-अडिल्ल छंद-
नंदीश्वर वर द्वीप आठवाँ जानिये।
तामें दक्षिण दिश तेरह नग मानिये।।
तिन तेरह पे अकृत्रिम जिनसद्म हैं।
वंदूं मन वच काय हरे वसु कर्म हैं।।१।।
-कुसुमलता छंद-
नंदीश्वर के दक्षिण दिश में, मधि ‘‘अंजनगिरि’’ तुुंग महान।
इंद्रनीलमणि सम छवि ऊपर, नित्य निरंजन का गृह मान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त२ परमस्थान।।२।।
अंजनगिरि के पूरब ‘‘अरजा’’, वापी सजल कमल की खान।
ताके मधि ‘‘दधिमुख’’ पर्वत पर, जिनमंदिर अविचल सुख दान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।३।।
अंजन नग दक्षिण दिश वापी, ‘‘विरजा’’ कही अमल जल खान।
मध्य अचल ‘‘दधिमुख’’ के उâपर, जिन चैत्यालय पावन जान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नित प्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।४।।
अंजन नग पश्चिम दिश वापी, नाम ‘‘अशोका’’ शुच अपहार।
बीच अचल ‘‘दधिमुख’’ के ऊपर, शोक रहित जिनगृह सुखकार।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।५।।
उत्तर दिश में अंजनगिरि के, वापि ‘‘वीतशोका’’ अमलान।
‘‘दधिमुख’’ पर्वत शाश्वत उस पर, वीतशोक जिनमंदिर जान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।६।।
‘‘अरजाद्रह’’ ईशान कोण पर, ‘‘रतिकर’’ पर्वत सुंदर जान।
अकृत्रिम जिन चैत्यालय में, रतनमयी जिनबिंब महान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।७।।
‘‘अरजा’’ वापी अग्निकोण में, ‘‘रतिकर’’ दुतिय स्वर्णद्युतिमान।
अकृत्रिम जिनमंदिर सुंदर, जिनप्रतिमा सब सौख्य निधान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।८।।
‘‘विरजावापी’’ आग्नेय पर, ‘‘रतिकर’’ नग अद्भुत मणिमान।
सिद्धकूट जिननिलय अकृत्रिम, मणिमय जिन१ आकृति शिवदान।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।९।।
‘‘विरजावापी’’ नैऋत दिश में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत पीत सुहाय।
परमपुण्य जिनभवन अकृत्रिम, जिनवर छवि वरणी नहिं जाय।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१०।।
नाम ‘‘अशोकाद्रह’’ नैऋत में, ‘‘रतिकर’’ पर्वत अतुल निधीश।
रत्नमयी जिनमहल अनूपम, जिनवरप्रतिमा त्रिभुवन ईश।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।११।।
वापि ‘‘अशोका’’ वायवदिश में, ‘‘रतिकर’’ नग शोभे स्वर्णाभ।
परमपूत जिनवेश्म अमल है, श्री जिनबिंब अतुल रत्नाभ।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१२।।
वापी सजल ‘‘वीतशोका’’ के, वायुकोण ‘‘रतिकर’’ रतिनाथ।
रतिपति विजयी जिनमंदिर में, रुचिकर जिनछवि त्रिभुवननाथ।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१३।।
वीतशोकद्रह में ईशान पर, रतिकर पीतवर्ण मणिकांत।
अकृत्रिम जिनआलय दुखहर, जिनवरबिंब सौम्यछवि शांत।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१४।।
अंजनगिरि इक दधिमुख नग चउ,रतिकर पर्वत आठ कहाय।
इन तेरह पर तेरह मंदिर, मन वच तन से वंदू आय।।
मन वच तन से शीश नमाकर, नितप्रति नमूं करूँ गुण गान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्त परमस्थान।।१५।।