नकली चीजों को असली कहकर और बढ़िया में घटिया चीज मिलाकर बढ़िया के नाम पर बेचना प्राचीनकाल से नैतिक अपराध माना जाता है। आजकल तो इसके खिलाफ कानून भी बन गये हैं नकली चीजों का प्रभाव जब देश की आर्थिक और शारीरिक अवस्था पर पड़ता है तो उसका परिणाम बड़ा ही भयंकर और घातक होता है। इससे समाज का सारा आर्थिक ढांचा अस्तव्यस्त हो जाता है तथा दुर्बलता और शारीरिक रोगों के बढ़ने से देश में लोग निर्धन, निर्बल और निकम्मे बन जाते हैं।
नकली घी—दूध पशुओं के लिए घातक क्यों ?
मूंगफली, बिनौले तथा सस्ता हो तो मछली के तेल को भी कास्टिक सोडे से तेल की गंध को उड़ाकर तथा निकल और हाइड्रोजन गैस को ठण्डा कर और सफेद करके शुद्ध घी के खरीददारों को धोखा देने के लिए ब्यूट्रिक एसिड और सिंथेटिक एसेंस द्वारा उसको घी जैसा दानेदार और सुगंधित कर देते हैं। कुछ कारखाने शुद्ध घी में आसानी से मिलावट करने के उद्देश्य से नकली घी को गाय का घी बनाने के लिए पीला भैंस का घी बनाने के लिए हल्का हरा या नीला रंग उसमें डाल देते हैं । उसमें चिकनाई विशेष नहीं होती। एक साधारण बुद्धि का आदमी भी यह समझ सकता है कि तेल की गंध उडाने, घी जैसा रंग—दाना और सुगंध देने से उसमें कोई पौष्टिक तत्व पैदा नहीं हो जाता, बल्कि शुद्ध तेल की अपेक्षा यह नकली घी या बिगाड़ा हुआ तेल, स्टिअरिक ग्लिसरिन का अधिक भाग रहने के कारण पचता नहीं , बेकार चला जाता है या स्वास्थ्य को हानि पहुंचाता है। भारत सरकार के विशेषज्ञ डॉ. राइट ने अपनी रिपोर्ट के पृष्ठ ३४ पर लिखा है— नकली घी बनाने वालों का सम्प्रति ९०./. मिलावट के काम में आता है। यह नकली घी इस प्रकार या तो शुद्ध घी के रूप में बिकता है या मिलावट में काम देता है। शुद्ध घी के भाव को सस्ता करके किसानों की आय को नुकसान पहुंचाता है। ८ जनवरी, १९४० के ‘हरिजनसेवक’ में श्री पन्नालाल के पत्र के उत्तर में महात्मा गांधी लिखते हैं—भारत के पशुधन की रक्षा का सवाल एक बड़ी और पेचीदगियों से भरी हुई आर्थिक समस्या है। इनमें घी की मिलावट भी एक पेचीदगी है, जो सदा से आ रही है। पिछले कुछ वर्षों से यह खतरा बढ़ता जा रहा है। इसका कारण देश में सस्ते वनस्पति तेल का आना है। यह तेल गलती से घी—जैसा दिखने लगता है।’ श्री पन्नालाल का कहना है कि घी— दूध के व्यापारी और दलाल असली घी में मिलावट करके किसान या ग्वाले से सस्ते दर में बेचते हैं । उनका यह भी कहना है कि यह शरारत बहुत दिनों तक चलती रही तो किसानों का इस स्पर्धा में टिकना असंभव हो जायेगा। क्योंकि वनस्पति घी बम्बई और दूसरे स्थानों में थोक तैयार किया जा रहा है। आगे चलकर श्री पन्नालाल कहते हैं कि असली घी बाजार से जाता रहा तो गाड़ी और हल चलाने के लिए बैलों की नस्ल सुधारे और दूध—घी का काम किए बिना खेती का धंधा असम्भव हो जाएगा। इसलिए श्री पन्नालाल ने सुझाया है कि मिलावट रोकने के लिए कठोर उपाय सोचने चाहिए।
नकली दूध—घी
दूध में पानी की मिलावट होती थी और यह मिलावट जांच द्वारा पकड़ी जा सकती थी। और स्वास्थ्य के लिए भी अधिक हानिकारक न थी । पर आज तो मशीनों के प्रताप से नकली दूध भी तैयार होने लगा। (महायुद्ध के समय दूध की कमी के कारण सचमुच नकली दूध बनाया गया था जिसे लोहमंस वेजिटेबल मिल्क कहते थे। यह सोयाबीन तथा बादाम से बनाया गया था। भूरे रंग का तथा सुगंधित होता था।इसमें ७ प्रतिशत वनस्पति प्रोटीन, २५ प्रतिशत चर्बी और ४२ प्रतिशत शर्करा होती थी। इसका एक चम्मच एक पौंड जल में मिलाने पर अच्छा दूध जैसा बन जाता था।) बाद में नकली घी—दूध तैयार करने में कास्टिक सोडा, यूरिया, निकल जैसी विशैली चीजों का प्रयोग किया जाने लगा।
नकली घी के पक्ष में छह दलीलें
१. देश में शुद्ध घी की उत्पति आवश्यकता से बहुत ही कम है। इस कमी को पूरा करने के लिए घी जैसी किसी दूसरी चीज की जरूरत है जो सस्ती हो और जिसे गरीब भी खरीद सके।
२. शुद्ध घी में चर्बी आदि की जो मिलावट होती रही है वह न हो।
३. नकली घी को तैयार करने में काम आने वाली मूंगफली, बिनौले आदि चीजों की मांग बढ़ने से किसानों को ही लाभ पहुंचेगा।
४. नकली घी के कारखानों से मजदूरों को काम मिलता है और बेकारी दूर होती है।
५. संसार के अन्य उन्नत देशों में नकली घी जैसी चीज मागरीन बिकती है, फिर यहां नकली घी क्यों न हो ?
६. नकली घी से शुद्ध घी को कोई हानि नहीं ।
दूध दलीलों पर विचार
१. नकली घी सस्ता नहीं बल्कि महंगा और हानिकारक है। यह घी के नाम पर बिकता है लेकिन है तेल और वह भी शुद्ध नहीं बिगड़ा हुआ। स्वास्थ्य की दृष्टि से नकली घी की अपेक्षा शुद्ध तेल कहीं अच्छा होता है। नकली घी के विषय में यह मालूम ही नहीं रहता कि उसमें क्या—क्या मिलता है।
२. चर्बी तथा अन्य चीजों की मिलावट नि:संदेह अच्छी नहीं है। धार्मिक दृष्टि से भी नकली घी दोषपूर्ण है क्योंकि मछली के तेल के सस्ता होने पर वह उससे भी बनाया जाता है।
३. शुद्ध घी को पैदा करने के लिए पशुओं को बिनौला खिलाया जाता है और उसकी खपत नकली घी के कारखानों की मूंगफली और बिनौले की मांग से बहुत अधिक होती है।
४. शुद्ध घी के काम से करोड़ों किसानों का निर्वाह होता है।
५. यह ठीक है कि अन्य देशों में नकली घी की खपत है, परन्तु हमारे देश जैसे ही कृषि प्रधान देश कनाड़ा और दक्षिण अप्रतीका में इसके बनाने पर कानूनी रोक लगा दी गई है। हमारे देश में भी इस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए। ==
उपाय क्या ?
१. दुधारू पशुओं की रक्षा तथा उन्नति के द्वारा दूध—घी का उत्पादन बढाया जाए।
२. सरसों , तिल आदि के तेल, जो मूंगफली के तेल के समान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक न हों, उनको प्राकृतिक ढंग से शुद्ध करके तैयार करने और बैचने का प्रबंध हो।
३. नकली दूध घी— तैयार करने और बेचने के विरूद्ध जनमत तैयार किया जाए ।
४. नकली घी— दूध तैयार करने वाले कारखाने बंद कराए जाएं।
५. सन् १९४१ में सरकारी रिपोर्ट में लाभ की दृष्टि से नीचे लिखे उपाय बताए गए हैं :
(क) नकली घी की उत्पति पर कंट्रोल किया जाय, जिससे अधिक उत्पत्ति और आपसी प्रतिस्पर्धा कम हो।
(ख) अन्य देशों के समान यहां भी वन्सपति घी पर टैक्स लगाया जाय और वह तेलों और घी के उत्तम बनाने के लिए खर्च किया जाय,जिस प्रकार गन्ने की खेती को उन्नत करने के लिए चीनी पर टैक्स लगाया गया है।
(ग) वनस्पति घी तैयार करने वालों और बेचने वालों के लिये लायसेंस लेना आवश्यक हो। शुद्ध घी के व्यापारी को यह लायसेंस नहीं दिया जाय।
(घ) जो हलवाई या दुकानदार वनस्पति घी का प्रयोग करते हैं, वे अपनी दुकान के सामने वनस्पति का साइनबोर्ड अवश्य लगायें ।
(ड) घी और वनस्पति घी में मिलावट को अपराध मानकर जुर्माने और वैद की सजा दी जाय।
(च) वनस्पति घी में ब्यूट्रिक एसिड और सथेटिक एसेंस का मिलाना बंद कर दिया जाए। मिलावट को सहज ही पहचानने के लिए तिल का तेल मिलाना आवश्यक कर दिया जाए।
(छ) शुद्ध भोजन कानून को कड़ाई से लागू किया जाए। बार—बार अपराध करने वालों को अधिक दण्ड दिया जाय, जिससे दूसरों पर प्रभाव पड़े । यह सरकारी तजबीजें थी । पर दु:ख है कि इन पर अब तक कोई अमल नहीं किया गया। यदि इनके अनुसार भी कुछ काम होता तो बड़ा लाभ पहुंचता।
६. मक्खन निकाले हुए निद्य्रत चूर्ण का आयात बंद कर दिया जाए।
७. नकली घी तथा मक्खन निकाले हुए दूध का चूर्ण बनाया जाना या आना कानून द्वारा अग्राह्य कर दिया जाए।
८. देश के समाचार पत्र इस प्रकार के नकली घी तथा नकली दूध के विज्ञापन न छापें। (डि) लाला श्रीहरदेव सहाय जी