजित हूँ चिन्मय ज्योतिप्रवर।। मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, कर्मांजन का कुछ लेप नहीं। मैं नमूँ उसी शुद्धात्मा को, मेरा पर से संश्लेष नहीं।।
(इसके साथ ही शांति और शिथिलता का सुझाव दीजिए। शान्त……..शिथिल……) अनंतर आप ऐसा चिंतवन कीजिए कि मेरी आत्मा सम्पूर्ण राग-द्वेषमय संसार को और समस्त कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। ऐसा बार-बार विचार करते हुए अपने उपयोग को उसी में तन्मय कर दीजिए। यहाँ ध्यान के निम्न सूत्र पदों को पढ़ लीजिए-
इस चिन्तनधारा के साथ प्रथम पार्थिवी धारणा समाप्त हुई और अब द्वितीय धारणा के लिए अगला दिन निर्धारित कीजिए ताकि एक दिन का अभ्यास दीर्घकालीन न होने पाए, अन्यथा मस्तिष्क पर भार अनुभव होने लगेगा।
‘‘आग्नेयी धारणा’’ (कर्मों को जलाने की एक प्रक्रिया) इस धारण के अन्तर्गत चिन्तन कीजिए कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दलों वाला खिला हुआ एक सपेद कमल है। उस कमल की कर्णिका पर ‘‘र्हं’’ बीजाक्षर पीली केशर से लिखा हुआ देखिए पुन: दिशा के क्रम से प्रत्येक दलों (पत्तों) पर केशर से ही अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋृ, ऌ, ल¸, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:,इन सोलहों स्वरों को लिख लें। पुन: इन सोलहों स्वर एवं र्हं बीजाक्षर पर अपने मन को केन्द्रित करके इनका ध्यान कीजिए। मन को अशुभ से शुभ की ओर ले जाने की यह एक उत्तम प्रक्रिया है, उस समय शारीरिक और मानसिक स्थिरता की परम आवश्यकता है अत: चंचल चित्तरूपी बंदर को एकदम अनुशासित रखिए, तब आपको ये अक्षर और कर्णिका का महामंत्र स्पष्ट दिखने लगेगा। इसके आगे आप देखें कि इसी कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान पर औंधा मुँह करके (नीचे को लटकता हुआ) एक मटमैले रंग का आठ दल का कमल बना हुआ है, उसके आठों दल पर क्रम से ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय कर्म इन आठों कर्मों के नाम काले रंग से लिखे हुए हैं। पुनश्च ध्यान की अगली शृँखला में देखें और अनुभव करें कि नाभिकमल की कर्णिका के ‘‘र्हं’’ महामंत्र के रेफ से धुँआ निकल रहा है, कुछ ही क्षणों में उस धुँए में से अग्नि के स्पुलिंगे (चिंगारियाँ) निकलने लगीं, तब अग्नि की लौ ऊपर को उठकर आठ कर्म वाले कमल को जलाने लगी और धीरे-धीरे वही अग्नि ज्वाला बनकर मस्तक के ऊपर पहुँच गई, पुन: वह अग्नि त्रिकोणाकार मण्डल के आकार में परिवर्तित हो गई अर्थात् अग्नि की एक लकीर मस्तक के दार्इं ओर, एक बार्इं ओर गई और नीचे दोनों लकीरों के मिल जाने से शरीर का त्रिकोणाकार अग्निमंडल बन जाता है। इस समय यह चिन्तन करें कि धधकती हुई यह अग्नि अंदर में तो कमलों को जला रही है और बाहर में औदारिक शरीर को भस्म कर रही है। चिन्तन के इन क्षणों में घबड़ाहट बिल्कुल नहीं होना चाहिए क्योंकि इस ध्यान के माध्यम से अनेक भवों में संचित पापकर्म तो नष्ट होंगे ही, साथ में तमाम शारीरिक रोगों का विनाश होकर स्वस्थता का अनुभव भी होगा। अब आगे देखें कि अग्नि मंडल के त्रिकोणाकार की तीनों लकीरों में ‘‘रं रं रं’’ ऐसे अग्निबीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बने हैं तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘‘ॐ र्रं’’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। पुन: चेतावनी दी जा रही है कि जलती हुई अग्नि को देखकर मन को विचलित नहीं करना है क्योंकि आत्मा चिच्चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक है अत: अग्नि के द्वारा वह कभी जल नहीं सकती है, यह तो अशुभ कर्मों को जलाने का एक तरीका है और इसमें सफलता प्राप्त करते ही आपको परमस्वस्थता की अनुभूति होगी। इस धारणा में ध्यान की समापन बेला में अब पुन: देखिए कि वह अग्नि धीरे-धीरे शांत हो गई है, जिससे हमारी आत्मा पर राख का पुंज इकट्ठा हो गया है पुन: पाँच दीर्घ श्वास लेते हुए आज के ध्यान को तीन बार निम्न वाक्य बोलते हुए समाप्त कीजिए- ‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है।’’ इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के प्रकरण में दो धारणाओं का यहाँ वर्णन किया गया है। आगे की धारणाएँ अगले दिन के ध्यान में करें। नोट-उपर्युक्त ध्यान के प्रयोग से अनेक भाइयों को ब्लडप्रेशर, शुगर एवं हार्ट की बीमारियों में आशातीत लाभ मिला है एवं कई बहनों ने माइग्रेन, सिरदर्द, साइनस एवं शरीर के दर्दों में काफी आराम का अनुभव किया है अत: पाठकगण भी इसे दिन में एक, दो अथवा तीन समय प्रयोग करके अपने अनुभव से हमें अवगत करावें तो ध्यान की सार्थकता का परिचय अन्य लोगों को भी प्राप्त हो सकेगा।
अब इसी शृँखला में प्रस्तुत हैं पिण्डस्थ ध्यान की अगली धारणाएँ सर्वप्रथम आप मंदिर जी की स्वाध्यायशाला में अथवा घर के किसी एकांत स्थान में स्थिरचित्त होकर ध्यान के लिए पद्मासन, अर्धपद्मासन या सुखासन से बैठकर आँखें कोमलता से बंद करें। बाएँ हाथ की हथेली पर दाएँ हाथ की हथेली रखकर शरीर को तनावमुक्त करें। पृष्ठ रज्जु बिल्कुल सीधी हो, न अधिक अकड़न न अधिक झुकाव हो, किन्तु निराकुल, शान्तचित्त होकर बैठें। इसके पश्चात् ॐ की नव बार ध्वनि निकालते हुए दीर्घ श्वांस का अभ्यास करें। पुन: मानसिक स्थिरता के लिए ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण कीजिए-
अब ध्यान की धारा में अपने चित्त को प्रवाहित कीजिए और पार्थिवी तथा आग्नेयी धारणा के अन्तर्गत जो-जो आपने चिन्तन किया था कि क्षीरसागर के मध्य ऊँचे कमल की कर्णिका पर एक सिंहासन के ऊपर मैं एक स्वच्छ अन्तरात्मा के रूप में विराजमान हूँ और चिन्तन के आधार पर मुझे अपने को परमात्मा बनाना है।
श्वसना (वायवी) धारणा अब आप देखिए कि आकाश में चारों तरफ से प्रलयकारी तेज हवा चलने लगी। यह हवा मेरूपर्वत को भी प्रकम्पित कर देने को आतुर है किन्तु आप चिन्ता मत कीजिए क्योंकि आपकी ध्यानस्थ आत्मा को यह वायु अणुमात्र भी हिला नहीं सकती है। वायुमण्डल गोल आकाररूप से परिणत हो गया है, इस मण्डल में जगह-जगह ‘स्वाय-स्वाय’ ये वायु के बीजाक्षर सपेद रंग से लिखे हैं। आगे देखें कि वह प्रलयंकारी वायु मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और वह त्रिकोणाकार शरीर पर ढकी हुई भस्म को उड़ा रही है अर्थात् इस हवा से कर्मों की रज उड़ गई और आत्मा स्वच्छ हो गई है। इस वायवी धारणा के समय निम्न मंत्र का चिन्तन कीजिए।
पुन: अनुभव करें कि यह वायु रुक गई है और हवा की हलचल समाप्त हो गई है। मैं अब ज्ञान का पुंज बन गया हूँ, सम्पूर्ण अज्ञानता मेरे हृदय से दूर हट गई है। इतना चिन्तन भी आपको बहुत शांति तथा सुख प्रदान करेगा अत: मात्र यह अनुभव कीजिए कि-मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है। तीन बार पुन: महामंत्र का स्मरण करते हुए तीन बार दीर्घ स्वासोच्छ्वास लें और आँख खोलकर, हाथ जोड़कर, पंचपरमेष्ठियों को नमन करते हुए निम्न पद्य बोलें- संसार के भ्रमण से अतिदूर हैं जो, ऐसे जिनेन्द्रपद को नित ही नमूँ मैं। सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को, वंदूँ सदा सकल कर्म विनाश हेतू।।१।।
पुन: अगली वारूणी धारणा में प्रवेश करें। वारूणी धारणा-अब चिंतन करें कि आकाश में बादल छा गए हैं, बिजली चमक रही है और देखते ही देखते मूसलाधार बरसात शुरू हो गई है। आकाशमण्डल में चारों ओर ‘‘पं पं पं’’ बीजाक्षर लिखे हुए हैं। वर्षा की अमृत सदृश बूँदें मेरी आत्मा का प्रक्षालन कर रही हैं। इस दृश्य का चिन्तन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें-
इस प्रकार वर्षा से शुद्ध होकर मेरी आत्मा स्फटिक के समान शुद्ध हो रही है। मंत्र पढ़िए-ॐ ह्रीं शुद्धात्मने नम:, ॐ ह्रीं विश्व-रूपात्मने नम:, ॐ ह्रीं परमात्मने नम:। अब आगे पंचम तत्त्वरूपवती धारणा का अवलम्बन लीजिए-
तत्त्वरूपवती धारणा
उपर्युक्त मंत्रों के उच्चारण के पश्चात् शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव देते हुए मन को स्थिर करें पुन: चिन्तन करें कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाली सर्वज्ञ के सदृश बन गई है। अब मैं अतिशय से युक्त, पंचकल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ। अनन्तर मैं आठ कर्मों से रहित निर्मल पुरुषाकार नित्य निरंजन परमात्मा बन गया हूँ। यह चिन्तन करते-करते आप पिण्डस्थ ध्यान की चरम सीमा तक पहुँच गये हैं। अपने पिण्ड-शरीर के अंदर स्थित आत्मा का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है। इसका निश्चल ध्यान करने वाले योगीजन अन्य लोगों से दु:साध्य ऐसे मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेते हैं तो अन्य शारीरिक सुखों की तो बात ही क्या है। जिस प्रकार से सूर्य के उदित होते ही उल्लू पलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार से इस पिण्डस्थ ध्यानरूपी धन के समीप होने पर विद्या, मण्डल, मंत्र, यंत्र, इंद्रजाल के आश्चर्य, सिंह, सर्प तथा दैत्य आदि नि:सारता को प्राप्त हो जाते हैं एवं भूत, पिशाच, ग्रह, राक्षस आदि कुछ भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा इस ध्यान का अचिन्त्य प्रभाव जानना चाहिए।
मेरे हृदयाम्बुज में नितप्रति, चिन्मय ज्योती भगवान रहे। मेरे अन्तर में आनंदघन, अमृतमय पूर्ण प्रवाह बहे।। वह ही आनन्द घनाघन हो, कलिमल को दूर करे क्षण में। सब दूरित सूर्य का ताप शमन, कर शाश्वत शांति भरे मुझमें।।
पुन: आँखें खोलकर हाथ जोड़कर परमात्मा को नमन करते हुए ध्यान को सम्पन्न कीजिए। अब पदस्थ ध्यान का वर्णन प्रारंभ किया जाता है।
पदस्थ ध्यान क्या है?
पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलम्बन लेकर उसमें तल्लीन हो जाना पदस्थ ध्यान कहलाता है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं जो कि विभिन्न मंत्रों पर आधारित हैं। पिण्डस्थ ध्यान को पदस्थ से पूर्व क्यों बतलाया है? गृहस्थाश्रम के अनेकों प्रपंचों में उलझे हुए मन को कोई भी एक मंत्र पर विंचित् क्षण के लिए भी टिका नहीं सकता है और मन को खाली बैठना भी आता नहीं, अत: वह इधर-उधर के चक्कर में ही पुन: घूमने लगता है। अत: उसके लिए जितनी भी सामग्री दी जाएगी, उतना ही अच्छा है क्योंकि उतनी देर तक तो कम से कम वह बाहर के विषयों से अपने को हटाकर इन धारणाओं के चिन्तन में ही उलझेगा, जो अच्छा ही है। यदि एक पद पर ही मन को स्थिर करना सरल होता तो आचार्य पहले पदस्थ ध्यान को कहकर फिर पिण्डस्थ को कहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पिण्डस्थ ध्यान का ही पहले अभ्यास करना चाहिए। अनन्तर उसमें परिपक्व हो जाने के बाद पदस्थ ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।