-गीता छंद-
सिद्धांत सिद्ध अनादि अनिधन, द्वीप नंदीश्वर कहा।
मुनि वंद्य सुरनर पूज्य अष्टम, द्वीप अतिशययुत महा।।
वहाँ पर चतुर्दिक शाश्वते, बावन जिनालय शोभते।
प्रत्येक में जिनबिंब इक सौ, आठ सुर मन मोहते।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय नंदीश्वर पर्व जगत् में, महापर्व कहलाता है।
जय जय बावन जिनमंदिर से, इंद्रों के मन को भाता है।।
जय जय जय रत्नमयी प्रतिमा, शाश्वत हैं आदि अंत विरहित।
जय जय प्रत्येक मंदिरों में, इक सौ अठ इक सौ आठ प्रमित।।२।।
चारों दिश में एकेक कहे, अंजनगिरि अतिशय ऊँचे हैं।
इनके चारों जिनमंदिर को, पूजत ही दु:ख से छूटे हैं।।
अंजनगिरि के चारों दिश में, बावड़ियाँ एक एक सोहें।
इन सोलह बावड़ियों के मधि, दधिमुख पर्वत सुरमन मोहें।।३।।
इनके सोलह जिनमंदिर की, हम नित्य वंदना करते हैं।
जिनप्रतिमाओं को प्रणमन कर, निज आत्म संपदा भरते हैं।।
सोलह बावड़ियों के बाहर, दो कोणों पर दो रतिकर हैं।
इन बत्तिस रतिकर पर्वत पर, शाश्वत जिनमंदिर रुचिकर हैं।।४।।
इन बत्तिस रतिकर मंदिर के, जिनबिंबों को मैं नित वंदूं।
चउ सोलह बत्तिस के मिलकर, बावन जिनगृह सबको वंदूं।।
अंजनगिरि नीलमणी सम हैं, दधिमुख नग दधिसम श्वेत कहे।
रतिकर नग स्वर्णिम वर्ण धरें, ये शाश्वत पर्वत शोभ रहे।।५।।
प्रत्येक वर्ष में तीन बार, आष्टान्हिक पर्व मनाते हैं।
सुरगण नंदीश्वर में जाकर, पूजा अतिशायि रचाते हैं।।
हम वहाँ नहीं जा सकते हैं, अतएव यहीं से नमते हैं।
वंदन परोक्ष से ही करके, भव भव के पातक हरते हैं।।६।।
चारणऋद्धी धर ऋषिगण भी, इन प्रतिमाओं को ध्याते हैं।
जिनवर के गुणमणि नित गाते, फिर भी नहिं तृप्ती पाते हैं।।
यद्यपि इनका परोक्ष वंदन, संस्तव है तो भी फल देता।
भावों से भक्ती की महिमा, परिणाम विशुद्धी कर देता।।७।।
मुनिराज भाव से शुक्लध्यान, ध्याते शिवपुरश्री पा जाते।
तब भला परोक्ष भक्ति करके, क्यों नहीं महान पुण्य पाते।।
जिनप्रतिमा िंचतामणि पारस, जिनप्रतिमा कल्पवृक्ष सम हैं।
ये केवल ‘‘ज्ञानमती’’ देने, में भी तो अतिशय सक्षम हैं।।८।।
-दोहा-
नंदीश्वरवरद्वीप में, अकृत्रिम जिन सद्म।
उनमें जिनप्रतिमा अमल, नमूँ नमूँ पदपद्म।।९।।
नंदीश्वरवर द्वीप की, महिमा अपरंपार।
जो श्रद्धा से नित नमें, पावें सौख्य अपार।।१०।।