-गीताछंद-
वर द्वीप नंदीश्वर सुअष्टम, तीन जग में मान्य हैं।
बावन जिनालय देवगण से, वंद्य अतिशयवान हैं।।
पूरब दिशा के जैनगृह, तेरह उन्हों की वंदना।
वंदूं यहाँ जिनबिंब को, नितप्रति करूँ जिन वंदना।।१।।
-रोला छंद-
नंदीश्वर वरद्वीप, पूरबदिश मधि जानो।
अंजनगिरि गुण नाम, अतिशय रम्य बखानो।।
ईश निरंजन सिद्ध, प्रभु का निलय कहा है।
वंदूं मन वच काय, मन संताप दहा है।।२।।
अंजनगिरि के चार, दिश में चउ द्रह१ जानो।
नीर भरे कमलादि, कुमुदों से पहचानो।।
पूरब नंदा वापि दधिमुख नग२ जिनगेहा।
वंदूं मन वच काय, मेटूं मन संदेहा।।३।।
नंदवती द्रह माहिं, दधिमुख दधिसम सोहे।
तापे जिनवर धाम, सुर किन्नर मन मोहे।।
तिन में श्रीजिनबिंब, सुवरण रतनमयी हैं।
वंदू मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।४।।
नंदोत्तरा सुवापि, मधि दधिमुख नग भारी।
पश्चिम दिश में जान, लख योजन द्रह भारी।।
तापे श्रीजिनधाम, शाश्वत सिद्ध सही है।
वंदूं मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।५।।
नंदीघोषा वापि, उत्तरदिश में जानो।
तामधि दधि मुख अद्रि, उसपे जिनगृह मानो।।
त्रिभुवनपति जिनबिंब, अनुपम रत्नमयी हैं।
वंदूं मन वच काय, पाऊँ मोक्ष मही है।।६।।
-नरेन्द्र छंद-
नंदा द्रह ईशान कोण में, रतिकर नग स्वर्णाभा
ताके ऊपर शाश्वत अनुपम, जिनमंदिर रत्नाभा।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।७।।
नंद्रा द्रह आग्नेय दिशा में रतिकर दुतिय कहा है।
तापे इंद्रवंद्य जिनमंदिर, अतिशय रम्य कहा है।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।८।।
नंदवती द्रह अग्निकोण में, रतिकर तृतीय सुहाता।
तापे विश्ववंद्य जिनमंदिर, इंद्रादिक मन भाता।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।९।।
नंदवती वापी नैऋत्य में, रतिकर नग अतिसोहे।
अविचल श्री जिनआलय तापे, सुरवनिता मन मोहे।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१०।।
पश्चिमवापी नंदोत्तर है, नैऋतकोण सुहावे।
रतिकर नगपर रत्नखचित श्री, जिनमंदिर मन भावे।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।११।।
वापी नंदोत्तरा अपरदिश, ता वायव्यदिशा में।
रतिकर स्वर्ण अचल के ऊपर, जिनमंदिर अभिरामें।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुं जग त्राता।।१२।।
नंदीघोषा वापी विदिशा, वायु कोण में जानो।
रतिकर पर्वत पर अकृत्रिम, जिनमंदिर मन मानो।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१३।।
द्रह नंदीघोषा ईशाने, रतिकर पीत सुहाता।
तापे रत्नखचित चैत्यालय, वंदत मन हरषाता।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१४।।
अंजनगिरि दधिमुख औ रतिकर, सब मिल तेरह माने।
पूरबदिश में इन तेरह पर, जिनगृह सिद्ध बखाने।।
रतिपतिविजयी जिनप्रतिमा हैं, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, वंदूं तिहुँ जग त्राता।।१५।।
-दोहा-
तेरह जिनगृह पूर्वदिश, वंदूं चित्त लगाय।
तेरह१ विध चारित्र की, पूर्ति करो जिनराय।।१६।।