णंदीसरबहुमज्झे पुव्वदिसाए हुवेदि सेलवरो।
अंजणगिरि त्ति खादो णिम्मलवरइंदणीलमओ।।५७।।
जोयणसहस्सगाढो चुलसीदिसहस्समेत्तउच्छेहो।
सव्विंस्स चुलसीदीसहस्सरुंदो य समवट्टो।।५८।।
१०००। ८४००० । ८४०००।
मूलम्मि य उवरिम्मि य तडवेदीओ विचित्तवणसंडा।
वणवेदीओ तस्स य पुव्वोदिदवण्णणा होंति।।५९।।
चउसु दिसाभागेसुं चत्तारि दहा भवंति तग्गिरिणो।
पत्तेक्कमेक्कजोयणलक्खपमाणा य चउरस्सा।।६०।।
१०००००।
जोयणसहस्सगाढा टंकुक्किण्णा य जलयरविमुक्का।
फुल्लंतकमलकुवलयकुमुदवणामोदसोहिल्ला।।६१।।
१०००।
णंदाणंदवदीओ णंदुत्तरणंदिघोसणामाओ।
एदाओ वावीओ पुव्वादिपदाहिणकमेणं।।६२।।
असोयवणं पढमं णं सत्तच्छदचंपयाण विउणाणिं।
चूदवणं पत्तेक्कं पुव्वादिदिसासु चत्तारि।।६३।।
जोयणलक्खायामा तदद्धवासा भवंति वणसंडा।
पत्तेक्कं चेत्तदुमा वणणामजुदा वि एदाणं।।६४।।
वावीणं बहुमज्झे दधिमुहणामा भवंति दधिवण्णा।
एक्केक्का वरगिरिणो पत्तेक्कं अयुदजोयणुच्छेहो।।६५।।
१००००।
तम्मेत्तवासजुत्ता सहस्सगाढम्मि वज्जसमवट्टा।
ताणोवरिमतडेसुं तडवेदीवरवणाणि विविहािंण।।६६।।
१०००० । १०००।
वावीण बाहिरेसुं दोसुं कोणेसु दोण्णि पत्तेक्कं।
रतिकरणामा गिरिणो कणयमया दहिमुहसरिच्छा।।६७।।
जोयणसहस्सवासा तेत्तियमेत्तोदया य पत्तेक्कं।
अड्ढाइज्जसयाइं अवगाढा रतिकरा गिरिणो।।६८।।
१०००। १०००। २५०
ते चउचउकोणेसुं एक्केक्कदहस्स होंति चत्तारि।
लोयविणिच्छियकत्ता एवं णियमा परूवेंति।।६९।।
पाठान्तरम्।
एक्कचउक्कट्ठंजणदहिमुहरइयरगिरीण सिहरम्मि।
चेट्ठदि वररयणमओ एक्केक्कजििंणदपासादो।।७०।।
जं भद्दसालवणजिणपुराण उस्सेहपहुदि उवइट्ठं।
तेरसजिणभवणाणं तं एदाणं पि वत्तव्वं।।७१।।
जलगंधकुसुमतंदुलवरचरुफलदीवधूवपहुदीणं।
अच्चंते थुणमाणा जििंणदपडिमाणि देवाणं।।७२।।
जोइसियवाणवेंतरभावणसुरकप्पवासिदेवीओ।
णच्चंति य गायंति य जिणभवणेसुं विचित्तभंगेिंह।।७३।।
भेरीमद्दलघंटापहुदीिंण विविहदिव्ववज्जाणिं।
वायंते देववरा जिणवरभवणेसु भत्तीए।।७४।।
एवं दक्खिणपच्छिमउत्तरभागेसु होंति दिव्वदहा।
णवरि विसेसो णामा पउमिणिसंडाण अण्णण्णा।।७५।।
पुव्वादिसुं अरज्जा विरजासोका य वीदसोक त्ति।
दक्खिणअंजणसेले चत्तारो पउमिणीसंडा।।७६।।
विजय त्ति वइजयंती जयंतिअपराजिदा य तुरिमाए।
पच्छिमअंजणसेले चत्तारो कमलिणीसंडा।।७७।।
रम्मारमणीयाओ सुप्पहणामा य सव्वदोभद्दा।
उत्तरअंजणसेले पुव्वादिसु कमलिणीसंडा।।७८।।
एक्केके पासादा चउसट्ठिवणेसु अंजणगिरीणं।
धुव्वंतधयवडाया हवंति वररयणकणयमया।।७९।।
नंदीश्वरद्वीप के बहुमध्यभाग में पूर्व दिशा की ओर अंजनगिरि इस नाम से प्रसिद्ध निर्मल उत्तम इन्द्रनीलमणिमय श्रेष्ठ पर्वत है।।५७।। यह पर्वत एक हजार योजन गहरा, चौरासी हजार योजन ऊँचा और सब जगह चौरासी हजार योजनमात्र विस्तार से सहित समवृत्त है।।५८।। अवगाह १००० । उत्सेध ८४००० । विस्तार ८४०००।
उसके मूल व उपरिम भाग में तटवेदियां व विचित्र वनखण्ड स्थित हैं। उसकी वन—वेदियों का वर्णन पूर्वोक्त वेदियों के ही समान है।।५९।। उस पर्वत के चारों ओर चार दिशाओं में चौकोण चार द्रह है। इनमें से प्रत्येक एक लाख योजन विस्तार वाले एवं चतुष्कोण हैं।।६०।। विस्तार १००००० योजन। फूले हुए कमल, कुवलय और कुमुदवनों की सुगन्ध से शोभित ये द्रह एक हजार योजन गहरे, टंकोत्कीर्ण एवं जलचर जीवों से रहित हैं।।६१।। गहराई १००० योजन। नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा नामक ये चार वापिकायें पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिण रूप से स्थित हैं।।६२।।
पूर्वादिक चारों दिशाओं में से प्रत्येक में प्रथम अशोकवन, सप्तच्छद और चम्पक वन एवं आम्रवन ये चार वन हैं।।६३।। ये वनखण्ड एक लाख योजन लंबे और इससे आधे विस्तार से सहित है। इनमें से प्रत्येक वन में वनके नाम से संयुक्त चैत्यवृक्ष हैं।।६४।। वापियों के बहुमध्यभाग में दही के समान वर्णवाले एक एक दधिमुख नामक उत्तम पर्वत हैं। इनमें से प्रत्येक पर्वत की ऊँचाई दश हजार योजन प्रमाण है।।६५।।१००००।
उतनेमात्र (दश हजार योजन) विस्तार से सहित उक्त पर्वत एक हजार योजन गहराई में वङ्कामय व गोल हैं। इनके उपरिम तटों पर तटवेदियाँ और विविध प्रकार के वन हैं।।६६।। व्यास १००००। अवगहा १०००।
वापियों के दोनों बाह्य कोनों में से प्रत्येक में दधिमुखों के सदृश सुवर्णमय रतिकर नामक दो पर्वत हैं।।६७।। प्रत्येक रतिकर पर्वत का विस्तार एक हजार योजन, इतनी ही ऊँचाई और अढ़ाई सौ योजन प्रमाण अवगाह है।।६८।।
व्यास १०००। उदय १०००। अवगाह २५०।
वे रतिकर पर्वत प्रत्येक द्रह के चार चार कोनों में चार होते हैं, इस प्रकार लोकविनिश्चयकर्ता नियम से निरूपण करते हैं।।६९।। पाठान्तर।
एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक एक जिनेन्द्र मन्दिर स्थित है।।७०।।
भद्रशालवन के जिनपुरों की जो ऊँचाई आदि बतलाई है, वही इन तेरह जिनभवनों की भी कहना चाहिये।।७१।।
इन मन्दिरों में देव, जल, गन्ध, पुष्प, तंदुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादिक द्रव्यों से जिनेन्द्रप्रतिमाओं की स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं।।७२।।
ज्योतिषी, वानव्यन्तर, भवनवासी और कल्पवासी देवों की देवियाँ इन जिनभवनों में विचित्र रीति से नाचती और गाती हैं।।७३।।
जिनेन्द्रभवनों में उत्तम देव भक्ति से भेरी, मर्दल और घंटा आदि अनेक प्रकार के दिव्य बाजों को बजाते हैं।।७४।। इस प्रकार पूर्वदिशा के समान ही दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भागों में भी दिव्य द्रह हैं। विशेष इतना है कि इन दिशाओं में स्थित कमलयुक्त वापियों के नाम भिन्न भिन्न हैं।।७५।।
दक्षिण अंजनगिरि की पूर्वादिक दिशाओं में अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका नामक चार वापिकायें हैं।।७६।।
पश्चिम अंजनगिरी की चारों दिशाओं में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और चौथी अपराजिता, इस प्रकार ये चार वापिकायें हैं।।७७।।
उत्तर अंजनगिरि की पूर्वादिक दिशाओं में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नामक चार वापिकायें हैं।।७८।।
अंजनगिरियों के चौंसठ वनों में फहराती हुई ध्वजा—पताकाओं से संयुक्त उत्तम रत्न एवं सुवर्णमय एक एक प्रासाद है।।७९।।
भावार्थ—नंदीश्वर द्वीप में चारों दिशाओं में चार—चार बावड़ी के चारों ओर चार—चार वन—उद्यान ऐसे ६४ उद्यान हैं। इनमें चौंसठ चैत्यवृक्ष हैं।