भारतवर्ष में ध्यान की एक लंबी परम्परा रही है। इसकी सहायता से व्यक्ति पूर्ण अध्यात्म को प्राप्त कर सकता है। पूर्ण अध्यात्म से तात्पर्य मोक्ष, केवल्य एवं निर्वाण माना गया है। यहाँ चार पुरुषार्थ माने गये हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। मोक्ष सर्वोच्च पुरुषार्थ है। इसकी प्राप्ति में शेष तीन पुरूषार्थ सहायक माने गये हैं। वैदिक परम्परा में ध्यान का अर्थ है समस्त चित्र वृत्तियों से मुक्त होना। जैन परम्परा में राग—द्वेष से मुक्त होकर सभी धारणाओं के त्याग को ध्यान कहा गया है। बौद्ध परम्परा में निविरणों के नाश के पश्चात् चित्त की जो एकाग्रता प्राप्त होती है उसे ध्यान कहा गया है। ध्यान के तीन आयाम माने गये हैं—शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक। ध्यान का प्रभाव सर्वप्रथम शरीर पर पड़ता है। इसकी सहायता से जो शारीरिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है उससे व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन बनाए रखता है। शारीरिक एवं मानसिक संतुलन के बने रहने पर व्यक्ति की ज्ञानात्मक, भावनात्मक एवं संवेगात्मक शक्ति का विकास क्रमश: होता जाता है। अंतत: व्यक्ति अध्यात्म की तरफ झुकता चला जाता है। व्यक्ति सभी तरह के तनावों से मुक्त होकर परम आनन्द की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। भारतीय—संस्कृति अध्यात्म प्रधान मानी जाती है। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से यद्यपि मोक्ष को अंतिम स्थान पर रखा गया है, परन्तु यही मानव के लिए सर्वोच्च प्राप्त है। शेष तीन इसी मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधन का अर्थ करते हैं। यद्यपि मोक्ष अध्यात्म जगत् से जुड़ा हुआ है, परन्तु इसके तीन साधन भौतिक जगत् से जुड़े हुए हैं। अत: भारतवर्ष में अध्यात्म की शिक्षा के साथ—साथ भौतिकवाद की भी शिक्षा को महत्व दिया गया है। पूर्ण मानवीय शिक्षा प्राप्ति के लिए अध्यात्मवाद और भौतिकवाद में समन्वय की बात को मुक्त रूप से स्वीकार किया गया है। परन्तु आज अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के बीच के समन्वय सूत्र में कहीं से कमी आ गई है। व्यवसाय एवं भोग—उपभोग में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। इसके कारण व्यक्ति मानसिक रूप से अधिक व्यस्त हो गया है। फलत: वह पहले से अधिक थकान एवं तनाव से ग्रस्त रहने लगा है। तनावग्रस्त मानव अपने तनावों से मुक्त होने के लिए सरलतम उपायों को अपना रहा है जैसे उत्तेजक एवं मादक दवाओं का सेवन, सुरा—पान, नग्न एवं उत्तेजक दृश्यों को देखना आदि। इन साधनों का उपयोग करने से व्यसनों का आधिक्य होने लगा है। मानसिक तनाव दूर करने के ये उपाय वास्तव में तनाव को दूर करने की अपेक्षा शारीरिक एवं मानसिक हानि ही कर रहे हैं। यह बात प्रकाश में आने से आज उन पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। इन हानिकारक उपायों की जगह मन को सूचन—सम्मोहन के द्वारा हल्का करने की पद्धतियों—प्राणायाम योग, ध्यान जैसे माध्यमों के द्वारा शान्ति, स्पूर्त प्राप्त करने के प्रयास होने लगे हैं। भारत में योग—ध्यान—प्राणायाम ये सारी पद्धतियाँ प्रारंभ से ही प्रचलित रही है, परन्तु जनसामान्य में इनका बहुत अधिक प्रयोग नहीं होने के कारण कुछ विशिष्ट लोगों तक ही सीमित रही। यही कारण है कि ध्यान आदि को एक विशेष एवं अलौकिक शक्ति के रूप में जाना जाता रहा है। अभी भी जनसामान्य में यह धारण व्याप्त है। परन्तु कुछ विशेष प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों के अथक प्रयास तथा स्वयं जनसामान्य के मन में ध्यान—विषयक अवधारणा को जानने की लालसा ने इसे एक नया आयाम प्रदान किया। इसी का प्रतिफल है कि वर्तमान समय में ध्यान सिखाने वाले बहुत से ध्यान केन्द्र खुल गये हैं। इन ध्यान केन्द्रों में ध्यान के प्राचीन स्वरूप में कुछ परिवर्तन करके इसे वैज्ञानिक रूप प्रदान किया जा रहा है। अत: आज यह जानने का जरूरत आन पड़ी है कि ध्यान क्या है ? वर्तमान समय इसकी क्या उपयोगिता है ? इसकी सहायता से तनाव को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ? आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति करने वाला एक सबल साधन वैज्ञानिकों के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों बनता जा रहा है ? वैज्ञानिकों ने ध्यान की क्षमता का विनियोजन प्रयोगशालाओं में किस रूप में किया है ? आदि।
ध्यान : आध्यात्मिक स्वरूप
भारतीय अध्यात्म विद्या चाहे वह वैदिक हो या श्रमण, दोनों ने ही एक स्वर से दु:ख मुक्ति का समर्थन किया है। दु:ख मुक्ति के लिए पुरुषार्थ पर बल दिया गया है। पुरुषार्थ चार माने गये हैं—१ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।। इनमें मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्वोच्च पुरूषार्थ है और उसके लिए धर्म साधना जरूरी है। साधन और साध्य, कारण और कार्य में अविनाभाव संबंध है। जैसा साधन होगा वैसा साध्य प्राप्त होगा। साधन दो माने गये हैं—आध्यात्मिक और भौतिक। आज भौतिक साधन अपनाने पर ज्यादा बल दिया जा रहा है। फलत: साध्य भी उसी तरह का प्राप्त हो रहा है—तनाव, समस्या, शारीरिक व्याधि आदि। अत: आज जरूरत इस बात है कि हम पुन: आध्यात्मिक साधन को अपनाकर सुख—शांति को प्राप्त करें। नि:संदेह ध्यान एवं योग को इस दिशा में सम्यक् साधन के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है। वैदिक एवं श्रमण दोनों ही संस्कृतियों में आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने पर बल दिया गया है और इसकी प्राप्ति हेतु ध्यानाभ्यास को साधन के रूप में अपनाने की बात स्वीकार की गई है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ज्ञानावस्था को माना गया है। अज्ञान की अवस्था विभावावस्था के नाम से जानी जाती है। विभावावस्था विकल्पों के कारण उत्पन्न होती है। नाना प्रकार के दु:ख— यथा जन्म—मरण, जरावस्था, रोग, सुख—दु:ख, अनिष्ट संयोग आदि विभावावस्था की ही देन है। विकल्पों को वृत्तियों के नाम से जाना जाता है। यही कारण है कि मर्हिष पतंजलि वृत्तियों से मुक्त अवस्था को योग कहते हैं। वस्तुत: योग और ध्यान दोनों अलग—अलग अवधारणाऐं नहीं है, कारण योगांगों में ध्यान को भी समाविष्ट किया गया है। इनमें अंग और अंगी का संबंध है। जिस प्रकार हमारे हाथ—पाँव हमारे अंग से अलग भी हैं और नहीं भी हैं, ठीक यही संबंध योग और ध्यान में भी है। जैन परम्परा में भी सभी प्रकार के विकल्पों से रहित होने की प्रक्रिया को ध्यान कहा गया है। आचार्य उमास्वाति (उमास्वामी) ने स्पष्ट शब्दों में कहा है मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर अवस्थान अर्थात् केन्द्रित करना ध्यान है। तात्पर्य यह है कि ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही ओर प्रवाहित करता है, जिससे साधक अनेक, चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित होता है। बौद्ध परम्परा में भी ध्यान विषयक अवधारणा के सन्दर्भ में विकल्पों से रहित होने पर बल दिया गया है। समन्तपासादिका में ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर चिन्तन करना ही ध्यान है। वैदिक, जैन एवं बौद्ध तीनों ही परम्पराओं में ध्यानाभ्यास की विधियों पर पर्याप्त चर्चा मिलती है। प्राय: तीनों ही परम्पराओं में ध्यान को मोक्ष, वैवल्य—निर्वाण प्राप्ति का एक सबल साधन माना गया है। यही तीनों की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में समानता परिलक्षित होने लगती है। इन तीनों परम्पराओं की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में तीन तत्वों को महत्वपूर्ण माना गया है। वैदिक परम्परा में कर्म, ज्ञान, भक्ति की त्रिपुटी पर बल दिया गया हैं, वहीं जैनों ने सम्यग्दर्शन—सम्यग्ज्ञान—सम्यग्चारित्र को प्रमुखता दी है एवं बौद्धों ने इस हेतु शील—समाधि—प्रज्ञा को महत्व दिया है। वस्तुत: यह तीनों ही तत्व मोक्ष प्राप्ति के साधन माने गये हैं। ध्यान को भी मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है तथा इस छुते ध्यान योग शब्द ध्यान का व्यवहार किया जाता है। श्रमण संस्कृति में प्राय: तप, संवर, भावना, समता, अप्रमत्त शब्द ध्यान योग की साधना के लिए प्रयुक्त किया जात रहा है। आगे चलकर समाधि, ध्यान और योग शब्द का प्रचलन होने लगता है। धीरे—धीरे ध्यान और योग शब्द एक साथ जुड़कर ‘ध्यान योग’ के नाम से व्यवहृत होने लगे। अत: हमें ध्यान, योग, ध्यान—योग आदि विभिन्न शब्दों के प्रयोग से किसी तरह की दुविधा नहीं होनी चाहिए, कारण इन सबका भारतीय चिन्तन में, विशेष रूप से ध्यान के सन्दर्भ में, समान महत्व है। इसके साथ ही साथ हमें समाधियोग, संवरयोग, भावनायोग जैसे शब्दों से भी दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिये। क्योंकि ये सारे शब्द ध्यान से ही संबंधित हैं। सूत्रकृतांग तथा पंचास्तिकाय में समाधि, संवर, भावना इन शब्दों के साथ ‘योग’ शब्द जोड़कर ध्यानयोग, संवरयोग, भावनायोग, आदि शब्दों का व्यवहार ध्यान के परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त किया गया है।
ध्यान एवं वैदिक—परम्परा
वैदिक—परम्परा में कर्मयोग—भक्तियोग—ज्ञानयोग इन त्रिविध साधना—पद्धतियों के अंतर्गत मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग आदि का समावेश हुआ है। इन पद्धतियों में सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली योग की मानी जाती है। वेदों और उपनिषदों में योग विषयक अवधारणाएँ प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। यजुर्वेद में योग के सम्बन्ध में कहा गया है कि मोक्ष की इच्छा रखने हम (योगी) लोग मुक्त मन से (शुद्धान्तकरण) योगबल द्वारा प्रकाशमय आनन्दस्वरूप सर्वान्तयोगी अनन्त ऐश्वर्य में स्थित होते हैं। योगबल के द्वारा अनन्त—शक्ति—संपन्न आनन्दस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है अथवा स्वयं इन गुणों से युक्त देवतुल्य स्वरूप की प्राप्ति संभव है। वेद के योग सम्बन्धी इस चिन्तन का और अधिक स्पष्ट रूप हमें उपनिषद् में मिलता है। योग विद्या के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति हो सकती हैं और व्यक्ति हर्ष—शोक से रहित हो जाता है। कठोपनिषद् में यम द्वारा नचिकेता को दिया गया संदेश वस्तुत: योगविद्या का ही विलक्षण उदाहरण है। क्योंकि इस योग—विधि का पालन करके नचिकेता रागादि से अलिप्त होकर तथा मृत्यु के भय से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हुआ। वस्तुत: वेदांग और उपनिषदों में वर्णित योग विषयक अवधारणा एक अध्यात्म विद्या है जिसके प्रकाश से मानव—बुद्धि इतनी अधिक आलोकित हो जाती है कि वह अंधकार के सारे निविरणों को तोड़ डालती है। हर्ष—शोक—भय से रहित होकर परमानंद की अवस्था में विचरण करने लगती है। इन योग—विषयक अवधारणाओं का विकास और विस्तार दार्शनिक युग में अधिक हुआ। इस युग में योग मात्र अध्यात्म विद्या न रहकर एक व्यावहारिक सिद्धांत के रूप में भी प्रयुक्त होने लगा। इसका प्रमुख श्रेय महर्षि पतंजलि को जाता है। उन्होंने चित्त और वृत्ति के अंतर को स्पष्ट किया और चित्तवृत्ति निरोध को ध्येय सिद्ध किया। चित्त में असंख्य वृत्तियों का उदय होता रहता है। जब तक व्यक्ति इन वृत्तियों का निरोध नहीं करता है तब तक वह अपने स्वरूप में स्थित नहीं हो पाता है। जैसे ही इन वृत्तियों का निरोध होता है वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है अर्थात् वैवल्य अवस्था को प्राप्त कर लेता है। उन्होंने योगशास्त्र में क्रियायोग और अष्टांग योग का मार्ग स्पष्ट किया। क्रियायोग के अंतर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर—प्राणिधान का समावेश किया। स्वधर्म पालन हेतु शारीरिक, मानसिक कुष्टों को सहर्ष सहन करने, कत्र्तव्य—अकत्र्तव्य बोध करने वाले साहित्य का पठन—पाठन एवं स्वयं को ईश्वर का अधीन समर्पित कर देने का निर्देश दिया है। अष्टांग योग के बहिरंग और अंतरंग ऐसे दो भेद किए हैं। अंतरंग योग में धारणा, ध्यान, और समाधि का समावेश किया है जबकि बहिरंग के अंतर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ईश्वर प्राणिधान को स्थान दिया गया है। इन बहिरंग और अंतरंग साधनों को अपनाकर साधक क्लेशों का सर्वथा नाश करके समस्त प्रकार की चित्तवृत्तियों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि योगशास्त्र क्रमिक गति से साधक के विकास मार्ग में सहायक बनता है जहाँ तक ध्यान की बात है तो निर्वाण समाधि की सुगमतापूर्वक प्राप्ति इसी के द्वारा संभव मानी गई है। क्योेंकि अगर किसी कारण से क्रियायोग द्वारा क्लेशों की स्थूल वृत्तियों को सूक्ष्म नहीं बनाया गया है तो सर्वप्रथम ध्यान के द्वारा उन स्थूल वृत्तियों को नाश करके उन्हें सूक्ष्म बनाया जाता है।११ जब क्लेशों की वृत्तियाँ सूक्ष्म हो जाती हैं तभी निर्बीज समाधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि योग—साधना में ध्यान का बहुत अधिक महत्व है।
ध्यान एवं जैन—परम्परा
जैन—परम्परा में संयम अथवा चारित्र की शुद्धि के लिए ध्यान को सर्वोत्तम साधन माना गया है। प्राय: चिन्तन करने की विधि को ध्यान करना समझ लिया जाता है, परन्तु ध्यान और चिन्तन में अन्तर है। यही कारण है कि जैन आचार्यों ने ध्यान को अर्थ चिन्तन नहीं, बल्कि चिन्तन का एकाग्रीकरण करना माना गया है। आवश्यक निर्युक्ति में चित्त को किसी एक लक्ष्य पर स्थिर करना या उसका निरोध करना ही ध्यान माना गया है। वस्तुत: चिन्तन की प्रक्रिया में मन किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है, जबकि ध्यान की प्रक्रिया में मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है। इस कारण साधक अनेक—चित्तता से मुक्त होकर एक चित्त में स्थित होता है। यही कारण है कि आचार्य पूज्यपाद ध्यान की निश्चल अग्नि शिखा से तुलना करते हैं। तात्पर्य यह है कि ध्यान परिस्पन्दनों से मुक्त और एकाग्र चिन्तन रूप है। यही ध्यान योग है। इसके अभ्यास से व्यक्ति राग—द्वेष—मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करता है और इस प्रकार मोक्ष या वैवल्य—प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता है। ध्यान की प्रकृति के अनुसार जैनों ने इसके दो भेद किए हैं—प्रशस्त ध्यान और अप्रशस्त ध्यान। जो ध्यान शुभ परिणामों से किया जाता है वह प्रशस्त ध्यान है तथा जो अशुभ परिणामों से किया जाता है उसे अप्रशस्त ध्यान कहा जाता है। प्रशस्त—ध्यान मोक्ष प्राप्ति में सहायक माना जाता है क्योंकि इनकी सहायता से अन्त:करण में उत्पन्न होने वाली कषायिका वृत्ति का क्षय किया जा सकता है। कषायिका वृत्ति को ही बन्धन का कारण माना गया है। अप्रशस्त ध्यान को संसार के कारण और संसार के हेतु के रूप में स्वीकार किया गया है। ध्यान के इन दोनों प्रकार के दो—दो उपविभाग किए गए हैं। प्रशस्त के दो भेद—धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान तथा अप्रशस्त के दो—आत्र्त ध्यान और रौद्र ध्यान मिलते हैं। इस प्रकार ध्यान के कुल चार भेद हो जाते हैं। परन्तु इन चारों में से दो—धर्म और शुक्ल ही उपादेय हैं जबकि आत्र्त और रौद्र हेय है। आत्र्तध्यान दु:ख के निमित्त से होता है जबकि रौद्रध्यान कुटिल भावों के चिन्तन से प्रारम्भ होता है। ये दोनों ही भाव राग—द्वेष को बढ़ाने वाले माने गये हैं। अत: इसे ध्यान की श्रेणी में रखकर कुध्यान के अन्तर्गत स्थान दिया गया है। क्योंकि ध्यान का अभ्यास राग—द्वेष से मुक्त होने के लिए किया जाता है न कि राग—द्वेष की मात्रा बढ़ाने के लिए यही कारण है कि जैनों ने आत्र्त एवं रौद्र ध्यान को अप्रशस्त ध्यान माना है। और इसके अभ्यास को कुध्यान कहा है। प्रशस्त ध्यान का साधक राग—द्वेष का क्षय करता है। और निर्वाण प्राप्ति की दिशा में क्रमश: आगे बढ़ता है। धर्म ध्यान का अभ्यासी साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के स्वरूप को समझकर शास्त्र के अनुरूप कार्य करता है। स्थानांगसूत्र में धर्म ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि यह श्रुत, चारित्र एवं धर्म से युक्त ध्यान है। धर्मध्यान का अभ्यासी साधक जब अपने कषायों, रागभावों अथवा कर्मों का सर्वथा परिहार कर, निष्क्रिय, इन्द्रियातीत अवस्था में आ जाता है तो उसका ध्यान धारणाओं से रहित हो जाता है। ध्यान की यही अवस्था शुक्ल ध्यान है। इस अवस्था में साधक अपने लक्ष्य की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जो निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है और ध्यान की धारणा से रहित है, वह शुक्ल ध्यान है।१६ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में ध्यान निर्वाण प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। यद्यपि जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन—सम्यक्ज्ञान—सम्यक्चारित्र को मोक्ष स्वरूप माना गया है और इस अवस्था की प्राप्ति के लिए अन्य साधनों का भी व्यवहार होता है, लेकिन अगर ध्यान के वृहत् रूप को देखा जाए तो हम इस तथ्य से इन्कार नहीं कर सकते हैं। क्योंकि राग—द्वेष से मुक्त, इन्द्रियातीत अवस्था एवं धारणाओं से मुक्त होकर रमण करना वस्तुत: परमानन्द अवस्था का ही परिचायक है। यही निर्वाण है, मोक्ष है।
ध्यान और बौद्ध—परम्परा
बौद्ध—परम्परा में ध्यान का एक अत्यन्त व्यवस्थित स्वरूप मिलता है। बौद्ध—ध्यान परम्परा के सम्बन्ध में विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि यह अत्यन्त कठोर नहीं है। क्योंकि स्वयं बुद्ध ने, जो महान योगी थे, कठोर तपश्चर्या जो कि उनके समय विद्यमान थी, को अमृतत्व की प्राप्ति में निरर्थक माना था। भगवान बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के पूर्व अलारकलाम एवं उद्रकरामपुत्र से योगविद्या को प्राप्त किया एवं संतुष्टि नहीं मिलने पर अरूबेला के अरण्य में कठोर तपश्चर्या की परन्तु उन्हें एकाग्रता की प्राप्ति नहीं हुई। इसके पश्चात् उन्होंने स्वयं ध्यानमार्ग का निर्माण किया और समाधिस्थ होकर पूर्ण ज्ञान लाभ किया जैसा कि विदित है बुद्ध ने सामान्यजन को प्रेरित करने के लिये सामान्यजन को समझ में आने वाली भाषा एवं विधियों का प्रयोग करके सामान्यजन को लाभान्वित करने का प्रयत्न किया। अत: बौद्ध ध्यान भी सामान्यजन के लिये बोधगम्य क्रिया होनी चाहिये, परन्तु आज के सामान्यजन के लिये वही आसन विधि अत्यन्त कठिन प्रतीत होती है। कारण साफ है—बौद्ध पारिभाषिक शब्दों का सामान्यजन में प्रचलित नहीं होना। जहाँ तब बौद्ध साधना के दिग्दर्शन का प्रश्न है तो यह शील, समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धतियों के रूप में जाना जाता है। इन्हीं त्रिविधि साधना मार्ग में सम्पूर्ण बौद्ध दर्शन समाहित है। शील ध्यानाभ्यास का आधार है क्योंकि शील में प्रतिष्ठित होने पर ही समाधि की भावना संभव हैं।१९ शील की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए विसुद्धिमग्ग में कहा गया है कि शील में प्रतिष्ठा के बिना कुलपुत्रों का बौद्ध शासन में प्रवेश नहीं हो सकता है। समाधि से तात्पर्य है कुशलचित्त की एकाग्रता।२१ काम एवं अकुशल धर्मों का परित्याग किए बिना ध्यान अथवा समाधि को सिद्ध नहीं किया जा सकता है। क्योंकि काम के परित्याग से काम—विवेक एवं अकुशल के परित्याग से चित्त—विवेक की उत्पत्ति होती है। इस कारण हम अपनी तृष्णा एवं क्लेश को समझ जाते हैं, कारण काम तृष्णा को नष्ट करती है एवं अकुशल परित्याग से क्लेश का क्षय होता है। तृष्णा एवं क्लेश के नष्ट होने पर चपल भाव एवं अविद्या का विनाश होता है। प्रज्ञा से तात्पर्य विपश्यना से है। इसमें हम पंचस्कंधों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, एवं विज्ञान) का क्षण—क्षण उत्पादन एवं विनाश होने की प्रक्रिया को जानकर यह चिन्तन करते हैं कि यह सास्रव धर्म दु:ख है। क्योंकि क्लेश वश इनकी उत्पत्ति होती है। क्लेश सन्तान को दूषित करते हैं। इस दूषित संतति परम्परा से मुक्त होना है। यही यथाभूत दर्शन है। इसके ज्ञान के सम्यक् अभ्यास से अर्हत् पद को प्राप्त किया जा सकता है। अर्हत् पद ही परम ध्येय है। वस्तुत: ध्यान का यही पूर्ण आध्यात्मिक लक्ष्य है। बौद्ध परम्परा में ध्यान के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है। डॉ. हरचरण िंसह सोबती द्वारा सम्पादित पुस्तक (विपश्यना—द बुद्धिस्ट वे) में समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठान, प्रधान, निमित्त, आरम्भ, लवखण आदि शब्दों को ध्यान के लिये प्रयुक्त किया गया है। डा. सोबती की इस पुस्तक में ध्यान के लिए प्रयुक्त ये सारे शब्द बौद्ध साधना का उल्लेख करने वाले ग्रंथों से संकलित किये गये हैं। यहां पर ध्यान समाधि प्रधान पारिभाषिक शब्द है परन्तु ध्यान का क्षेत्र समाधि की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। इस सम्बन्ध में डॉ. भागचन्द जैन के विचारों को उद्घृत किया जा सकता है। उनका मानना है कि समाधि जहाँ मात्र कुशल धर्मों से सम्बद्ध है वही ध्यान कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार के भावों को ग्रहण करता है। अत: समाधि की अपेक्षा ध्यान का क्षेत्र बड़ा है। इतना होते हुये भी ध्यान और साधना में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इन दोनों को पृथक् नहीं किया जा सकता है। क्योंकि अर्हत् पद की प्राप्ति के लिये कुशल और अकुशल कर्मों के विभेद को जानकर कर्म—परम्परा से मुक्त हुआ जाता है। इन दोनों के स्वरूप को समझने के लिये ध्यान एवं समाधि दोनों का अभ्यास करना ही पड़ेगा। बौद्ध—परम्परा में ध्यान के दो भेद मिलते हैं—(क) आरम्भण उपनिज्झण (ख), लक्खण उपनिज्झण। आरम्भण उपनिज्झण के दो भेद हैं—रूपावचण एवं अरूपावचण। लक्खण उपनिज्झण के तीन उपभेद हैं। ध्यान की साधना में रूपावचण एवं अरूपावचण का अधिक महत्व है। इनके पुन: ४—४ भेद किये गये हैं। रूपावचण एवं अरूपावचण ध्यान का अभ्यास करने से साधक परिशुद्ध होता है। क्योंकि इनकी सहायता से साधक अपने नीवरणों को शान्त करता है। नीवरणों के शान्त होने पर साधक का चित्त एकाग्र होता है। यही एकाग्रता उसे लोकोत्तर स्थिति की प्राप्ति में सहायक बनती है। निविरणों की संख्या पाँच मानी गई है—कामच्छन्द, व्यापाद, स्व्यानमृद्ध, औद्धत्य—कौकृत्य एवं विचिकित्सा।२६ विषयों के प्रति होने वाले अनुराग को कामच्छन्द कहा जाता है। नाना विषयों में प्रलुब्ध चित्त एक आलम्बन पर समाधिस्थ नहीं होता है। व्यापाद का अर्थ िंहसा से है। िंहसक भाव से युक्त चित्र अपने आलम्बन में निरन्तर प्रवर्तित नहीं हो पाता है। स्व्यानमृद्ध चित्त की अकर्मण्यता एवं आलस्य का परिचायक है। इसका कारण व्यक्ति के मन में उत्साह का अभाव पाया जाता है। चित्र में उत्पन्न खेद—पश्चाताप को औद्धव्य—कौकृत्य कहते हैं। इसका कारण व्यक्ति का मन अशान्त होकर भ्रम की स्थिति में रहता है। विचिकित्सा अर्थात् संशय। संशयग्रस्त चित्त ध्यान (समाधि) प्राप्ति के योग्य मार्ग को ग्रहण नहीं कर पाता है। रूपावचर एवं अरूपावचर ध्यान के अभ्यास से साधक पंचनिविरणों का भेदन कर देता है और चरमस्थिति को प्राप्त कर लेता है। ध्यान का मुख्य प्रतिपाद्य चित्र—वृत्ति, आलस्य संशय से मुक्त होकर परमसुख की अवस्था में विचरण करना है। यही अवस्था ध्यान के अभ्यास से निविरणों के नाश के पश्चात् प्राप्त होती है।
ध्यान का त्रिविध आयाम
ध्यान के तीन आयाम माने गये हैं—(क) शारीरिक, (ख) मानसिक और (ग) आध्यात्मिक। ध्यान का प्रथम प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यही कारण है कि साधना के क्षेत्र में शरीर का बहुत महत्व है। आत्मा का निवास शरीर में माना गया है तथा आत्म शक्ति का प्रकटन शरीर के माध्यम से ही व्यक्त होता है। आत्मशक्ति के प्रकटन में मनुष्य के मन का अपूर्व योगदान रहता है। मनुष्य में क्रोध, ईष्र्या, भय, द्वेष आदि विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इन मनोवृत्तियों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। इस तरह से अगर शरीर और मन की क्रियाओं को नियंत्रित कर लिया जाये तो व्यक्ति को आत्मशक्ति का आभास होने लगता है। यही कारण है कि ध्यान को शरीर, मन, आत्मा तीनों को प्रभावित करने वाला एक अनुपम साधन माना गया है। मानव शरीर विभिन्न तंत्रों से मिलकर बना है। प्रत्येक तंत्र का जीवन—यापन में अपना महत्व है। इन सारे तंत्रों में चेतना निरंतर प्रवाहित होती रहती है। चेतना की यह शक्ति बाहर की ओर प्रवाहित होती है और व्यर्थ चली जाती है। ध्यानाभ्यास के द्वारा बाह्यमुखी चेतना को अन्तर्मुखी बनाया जाता है। जब हम ध्यान का अभ्यास प्रारंभ करते हैं तो सर्वप्रथम शरीर की बाह्यशुद्धि पर बल दिया जाता है इसके उपरान्त आंतरिक शुद्धि की जाती है। आध्यात्मिक अवस्था की प्राप्ति हेतु इन्द्रिय निग्रह और मनोविग्रह दोनों ही आवश्यक है। क्योंकि जब तक यह नहीं होगा मन भटकता रहेगा और व्यक्ति एकाग्रचित नहीं हो पाएगा। बिना एकाग्रचित हुए वह पूर्णावस्था को नहीं प्राप्त कर सकता है जो कि ध्यान का परम लक्ष्य है। इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह करना आसान कार्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर आर्किषत होंगी हीं और मन उनमें से अपने अनुकूल विषयों का चुनाव करेगा ही। यही कारण है कि वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परम्पराओं में ध्यान के लिये इन्द्रियानिग्रह एवं मनोनिग्रह को आवश्यक माना गया है। विषय—वासनाओं से मुक्त होने के लिये सर्वप्रथम शरीर को ही तपाया जाता है। जैन परम्परा में तो कायक्लेश के रूप में १२ व्रतों के अंतर्गत शरीर को कष्ट देने की बात कही गई है। वैदिक परम्परा में यद्यपि इस हेतु विभिन्न प्रकार के आसनों का अवलंबन लेने का विधान अवश्य है, परन्तु इसे शारीरिक स्थिति में लंबे समय तक एक स्वरूप में टिकाएं रखने के लिए आवश्यक माना गया है। क्योंकि आसन को परिभाषित करते हुए पतंजलि ने यह स्पष्ट किया है कि जिस आसन में सुखपूर्वक लम्बे समय तक रहा जाये वही आसन है। पतंजलि की इस अवधारणा में चाहे जो भी तथ्य रहा हो, परन्तु विभिन्न प्रकार के आसनों का अभ्यास करने से शरीर को प्रारम्भ में थोड़ा बहुत कष्ट अवश्य होता है। यद्यपि बुद्ध ने कठोर ध्यानाभ्यास का निषेध किया, परन्तु जिस आसन में बैठी हुई उनकी मूर्तियाँ प्राप्त होती है उस अवस्था में आने के लिये शरीर को अत्यन्त श्रम करना पड़ता है। इन तीनों ही परम्पराओं में आसन का चाहे जो भी अभिप्राय रहा हो परन्तु इतना निश्चित है कि पहले इसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है तब इन्द्रिय और मन पर। ध्यानाभ्यास के क्रम में अपनाए जाने वाले आसनों का प्रयोग अत्यन्त सावधानी पूर्वक किया जाता है। इसका अभ्यास निष्णात आचार्यों की देखरेख में ही प्रारम्भ कराया जाता है। कारण अगर गलत विधि से आसनों का अभ्यास हो गया तो उसका दुष्प्रभाव शरीर के विभिन्न अंगों पर तो पड़ता ही है, कभी—कभी पंचज्ञानेन्द्रियाँ भी इससे अछूती नही रह पाती हैं। संभव है कि व्यक्ति अपंग एवं मानसिक रोगी भी बन सकता है। अत: जहाँ ध्यान शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य प्राप्ति का सबल साधन माना जाता है वहीं गलत अभ्यास के कारण उनकी विकृति का कारण भी बन जाता है। मानव का शरीर स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार का होता है। जिस शरीर को हम देख रहे हैं, वह स्थूल है। जो दिखाई नहीं पड़ता है वह सूक्ष्म है। सूक्ष्म और स्थूल शरीर के भीतर आत्मा स्थित है। आत्मा के कारण ही शरीर में चेतना का प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, इसलिये शरीर में संवेदन होता है। उस संवेदन से मनुष्य अपने स्वरूप को देखता है, अपने अस्तित्व को जानता है और अपने स्वभाव का अनुभव करता है। इस प्रकार शरीर में होने वाले चैतन्य के माध्यम से आत्मा को देखता है। ध्यान का अभ्यासी साधक पहले शरीर के बाह्य अंगों की साधना करता है तत्पश्चात् वह शरीर के आंतरिक अंगों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। शरीर के स्थूल और सूक्ष्म स्पन्दनों पर भी अपने चित्त को एकाग्र करता है। शरीरस्थित आत्मा के कारण शरीर के कण—कण में चैतन्य व्याप्त है। इसलिये शरीर को प्रत्येक कण से संवेदन होता है। ध्यान के द्वारा इस संवेदन को जगाया जाता है, क्योंकि पहले चैतन्य सुप्तावस्था में पड़ा रहता है। ध्यान के द्वारा शरीर का प्रत्येक अवयव, कण—कण जाग जाता है और चित्त के निर्देशों को स्वीकार करने के लिये तत्पर हो जाता है। यही जब जागृत चित्त मन के साथ मिल जाता है तब मूच्र्छा टूट जाती है। व्यक्ति अप्रमाद से मुक्त हो जाता है और शरीर और आत्मा के अन्तर को समझने लगता है। शरीर में ज्ञानतंतु और कर्मतंतु का जाल फैला हुआ है। इन्हीं तंतुओं की सहायता से व्यक्ति अपनी संवेदनाओं को ग्रहण करता है। शरीर में जो प्राण धारा का प्रवाह बह रहा है वह भी इन्हीं तंतुओं के आश्रय से ही है। ध्यान के द्वारा इन तंतुओं की कार्य प्रणाली को विकसित करके उसकी पूर्ण क्षमता का उपयोग किया जा सकता है। इन तंतुओं की क्षमता बढ़ने से चेतना पर छाए हुए आवरण को हटाया जा सकता है, प्राण—शक्ति के प्रवाह को संतुलित किया जा सकता है। व्यक्ति के शरीर में होने वाले रक्त—संचरण, मांस—पेशियों की सक्रियता में पर्याप्त संतुलन बनाया जाता है। इस संतुलन से व्यक्ति अभीष्ट शारीरिक एवं मानसिक लाभ प्राप्त करता है। फलस्वरूप वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से मुक्त होकर स्वस्थ जीवन जीता है। क्योंकि पेशियों एवं रक्त परिसंचरण में संतुलन बने रहने से व्यक्ति में रोग—प्रतिरोधक क्षमता का विकास संभव है। मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका मूल उद्गम स्थल है—ग्रंथि तंत्र। हमारे शरीर के दो नियामक तंत्र है—नाड़ीतंत्र और ग्रंथितंत्र। नाड़ीतंत्र में हमारी सारी वृत्तियाँ अभिव्यक्त होती हैं, अनुभव में आती हैं और फिर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार, अनुभव, अभिव्यक्तिकरण, ये सब नाड़ीतंत्र के काम हैं, किन्तु आदतों की उत्पत्ति ग्रंथि तंत्र में होती है। ये ग्रंथि तंत्र अन्त:स्रावी ग्रंथियाँ हैं। यहाँ आदतें जन्म लेतीहैं। वे मस्तिष्क के पास पहुँचती है, अभिव्यक्त होती हैं और व्यवहार में उतरती हैं। यही कारण है कि उसे न्यूरो—एण्डोक्राइन सिस्टम के नाम से जाना जाता है। उसका अर्थ है ग्रंथि तंत्र और नाड़ी तंत्र का संयुक्त कार्य तंत्र। यह संयुक्त तंत्र ‘अद्र्धचेतन मन’ (एल्ंम्दहेग्दल्े) का एक भाग है। यह मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है। यदि सही साधनों द्वारा इसे संतुलित किया जाए तो सभी अनिष्ट भावनाओं से मुक्ति मिल सकती है। नाड़ीतंत्र और ग्रंथितंत्र के संयुक्त कार्यविधि को प्रभावित करने के लिए ध्यानाभ्यास की पद्धति में शरीर के कुछ विशिष्ट अंगों यथा मेरुदंड के सबसे निचले भाग, नाभि—हृदय के पास, ललाट, सिर के ऊपरी भाग आदि पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। क्रोध, कलह, ईष्र्या, भय, द्वेष आदि के कारण ग्रंथियाँ विकृत होती है। कारण इस अवस्था में ग्रंथियों पर कार्य का भार बढ़ जाता है। जब ये सारी अनिष्ट भावनाएँ जागती हैं तब ग्रंथि—तंत्र को अतिरिक्त काम करना पड़ता है। इस तरह से ग्रंथियां अतिश्रम से थक कर शिथिल हो जाती है। ग्रंथियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। परिणामस्वरूप शारीरिक और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन आवेगों और भावनाओं पर नियंत्रण करें। आवेगों को समझदारी से समेंटे तथा ग्रंथियों पर अधिक भार न आने दें। ध्यानाभ्यास के क्रम में इस हेतु मौन, योगनिद्रा, आत्मनिरीक्षण आदि की साधना पर बल दिया जाता है। जब हमारी ग्रंथियां संतुलित रूप से अपना कार्य करती हैं तब हमारी ज्ञानात्मक, भावनात्मक, संवेगात्मक शक्ति का विकास होता जाता है। हम अध्यात्म की तरफ झुकते चले जाते हैं और हमारा चित्त निर्मल होता जाता है। इस तरह हम द्वन्दों से मुक्त परमानंद को प्राप्त कर लेते हैं।
सन्दर्भ
१. धर्मार्थकाममोक्षार्थै: समासव्यासकीर्तनै:। तथा भारतसूयेण नृणां विविहतं तम:।।, १/८५ महाभारत, आदि पर्व। अनु पं. रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय, गीताप्रेस, गोरखपुर आदि पर्व।
१४.चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं. जहा—अट्टेझाणे, रोद्देझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे, ४/१, स्थानांग, प्रधान संपा.—मुनि श्री मधुकरजी, श्री आगमप्रकाशनसमिति ब्यावर (राजस्थान), १९८१ १५. वही. ४/२७
१६.निष्क्रियं करणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् अन्तर्मुखं च यच्चित तच्छुक्लमिति पठयते ११,३९ / ४, १ ज्ञानार्णव, अनु.—पं. बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, १९७७
१७.अथ कष्टतप: स्पष्टव्यर्थक्लिष्टतनुर्मुनि:। भवभीरुरिमा: चव्रे बुद्धि बुद्धत्वकांक्षया ११, १००, बुद्धचरित उद्घृत, भारतीय योग परम्परा, पाण्डेय, पृ. २०१
१८. बुद्धचरित्त, धर्मानंद कोसंबी, जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबाद, १९३७, पृ. १८५, १९० बौद्धसंग्रह, पृ. ३०, उद्घृत, भारतीय योग परम्परा, लेखिका—डॉ. राजकुमारी पाण्डेय, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, १९९३, पृ. २०१।
१९.विसुद्धिमग्गो, गाथा १/३६, प्रथम भाग, संपा—पं. बदरीनाथ शुक्ल, पालि ग्रंथमाला, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, १९६१.
२०. सासने कुलपुत्तानं पतिट्ठा नत्थि यं बिना ११, १/२३, वही.
२१. चित्तैकाग्रतालक्षण: समाधि:।, ८/४ पंजिका पर, बोधिचर्यावतार, ले. —शान्तिदेव, प्र.—श्री परशुराम वैद्य, बौद्ध संस्कृत ग्रंथ, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०.
२२. विपश्यना तथाभूतपरिज्ञानस्वमावा प्रज्ञा।। वही., ८/४ की पंजिका पर