-दोहा-
चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
जिनगुण का वंदन करूँ, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।१।।
चाल-हे दीनबंधु………..
जय आठवाँ जो द्वीप नाम नंदिश्वरा है।
जय बावनों जिनालयों से पुण्यधरा है।
इक सौ तिरेसठ करोड़ लाख चुरासी।
विस्तार इतने योजनों से द्वीप विभासी।।२।।
चारों दिशा के बीच में अंजनगिरी कहा।
जो इंद्रनील मणिमयी रत्नों से बन रहा।।
चौरासी सहस योजनों विस्तृत व तुंग है।
जो सब जगह समान गोल अधिक रम्य है।।३।।
इन गिरि के चार दिश में चार वापियाँ कहीं।
जो एक लाख योजनों चौकोन जलमयी।।
पूर्वादि क्रम दिशा से नंदा नंदवती हैं।
नंदोत्तरा औ नंदिघोषा आदि कही हैं।।४।।
प्रत्येक वापियों में कमल फूल रहे हैं।
प्रत्येक के चउदिश में भी उद्यान घने हैं।।
अशोक सप्तपत्र चंप आम्र वन कहे।
पूर्वादि दिशा क्रम से अधिक रम्य दिख रहे।।५।।
दधिमुख अचल इन वापियों के बीच में बने।
योजन हजार दश उत्तुंग, विस्तृते इतने।।
प्रत्येक वापियों के दोनों बाह्यकोण में।
रतिकर गिरी हैं शोभते बत्तीस हैं इनमें।।६।।
योजन हजार एक चौड़े तुंग भी इतने।
सब स्वर्ण वर्ण के कहे रतिकर गिरी जितने।।
दधिमुख दधि समान श्वेत वर्ण धरे हैं।
ये बावनों ही अद्रि बहुत विभव भरे हैं।।७।।
इनमें जिनेन्द्र सद्म आदि अंत शून्य हैं।
जो सर्वरत्न से बने जिनबिंब पूर्ण हैं।।
उन मंदिरों में देव इंद्रवृंद जा सकें।
वे नित्य ही जिनेन्द्र की पूजादि कर सकें।।८।।
आकाशगामी साधु मनुज खग न जा सकें।
वे सर्वदा परोक्ष में ही भक्ति कर सकें।।
मैं भी यहाँ परोक्ष में ही नित नमन करूँ।
जिनमूर्तियों की बारबार वंदना करूँ।।९।।
प्रभु आपके प्रसाद से भवसिंधु को तरूँ।
मोहारिजीत शीघ्र ही जिनसंपदा वरूँ।।
हे नाथ! बार मेरी अब न देर कीजिए।
अज्ञानमती पूर्ण ज्ञानमती कीजिए।।१०।।
-दोहा-
नंदीश्वर के पूर्व दिश, जिनमंदिर जिनदेव।
उनको वंदूं भाव से, ‘‘ज्ञानमती’’ हित एव।।११।।