-दोहा-
नंदीश्वर वर द्वीप है, महातीर्थ सुखकार।
भवि आतम निर्मल करे, कर्म कीच अपसार१।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय नंदीश्वर महाद्वीप, सौ इन्द्र वंदना करते हैं।
प्रत्येक वर्ष में तीन बार, अष्टान्हिक पर्व उचरते हैं।।
आषाढ़ सुकार्तिक फाल्गुन में, अष्टमि से पूर्णा तक शुक्ला।
चारों निकाय के देव मिलें, वंदन कर करते भव सुफला।।२।।
सौधर्म इन्द्र ऐरावत इभ२, चढ़कर श्रीफल कर लाते हैं।
ईशान इंद्र हाथी पर चढ़, गुच्छे सुपारि के लाते हैं।।
सानत्कुमार सुरपति मृगपति, पर चढ़ आम्रों के गुच्छे ले।
माहेन्द्र श्रेष्ठ घोड़े पर चढ़, केलों को अच्छे अच्छे ले।।३।।
ब्रह्मेन्द्र हंस पर चढ़ करके, केतकी पुष्प कर में लाते।
ब्रह्मोत्तर इंद्र क्रौंच१ खग पर, चढ़ कमल हाथ में ले आते।।
शुक्रेन्द्र चकोर पक्षि पर चढ़, सेवंती कुसुम लिये आते।
तोता चढ़ महाशुक्र सुरपति, फूलों की माला को लाते।।४।।
कोयल पर चढ़ सुरपति शतार, कर नील कमल ले आते हैं।
अर सहस्रार सुर नाथ गरुड़, पर चढ़ अनार फल लाते हैं।।
आनत सुरपति विहगाधिप पर, चढ़ पनस फलों को लाते हैं।
प्राणत सुरपति तुंबरू फल ले, चढ़ पद्म विमान सु आते हैं।।५।।
पक्के गन्ने ले आरणेन्द्र, चढ़ कुमुद विमान वहाँ जाते।
कर धवल चंवर ले अच्युतेन्द्र, चढ़ मोर विमान वहाँ आते।।
ये चौदह२ इंद्र कल्पवासी, अगणित वैभव संग लाते हैं।
निज निज परिवार सहित चलते, निज-निज वाहन चढ़ आते हैं।।६।।
सुर आभियोग्य जाती के वे, इंद्रों के वाहन बनते हैं।
ऐरावत आदिक रूप बना, सुंदर वाहन से सजते हैं।।
ये इंद्र अतुल जिनभक्तीवश, कर में नरियल आदिक लाते।
जिनवर प्रतिमा के चरणों में, सुरतरु फल फूल चढ़ा जाते।।७।।
चारों निकाय के देव मिले, आठों दिन भक्ति करते हैं।
रात्रि दिन भेद रहित वहाँ पे, सु अखंडित अर्चा करते हैं।।
नर वहाँ नहीं जा सकते हैं, इसलिए यहीं पर अर्चें हैं।
वंदन भक्ति सब ही परोक्ष, करके भी भव से छूटे हैं।।८।।
-दोहा-
मैं भी श्रद्धा भक्ति से, वंदूं शक्ति न लेश।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मिले, जहाँ न भव संक्लेश।।९।।