जैनधर्म के चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने आज से २६०० वर्ष पूर्व बिहार प्रान्तस्थ कुण्डलपुर नगरी में महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला देवी की पवित्र कुक्षि से जिस सात खण्ड वाले नंद्यावर्त महल में जन्म लिया था उसके बारे में उत्तरपुराण ग्रंथ में आया है कि-
नंद्यावर्तगृहे रत्नदीपिकाभिः प्रकाशिते। रत्नपर्यंकके हंसतूलकादिविभूषते।।२५४।। पृ. ४६०।।
अर्थात् सात खण्ड वाले राजमहल के भीतर रत्नमय दीपकों से प्रकाशित नंद्यावर्त महल नामक राजभवन में हंस-तूलिका आदि से सुशोभित रत्ननिर्मित पलंग पर रानी त्रिशला सो रही थीं अर्थात् तीर्थंकर भगवान महावीर की माता का तो शयन करने वाला पलंग ही स्वर्ण और रत्ननिर्मित था। रातदिन स्वर्ग की देवियाँ उनकी सेवा करती थीं,साक्षात् इन्द्र और देवगण भगवान के समक्ष किंकर बनकर खड़े रहते थे, जिस नगरी में लगातार १५ महिने तक प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की वृष्टि स्वयं कुबेर करता था, वह कुण्डलपुर नगरी अत्यन्त समृद्ध थी जहाँ वीर प्रभु का जन्म हुआ था। वास्तव में तीर्थंकर महापुरुष श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ महापुरुष होते हैं उनका जन्मस्थान ही पूज्य नहीं होता, वह तिथि, वह समय, वह महल, वह काल भी मंगल एवं पावन हो जाता है जब और जहाँ उनके पंचकल्याणक हुए हों क्योंकि मानसरोवर के कारण हंस को गौरव नहीं मिलता है, हंस के कारण मानसरोवर सन्मान का पात्र बनता है, हंस जहाँ रहता है वही स्थल महत्वपूर्ण होता है। उसी पवित्र कुण्डलपुर में भगवान महावीर के पिता महाराजा सिद्धार्थ राज्य करते थे और भगवान महावीर राजपुत्र थे। भगवान का मातृपक्ष भी राजवंश था। इस प्रकार जाति तथा कुल की दृष्टि से वे महान थे। भगवान के पितामह (बाबा) का नाम था सर्वार्थ तथा सर्वार्थ महाराज की महारानी का नाम श्रीमती था। हरिवंशपुराण में लिखा है-
सर्वार्थ-श्रीमती-जन्मा तस्मिन्-सर्वार्थदर्शनः। सिद्धार्थोऽभवदर्काभो भूपः सिद्धार्थ-पौरुषः।।१३-२।।
अर्थात् कुण्डलपुर के स्वामी राजा सर्वार्थ एवं रानी श्रीमती से उत्पन्न समस्त पदार्थों का दर्शन करने वाला, सूर्य के समान तेजस्वी तथा समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाला राजा सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ राजा आदर्श शासक थे। जिनसेन आचार्य कहते हैं-
यत्र पाति धरित्रीय-मभूदेकत्र-दोषिणी। धर्मार्थिन्योपि संयुक्त-परलोकभयाः प्रजा।।१४-२।।
अर्थात् जिस समय सिद्धार्थ नरेश ने पृथ्वी की रक्षा की थी, उस समय प्रजा में कोई दोष नहीं था, हाँ! एक दोष अवश्य था कि प्रजा परलोक से डरती थी अर्थात् वह आगामी जीवन सुधार के विषय में पूर्ण सावधान थी। महाकवि के ये शब्द यथार्थ और महत्वपूर्ण हैं-
कस्तस्य तान् गुणानुद्यान्नरस्तुलयितुं क्षमः। वर्धमान-गुरुत्वं यः प्रापितः स नराधिप:।।१५-२।।
अर्थ-ऐसी सामथ्र्य किस पुरुष में है जो राजा सिद्धार्थ के उन्नत गुणों की तुलना कर सके, क्योंकि अपने गुणों की महिमा से राजा सिद्धार्थ त्रिलोकीनाथ वर्धमान महावीर के पिता बन गए थे। महानुभावों! बिहारप्रांत में जिस कुण्डलपुर नगरी को आज से २६०० वर्ष पूर्व इन्द्र एवं देवताओं ने सजाया था, जहाँ सात मंजिल का सुन्दर स्वर्णमयी नंद्यावर्त महल देव कारीगरों ने बनाया था। जहाँ नाथवंशी राजा सर्वार्थ और रानीश्रीमती के पुत्र राजा सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला के साथ रहा करते थे। जिस नंद्यावर्त महल में रानी त्रिशला मणियों के पलंग पर शयन करती थीं। जहाँ उन्होंने सोलह सपने देखे और अपने पति राजा सिद्धार्थ से उनके फल में तीर्थंकरपुत्र की माता बनने की जानकारी प्राप्त की थी। जहाँ २६००वर्षों पूर्व लगातार १५ महीने तक धनकुबेर ने प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्न बरसाए थे। जहां चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को महावीर का जन्म होते ही राजा सिद्धार्थ ने किमिच्छक दान बाँटा था और इन्द्रों ने बड़े वैभव के साथ पहले सुमेरु पर्वत पर पश्चात् कुण्डलपुर में आकर जन्मोत्सव मनाया था। जहां बालक वीरप्रभू को पालने में झूलते देखने मात्र से दो महामुनियों की सूक्ष्म शंका दूर हुई जिससे उन्होंने बालक वीर प्रभू को ‘‘सन्मति’’ नाम से अलंकृत किया था। जहां बाल्यावस्था में वर्धमान को बगीचे में खेलते देखकर संगम देव ने उनके बल की परीक्षा हेतु सर्प का रूप बनाया किन्तु पराजित हो प्रभु की स्तुति कर ‘‘महावीर’’ यह सार्थक नाम रखा था। जहां महावीर ने देवताओं द्वारा लाए दिव्य भोजनादि सामग्री को ग्रहण कर तेजस्वी सूर्य की भांति युवावस्था को प्राप्त किया था। जहाँ माता त्रिशला के सांसारिक अरमानों को ठुकराकर महावीर ने भरे यौवन में तलवार की धार के समान जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प लिया था। जहां एक भवावतारी लौकान्तिक देवों ने भी पधारकर महावीर के वैराग्यभाव की भूरि-भूरि प्रशंसा एवं अनुमोदना की थी तथा जिस कुण्डलपुर नगरी की पवित्र भूमि के कण-कण भगवान महावीर के त्याग-वैराग्य का संदेश दे रहे हैं वह नंद्यावर्त महल और वह नगरी आज काल के थपेड़ों से २६०० वर्षों के बाद वैभवहीन भले ही हो गयी किन्तु यहाँ की ऐतिहासिकता एवं पवित्रता की प्रसिद्धि के कारण पूरे देश की दिगम्बर जैन जनता अपने प्रभु की जन्मभूमि की वंदना हेतु आज भी श्रद्धापूर्वक आती है और वर्तमान में जैन समाज के सौभाग्य से उस तीर्थ का विकास कार्य पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से चल रहा है। शीघ्र ही शासनपति प्रभु महावीर की यह जन्मभूमि अपने २६०० वर्ष पूर्व के इतिहास का साकार रूप लेकर उन महामना के सिद्धान्तों की अनुगूंज से अहिंसा एवं सदाचार का संदेश विश्व को प्रदान करेगी।